प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं आपको छ: महीने से सुन रहा हूँ। मैं मरचैंट नेवी में काम करता हूँ। ये बात दरअसल पुरानी है, २०१८ की जब मैंने शादी करने का फ़ैसला किया। उसके पहले मैं कुछ सम्बन्धों में था जो सफल नहीं हुए। तब मैंने सोचा कि शादी करूँ तो पूरा जीवन किसी एक व्यक्ति के साथ वफ़ादार रहके। लेकिन समस्या ये थी कि जब मैं जहाज़ पर गया, तो, मेरी पत्नी मेरे प्रति वफ़ादार नहीं थी। और ये कोई सुनी-सुनाई बात नहीं थी, हमने पुख़्ता सबूत हासिल किए। उसको जब मैं कनफ्रंट (सामना) कर रहा था, तो उसको ग्लानि तो दूर की बात है, वो स्वीकार भी नहीं कर रही थी बात। तो मैंने अलग होने का फ़ैसला किया। अभी तीन साल की लम्बी लड़ाई लड़ी, और उसके बाद आख़िरकार हम अलग हो गए।
तो उसमें जब आपको सुनना चालू किया तब मुझे अंतर-अवलोकन करने का मौका मिला, जैसे आपकी संत दादूदयाल पर वीडियो, कि आप भूल करते नहीं आप ही भूल हो, मतलब प्रकृति में भूल जैसी कोई चीज़ नहीं होती। तो मैंने भी अवलोकन करके यह जाना कि मेरा जो चुनाव था, वो कोई संयोग या कोई ये नहीं था कि ग़लती थी। मतलब मैं जैसा अचेतन मन था, ज़ाहिर सी बात वैसा ही चुनाव किया था, तो वैसा ही मैंने पाया।
ये मैं आपको पूछना चाह रहा हूँ कि मैंने अंतर-अवलोकन करके जो नतीजा निकाला अपने लिए, तो क्या मैं सही सोच रहा हूँ कि नहीं?
और एक चीज़ थी कि जब मैं कानूनी लड़ाई लड़ रहा था, तब मुझे समझ में आया कि संसार में मेरे जैसे बहुत सारे लोग हैं जिनको पता है कि उनके जीवन साथी ऐसा करते रहते हैं, फिर भी वो पूरा जीवन अपने साथी के साथ ही बिता रहे थे, बिना किसी दिक़्क़त के।
तो मुझे ऐसी परिस्थिति में, जब साथी सुनने को तैयार न हो, ग्लानि तो दूर की बात है, स्वीकार ही न करे कि वो ग़लती कर रहा है, तो उसको छोड़ना बेहतर है कि जैसे ज़्यादातर लोग हैं, वो अपनी ज़िन्दगी बिता देते हैं। ऐसे साथी के साथ, वैसे रहना सही है?
क्योंकि वैसे तो ये अतीत की बात है, हमारा तलाक़ भी हो चुका है। लेकिन अभी आने वाले सम्बन्ध हैं मेरे, उसके लिए, मैं वो सारी चीजें दोबारा दोहराना नहीं चाहता। मैं स्वयं को भीतर से बदलना चाहता हूँ। जिस दिशा में मैं सोच रहा था, कि नहीं, ऐसी जीवनसाथी के साथ रहना ठीक नहीं है, वो निर्णय मेरा सही है? कि जो बाक़ी बहुत सारी जगह से जो सलाह मिलते हैं या बहुत सारे लोग जो कहते हैं, वैसे निभा के, ऐसे रिश्ते को आगे बढ़ाना सही है?
आचार्य प्रशांत: देखिए, आपको जो दुख मिल रहा है वो बाहर वाले व्यक्ति से बाद में मिल रहा है। आपको दुख मिल रहा है, जो व्यक्ति था न, जैसा आपने कहा जिसने चुनाव करा था, वो व्यक्ति ग़लत था, आपको उससे दुख मिल रहा है। ठीक है? आपको उस व्यक्ति से तलाक़ लेना होगा। वो जो भीतर वाला है। जो भीतर वाला है, उसने ही ऐसी स्थिति पैदा करी है कि आपके बाहर कई तरह के लोग इकट्ठा हो गए। आपने एक व्यक्ति की बात करी, ऐसे और भी लोग होंगे। दोस्तों में होंगे। सहकर्मियों में होंगे। परिचितों में होंगे। ये सब जितने लोग हम अपने आसपास इकट्ठा करते हैं, होते तो हमारे ही चुनाव हैं न। और उनको चुनने वाला वही भीतरी ही होता है।
ऐसा तो नहीं है कि पत्नी का चयन करने कोई और सेल्फ़ (अहम) आया था? ये जो आपका सेल्फ़ है भीतर, अहम् तत्व, जिसने पत्नी का चयन किया, उसी ने और भी सैंकड़ों चुनाव हैं जीवन के जो करें होंगे। उसी ने करे होंगे न या किसी और ने करे? यहाँ तक कि आपने टीशर्ट (छोटी आस्तीन वाली कमीज) भी चुनी है, तो उसी ने चुनी होगी। उसी ने चुना कि मैं कौनसी नौकरी करूँ? पत्नी कौन हो मेरी? घर कहाँ हो मेरा? कपड़े कैसे पहनूँ? खाना क्या खाऊँ मैं? ये सब चयन वो एक भीतर बैठा है वो कर रहा है। मैं कह रहा हूँ उसको तलाक़ दीजिए क्योंकि उसको नहीं दिया तलाक़ तो वो क्या करता रहेगा? वो उसी तरह चुनाव बार-बार करता रहेगा, और बार-बार आपको दुख मिलता रहेगा। बाहर जो व्यक्ति है उसको छोड़िए। हम क्या बात करें कि…
हम नहीं जानते। आप भी कुछ हार्ड ऐविडैंस वगैरह बोल रहे हैं, कोई पूरी कहानी कभी नहीं जानता कि क्या बात है। लेकिन एक चीज़ तय है। किसी सम्बन्ध में आगर आपको दुख मिल रहा है, किसी सम्बन्ध में अगर आपका मन ख़राब हो रहा है, तो उस सम्बन्ध को चुनने में आपकी ही मूल भूल है। दूसरे को दोष बाद में दिया जाए। दूसरा जैसा भी रहा होगा, वो कूद करके ज़बरदस्ती आपका गला पकड़के तो आपकी ज़िन्दगी में नहीं आया न? मान लीजिए एक बार को कि वो बुरा आदमी भी है। बुरा आदमी दरवाज़ा तोड़के घुसा था आपके घर में? उसको आपने बाक़ायदा आमन्त्रित करा था।
तो हम भूल किसकी मानें, उसकी कि अपनी? अपनी मानेंगे। अच्छा, वो जो बाहर वाला एक व्यक्ति है मान लीजिए आपने उसको हटा भी दिया जीवन से, आपने कहा कानूनी लड़ाई लड़ी, उसको हटा दिया। अब आप किसी और को लाएँगे। मान लीजिए किसी महिला को नहीं लाए तो भी तमाम तरीक़े के तो सम्बन्ध जीवन भर बनते रहते हैं। और सम्बन्ध बनाने वाला वही पुराना जिसकी आदत है नशे में रहने की। वो फिर कुछ उल्टा-पुल्टा करेगा। आप कितनी बार तलाक़ लोगे? कितनी बार? ठीक है?
तो अपनेआप को पूरी तरह बदल डालिए। मोह बाहर के प्रति बाद में होता है, हमारा पहला मोह होता है अपने ही प्रति। हम अपने सारे दुर्गुण, अपनी सारी भूल-चूक, सब बर्दाश्त किये जाते हैं। ये सब नहीं करना है। और उसको भीतर बनाए रखने के लिए हम तरह-तरह के उपाय निकालते हैं। हम कोई फ़ायदा आविष्कृत करते हैं।
अब जैसे वही वाली बात थी, कि, पता भी है कि ग़लत संगति में हो लेकिन झेले जाओ। वो तो बहुत ही गज़ब बात थी, कि पत्नी अगर कुछ इधर-उधर कर रही है तो उसको लेवरेज (परिस्थिति का फ़ायदा) करके तुम भी इधर-उधर करो। ये सब कुछ आप करें या न करें वो बाद की बात है। पहला प्रश्न ये है कि देखिए ये सब करके प्रयोजन क्या सिद्ध हो रहा है? इससे एक ही चीज़ सिद्ध हो रही है, कि मुझे बदलना न पड़े।
जो पुराने ग़लत निर्णय थे उनसे भी किसी तरह का लाभ निकाल लो, ताकि अपनेआप को साबित कर सको कि ग़लत निर्णयों में भी कुछ लाभ तो हो ही जाता है। तो चलो क्यों न एक ग़लत निर्णय और कर डालें? फिर जो भीतर ग़लत बैठा है उसको हटाने की कोई आवश्यकता नहीं।
कोई आपके साथ कुछ कर दे, जो चुभता हो, जिसमें दिखता हो कि आप गिरे, सबसे पहले पूछा करिए मैंने उसे ऐसा करने की इजाज़त क्यों दी? मैं अपनेआप को उस जगह पर लेकर क्यों आया जहाँ वो मेरे साथ ऐसा कर पाया? क्यों?
मैं बॉलिंग (गेंदबाज़ी) करता था कैंपस में, तो, हमारे कोच (प्रशिक्षक) होते थे। सामने, उस समय पर आइआइटी में एक-दो बल्लेबाज़ हुआ करते थे। वो बहुत अच्छे थे। वो ऐसे थे कि उनको दिल्ली रणजी में खेलने का मौका मिल रहा होता था, जाते नहीं थे क्योंकि आईआईटी में कैरियर है और ये सब। तो मैं उनको गेंद डालता था और कई बार वो अच्छी गेंद पर भी तगड़ा शॉट मार देते थे। तो कोच से मेरी बात चीत हुई। कोच ने कहा ये बाद में कहना कि उसने बहुत अच्छा शॉट मारा। पहले अपनी ओर देखा करो, ऐसी गेंद क्यों डाली। मैंने कहा गेंद ठीक थी। गेंद में क्या बुराई थी? गुड लेंथ, आउटसाईड दी ऑफ़स्टम्प , बिलकुल स्टॉक बॉल थी, उसने मार दी लेकिन। उन्होंने कहा जैसी भी थी, पिटी न? ग़लती तुम्हारी है।
गुड शॉट बाद में बोला करो। और यही बात सबमें लागू होती है, टैनिस, स्कवॉश। तुम्हारा ऑपोनेन्ट (विरोधी) बहुत चढ़ कर खेल रहा है, पहली बात ये है कि तुमने मौका क्यों दिया? ऐसे भी बोल लो कि दी बैट्समैन इज़ ओनली ऐस गुड ऐस द बॉलर अलाउज़ हिम टू बी (बल्लेबाज़ उतना ही अच्छा होता है जितना कि गेंदबाज़ उसे अच्छा होने देता है)।
ज़िन्दगी अगर आपको दुख दे रही है, परेशानी दे रही है, कुछ भी हुआ है, कहीं आपका अपमान आपको लग रहा है, कहीं आपका दिल टूट रहा है, कुछ भी हो रहा है, अपनेआप से पूछा करिये। आप किसी जगह गए दावत में, पार्टी, महफ़िल में। वहाँ पर आपकी बेइज़्ज़ती कर दी गयी। पहला सवाल क्या पूछना चाहिए? मेरे भीतर कौनसी कमज़ोरी थी, कौनसा लालच था, कौनसी बेहोशी थी कि मैं उस जगह पर गया? ये बाद में गिनना किन-किन लोगों नें मेरा अपमान किया? ये बाद की बात है। वो आपके घर में घुसके तो नहीं कर रहे अपमान। आप वहाँ गए कैसे?
और ये बात पति-पत्नी के सम्बन्ध पर तो पूरी तरह लागू होती है क्योंकि न आप माँ चुनते हो, न बाप चुनते हो, न भाई न बहन, लेकिन पत्नी आप ख़ुद चुनते हो। फिर क्यों रोने आ जाते हो कि मेरे पति ने मुझपर अत्याचार करे, या मेरी पत्नी ने मेरे साथ बेवफ़ाई करी? वो तो वैसे ही थे। या शादी के बाद बदल गए?
कोई पति हिंसक है, शादी के बाद पत्नी को मारता है, वो शादी के बाद जानवर बन गया क्या? शादी से पहले देवता था? वो शादी से पहले भी जानवर ही था। तो आप बताइए न आपने जानवर से शादी करी काहे को? पर तब दिखायी ही नहीं पड़ता था कि वो जानवर है। तब लगता था फूलों के गुल्दस्ते वाला राजकुमार है। या ऐसा था कि आप अपने घर में आराम से चैन की नींद सो रही थीं, और वो आपके घर में घुसा और आपको पीटने लग गया? आपने पति बनाकर उसे हक़ दे दिया मार-पिटाई करने का, काहे को बनाया उसको पति? और वो व्यक्ति हमेशा से होता वैसा ही है। तुम्हें दिखा क्यों नहीं?
तब ये नहीं समझते कि मोह में और कामवासना में आदमी अंधा हो जाता है। तब कुछ समझ में नहीं आता। बहुत सारे पति होते हैं, शादी वगैरह हो जाती है, उसके बाद वो पत्नियों पर निगरानी बिठाते हैं। ये क्या कर रही है, कहाँ जा रही है? अरे इतनी तहक़ीक़ात शादी से पहले क्यों नहीं करी? तब तो था कि आकाश से परी उतरी है ख़ास मेरे लिए। अब डिटेक्टिव एजैंसी (जासूसी एजैंसी) बुला रहे हो?
अध्यात्म तलाक़ ही सिखाता है लेकिन बाहर वाले को नहीं, भीतर वाले को। अहंकार को त्यागिए, यही है असली तलाक़। बिलकुल त्याग दीजिए। जो आपका ऐक्ज़िस्टिंग सेल्फ़ (अस्तित्वगत अहंकार) है, उसको मत कहिए कि मेरा है, छोड़ कैसे दूँ; पुराना रिश्ता है। छोड़िए। एकदम अलग हो जाने में ज़रा भी संकुचाइए मत।
एक बात और फिर इसमें होती है, जब आप बाहर वाले को दोषी ठहराने की जगह स्वीकार कर लेते हो कि ग़लती तो मेरी ही है, तो बाहर वाले के प्रति जो घृणा और द्वेश होता है, वो थोड़ा कम होता है, क्योंकि आप जान जाते हो कि उसकी ग़लती तो बाद में है, पहले तो ग़लती मेरी ही है। फिर आपको उतना आग्रह नहीं रह जाता कि इसको दोष देना है या इसको दंडित करना है, या इसको अपने जीवन से उखाड़ फेंकना है। फिर ये भी हो सकता है कि सामने वाले व्यक्ति के प्रति आपमें थोड़ी करुणा जाग्रत हो जाए। आप कहें, ‘उसकी क्या ग़लती है। पगला तो मैं ही था, और बराबर की पगली ये भी थी। जैसे मैं पछताता हूँ, पछताती तो ये भी है।’
इतनी सी तो ज़िन्दगी होती है, उसमें हम इतने लफड़े-पचड़े ऐडजस्ट (समायोजित) कैसे कर लेते हैं? समय कहाँ से मिलता है? और भूल हम करेंगे ही क्योंकि प्रकृति हमें पैदा ही ऐसे करती है, सब तरह के दोषों के साथ। भूल जब दिख जाए, तो उसको तत्काल त्यागिए। जीवन लगातार आगे बढ़ते रहने का नाम है। अतीत की गुत्थियों में और गाँठे बाँधने को जीवन नहीं कहते। इसलिए हम कहते हैं बार-बार, जीवन में कोई महत्वपूर्ण लक्ष्य रखिए। कुछ ऐसा होना चाहिए अपने पास जो साधारण उठा-पठक और लड़ाई झगड़े से ज़्यादा आकर्षक हो।
सड़क पर देखा है, लोगों की गाड़ियाँ छू जाती हैं एक-दूसरे से, और पूरा ट्रैफ़िक वो रोक देते हैं? बीस मिनट का जाम लगा होगा और उसको आप चीर के, धीरे-धीरे-धीरे, बीस मिनट बाद पहुँचेंगे, कि जाम लगा काहे को था? तो वहाँ दो खड़े होंगे, और वहाँ बहसा-बहसी चल रही है, धूप बहुत है और बीस मिनट से दोनों खड़े हैं और उनका मूँह लाल हो गया है। पर आपने कहा, ‘हुआ क्या? कितने लोग मर गए जो इतनी बहस चल रही है?’ तो पता चलेगा उसका बम्पर छिल गया है। उसका कोने से बम्पर छिल गया है, उसके लिए ये इतनी बहस कर रहा है।
और आपको किसी महत्वपूर्ण जगह, महत्वपूर्ण काम से जाना हो, आपकी फ़्लाइट छूट रही हो, कोई आकर के पीछे से आपको ज़रा टक्कर मार दे, आप रुकोगे उससे बहस करने? रुकोगे? आप क्या करते हो? आप आगे बढ़ जाते हो। आप कहते हो लग गयी होगी थोड़ी बहुत, बाद में देखेंगे। भूलिए नहीं फ़्लाइट कभी भी छूट सकती है। सड़क पर बहसा-बहसी करने का समय नहीं है।
कौनसी फ़्लाइट ? बफ़ैलो एयरवेज़ (भैंसा वायुमार्ग)। उनका काले रंग का जहाज़ होता है और वो डिपार्चर (प्रस्थान) की घोषणा किए बिना उड़ता है। वो पहले से नहीं बताता, कि डिपार्चर टाइम (प्रस्थान का समय) क्या है, ये है वो है। वो बस खड़ा हुआ है और कभी भी ज़ुप (ऊपर की ओर इशारा करते हुए)! और आप अचानक पाएँगे कि आप उसके अंदर हैं। कहेंगे अभी तो मैं अपनी कार में था एक मिनट पहले। ये जहाज़ में कैसे आ गया? वहाँ का ऐसा ही रिवाज़ है।
तो व्यर्थ चीज़ों में समय न गवाएँ। जहाँ दिख जाए ग़लती हो गयी है, उसको त्याग के आगे बढ़ जाएँ। ठीक है? कल्पना करिए बफैलो एयरवेज़ की। उनका मैस्कॉट (शुभंकर) क्या है? काहे की छवी बनी हुई है उसपे? जहाज़ पे? भैंसा! दिख रहा है? उसे लगातार देखते रहना बहुत ज़रूरी है। भैंसे के चिह्न वाला काले रंग का जहाज़।
अब जैसे ही इसपे आप बैठते हैं, खुलते ही (आँखों के खुलते ही) अरे ये मैं कहाँ आ गया? तभी उद्घोषणा होती है, ‘आई ऐम यमराज, यॉर पायलेट फॉर दिस जरनी (मैं यमराज हूँ, इस यात्रा के लिए आपका विमानचालक)। (श्रोतागण हँसते हुए) ये विमान यहाँ से उड़ा है, और थोड़ी देर में सीधे नर्क में जाकर रुकेगा। रास्ता साफ़ है और इस विमान में आपातकाल भी उतरने के लिए न दाएँ को खिड़की है, न बाएँ कोई खिड़की है। सीट बैल्ट बाँधने की भी कोई ज़रूरत नहीं है। ज़िन्दगी में बाँधी होती, तो आज नर्क की ओर नहीं जा रहे होते। अब बाँध के क्या करोगे? किसी ऑक्सीजग मास्क की कोई ज़रूरत नहीं है।’
(श्रोतागण हँसते हुए)
समय! समय!
कहीं गन्दगी हो जाए तो उसमें लथपथ नहीं करते। क्या करते हैं? वहाँ से उठके चल देते हैं। फ़ितरत अपनी थोड़ी ऐसी रखिए। जहाँ पर बहुत गन्दगी फैल जाए, वहाँ से नमस्कार करके उठ जाइए।