प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, मेरा नाम छवी है। मेरा प्रश्न यह है कि जो पैट्रिआर्की है, मुझे पहले लगता था कि वो समस्या है। पर धीरे-धीरे पता चल रहा है कि जो बंधन है, वह मेरे मन में है। जब मैं उसको तोड़ने की कोशिश करती हूं, तो बहुत ज्यादा विरोध आता है। जैसे कि रात में जब समय हो जाता है 9:00 बजे के बाद, तो मुझे लगता है कि इस समय के बाद मुझे घर पर होना चाहिए। जब एक सर्टेन टाइम हो जाता है, तो अंदर से ही मन में विरोध आने लगता है।
इवन मेरे पेरेंट्स कुछ नहीं कह रहे हैं, बाहर से कोई रोक नहीं रहा है, पर मन ही रोक रहा है। यह चीज में, जैसे सिस्टर है छोटी, मैं उस पर भी वो डालने की कोशिश करती हूं। अगर जैसे वह बाहर है, वो जॉब करती है, अगर वो लेट आती है घर पे, तो उस चीज को भी मतलब मेरा मन रेजिस्ट करता है। मेरी कोशिश रहती है कि मैं उसको भी रोकूं, उसको ये कहूं कि नहीं, इतने टाइम पर उसको घर आ जाना चाहिए। मेरी मेन समस्या यही है कि जो पैट्रिआर्की है, वो मेरे मतलब मन में बहुत ज्यादा घर कर चुकी है। मैं कोशिश करती हूं कि लाइक मैं एक संस्कारी लड़की की तरह बिहेव करूं, चुप रहूँ, ज्यादा ना बोलूं, लोगों के सामने ना आऊं। यह मेरी मेन समस्या है।
आचार्य प्रशांत: ये पैट्रिआर्की, आपने दो-तीन बार कहा। पैट्रिआर्की क्या चीज है? ये कोई विचारधारा नहीं है। आप बोले, पैट्रिआर्की, मैट्रिआर्की, अलग-अलग तरह की विचारधारा; जैसे पूंजीवाद, साम्यवाद, ये इज्म, वो इज्म, ये वो नहीं है। मूलतः पैट्रिआर्की देह भाव है।
मैं कौन हूं? मैं शरीर हूं ठीक वैसे जैसे जानवर एक शरीर होता है। जानवर से आप पूछे, अपनी पहचान बताओ, तो कहेगा, "जैसा दिख रहा हूं, वैसा हूं।" खरगोश जैसा दिख रहा हूं, तो खरगोश ही हूं और दो खरगोश बहुत अलग-अलग नहीं हो सकते। आपको कोई पापी और कोई पुण्यात्मा खरगोश नहीं मिलेगा। कोई आपको जिराफ ऐसा नहीं मिलेगा, जो कहे कि "मेरी गर्दन भले ही टंगी हुई है, पर मैं भीतर से बहुत नमित हूं।" जिराफ, जिराफ एक जैसा होता है, क्योंकि दोनों का शरीर एक जैसा होता है। शेर और शेर एक जैसे होते हैं, क्योंकि दोनों का शरीर एक जैसा होता है। यह देह भाव है।
देह भाव का मतलब होता है, मेरी पूरी पहचान, मेरी हस्ती, मेरी जिंदगी, मेरा व्यवहार, मेरी सोच, मेरे संबंध, सब कुछ मेरी देह से निर्धारित होंगे। देह ही सब कुछ है। प्रकृति ने अगर शेर की देह को संस्कारित कर दिया है कि तू मांस ही खाएगा, तो आप उसको मांस के अलावा कुछ नहीं खिला सकते। संभव ही नहीं है।
देह भाव - जो मेरी देह कह रही है, उसके अलावा मैं कुछ नहीं करूंगा। गायों को ब्रिटेन में उनके भूसे-चारे में मिलाकर के मांस खिला दिया गया। वहां इतना ज्यादा मांस भक्षण होता है कि कई बार जो मांस के अवशिष्ट रह जाते हैं, रिमेंस, ऑफल जिसको आप बोलो, वो भूसे-चारे से सस्ता पड़ जाता है। तो उन्होंने सब मिला दिया आपस में। गायों को उन्होने गायों को खिला दिया। जो मैड काउ डिजीज थी, उसमें उसका बड़ा योगदान था। क्योंकि गायों के शरीर ने उस मांस को स्वीकार ही नहीं करा।
उनको धोखा देकर के खिला तो दिया मांस, पर उनके शरीर ने मांस को स्वीकार नहीं करा, गाय पागल हो गई। और गाय ऐसी पागल हुई कि वह बीमारी फिर गायों से निकलकर के मनुष्यों को भी लग गई। क्योंकि मनुष्य ने उन्हीं गायों का दूध पिया, उन्हीं गायों का मांस खाया, तो मनुष्य में भी फैल गई।
कहने का मतलब यह है कि पशुओं में देह ही सब कुछ होती है। बंदर के बच्चे को सिखाना नहीं पड़ता कि "चलो, एक टहनी को पकड़ के कूद जाओ, दूसरी टहनी पर झूल जाओ।" उसे पता है, ये उसकी प्रकृति है। खरगोश के छोटे-छोटे बच्चे पैदा होते हैं। मैंने इतने-इतने देखे, हथेली पर इसको रख लो। और जरा-सी अगर सरसराहट की आवाज हो, तो तुरंत अपने कान खड़े कर लेता है। इसको किसने सिखाया ये?
क्योंकि वह सरसराहट की आवाज का संबंध तुरंत किससे लगाता है? सांप से। और सांप, खरगोशों का बड़ा दुश्मन होता है। अब वो चार दिन पुराना खरगोश है, अभी चार दिन पहले पैदा हुआ है। लेकिन उसके पास ऐसा कुछ... उसको यहां पर रखा हुआ है मैंने हथेली पर, बोलो, तुरंत उसके कान खड़े हो जाएंगे। मैं उसे और कुछ बोलूं, "क,ख, गघ, अंगा, अहम् ब्रह्मास्मि," मजाल है कि सुने!
लेकिन वो पूरा का पूरा देह है। जैसे ही उसको बोला, "ओ! कौन है? किधर से आया?" कौन है? ये देह भाव। चेतना से कोई मतलब ही नहीं। तू मुझे मंत्र सुनाओ, श्लोक सुनाओ, दोहा सुनाओ, मैं कान नहीं धरूंगा। पर जैसे ही तुम बोलोगे, श..श..श (साँप की सरसराहट की ध्वनि), वैसे ही तुरंत मैं जग जाऊंगा। ये देह भाव है। अपने आप को चेतना ना मानना, मात्र देह मानना। खरगोश को आप कितने मंत्र सुना लो, कान तो उसके उसपर ही खड़े होते हैं।
शेर को आप एक से एक रसीले, रंगदार, स्वादिष्ट फल दिखा दो। ऐसे ताजे-ताजे, महंगे फल। जैसे आता है ना, पाँच सौ रुपये का एक आम, जो एक्सपोर्ट होता है। वो आप शेर को दिखाओ, बोलो, "यह देख, यह अल्फोंसो, पाँच सौ रुपये का एक।" हज़ार रुपये का एक! बोले, "यह आम तो ठीक है, पर जिस हाथ में आम पकड़ा हुआ है, उस हाथ की तारीफ में क्या कहूं?" गब्बर थोड़ी बोलता है कि "ठाकुर, यह हाथ मुझे दे दे।" बोले, "फिर?" शेर कहेगा, "मैंने भी देखी!" बात समझ में आ रही है?
तुम मुझे कोई भी ऊंची से ऊंची चीज़ देते रहो, मैं तो वही करूंगा जो मेरी देह कहती है। अच्छा, मांस में जो पोषक तत्व होते हैं, जो शेर का शरीर लेता है, आप वह सब भी निकाल लो और उनको किसी और रूप में शेर को दो। शेर वो भी नहीं लेगा, मुश्किल होगा। आप उसकी पलेट्स वगैरह बनाकर शेर को देना चाहो और उसके साथ में आप मांस रख दो, तो शेर वरीयता किसको देगा? मांस को देगा। "क्योंकि मांस बेहतर है। कुछ ना मिले, तो फिर ये गोली-गाली खा लेंगे।"
ये है देह भाव। और यही देह भाव जब स्त्री-पुरुष संबंधों में आ जाता है, तो इसको पैट्रिआर्की कहते हैं। तू सिर्फ और सिर्फ स्त्री-शरीर है, तू और कुछ नहीं है। मैं सिर्फ और सिर्फ पुरुष-शरीर हूं, मैं और कुछ नहीं हूं। तू भी जानवर, मैं भी जानवर, हम दोनों का रिश्ता भी पशुता का। यही पैट्रिआर्की है।
तू भी देह मैं भी देह और हम दोनों जानवर, हमारा रिश्ता भी जैसे जानवर जानवर। अब जब दोनों की देह की बारी आती है तो एक की देह एक तरह की, दूसरे की देह दूसरे तरीके की स्त्री पुरुष की एक सी तो होती नहीं। और चूंकि हम दोनों देह है तो इसीलिए हम दोनों सब कामों का कर्तव्यों का सीमाओं का निर्धारण हो जाएगा हमारी देह के हिसाब से। तो स्त्री की देह में कोक होती है और स्त्री सिर्फ देह है। स्त्री तो सिर्फ देह है, देह भाव ही है ना, स्त्री सिर्फ देह और स्त्री के पास एक ऐसी चीज पुरुष के पास नहीं है—क्या? गर्भ।
तो स्त्री के पूरे जीवन का निर्धारण हम किससे कर देंगे? उसके गर्भ से। तो हम स्त्री को बोलेंगे—तू बहुत अच्छी मां बन, तू देश के लिए वीर सपूत जन। उसको हम यह नहीं बोलेंगे—तू स्वयं वीरांगना है। हम उसको बोलेंगे—तेरा काम है देश के लिए वीरों को जनना और उनका सही पालन-पोषण करना। ठीक है न?
तू किसी की भार्या है, तू किसी की पत्नी है। मनुष्य है नहीं, तू क्या है? पत्नी है। क्योंकि तू क्या है? देह है। और जैसे तेरे पास एक चीज़ अतिरिक्त है जो पुरुष के पास नहीं—गर्भ, वैसे ही तेरे पास एक चीज़ की कमी भी है—क्या? बाहुबल। बाहुबल, तेरा यह जो है, यह पुरुष की तुलना में ज़रा कमजोर है। तेरा कद भी थोड़ा छोटा है, तेरी चौड़ाई भी थोड़ी कम है।
मनुष्य बहुत समय तक—बहुत समय तक नहीं, 99.99% समय—अपने विकास के क्रम में जंगल में ही रहा है। अगर ऐसे मानो कि हजार घंटे पहले वह जीव विकसित होना शुरू हुआ, जिसको आज हम अंततः मनुष्य बोलते हैं, हजार घंटे पहले, तो उसको सभ्य हुए मुश्किल से कुछ मिनट बीते होंगे या शायद कुछ सेकंड। अपनी विकास की पूरी प्रक्रिया में हम अधिकांशतः जंगल में रहे हैं।
और जंगल के बाद, अभी लगभग आठ-दस हज़ार साल पहले, हमने खेती करनी शुरू की। ठीक है? अब आप जंगल में हो, चाहे आप खेती करते हो, दोनों में ही ऊर्जा चाहिए, बल चाहिए, पावर चाहिए कि नहीं? कहां से आएगा? आपके पास कोई फॉसिल फ्यूल तो था नहीं कि कोयला जलाकर ऊर्जा मिल जाएगी। आपके पास इलेक्ट्रिसिटी भी नहीं थी। यह भी नहीं था कि झरना गिर रहा है और झरने से हम हाइडल निकाल लेंगे। और यह सब है? कुछ नहीं था। कोई तरीका था? यही था। और इसके बाद क्या था? कि घोड़े को पकड़ लो, बैल को पकड़ लो, ऊंट को पकड़ लो। उनको पकड़ने के लिए भी क्या चाहिए? तो एनर्जी का स्रोत तो यही था न? मस्कुलर एनर्जी। (बाजुओं को दिखाते हुए)
और यह स्त्री के पास कम है, और वह सिर्फ अपनी देह है। और उसके पास यह कम है, पुरुष के पास ज्यादा है। तो स्त्री घर में बैठेगी, पुरुष बाहर के काम करेगा। क्योंकि बाहर का काम है ही क्या? ये- (बाजुओं को दिखाते हुए) बाहर कोई आज से 10,000 साल पहले कोडिंग करने तो जाते नहीं थे, या बाहर जाकर आप सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट करते थे?
बाहर जो करने जाते थे, उसमें तो यही (बाजुओं को दिखाते हुए) लगेगा। तो स्त्री कहां से करे? यह तो उसके पास कम है। और एक चीज़ उसके पास ज़्यादा है—गर्भ। और उसको भी सुरक्षा चाहिए होती है जब वह गर्भिणी होती है। मॉर्टालिटी रेट, चाइल्ड मॉर्टालिटी रेट बहुत ज्यादा है। तो उसे बार-बार प्रेग्नेंट होना पड़ेगा, क्योंकि बच्चे पैदा होते हैं, तमाम तरह की बीमारियों से मर जाते हैं। तो कुछ बच्चे भी जिंदा रहें, इसके लिए स्त्री कम से कम दस बच्चे पैदा करे।
जब दस बच्चे पैदा करेगी, तो वह लगभग लगातार गर्भवती रहेगी, या फिर छोटे-छोटे बच्चे होंगे, जिनका ख्याल रखना होगा घर में। कोई ज्यादातर तो बीमार पड़े होंगे वे बच्चे। उस समय कोई वैक्सीनेशन तो था नहीं न? और किसी तरीके की कोई मेडिकल केयर थी? पांच पैदा होते थे, तो दो-तीन तो मर ही जाते थे।
तो उसको बैठा दिया घर में क्योंकि वह सिर्फ क्या है? गर्भ। तेरा काम किससे संबंधित है? गर्भ यानी बच्चों से संबंधित है वह तो घर में देख। पुरुष क्या है? तो तू बाहर रह और बाहर वाले काम कर। क्योंकि हम दोनों क्या हैं? देह हैं। हम दोनों देह हैं। पुरुष को भी अनुमति नहीं है इसमें कि पुरुष कहे—भाई, मुझे ये नहीं होना, मुझे ये होना है। पुरुष को भी अनुमति नहीं है।
जिनको ये होना था, उनको तो समाज से एक तरह से निकाल दिया गया। उनको बोल दिया गया—तुम जाओ जंगल, जाओ तुम सन्यासी हो। यह भी पैट्रिआर्की का ही हिस्सा है। कि पुरुष अगर होगा, तो पुरुष जैसा ही होना चाहिए। पित्रसत्ता है भाई! अगर तुमको समाज में रहना है, तो मर्द की तरह रहो। मर्द का मतलब है केयरगिवर, प्रोवाइडर। तुमको अगर बैठकर चिंतन-मनन करना है, ऋषि बनना है, ध्यान लगाना है, तो तुम समाज से बाहर निकलो। चलो जंगल जाओ। यह भी पैट्रिआर्की का हिस्सा है।
और महिला को तो यह भी नहीं था कि तुझे अगर चिंतन-मनन करना है, तो समाज से बाहर जा। उसके लिए कोई ऐसी जगह नहीं थी, जहां वह जा सके। पुरुष को तो फिर भी कहा गया कि तुझे जो हमने किरदार सौंपा है, जो रोल असाइन किया है, उस रोल के अलावा अगर तुझे कुछ करना है, तो एक प्रोविज़न बना दिया गया। कि उसको हमने बोल दिया—सन्यासी, ब्रह्मचारी, तपस्वी। और उसको हमने कह दिया—साहब, आप बाहर कहीं जंगल-मंगल जा सकते हैं, वहां आप अपना काम करिए।
पर स्त्री को तो वह छूट भी नहीं मिली। स्त्री को कहा कि तेरा जो बॉडी-डिफाइंड रोल है, वह यही है कि तू बच्चे पैदा करेगी। तू पैदा ही हुई है बच्चे पैदा करने के लिए। तू घर में रहेगी। तो पैट्रिआर्की ऐसा नहीं है कि मात्र पुरुष द्वारा स्त्री पर सौंपी गई या थोपी गई एक व्यवस्था है, वह पशुता से जीने का एक तरीका है मैं जानवर हूं। वह अज्ञान से भरी हुई एक नजर है, जिसमें आप जब किसी को देखते हो तो ऐसे देखते हो कि इसका लिंग क्या है? यह पैट्रिआर्की है।
और पैट्रिआर्की सिर्फ पुरुष से स्त्री की ओर नहीं बहती, यह एक इंपोज़िशन नहीं है। वह स्त्री द्वारा भी पूरी तरह स्वीकार की गई एक बात है, और उसका प्रमाण हमें यह देखने को मिलता है कि समाज में पितृसत्ता (पैट्रिआर्की) को चलाने वाली ज़्यादा महिलाएं हैं।
ऐसा नहीं है कि स्त्री और पुरुष की लड़ाई है, तो पुरुष एक तरफ और स्त्रियां एक तरफ हैं—और पुरुष कह रहे हैं, "पैट्रिआर्की! पैट्रिआर्की!" और महिलाएं कह रही हैं, "नो पैट्रिआर्की! इंस्टेड मैट्रिआर्की!" ऐसा कुछ भी नहीं चल रहा है।
घर में लड़की होती है, मां होती है आमतौर पर वही जाकर कहती है, "सुनो जी, तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा? लड़की जवान हो गई है!" "वो जवान हो गई? कल तक तो बच्ची थी मेरी!" "तुम तो ऐसे ही हो, तुम्हें कुछ पता ही नहीं लोग तरह-तरह की बातें बना रहे हैं। लड़की जवान हो गई है, जल्दी से हाथ पीले करो!" यह आमतौर पर मां ही होगी, जो बाप को जाकर बोलेगी। बाप के लिए तो हो सकता है फिर भी बच्ची हो, मां के लिए जवान हो गई है।
बहुएं ससुर की कम शिकायत करती हुई मिलती हैं, ना? ऐसा तो नहीं सुनने को मिलता है कि ससुरा! यह भी जब आता है कि दहेज हत्या वगैरह हुई, उसको मिट्टी का तेल डालकर जला दिया गया, जो भी कर दिया गया—उसमें यही सब ज़्यादा लगी होती हैं—देवरानी, जेठानी, सास! उसमें आमतौर पर ससुर जी कहीं हुक्का गुड़गुड़ा रहे होते हैं, भले ही उन्होंने धृतराष्ट्र की तरह अपनी मूक सहमति दे दी होती है।
तो पैट्रिआर्की को सबसे पहले हमें यह सोचना छोड़ना होगा कि जैसे नस्लवाद में हम कहते हैं, “द वाइट्स आर ट्राइट डोमिनेट द ब्लैक्स,” थोड़ा अंतर है। थोड़ा अंतर है, समानता भी है, पर थोड़ा अंतर भी है। क्योंकि पैट्रिआर्की ऐसी चीज़ है, जिसमें महिलाओं ने अपना स्वार्थ खूब देखा है। पैट्रिआर्की एक तरह की फ्लड रोल डेफिनिशन है। रोल से भी पहले, वह एक फ्लड डेफिनिशन ऑफ आइडेंटिटी है।
कैसी आइडेंटिटी? बॉडी-सेंट्रिक आइडेंटिटी!
"मैं क्या हूं? जो मेरी देह ने मुझे बना दिया, मैं वही हूं!" यह कहना हम कह रहे हैं, पशु को शोभा देता है, मनुष्य को शोभा नहीं देता—कि "मुझे मेरी देह ने जो बना दिया, मैं वही हूं।"
अजीब सी बात है ना, कि किसी को उसकी देह के हिसाब से ही जान लो? वे बैठे हैं, सिर्फ देह के हिसाब से आपको बुलाऊं तो आपको कैसा लगे? “ऐ टकले!" उनकी और कोई नाम ही नहीं, कोई पहचान ही नहीं? "बाल नहीं हैं, तो क्या हुआ?" "टकला!"
क्योंकि आपकी सारी आइडेंटिटी कहां से आनी है? वो पतली है, “ऐ सूखि” और कुछ नहीं पता—तो उसको दिख रहा है कि, "कम से कम सत्तर किलो... “ऐ सत्तर या सत्तर किलो वाले!”
यह होगा जब आपको आपकी बॉडी से ही आइडेंटिफाई किया जाएगा, कोई कहे, “ऐ बूढ़े, ऐ बूढ़े” कैसा लगेगा आपको? कोई मुंह पर बहुत अपना बहुत लगा कर ..... “ऐ चिकनी!”...
अभी आप हंस रहे हैं, क्योंकि माहौल ऐसा है, नहीं तो अपमान लगेगा! अपमान लगेगा, बात सही है! बिल्कुल! क्योंकि हमारी असली पहचान चेतना है। देह नीचे की बात है, और जो नीचे की चीज होती है, उसमें अपमान लगना लाजमी है।
अगर आपको आपकी देह से बुलाया जाए, और देह से संबंधित जो भी चीज़ है— आपका बीपी हाई रहता है, तो आपको बोल दें, "ऐ ढेर सौ!" यह क्या तरीका है बात करने का? "ऐ ढेर सौ!" यह क्या है? किसी के दो दांत गिर गए, तो " ऐ तीस!" यह तरीका है बात करने का? हां, हम तब बुरा मान जाते हैं। किसी की एक आंख हो तो...? "काना" बोला, बुरा लग रहा है?
उतना ही बुरा तब भी लगना चाहिए, अगर कोई आपको "दो आंख वाला" बोले! क्यों? क्योंकि एक आंख हो या दो आंख हो, आंख तो देह है, ना? "एक आंख का" बोला, तो भी आपको आपकी देह के नाम से पुकारा, और "दो आंख का" बोला, तो भी आपको देह के नाम से पुकारा।
हम कहते हैं, पैट्रिआर्की बुरी बात है लेकिन किसी की अगर तारीफ कर दो तो बहुत अच्छी बात है। वही महिलाएं, जो पैट्रिआर्की को बुरा-भला बोलती हैं, उनसे बोल दो—"वाह! क्या हुस्न है! खुदा ने तुम्हें फुर्सत में बनाया है, एकदम!" अभी भी तुम्हें तुम्हारी देह ही देखा जा रहा है। वह तुम्हारी कोई चेतना का हुस्न तो बता नहीं रहा है। लेकिन क्या मौज आती है, कोई कह दे कि—"यू नो, आई एम पेट्रिआर्क!" तो बहुत सारी लड़कियां, महिलाएं होंगी, जो एकदम बिदक जाएंगी—"हह, पेट्रिआर्क!" और वही उनको बोलो—"वाह, डेंटी फिगर! मजा आ गया!"—एकदम खुश हो जाओगे! देह भाव, देह भाव!
और अगर देह के हिसाब से देखो, तो पैट्रिआर्की बिल्कुल सही है, बिल्कुल सही है। उनका तर्क भी यही रहता है। वो कहते हैं—"क्या? अगर महिलाएं बराबर हैं पुरुषों के, तो पुरुषों की तरह मेहनत वाले काम करके दिखाएं ना!" और उनका मेहनत से क्या तात्पर्य होता है? पत्थर उठाना! वजन उठा के दिखाओ! जाओ, सरहद पर लड़ के दिखाओ!
अब ये अलग बात है कि अभी इजराइल ने ईरान पर हमला किया, तो उन्होंने जो ए-1 एफ-35 भेजे थे, उनमें बहुत सारी जो फाइटर पायलट थीं, वो लड़कियां थीं। उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि अगर हमारा प्लेन गिर गया और हम दुश्मन की कैद में आ गईं, तो हमारा क्या? उन्होंने यह भी नहीं सोचा! हज़ार मील लगभग की यात्रा करके, वे जो बमिंग करने वाली थीं, वे लड़कियां थीं।
लेकिन सरहद की बात इस तरीके से होती है, जैसे सनी देओल वाली लड़ाई! जहां शर्ट-वर्ट उतार करके, बनियान फाड़ करके... तो वो लड़कियां कर नहीं सकतीं! कि बोले—"यह जो ढाई किलो का उनका है ही नहीं, ढाई किलो का!" तो फिर ताना मारा जाता है—"तुम बहुत बात करती हो ना? तो जाओ, यह सब काम करके दिखाओ!"
बात समझ में आ रही है? जब तक मनुष्य अपने आप को देह मान रहा है, तब तक पैट्रिआर्की बिल्कुल सही है। आप अपने आप को बॉडी भी मानते हो और यह भी कहते हो साथ-साथ—"इक्वलिटी, इक्वलिटी!" तो बात गलत हो गई! क्योंकि बॉडी तो इक्वल है ही नहीं।
यहां सब आते हैं, कहते हैं—"हमें इक्वलिटी चाहिए, इक्वलिटी चाहिए, इक्वलिटी चाहिए!"
(अचानक एक बच्चा रो पड़ता है।)
बच्चा हो और मेरी बात बुरी ना लगे—यह हो नहीं सकता! और मेरी बात जिसे बुरी लगे, वह बच्चा ना हो—यह भी नहीं हो सकता!
समझ में आ रही बात? एक तरफ तो वे लोग गलतफहमी में हैं, जो इंसान को सिर्फ उसकी देह बनाए हुए हैं। और दूसरी तरफ वे भी बराबर की गलतफहमी में हैं, जो अपने आप को देह मानते हुए भी, इक्वलिटी का राग भी लाते हैं—"आई एम माय बॉडी!" वे दिन भर अपने आप को बॉडी की तरह ही सजाते-संवारते हैं, बोलते हैं—"बट आई एम एन इक्वल टू ऑल मेन!" मैं बहुत तार्किक तरीके से पूछ रहा हूं—"तुम अपने आप को सिर्फ देह मानती हो? तुम हर समय अपनी देह के ख्यालों में ही और देह की चिंता में ही डूबी रहती हो? और फिर तुम कह रही हो कि तुम पुरुषों के बराबर हो?" अगर तुम देह हो, तो पुरुष भी देह है। बताओ, स्त्री की देह और पुरुष की देह बराबर कैसे है? है क्या? नहीं?
पैट्रिआर्की सिर्फ तब पीछे हटेगी, जब सबसे पहले हमारी चेतना का स्तर ऊंचा उठे। जब तक पुरुष, पुरुष ही बना हुआ है और महिला, महिला ही बनी हुई है, तब तक पैट्रिआर्की बिल्कुल जायज व्यवस्था है भाई! चलेगी, हमें बुरी लगती हो, पर चलेगी! हम मजबूर रहेंगे, हमें स्वीकार करना पड़ेगा और चलेगी!
आप जा रहे हो बाहर, कहीं बाजार में जा रहे हो, पार्टियों में जा रहे हो। आप खुद इस तरीके से सज-धज के जा रहे हो कि आपका स्त्रीत्व और उभर कर आए! पार्टी वाले कपड़े अलग होते हैं ना? और पार्टी वाले कपड़े सारे वही होते हैं ना, जिसमें महिला और ज्यादा महिला हो जाती है! आप बोलते भी हो कि आप ऑफिस वगैरह जाते हो, वहां पर फिर भी आप साधारण कपड़े पहन लेते हो। पर जब आप पार्टी में जाते हो, तो आप सुपरवुमन बनकर जाते हो! अपने आप को सुपर-सेक्सुअलाइज़ करके जाते हो! जाते हो कि नहीं जाते हो?
अब उसके बाद, अगर पुरुष आपको देह की तरह देख रहा है, तो यह तो आप ही चाहते थे! वह तो आपकी इच्छा पूरी कर रहा है, ना? पाखंड नहीं करना है हमें! जो चीज जैसी है, वैसे स्वीकार करना है! जब तक स्त्री देह बनी हुई है, तब तक पैट्रिआर्की चलेगी! मैं नहीं कह रहा—"देह त्याग दो!" कि यह देह थी और इसको त्याग दिया! देह त्यागी नहीं जाती, देह उसकी जगह पर रखी जाती है। हर चीज की औकात होती है! “थिंग्स आर टू बी केप्ट एट देर प्रॉपर प्लेस”
हां, मैं देह हूं! पर देह वैसे ही है, जैसे कोई इंस्ट्रूमेंट! मैं अगर कार का ड्राइवर हूं, तो देह कार है! वह मेरे उपयोग के लिए है वो उपकरण है मेरा! वो मुझे मेरी मंजिल पर ले जाने के लिए है, वो पहचान नहीं है मेरी वो सच्चाई नहीं है मेरी!
कार का ड्राइवर इसलिए नहीं होता कि दिन-रात कार की सेवा करता रहे? कार की थोड़ी बहुत सेवा निसंदेह की जाती है, पर कार का वाजिब उपयोग यह होता है कि वह आपको आपकी मंजिल तक पहुंचाए। और सेवा भी इसीलिए करी जाती है और उतनी ही की जाती है कि वह आपको आपकी मंजिल तक पहुंचा सके।
कैसा लगेगा वह ड्राइवर, जो कहे—"मेरा कार से रिश्ता ही यही है कि मैं या तो इसकी सर्विसिंग कराता हूं या फिर रिफ्यूलिंग!" आपके पास एक कार है और वह सिर्फ दो जगह जाती है—या तो सर्विस स्टेशन या फ्यूल स्टेशन! तो कैसा लगेगा? कोई पूछे—"कार को लेकर कहां गए?" तो कहोगे—"सर्विस स्टेशन या फिर फ्यूल स्टेशन!" तो कैसी है वह कार? ज्यादातर लोगों के लिए शरीर ऐसा ही होता है।
उनका पूरा जीवन बस शरीर की सेवा में बीतता है। शरीर से मेरा आशय सिर्फ नींद, प्यास, भोग आदि नहीं है। भावनाएं भी शरीर हैं, विचारधाराएं भी शरीर हैं। जिसको आप बोलते हो—"माय फीलिंग, माय इमोशंस," वो सब भी तो शारीरिक इमोशंस ही हैं, ना?
इंटरनल इमोशंस—भीतर तमाम तरीके के हार्मोंस, केमिकल्स उत्सर्जित होते रहते हैं वही आपकी फीलिंग बन जाते हैं। जो लोग अपनी फीलिंग्स के पीछे बहुत चल रहे हैं, वो भी बॉडी सेंटर्ड जीवन ही हो जी रहे हैं न। जो कहते हैं, मेरी भावनाएं, मेरे नाज़ुक, कोमल जज़्बात—"डोंट हर्ट माय फीलिंग्स!"— ये सब बातें, वो भी पशु ही तो बने हुए हैं न, पशु माने वो जो शरीर पर ही चलें। भावनाएं भी तो शरीर से ही उठती हैं न।
आप बोलते—"अरे, मेरी नारी-सुलभ कोमल भावनाएं!" यह क्या बोल रहे हो तुम? कोई आपसे बोल दे—"आपका जो नारी जैसा कोमल शरीर है...!"—तो आप कहोगे—"भद्दी, अश्लील बात कर रहा है!" नारी के कोमल अंगों की बात करो तो बात अश्लील हो जाएगी, पर वही नारी कहती है—"हमारी कोमल-कोमल भावनाएं!" तो वो बात अश्लील क्यों नहीं है? क्योंकि जो कोमल भावना है, वो भी उसी कोमल शरीर से ही आ रही है।
कोमल शरीर के कुछ रसायन हटा दो, सारी भावनाएं गायब हो जाएंगी! सारे इमोशंस का केमिकल बेसिस होता है। जब तक आप इन सब चीजों को पकड़े हुए हो, तब तक पैट्रिआर्की चलती रहेगी।
शिक्षा से नहीं जानी है, साइंटिफिक एडवांसमेंट से नहीं जानी, इकोनॉमिक एम्पावरमेंट से भी नहीं जानी है। एक बहुत अजीब चीज़ देखने को मिल रही है—बहुत-बहुत शिक्षित महिलाएं, बहुत ज़्यादा आधुनिक लड़कियां कहती हैं—"हमें ऐसे लड़के चाहिए, जो हमारी केयर कर सकें!" वो पूरी तरह एजुकेटेड हैं, मॉडर्न एडवांस सोसाइटीज़ में रह रही हैं और कह रही हैं—"नहीं, हमको तो हाउसवाइफ का ट्रेडिशनल रोल चाहिए!" यह एक नया ट्रेंड निकला है! बताओ, टेक्नोलॉजी ने, इकॉनमी ने और मॉडर्निटी ने पैट्रिआर्की को हरा दिया क्या?
पैट्रिआर्की नहीं हारेगी! आप होंगी बहुत मॉडर्न, आप तब भी अपना ट्रेडिशनल रोल ही निभाना चाहेंगी। क्योंकि उस ट्रेडिशनल रोल की सबसे पहले कोई वजह थी। और वजह थी—देह! देह तो आज भी वही है, ना? जब तक आप उस देह को पकड़कर बैठी हुई हैं, तब तक पैट्रिआर्की चलेगी!
मुझे नहीं मालूम, अभी नाम नहीं याद आ रहा। शायद उदित ने दिखाया था—कौन सा है, जो अमेरिका में वह पॉडकास्ट वगैरह करती है? लड़कियां, और वो बार-बार बताती हैं कि—"देखो, मैं सब काम-धंधा छोड़कर घर में बैठी हूं और मेरा बॉयफ्रेंड या पति शाम को घर वापस आता है, मैं उसकी सेवा करती हूं!" वो बाकायदा इस चीज़ का प्रचार कर रही है! हम कहेंगे—"यह तो भारत में होता है!"—यह अमेरिका में हो रहा है! जो आज की जनरेशन है, जिसको आप जेन-जे या जेन-अल्फा बोलोगे, वो? उसकी लड़कियां यह काम कर रही हैं और बाकायदा डिस्प्ले कर रही हैं, प्रचार कर रही हैं इस बात का कि "दिस इ व्ट वी शुड डू, दिस इज व्ट द फीमेल बॉडी एंड लाइफ इज फॉर। वी एसिस्ट टू टेक केयर ऑफ द मैन।"
उसका काम है घर के बाहर का संभालना और हमारा काम है जब वह घर पर आए तो उसकी सेवा करना, उसके बच्चे पालना। कौन है, क्या है?
स्वयंसेवक: एंटी-फेमिनिस्ट मूवमेंट के नाम से बहुत सारे लोग तरह-तरह का कंटेंट बनाते हैं।
आचार्य प्रशांत: यह एंटी-फेमिनिस्ट मूवमेंट है, उसमें एक विशेष... तुमने चैनल भी दिखाया था, तो यह चल रहा है। तो पैट्रिआर्की कोई ऐसा नहीं है कि पुराने जमाने की पिछड़ी हुई बात है। वह ना पुराने जमाने की है, ना पिछड़ी हुई है। इसकी बात है, इसकी माने देह। जब तक देह रहेगी, तब तक पैट्रिआर्की चलेगी। देह रहेगी माने देह भाव रहेगा, चाहे पीएचडी कर रखी हो, चाहे वह हजारों डॉलर महीने की सैलरी कमाती हो, सीधे यूएस में बैठकर के। अगर वह अपने आप को बॉडी मानती है, तो वह पुरुष से वही रिश्ता रखना चाहेगी, जो हजारों सालों तक जंगल में चलता रहा।
आप पैट्रिआर्की के खिलाफ हो, पर आपको एक ऐसी फिल्म अच्छी लगती है, जिसमें दो पुरुष एक महिला के लिए लड़ रहे हैं। ठीक है, हॉलीवुड में बनती है, भारत में भी बनती हैं और यह बहुत कॉमन थीम है। आमतौर पर थीम यह नहीं होती है कि दो महिलाएं एक पुरुष के लिए लड़ रही हैं। आमतौर पर थीम यही होती है कि दो पुरुष या बीस पुरुष एक महिला के लिए लड़ रहे होते हैं। ठीक यही होती है ना?
आपको यह फिल्म बहुत अच्छी लगी, लेकिन आप अपने आप को एक मॉडर्न प्रोग्रेसिव गर्ल बोलते हो। "मैं मॉडर्न हूं और मैं प्रगतिशील हूं, मैं प्रोग्रेसिव हूं।" लेकिन आपको यह फिल्म बहुत अच्छी लगी! यह आपको जो अच्छा लगा, यह क्या है? यह आपको जंगल का कायदा अच्छा लगा। यह जंगल में हुआ करता था कि जितने पुरुष होते थे, वो आपस में लड़ाई करते थे। जितने नर होते थे, उनमें जो जीत जाता था, वह मादा से संभोग करता था, ताकि जो संतान पैदा हो, वह एकदम मजबूत और बलवान हो।
"द हाईएस्ट क्वालिटी सीमन मस्ट इंप्रेग्नेट द वुमन।"
आपको यह फिल्म बहुत अच्छी लगी! उदाहरण के लिए शाहरुख खान की डर, उसमें यही तो था - दो पुरुष एक स्त्री पर लगे हुए हैं। अभी फिल्म आई थी एनिमल, वो बहुतों को बहुत अच्छी लगी। उसमें जो स्त्री-पुरुष का रिश्ता था, वह पूरा जंगल का था। नाम ही एनिमल है, वो सीधे-सीधे उसको बोल भी रहा है कि "मैं तुझसे ब्याह इसलिए करना चाहता हूं क्योंकि तेरे हिप्स बहुत चौड़े हैं और तू बहुत अच्छे से मेरे बच्चों की अम्मा बनेगी।"
वह सीधे बोल रहा है, उसको मुंह पर। लोग कह रहे हैं, "वाह! क्या बात है, मजा आ गया! मजा आ गया!" उसके बाद तुम्हें यह भी कहना है कि "मैं मॉडर्न हूं, प्रोग्रेसिव हूं, और पैट्रिआर्की हाय हाय!" पैट्रिआर्की हाय हाय कैसे हो जाएगी? हो ही नहीं सकती! कैसे हो जाएगी?
आप यहां बैठे हो। उदाहरण के लिए, आप कद-काठी में कभी किसी लड़के का मुकाबला नहीं कर पाने वाले हो, या कर सकते हो? नहीं कर पाते। सिर्फ एक जगह है, जहां आप और कोई पुरुष बिल्कुल एक हो सकते हो। वह कौन सी जगह है? कॉन्शियसनेस!
पर ना आप अपने आप को कॉन्शियसनेस मानते हो, ना यह अपने आप को कॉन्शियसनेस मानते हैं, तो कहां से इक्वलिटी आ जाएगी? जबरदस्ती का नारा लगा रखा है - "इक्वलिटी, इक्वलिटी!" रहना बॉडी है, चाहिए इक्वलिटी, नहीं हो सकता।
फिर लड़के हंसते हैं, कहते हैं, "यह पांच फुटिया, ये इक्वल है हमारी? किस तरीके से इक्वल है?" हाँ, वह इक्वल हो सकती है। उसको नोबेल प्राइज मिल सकता है। वह इक्वल हो सकती है। पर तुम कहो, बॉक्सिंग में तुम्हारी इक्वल हो तो नहीं हो सकती! हाँ, वह साइंस में इक्वल हो सकती है। वह मैथ्स में भी इक्वल हो सकती है। वह दुनिया के हर उस काम में इक्वल हो सकती है, जहां मनुष्य देह नहीं, चेतना है। वह बिल्कुल इक्वल है! वह मोर देन इक्वल भी हो सकती है। तुमसे कहीं आगे भी निकल सकती है।
फाइटर प्लेन मनुष्य के दिमाग की उपज है, तो फाइटर प्लेन की एक बहुत अच्छी पायलट हो सकती है! वो जबरदस्त बमिंग कर सकती है। वो एस पायलट हो सकती है। वो बेस्ट फाइटर पायलट हो सकती है। पर तुम उससे कहो, "नहीं, तुम्हें दुश्मन की सीमा में घुसकर के मुक्कों से मारना है।" तो वो ये नहीं कर पाएगी। इक्वलिटी नहीं हो पाएगी। क्यों? क्योंकि मुक्का देह है और जो फाइटर प्लेन है, वह दिमाग है।
सिर्फ एक तल है जहां पर स्त्री-पुरुष बराबर हैं। भूलना नहीं, वो तल है चेतना का। तो जिन महिलाओं को दबकर नहीं रहना है, कैद होकर नहीं रहना है, वह फिर सबसे पहले अपनी देह में कैद होना छोड़ें। जब तक महिला अपनी देह में कैद है, उसको सजा यह मिलेगी कि उसको घर में भी कैद होना पड़ेगा। और अगर आप अपने आप को जीवन में कहीं पर भी कैद पा रही हैं, तो अच्छे से समझ लीजिए कि इसका मूल कारण यह है कि सर्वप्रथम आप अपनी देह में कैद हैं।
आ रही है बात समझ? अध्यात्म जितना पुरुषों के लिए जरूरी है, उससे कहीं-कहीं-कहीं ज्यादा महिलाओं के लिए जरूरी है। और बड़ी विडंबना यह रही है कि धर्म का जो सबसे नकली स्वरूप हो सकता है, वही महिलाओं तक पहुंचाया गया है। धर्म की जो सबसे बेकार की जगह होंगी, वहां पर आप महिलाओं की सबसे ज्यादा भीड़ पाएंगे। और धर्म के क्षेत्र में भी जहां कुछ ऊंचा हो रहा होगा, वहां महिलाएं नहीं दिखाई देंगी।
महिलाएं धर्म के नाम पर क्या बता दिया? "यह कर लो, यह पूजा कर लो, ऐसे कर लो, वैसे कर लो हो गया।“ और जाकर कहीं बैठ जाओ थोड़ा नाच-गा लो, ये धर्म है? खत्म। और भीड़! भीड़ में भीड़ बहुत सारी, एकदम गाय-भैंस की तरह बैठी। जबकि सबसे ज्यादा अध्यात्म की जरूरत महिलाओं को ही है। क्योंकि अध्यात्म का काम ही है मुक्ति देना। मुक्ति की जरूरत सबसे ज्यादा उसी को तो होगी न, जो सबसे ज्यादा बंधन में होगा?
सबसे ज्यादा बंधन में तो महिला ही है, उसका पहला बंधन तो उसकी देह ही है। और जब देह बंधन होता है, तो फिर न जाने कितने और बंधन खड़े हो जाते हैं। वो सारे बंधन एक-एक करके काटोगे, तो थक जाओगे, हार जाओगे। इससे अच्छा यह है कि जो पहला बंधन है, उसी को काट दो।
बात आ रही है? जिसको आप बोलते हो "पैट्रिआर्की", जो मेरी दृष्टि में सिर्फ देह भाव का दूसरा नाम है। उसको हटाने का तरीका अध्यात्म है। पैट्रिआर्की फेमिनिज्म से नहीं हटने वाली। पैट्रिआर्की आत्मज्ञान से हटेगी। यह फेमिनिज्म वगैरह सब ऐसे ही हैं, आती-जाती चीजें। थोड़ी बहुत इनसे तरक्की हो सकती है, नारेबाजी ज्यादा होगी।
सचमुच अगर पूरी मनुष्यता का ही स्तर उठाना है, स्त्री का भी, पुरुष का भी, तो तुम्हें कोई विचारधारा नहीं चाहिए तुम्हें आत्मज्ञान चाहिए, सेल्फ नॉलेज। स्वार्थ मत बांधो देह से।
स्त्री की बड़ी यह समस्या है कि उसकी देह, सुनने में कड़वा लगेगा, भद्दा लगेगा, बिकाऊ बहुत होती है। और जब बाजार में बिकने लायक एक माल आपको बिना मेहनत करे ही मिल गया है, जन्म से ही मिल गया है, तो मेहनत करने की ना बहुत इच्छा नहीं बचती।
मत बांधो स्वार्थ! अपने शरीर को ना तो अपनी पूंजी मानो, ना अपना हथियार। और महिलाएं शरीर भाव में इसीलिए जीती हैं क्योंकि वो शरीर को पूंजी भी मानती हैं और शरीर को हथियार भी मानती हैं। समझ में आ रही है बात?
फिर कह रहा हूं, सुनने में जैसा भी लग रहा हो, पर सुन लो। दुनिया का जानते हो ना, सबसे पुराना धंधा क्या है? वेश्यावृत्ति। एक ज़ेनबोध कथा है। एक लड़की थी, बहुत सुंदर थी, आकर्षक इस अर्थ में। उसमें ज्ञान की ललक उठी। सही दृष्टि से सुनना, वरना अगर दूसरी दिशा से सुनोगे तो कहोगे, "ये तो नाइंसाफी है।" उसमें ज्ञान की ललक उठी तो वह एक के बाद एक गुरुओं के पास, वहां मास्टर्स होते हैं, उनके पास जाने लगी। उनके अपने डेरे, डेरे आश्रम होते थे। उनमें ज्यादातर जो उनके शिष्य होते थे, वह पुरुष ही होते थे। अब पुरुष तो पुरुष ठहरा। वो भी अभी शिष्य ही है, कौन सा दीक्षित हो गया है? तो वो इतनी आकर्षक थी कि जब वह जाए मास्टर्स के पास कि "आप मुझे भी अपने साथ ले लीजिए, मुझे भी ज्ञान चाहिए।" तो सब मास्टर उससे हाथ जोड़ के माफी मांग लें। बोले, "अगर तुझे हमने स्वीकार कर लिया तो हमारे आश्रम में अनाचार फैल जाएगा। मैं अपने इन चेलों को जानता हूं, इन्हें दो दिन नहीं लगेंगे बहकने में।"
तो उसको कोई स्वीकार ना करे। वह जहां जाए, सब उससे कहें कि "हम बहुत कद्र करते हैं तेरी ज्ञान पिपासा की, और काश कि किसी तरह तुझे ज्ञान उपलब्ध हो जाए। लेकिन हम तुझे स्वीकार नहीं कर सकते। तुझे स्वीकार किया, तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी।"
तो कहानी कहती है कि उसने एक गर्म सलाख ली और अपने चेहरे पर एक बार इधर निशान लगा लिया, एक बार उधर निशान लगा लिया। बोली, "ज्ञान शरीर से बहुत ऊंची बात है। अगर मेरा शरीर ज्ञान के आड़े आ रहा है, तो मैं शरीर को सुंदर ही नहीं रहने दूंगी। अगर ज्ञान पाने की शर्त यही है कि शरीर सुंदर ना हो, तो मैं शरीर को सुंदर रहने नहीं दूंगी।"
अब बात नाइंसाफी की है। लफंगे थे वो चेले-चपाटे गुरुजी के और सजा मिल रही है इस लड़की को। बात तो नाइंसाफी की है, पर लड़की की दृष्टि से देखो तो कह रही है, "मैं इंसाफ की क्या बात करूं? मेरे पास एक जन्म है और मुझे जानवर की तरह नहीं जीना है। मुझे ऊंची बातें जाननी हैं। और ऊंची बातें मैं इसलिए नहीं जान पा रही क्योंकि ये देह बड़ी आकर्षक है।" बोली, "मैं इस देह को नहीं रहने दूंगी आकर्षक।"
यह मैं कोई सुझाव नहीं दे रहा हूं। बात समझ में आ रही है? पैट्रिआर्की में फसे इसीलिए हो क्योंकि देह के साथ तुमने स्वार्थ जोड़ रखा है देह के फायदे तो होते हैं देह के बहुत फायदे होते हैं।
मजाक मजाक में वह छोटे-छोटे शॉर्ट वीडियो चलते हैं कि लड़का लड़की दोस्त है। लड़की उससे पूछती है अच्छा बता तू क्या करेगा, स्कूल में। तो मैं पहले 10वीं में मेहनत करके टॉप करूंगा। फिर मैं 12वीं में मेहनत करके टॉप करूंगा। उसके बाद मैं बहुत मेहनत से एंट्रेंस एग्जाम पास करूंगा, फिर बहुत मेहनत से कॉलेज टॉप करूंगा। उसके बाद बहुत मेहनत से प्लेसमेंट लूंगा उसके बाद मैं मास्टर्स करूंगा। फिर टॉप करूंगा फिर मैं थोड़े दिनों के लिए अमेरिका जाऊंगा फिर वहां मेहनत करूंगा। फिर मैं एस्टैब्लिश हो जाऊंगा फिर मैं घर बनाऊंगा। मैं ये सब करूंगा।"
फिर वो ऐसे बताते-बताते हांफने लगता है, तो कहता है, "अच्छा-अच्छा, अब ये तो बता, तू क्या करेगी?" लड़की बोलती है, "तू इतना कुछ करेगा तो मैं तुझसे शादी करूंगी।"
सिर्फ मजाक की बात नहीं है, ये होता है। और अगर यह हो रहा है, तो यह मत कहिए कि पेट्रिआर्की महिलाओं पर पुरुषों ने थोपी है। महिलाओं का भी स्वार्थ है। लड़के को बहुत मेहनत करनी है, लड़की को बस अपनी देह लड़के को सौंप देनी है। लड़का अपनी मेहनत का सारा फल लाकर उसे कदमों में रख देता है। वह रानी बन जाती है। किस बात की रानी है? मुझे कभी समझ नहीं आया।
मेरे साथ तो बचपन से ही अत्याचार होता रहता था। मैं ऐसे-ऐसे सवाल पूछ देता था। छबीस जनवरी की परेड, उसमें दूसरे जगहों के राष्ट्राध्यक्ष वगैरह आते थे और भारत की सशस्त्र सेनाएं परेड निकाल रही है दिल्ली में, वे खड़े हुए हैं, और जिस मंच पर वे खड़े रहते थे, जब उनके सामने से सैनिक निकलते थे, तो सैनिक ऐसे आ रहे होते थे, मार्च करते हुए। जब वे यहां आते थे और ऐसे मुड़ते थे, तो सलूट करके आगे बढ़ते थे।
तो वहां कहीं से आएं हैं, किसी देश के राष्ट्रपति हैं, उनको सलूट किया जा रहा है। उनके बगल में उनकी पत्नी खड़ी हुई हैं, उनको भी सलूट किया जा रहा है। मेरे मन में राष्ट्र का गौरव, मैंने कहा, "ये मेरे देश के सैनिक हैं, चलो, इनका तो समझ में आया। यह राष्ट्रपति महोदय हैं, इनको सलूट कर दिया। पर उनके साथ जो खड़ी हैं, उन्होंने ऐसा क्या करा है कि उनको सलाम किया जा रहा है?"
कोई जवाब न दे! जब कोई जवाब न दे, तो मैंने कुछ ऐसा बोल दिया, जो भोंडा अश्लील माना गया। मैंने कहा, "इन्होंने एक ही काम किया है, जिस नाते इनको सलाम मिल रहा है।"
नालायक! लफंगा!
क्या गलत बोला? उन्होंने एक ही तो काम करा है, जिस नाते उनको सलाम मिल रहा है। तुम किस हक से अपने आप को फर्स्ट लेडी बोल रही हो? तुमने क्या करा है? तुम किस हक से अपने आप को फर्स्ट लेडी बोल रही हो?
वैसे ही सरकारी अफसरों में होता है, फौज में होता है—"मिसेस ऑफिसर", "मिसेस ब्रिगेडियर"! हेलो? तुमने ऐसा क्या किया है कि तुम "श्रीमती ब्रिगेडियर" हो गई भाई? तुमने क्या करा है? तुमने बस एक काम करा है और अगर मैं बोल दूं, तो मैं लफंगा हो गया!
बात है कि नहीं सही? बाकी पाखंड करना हो तो कर लो। बोल दो, "नहीं-नहीं, उसने अपना दिलो-जान अर्पित किया है, भावनाओं का रिश्ता होता है।"
हमें पता नहीं! हम तो आसमान से उतरे हैं जैसे! हमें तो ज़मीन की कोई खबर ही नहीं है जैसे! कोई अगर आपको बंधक बना रहा है, तो बंधन में कहीं न कहीं आपका भी स्वार्थ है। थोड़ी-बहुत रजामंदी तो आपकी भी है। वह स्वार्थ छोड़ दीजिए। देह का आसरा छोड़ दीजिए। न वह आपका एसेट है, न वेपन है।
मैं ये भी नहीं कह रहा हूं कि यह लायबिलिटी है। मैं कह रहा हूं, इसे रिसोर्स की तरह इस्तेमाल करो। रिसोर्स—इससे काम करवाना है, काम इसको बेच के नहीं खाना, इससे काम करवाना है! [प्रशंसा]
प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। अब मेरी माता जी हैं। मतलब, मैं सीधे-साधे बोलूं तो पापा उनका बिल्कुल सम्मान नहीं करतें। वो साठ की आसपास की हैं, कुछ भी बोलती हैं जब मन में गुस्सा आता है, तो मतलब कभी-कभी मैं भी बोल देता हूं। मैं भी वास्तव में सम्मान नहीं करता क्योंकि मम्मी पढ़ी-लिखी नहीं हैं, पढ़ी लिखी भी छोड़ो, खुद के पैरों पर निर्भर नहीं हैं। तो मम्मी कैसे आगे बढ़ें?
मम्मी हैं ना! गीता मैंने सुनाने की कोशिश की, तो सो गईं। मम्मी सुनती नहीं हैं, विरोध करती हैं। फिर मुझे मेरी ही कमी लगती है कि मैं काबिल नहीं हूं, कि मैं उन्हें ठीक से सिखा नहीं पा रहा।
दीदियों को तो मैं सिखाने की कोशिश कर रहा हूं, लेकिन मम्मी से... और पापा का भी विरोध आता है। वे बोलते हैं, "तू गीता बाद में पढ़ना, पहले नौकरी के लिए अच्छे सेटल हो जा। फिर गीता चलती रहेगी।"
मुझे मेरी कमी लगती है... घूम-फिर के क्या करूं?
आचार्य प्रशांत: देखो, सर्वशक्तिमान न तुम हो, न मैं हूँ। जो कर सकते हो, वह करो ना! जहां अभी ज़मीन में थोड़ी जान बाकी हो, हल चलाने की मेहनत वहां करी जाती है। कोशिश पूरी कर लो। मां भी जागे, सुने, समझे। पर 60-70 की उम्र, इस उम्र में आकर इसे बर्दाश्त करना तो बहुत मुश्किल है। सो जाती हैं, कोई ताज्जुब नहीं है और जो उन्होंने अपनी पुरानी आदतें बना ली हैं, उनको तोड़ना-मोड़ना बड़ा मुश्किल पड़ने वाला है।
हो जाए तो बहुत अच्छा है, प्रयास पूरा करना चाहिए। लेकिन यह भी याद रखो कि, जैसा कहा, सर्वशक्तिमान नहीं हो, तो तुम्हारे प्रयास की सीमा है। तो प्रयास बेहतर है वहां करो जहां प्रयास में कुछ सफल हो सको। मां से बेहतर है कि अब बहन की जिंदगी बचाने की कोशिश करो। बहन हो, भाभी हो, कोई हो, जो उनकी अभी उम्र शेष हो।
और मैं बिल्कुल भी नहीं कह रहा हूं कि माओं की मुक्ति का प्रयास नहीं होना चाहिए, पर मुक्ति कोई जबरदस्ती किसी पर थोपी जाने वाली चीज नहीं है। जिसके भीतर स्वयं जरा भी आतुरता ना हो, आग्रह ना हो, खुलापन ना हो, आप उसको जबरन थोड़ी मुक्त कर दोगे? बल्कि यह हो सकता है कि प्रयास कर-कर के आपका उत्साह बहुत ठंडा पड़ जाए। यह हो सकता है कि आप इतने थक जाओ कि आप में किसी और को बचाने की सामर्थ्य भी शेष ना रहे।
मां से बात करते रहिए, उनके सामने किताबें रखते रहिए, उनके सामने सत्र रखते रहिए, उनसे पूछते रहिए कि तुम्हारा घर में इतना अपमान होता है, तुम्हें थोड़ा भी नहीं लगता? यह करते रहिए, लेकिन जबरदस्ती तो नहीं कर सकते ना?
आपकी बहनें हों, बहनों पर प्रयास कर लीजिए। अपनी बहन ना हो, चचेरी-ममेरी कोई बहन हो, कुछ और हो, पड़ोस-पड़ोस, दुनिया जहान बहुत जगह है प्रयास करने के लिए। इससे आगे कोई मैं व्यक्तिगत राय दे नहीं पाऊंगा। सिद्धांतः जो कह सकता था, बता दिया।
प्रश्नकर्ता: दीदियों पर करना सफल रहा।
आचार्य प्रशांत: हाँ, तो बस दीदी पर करिए। हो सकता है, दीदियों की सफलता देखकर मां को कुछ प्रेरणा मिल जाए।