पश्चाताप या प्रायश्चित?

Acharya Prashant

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पश्चाताप या प्रायश्चित?
वास्तव में पछतावा और प्रायश्चित दो अलग-अलग शब्द हैं, इनको एक समझ भी मत लेना। प्रायश्चित ज़रा साफ़-सुथरी और प्यारी बात है। पछतावे का मतलब होता है बस बाद में छाती पीटना और जब कोई न दिख रहा हो, दोबारा वही करने में मसगुल हो जाना। ये दिखाये भी जाओ कि हमें तो बड़ा दुख है कि हम गंदे हैं। इसे कहते हैं पछतावा — वो रहे भी आओ, और प्रकट करो जो यूँ रहने में बड़ा अफ़सोस है। प्रायश्चित का मतलब होता है अफ़सोस के ही पार चले जाना, नये हो जाना। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, संघर्ष सा करना पड़ता है। अगर मेरी कुछ ऐसी आदतें हैं जो शायद मैं चाहता हूँ और मुझे पता भी है कि ऐसा नहीं करने से मैं ठीक हो सकता हूँ। मगर मैं अपने आप को रोकता नहीं हूँ, अनुभव में पूरा डूबा रहता हूँ, जो चीज़ आती है मेरे सामने वो मैं करता हूँ। और उसको करने के बाद फिर एक पश्चताप की लहर पीछे से आती है, और वो कहती है कि ‘सर, आपने फिर?’ मतलब, अनुभव भी हो रहा है उसका, और मैं उसे रोकना भी नहीं चाहता।

आचार्य प्रशांत: वो पश्चाताप नहीं है, पाखण्ड है। एक देवी जी हैं, उन्होंने अभी कुछ कर्म करे; मैं कहूँ बताओ खुलकर, वो कहें न। बताने में बड़ी लाज आती है, बड़ी गरिमा आ जाती है, इट इज़ इनडिग्निफाइड (ये अपमानजनक है।) मैंने पूछा, ‘करना इनडिग्नीफाइड नहीं था, बताना इन डिग्निफाइड है?’ करने में तो कूद-कूदकर, और बताने में? करने में तो आँख मून्दकर, और बताने में?

तुम्हें वास्तव में इतनी लाज आती होती तो करने में आती न। तुम्हें कोई लाज-वाज नहीं है, और जिसको पछतावा बोल रहे हो कि ‘कर तो दिया है, पर अब प्रायश्चित उठा है, इसलिए बताएँगे नहीं’, ये प्रायश्चित नहीं है, पाखंड है। प्रायश्चित छुपाने में नहीं है, प्रायश्चित तो फिर इसमें है कि जाकर खोल देंगे। ये बढ़िया कहानी है; कर डाला, पर अब करके इतना पछता रहे हैं कि मुँह नहीं खोल सकते, और ये खूब चलता है — हमनें इतना गंदा काम किया है कि हम व्यक्त नहीं कर सकते।

तुम्हें वास्तव में लगता होता गंदा काम है, तो तुमने कर डाला होता। और दूसरी बात जो जान गया कि काम गंदा है, वो यही तो जानेगा न कि मेरे लायक नहीं है, वो यही तो जान गया न कि काम गंदा है, और मुझे गंदा इसलिए लग रहा है, क्योंकि मैं साफ़ हूँ। गंदे को कुछ भी गंदा लगेगा क्या? गंदे को तो कुछ गंदा नहीं लगेगा न?

कभी देखा किसी सूअर को कि रुमाल लेकर नाली में घुस रहा हो? कि बाहर निकलकर टिश्यु पेपर से पोछ रहा हो? गंदे को कुछ गंदा लगता है? जब किसी चीज़ को गंदा बोलते हो तो आशा तुम्हारा यही होता है न तुम साफ़ हो। अब अगर तुम साफ़ हो, तुम जान गये तुम साफ हो, और काम गंदा था, तो काम से तुम्हारा सम्बन्ध क्या रह गया? तुम तो ज़ाहिर कर दो, वो गंदा होगा, मैं साफ हूँ, तो अब तो ज़ाहिर ही कर दोगे न?

तुम ज़ाहिर तब नहीं करोगे, जब अभी वही गंदगी दोहराने का मन होगा तुम्हारा। ज़ाहिर करने का मतलब होता है, मुक्त हो जाना; बोल दिया और पीछे छोड़ दिया। छुपाने का मतलब होता है कि अभी तो हसरत बाकी है, अभी तो नाली के नीचे से पकौड़े निकालकर लाने हैं; अभी कैसे कह दे कि गंदी है। हाँ, कुछ समय बाहर बिताना है, लोगों को दिखाना है कि बाहर हैं, तो तब ये धारण करना ज़रूरी है कि नाली बड़ी गंदी जगह है, पर जहाँ लोग इधर-उधर होंगे, छुपेंगे, तहाँ हम वापस गोता मारेंगे— पकौड़े अभी बाकी हैं। ये छल मत करना। ये छल छोड़ दो तुम प्रपंचियों के लिए, गृहस्थीयों के लिए।

गृहस्थी में ये खूब चलता है— मैंने इतना निकृष्ट कृत्य और जघन्य पाप किया है कि स्वामी लबों से कह न पाऊँगी, आओ छूलो इन लबों को। ये स्वांग उनके लिए हैं जो इन्हें समझते न हों, हमने खूब करे हैं, इसलिए खूब जानते हैं। इन्हें जानने का और कोई तरीका भी नहीं, इनसे गुज़रना पड़ता है। गहरी कशिश में खिंची चली आयीं हैं, परमात्मा की अदृश्य डोर है, जो परमात्मा के मसीहा के पास ले जाती है वैरागन को। वाह रे! कहानियाँ।

प्रायश्चित का मतलब होता है मैं जान लूँ कि मैं हूँ ही नहीं वो, जिसने ये सब किया। प्रायश्चित का मतलब होता है पुनरुद्धार। प्रायश्चित का मतलब ये नहीं होता है कि हूँ तो मैं वही, बस धोखे से हो गया, आगे धोखा नहीं होगा। ये दो बहुत अलग-अलग बातें हैं। एक बात तो ये है कि हूँ तो मैं वही जिसने किया, पर धोखा हो गया। ‘अरे यार! ये गलती कैसे हो गयी मुझसे?’ सुना है न ये, ‘अरे यार! ये गलती कैसे हो गयी मुझसे ’ अच्छा! और क्या होता तुमसे? ये प्रायश्चित नहीं है— ये गलती हो कैसे गयी मुझसे?

प्रायश्चित का अर्थ होता है जान लो कि वैसे रहोगे तो गलती होनी-ही-होनी है, वैसे रहोगे तो दुख पाना-ही-पाना है; और चूँकि दुख स्वभाव नहीं है तुम्हारा, इसलिए तुम वो हो ही नहीं। जिसने भूल की वहीं रहते हुए अगर पछतावा दिखाये, तो वो कोई पछतावा नहीं हुआ। वास्तव में पछतावा और प्रायश्चित दो अलग-अलग शब्द हैं, इनको एक समझ भी मत लेना। प्रायश्चित ज़रा साफ़-सुथरी और प्यारी बात है। पछतावे का मतलब होता है बस बाद में छाती पीटना और जब कोई न दिख रहा हो, दोबारा वही करने में मसगुल हो जाना।

प्रायश्चित का अर्थ होता है पूर्ण विराम, पूर्ण विराम उस वृत्ति को जो तुमसे जो करवा रही थी, करवा रही थी, और पूर्ण विराम उस दुख को जो तुम उस वृत्ति के साथ संलग्न होकर पा रहे थे। प्रायश्चित के बाद किसी तरह का क्षोभ नहीं रह जाता अपने गत कृत्य के लिए, यही कसौटी है इस पर कस लेना।

जब तक तुम्हें अफ़सोस है कि तुमने क्या कर दिया, तब तक जान लो कि तुम दोहराने जा रहे हो, जो तुमने किया। जब तक तुम्हें अफ़सोस है, तब तक पक्का है कि तुम उतरोगे उसी कृत्य में दोबारा। जिस क्षण तुम बिलकुल अलहदा (अलग) हो गये अपने करे हुए से, तब जानना कि प्रायश्चित हो गया, साफ़ होकर नहा आये, गंगा नहा ली, तर गये, मलिनता साफ़ कर दी। अगर बार-बार यही कह रहे हो कि कितना गंदा हूँ, कितना गंदा हूँ, उफ़ कितना गंदा हूँ, तो इसका अर्थ है कि गंदे ही हो। जो नहा आया, वो क्यों कहेगा की गंदा हूँ मैं, और वो क्यों क्षोभ में रहेगा कि गंदा हूँ मैं, वो तो अब जिएगा न, आगे बढ़ेगा।

बड़ा सुख है लेकिन ऐसे जीने में कि गंदे भी रहे आओ और ये दिखाये भी जाओ कि हमें तो बड़ा दुख है कि हम गंदे हैं। इसे कहते हैं पछतावा — वो रहे भी आओ, और प्रकट करो जो यूँ रहने में बड़ा अफ़सोस है। प्रायश्चित का मतलब होता है अफ़सोस के ही पार चले जाना, नये हो जाना।

प्रश्नकर्ता: मुझे यहाँ कैसी समझ रखनी चाहिए?

आचार्य प्रशांत: समझ किसी प्रकार की थोड़ी होती है कि कैसी समझ। समझ माने समझ, समझ गये,जान गये। ये तो ऐसी बात हुई कि आपको कैसे सुनना चाहिए, तीन-चार तरीकों से सुनोगे क्या, एक ही तो बात है।

प्रश्नकर्ता: वो कृत्य जो मैं चाहता नहीं मेरे व्यक्तित्व में न रहे और मैं चाहता हूँ उससे आगे बढ़ाना।

आचार्य प्रशांत: तुम चाहते नहीं, तभी तो इतना आकर्षक है। जो कुछ चाहने से वर्जित होता है, वही तो तुम बार-बार करोगे, वही तो आकर्षक है। तुम जितना अपने आप को बताओगे ये चाहने की चीज़ नहीं, उतना ही और चाहोगे उसको। जिन्होंने तुम्हें समझाया है ये चाहो, ये न चाहो, उन्होंने पक्का कर दिया है कि जो कुछ चाहने से मना किया गया है वही चाहा जाएगा।

प्रश्नकर्ता: पूर्ण विराम की स्थिति कब आती है?

आचार्य प्रशांत: जब दिख जाता है कि चाहना, न चाहना, ये सब सिर्फ़ संस्कारों के काम हैं; तब तुम पर पूर्ण विराम लग जाता है; तब तुम जो अपनी ताकत चाहने और न चाहने के साथ जोड़े बैठे थे, वो ताकत अलग हो जाती है।

प्रश्नकर्ता: फिर कैसे आकलन होना चाहिए मेरे क्रियाओं का?

आचार्य प्रशांत: कोई आकलन नहीं होना चाहिए। जानना, आकलन नहीं है। मैं जानूँ कि तुम कौन हो, उसमें मैं तुम्हारा मूल्यांकन नहीं कर रहा हूँ। आकलन इत्यादि की कोई ज़रूरत नहीं है। आकलन का तो मतलब यही है कि आदर्श की तुलना में मैं कितना ऊँचा उठा, मेरा आकलन कीजिए, मेरा आकार नाप दीजिए और मुझे बता दीजिए कहाँ पहुँचा।

कोई कह रहा है तीस तक पहुँच गये, कोई कह रहा है चालीस तक पहुँच गये; आकलन अभी बढ़ रहा है, सौ तक जाना है। आकलन वगैरह कुछ नहीं है। होती घटना को जान पाने की काबिलियत हममें सब में है। जब वो घटना हो रही है उसको तब जानो, घटना को भी जानो, घटना के पछतावे को भी जानो। ये तो अपने आप को सहूलियत दो ही मत कि पछता रहे हैं।

देखो क्या है, जब कुछ ऐसा कर गुज़रते हो न जो स्वभाव विरुद्ध है, तो जो पूरा तन्त्र है वो खुद ही उस घटना से मुक्त होना चाहता है। पछतावा करके तुम वो सहज सफ़ाई होने नहीं देते। हमारा जो पूरा तन्त्र है न, वो लगा लो गंगा की तरह है, किसी शहर से जब वो गुज़रती है, तो थोड़ी गंदी हो जाती है। पर शहर से थोड़ा आगे तुम उसको देखोगे तो अपने आप साफ़ कर लेती है, अपने आप को। हाँ, तुमने उसमें इतना कचरा डाल दिया हो कि नहीं कर पाये, तो दूसरी बात है, वरना उसकी जो स्वभावगत प्रक्रिया है, वो सफ़ाई की है। तुम उसमें कुछ डाल भी दो, कुछ समय के लिए गंदी दिखेगी, तुम दस किलोमीटर आगे जाकर देखो पुनः साफ़ दिखेगी; हम वैसे ही हैं।

हमारी पूरी व्यवस्था खुद ही बर्दाश्त नहीं करती है मलिनता को, वो खुद ही साफ़ कर देना चाहती है। अब मलिनता क्या है? मलिनता है प्रवाह से हटकर किसी चीज़ का प्रवाह में प्रवेश; यही तो परिभाषा हुई न मलिनता की? प्रवाह में कुछ ऐसा डाल देना, जो प्रवाह का नैसर्गिक हिस्सा नहीं है यही है। पछतावा भी गंदगी है जो तुम प्रवाह में प्रविष्ट करा देते हो, वो भी प्रवाह का नैसर्गिक हिस्सा नहीं है।

कुछ हो गया तुमसे, उसे जो भी कहना है कह लो, त्रुटि कहना कह लो, जो भी कह लो, कोई नाम न दो तो भी ठीक, उसको आगे बढ़ाने में इस पछतावे नाम की चीज़ का बड़ा योगदान रहता है। क्योंकि पछतावा तुम्हारी सुन्दर छवि को खण्डित नहीं होने देता न। जो तुमसे हुआ, वो यूँही तो नहीं हुआ? तुम अपनी किसी छवि पर नाज़ करते थे, तुम अपनी किसी छवि के समर्थन में थे, तुम अपने बारे में कुछ सोचते थे। जो तुम सोचते थे, जो तुम अपने आप को जानते थे, उसी ने तो किया या किसी और ने किया, उसी ने किया न?

तुम कहते थे, ‘मैं बड़ा मेहनती हूँ।’ ये तुम्हारी छवि थी, तुम कहते थे कि तुम बड़े मेहनती हो, ये तुमने अपनी छवि बना रखी थी, ‘मैं तो श्रमशील, कुछ भी कर दूँगा’, पाया ये कि तुमसे साधारण सा काम नहीं हुआ, आलस में भरे बैठे रह गये; अब तुम्हारे तन्त्र में जो ईमानदारी है न, वो खुद ही तुम्हें ये ज़ाहिर कर दे कि ‘देखो, तुम जो छवि ही बनाये बैठे थे, वो झूठी थी’, इसी को कह रहा हूँ कि नदी खुद ही साफ़ कर देती है उन चीज़ों को जो तरल नहीं है, जो जल का हिस्सा नहीं हो सकतीं।

लेकिन पछतावा तुम्हें इस भ्रम को कायम रखने में मदद देता है कि ‘नहीं, तुम हो तो मेहनती ही। दुर्भाग्यवश, तुमसे भूल हो गयी कि किसी एक खास मौके पर तुम आलसी हो उठे।’ पछतावा उसको बचा देता है जो टूटने के लिए तैयार था, क्योंकि त्रुटी ने दुख दिया था। आलस करा तुमने तो दुख मिला; तुम अपने आप को क्या समझते थे?

प्रश्नकर्ता: मेहनती।

आचार्य प्रशांत: तुमने आलस करा, आलस तथ्य है तुम्हारा तो दुख मिला। ये जो दुख है, इसका उपयोग ही यही था कि ये तुम्हारी सुन्दर छवि को खण्डित कर देता है, किस छवि को? मेहनती। ये दुख बड़ा उपयोगी दुख था, ये सफ़ाई कर देता, ये निर्मल कर देता तुमको, ये तुम्हें बता देता कि तुम जो सोचे बैठे हो अपने बारे में, तुम वो हो ही नहीं।

पर पछतावा करके तुमने दुख की धार को कुन्द कर दिया। तुमने कह दिया, न-न-न मेहनती मैं हूँ। दुख क्या सिद्ध करना चाहता था? तुम मेहनती नहीं हो। पछतावे ने क्या सिद्ध कर दिया? मेहनती मैं हूँ, बस एक बार भूल हो गयी, मेहनती में हूँ बस एक बार भूल हो गयी आगे नहीं दोहराऊँगा। तुम देख रहे हो पछतावा किस तरह से तुम्हारी गंदगी को बचाए रखने में सहायक होता है पछताओ मत।

दुख आता है, कर्मफल आता है उसको अपने दिल में तीर की तरह चुभ जाने दो। जब अपने कर्मों का अंजाम मिले तो उसकी चिकित्सा मत करो। चोट लगी है उस घाव को खुला छोड़ो, छुपा मत दो उसे, उसकी पट्टी मत कर दो, खुला छोड़ो, खून बहे। दिखना चाहिए तुम्हें कि घाव लगा है। वो जो घाव है, वही तुम्हें तोड़ देगा, काट देगा, तुम्हारी शुद्धि कर देगा। दुख है ही इसीलिए कि वो किसी ऐसी चीज़ को दुखी करे, किसी ऐसी चीज़ को तोड़े जिसे टूटना ही चाहिए।

जिन्हें दुख मिलता है, उन्हें दुखी होना ही चाहिए। जिसे दुख मिलता है, तुम्हारे भीतर जिसको चोट लगती है, उसे चोट लगनी ही चाहिए, क्योकि उसकी नियति है टूट जाना, मिट जाना, दुख आता ही इसलिए है। जिस जगह वार हो रहा हो, उस जगह को बचाना मत; पछतावा कवच है, वो बचा देता है।

प्रश्नकर्ता: हम सॉरी वगैरह बोलकर जल्दी-जल्दी सलटा देते हैं।

आचार्य प्रशांत: हाँ-हाँ-हाँ!

प्रश्नकर्ता: जब मैं अपने आप को ही देखता हूँ, तो मुझे ये वाला भाव जो पछतावा आप कह रहे हैं, शायद मुझे न होता हो। एक बार तो मुझे लगता है कि मैं बहुत बेशर्म हूँ, या मैं ज़्यादा सोचता नहीं हूँ; मगर मैं जिसके इर्द-गिर्द रहता हूँ, हो सकता है मेरा परिवार हो, और परिवार में उनके अनुरूप कुछ नहीं कर रहा हूँ मैं, और वो मुझे हर रोज़ बोलते हैं कि देखो दुनिया इतनी बदल गयी है, ये बदलाव आ रहे हैं, लोग क्या-से-क्या कर रहे हैं, और आप क्या कर रहे हैं। जब ऐसा कोई भाव मुझे देता है तो मैं समभाव न होने के बजाय, मुझे कुछ-न-कुछ ऐसा लगता है कि शायद उन्होंने मुझे एक कारण दिया है, वो सोचने का, गम्भीरता से, शायद वो आप कह रहे हैं कि प्रायश्चित का रूप ले लेता हो या पछतावे का रूप ले लेता हो। मगर खुद मैं अपने आप को जब देखता हूँ, तो मैं पाता हूँ कि शायद मैं बेशर्म हो गया हूँ, अपने घर में रहते हुए; मगर मैं कर वही रहा हूँ, रोका नहीं मैंने।

आचार्य प्रशांत: तुम्हारी समस्या ये है कि तुम बेशर्म होने के बारे में बड़े शर्मसार हो। हमें अपनी बेशर्मी पर बड़ी शर्म आती है। बेशर्मी तो स्वभाव है, पर तुम बेशर्मी के बारे में शर्मसार हो जाते हो। बेशर्म हम सब हैं और हमें यही शर्म है कि हम बेशर्म क्यों हैं? सिखाता हूँ मैं बेशर्मी से बेशर्म होना। बेशर्म तो हम सब हैं ही, नंगापन हकीकत है हमारी। आत्मा चिर नग्न है, सदा अनावृत है। पर तुम हर उस चीज़ से घबराते हो जो ज़ाहिर है, जो प्रकट है, जो नग्न है; उस बेशर्मी से तुम्हें शर्म आती है।

कभी देखा है न, एक ज़रा सा बच्चा भी नंगा घूम रहा होता है, उसे नहीं शर्मा आ रही होती, वो बेशर्म है; तुम्हें उसकी बेशर्मी पर शर्म आ जाती है। तुम उसके पीछे चड्ढी लेकर दौड़ते हो – ले पहन। अगर बड़ा, नंगा घूम रहा हो तो तब तो चड्ढी नहीं, लट्ठ लेकर दौड़ोगे।

बेशर्मी काफ़ी नहीं है, बेशर्मी के बारे में बेशर्म होना पड़ेगा। पहली बेशर्मी है आत्मा की, दूसरी है मन की। आत्मा तो सदा बेशर्म है, मन बेशर्म नहीं होने पाता। तुम्हें बेशर्मी पर शर्म आती है, आत्मा बेशर्म रहती है, मन शर्मसार हो जाता है। आत्मा और मन को एक रस होना पड़ेगा, एक प्राण होना पड़ेगा, दोनों को बेशर्म होना पड़ेगा, तब एक होंगे न— “तेरा मेरा मनुआ कैसे एक होई रे।” जैसी आत्मा है, वैसे ही हो जाओ।

लल्ला बड़ी खूबसूरती से कहती हैं , कहती हैं, ‘मैंने अपने गुरु से बार-बार पूछा, बार-बार पूछा; अन्ततः उन्होंने मुझसे एक बात बोली,जैसी भीतर हो, वैसी ही बाहर भी हो जाओ।’ इसके अलावा और कोई मन्त्र होता भी नहीं। भीतर से जैसे नग्न हो, निर्लज्ज हो, और बेशर्म हो बाहर से भी वैसे ही हो जाओ। क्योंकि भीतर वाला तो बदलेगा नहीं। और बाहर वाला जब तक भीतर वाले के साथ एकलय नहीं होता, तब तक बाहर-भीतर में लड़ाई बनी ही रहेगी, और उस चक्की में पिसोगे तुम।

तुम ये सोचो कि जैसे मन संस्कारित है शर्म के लिए, वैसे ही आत्मा को भी संस्कारित कर लोगे, तो कर नहीं पाओगे दिल तो तुम्हारा निर्लज्ज ही रहेगा, नंगा। मन को तुम कितना भी संस्कारित कर लो आत्मा को अनुप्राणित नहीं कर पाओगे, उसको तो वैसे ही रहना है जैसी वो है, वो किसी के सिखाने में नहीं फँसती। बाहर से दिया हुआ कुछ भी वो स्वीकार नहीं करती, क्योंकि बाहर उसके कुछ है ही नहीं।

तो तरीका बस एक है, जो बदल नहीं सकता उसे बदलने की कोशिश व्यर्थ है। आत्मा और हृदय बदल नहीं सकते उन्हें मत बदलना। जो बदल सकता है, उसको बदल दो; वो भी बदलने को तैयार बैठा है तुम बस रोको मत। हृदय बेशर्म है, मन को भी बेशर्म हो जाने दो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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