प्रश्नकर्ता: पश्चिम के पास तो ना अध्यात्म था, ना वेदांत, फिर भी पश्चिम ने इतनी तरक़्क़ी कैसे कर ली? आप बार-बार अध्यात्म, वेदांत पर इतना ज़ोर डालते हैं, पश्चिम इनके बिना ही आगे कैसे बढ़ गया?
आचार्य प्रशांत: पश्चिम आधा आध्यात्मिक हो कर के ही आगे बढ़ा है। अध्यात्म का सम्बन्ध होता है बाहर और भीतर दोनों की सच्चाई से; पश्चिम आधा आध्यात्मिक तो रहा ही है। पश्चिम ने भीतर की सच्चाई की ओर ध्यान नहीं दिया, लेकिन बाहर के तथ्य को जानने में उसने पूरा ज़ोर लगा दिया। और अगर कोई संसार की, पदार्थ की हक़ीकत भी जानने में ईमानदारी से उत्सुक है, तो वो आदमी आध्यात्मिक ही है; बस वो आधा आध्यात्मिक है, अभी पूरा नहीं हुआ। यही पश्चिम अगर पूरा आध्यात्मिक हो जाता, तो न जाने और कितना आगे बढ़ जाता।
भारत की जो स्थिति हुई, जिसके कारण भारत बड़ी दुर्दशा में रहा, और उस दुर्दशा से अभी-भी बहुत बाहर निकला नहीं है, वो स्थिति ये रही कि बाहर का तो तथ्य जानना नहीं है क्योंकि बाहर का तथ्य जानने में कोशिश करनी पड़ती है, अनुशासन लगता है, सब्र चाहिए होता है, तथ्य के प्रति ईमानदारी चाहिए होती है। तो बाहर का तो कुछ पता करना नहीं है, मेहनत कौन करे, और मेहनत न करने की बदनीयती को जायज़ ठहराने के लिए कह दिया कि “अरे! ये तो जो बाहरी दुनिया है, पार्थिव, ये तो क्षण-भंगुर है, मिथ्या है, माया है, फ़ानी है। क्या इसमें हम बहुत ज़्यादा शोध करें! क्या हम पदार्थ में घुस-घुस कर देखें कि इसके भीतर क्या है! क्या हम अंतरिक्ष में दूर तक जा कर के देखें! बाहर का तो पूरा संसार ही बस भीतर का प्रक्षेपण-मात्र है, तो बाहर जा कर के बहुत खोज-ख़बर करने की ज़रूरत ही नहीं है।" अब ये जो बाहर खोज-ख़बर नहीं की गई पिछले कई सौ-सालों से भारत में, उसकी वजह ये नहीं है कि पूरी-की-पूरी आबादी ही इतनी आध्यात्मिक हो गई थी कि उसे बाहर की दुनिया से कोई मतलब नहीं रहा; उसका ज़्यादा बड़ा कारण ये है कि बाहर प्रयोग करने के लिए एक खुला मन चाहिए, मुक्त विचार चाहिए, और श्रम चाहिए, अनुशासन चाहिए। अब कौन इतनी मेहनत करे, तो इससे अच्छा ये कह दो कि “बाहर जो कुछ है वो तो मिथ्या है।"
चलो ठीक है भई, बाहर वाली चीज़ को मिथ्या बोल दिया, तो भीतर की दिशा में श्रम करा क्या? नहीं, भीतर की दिशा में श्रम नहीं करा, भीतर की दिशा में बोल दो कि “भीतर जो कुछ है वो तो हमें पता ही है।" भीतर के लोक को ले कर के हमारे पास अद्भुत-कहानियाँ हैं, और उन कहानियों को चुनौती नहीं दी जा सकती, क्योंकि साबित ही नहीं किया जा सकता कि वो कहानियाँ झूठी हैं।
भई! पृथ्वी-लोक को ले कर के कह दो कि पृथ्वी-लोक तो मिथ्या है। अच्छा, चलो, तो अंतरलोक के बारे में तुमने कुछ अगर ज्ञान इकट्ठा करा हो तो वही बता दो। बाहर जो है वो मृत्युलोक है या पृथ्वी-लोक है, इहलोक है; तुम्हें उसका कुछ पता नहीं, उसको तो तुम कह रहे हो कि, “कौन इसमें पड़े? जगत मिथ्या!” तो तुम अंतरलोक या परलोक जिसको बोलते हो, उसके विषय में ही बता दो कि तुमने क्या जाना। तो उसके विषय में तुमने कुछ जाना हो या ना जाना हो, तुम्हारे पास कहानियाँ तो खूब हैं न! खूब कहानियाँ हैं; ज्ञान कुछ नहीं है, कहानियाँ ज़बरदस्त हैं!
“भीतर इतनी नाड़ियाँ होती हैं - बहत्तर-हज़ार, बहत्तर-हज़ार एक-सौ”, और पूरे विश्वास के साथ बोल रहे हैं, कि “होता-ही-होता है।" और ये बात तुम पूरे विश्वास के साथ बोल सकते हो, क्योंकि इस बात को जाँचने का कोई उपाय नहीं है। बाहर की दुनिया में जो तुम बोलोगे, वो बात झूठी साबित कर दी जाएगी जाँच कर के, तो तुमने बाहर की दुनिया में उपाय ये निकाला कि “हम बाहर की दुनिया के बारे में कुछ बोलेंगे ही नहीं!” और क्यों नहीं बोलेंगे बाहर की दुनिया के बारे में? “क्योंकि ये तो सब मिथ्या-लोक है न बाहर! तो बाहर हम क्या जानकारी हासिल करें?”
आपसे पूछा जाए कि “बताइए पानी क्या है?” तो आप तुरंत कह देंगे, “पानी तो कुछ नहीं है! फ़ानी है पानी। पानी तो रहना ही नहीं है, तो मैं पानी के बारे में क्या बोलूँ?” या आप कोई सुनी-सुनाई बात कह देंगे, आप कह देंगे, “पानी भी एक तत्व है, मूल-तत्व है", क्योंकि ये बहुत पुरानी बात है, ये उस समय की बात है जब वो संसाधन ही उपलब्ध नहीं थे कि पानी को भी तोड़ कर देखा जा सकता कि पानी मूल-तत्व नहीं है, अभी तो उसके भीतर हाइड्रोजन बैठा है, ऑक्सीजन बैठा है, दो अन्य मूल-तत्व बैठे हैं। और वो हाइड्रोजन, ऑक्सीजन भी मूल नहीं हैं, उनके भीतर भी तीन मूल-तत्व बैठे हैं; और जो तीन मूल बैठे हुए हैं उनके भीतर — न्यूट्रॉन, प्रोटॉन, इलेक्ट्रॉन — विज्ञान ने तो अब पिछले पचास-सालों में ये भी जान लिया है कि वो भी मूल या फंडामेंटल नहीं हैं, उनका भी विखंडन हो गया है; उनको भी तोड़ कर पता कर लिया है कि एलीमेंटल (मूल तत्व) तो उससे भी नीचे का कुछ और है।
तो बाहर की दुनिया को ले कर के या तो कोई जवाब देना नहीं है, कि “अरे छोड़ो, हम बहुत दुनियादारी में नहीं पड़ते, हम तो विरक्त, संन्यासी हैं”, या कोई जवाब देना भी है तो वही जो सदा-से चला आ रहा है। भीतर की दुनिया को ले कर के हमारे पास बड़े रंगीले जवाब रहते हैं, जवाब माँगा जाए तो हम पूरी कहानी, बल्कि पूरा उपन्यास सुना सकते हैं। पूछा जाए कि “बताओ भई! गर्भ में जो माँस का पिण्ड होता है, उसमें जीवन कैसे आता है?” तो एक-से-एक कहानियाँ हैं; ये भले ही ना पता होगा कि जो गर्भस्थ-शिशु है उसको किस तरीके से पोषण मिल रहा है गर्भ में, और उसे किस-किस तरह के पोषण की ज़रूरत है, और सकुशल उसका जन्म हो जाए इसके लिए क्या-क्या सावधानियाँ बरती जानी चाहिए, और अगर किसी तरह की कोई पेचीदगी आती है तो किस तरह की चिकित्सा की ज़रूरत पड़ेगी। ये सब भले ही ना पता हो, लेकिन ये कहानियाँ भरपूर हैं, कि “ऐसे वो उड़ रही होती है आत्मा, और फिर ऐसे प्रवेश करती है, फलाने द्वार से घुसती है, और ये इस तरह के छः द्वार होते हैं, और सब द्वारों का एक-एक ऐसा-ऐसा रंग भी होता है।" और इस तरह की बातें आप खूब कर सकते हैं, इन बातों पर आपको कोई चुनौती भी नहीं देगा, क्योंकि ये बातें जाँची नहीं जा सकतीं, इन पर कोई प्रयोग, परीक्षण नहीं हो सकता। तो ये बातें चल रही हैं; ये काम भारत ने करा है। और ये काम अध्यात्म के बिलकुल ही विरुद्ध है, क्योंकि अध्यात्म सच्चाई की खोज है।
सबसे निचले तल पर वो मन होता है, वो लोग होते हैं, वो समाज होता है, जो कल्पनाओं में जी रहे होते हैं। दुर्भाग्य की बात है कि जिस देश में उपनिषद् रचे गए, जिस देश में सत्य की प्यास गहरी-से-गहरी रही, उस देश की ये दुर्गति हो गई कि वो देश कल्पनाओं में जीने लग गया, धारणाओं में जीने लग गया, मान्यताओं, दिवा-स्वप्नों में जीने लग गया। उससे ऊपर का तल होता है उस मन का जो तथ्यों में जीता हो; ये पश्चिमी-समाज हुआ, वो कम-से-कम कल्पनाओं में नहीं जीता, वो तथ्यों में जीते हैं। इसका मतलब ये नहीं है कि वो पूर्णतया विकसित समाज है, क्योंकि ऊँचा समाज, उच्चतम समाज वो होगा जो सत्य में जिएगा, और सत्य का मतलब होता है जगत का तथ्य और जीव का तथ्य एक-साथ जानना; पश्चिम अभी इससे वंचित है। पश्चिम की सारी नज़र कौन-सा सच जानने पर है? जगत का सत्य, “पदार्थ का सच पता चल जाए”, पश्चिम की सारी कोशिश ये है। लेकिन इंसान का सच क्या है, मन का सच क्या है, इसकी ओर पश्चिम ने पर्याप्त ध्यान दिया नहीं है। हालाँकि अब पिछले बीस-चालीस सालों से पश्चिम ने भीतर की दुनिया पर भी ध्यान देना शुरू कर दिया है।
भारत की दोनों ओर से दुर्गति है — बाहर की दुनिया को जानने के लिए वैज्ञानिक-दृष्टिकोण नहीं, बाहर की दुनिया को जानने के लिए जो अनुशासन और श्रम चाहिए उसका कोई इरादा नहीं, और रही भीतर की दुनिया की बात, तो वो जानने की ज़रूरत ही नहीं, क्योंकि वो तो हमें पहले ही पता है! हमारे पास ज़बरदस्त किस्से-कहानियाँ हैं, और अगर वो किस्से-कहानियाँ कभी कम पड़ने लगते हैं, या कमज़ोर पड़ने लगते हैं, तो एक-से-एक ज़बरदस्त गुरु घूम रहे हैं, वो और आपूर्ति कर देते हैं कहानियों की।
पश्चिम में शोध होगा कि मृत्यु क्या चीज़ है, कैसे आती है; मृत्यु के क्षण में शरीर के कौन-से हिस्से काम करने बंद करते हैं; हृदय की मृत्यु पहले होती है (या) मस्तिष्क की मृत्यु पहले होती है; जिसको हम चेतना कहते हैं, उसका मृत्यु से क्या संबंध है। पश्चिम में शोध होगा; भारत में गुरु-जन मृत्यु को ले कर के अफ़साने फैलाएँगे, एक-से-एक परिकथाएँ, बच्चों की कहानियाँ। तो फिर (सच) कैसे पता चलेगा? ना बाहर के जगत का कुछ पता चलना है, ना भीतर के जगत का कुछ पता चलना है। हमें सच्चाई चाहिए कहाँ! काम हमारा चल जाता है कल्पनाओं से, कहानियों से। भारत इसलिए पीछे रह गया है।
तो पश्चिम आगे इसलिए नहीं बढ़ा है कि वो आध्यात्मिक नहीं है। ये भी एक बड़ा प्रचलित कुतर्क है, कि “साहब, भारत आध्यात्मिक है इसलिए पीछे रह गया, और पश्चिम आध्यात्मिक नहीं है इसलिए आगे बढ़ गया”, दोनों तरफ़ से ग़लत बोल रहे हो, एकदम बात को समझ नहीं रहे। तुम कह रहे हो, “भारत आध्यात्मिक है, इसलिए पीछे रह गया।” नहीं, भारत पीछे इसलिए रह गया क्योंकि भारत आधा भी आध्यात्मिक नहीं है; भारत को ना जगत का सच जानना है, ना जीव का, इसलिए सबसे पीछे रह गया। और पश्चिम आगे इसलिए निकल गया क्योंकि पश्चिम कम-से-कम आधा आध्यात्मिक है। तो पश्चिम के आगे निकलने की वजह ये नहीं है कि उन्हें अध्यात्म से कोई मतलब नहीं, पश्चिम आगे इसलिए निकला है क्योंकि वो आधा तो आध्यात्मिक है ही, इसलिए वो भारत से आगे निकला हुआ है। चूँकि सिर्फ़ आधा ही आध्यात्मिक है पश्चिम, इसीलिए उनके पास बहुत सारी समस्याएँ भी हैं। पदार्थ को उन्होंने जीत लिया है, लेकिन भीतरी तौर पर परेशान हैं। पश्चिम और आगे निकल जाएगा जैसे ही वो भीतरी सच में भी जिज्ञासा दिखाएगा और प्रयोग करेगा; और ऐसा करना पश्चिम ने शुरू भी कर दिया है।
बड़े दुर्भाग्य की बात है कि भारत में अभी-भी ना विज्ञान के प्रति, और ना अध्यात्म के प्रति कोई सच्ची रुचि दिखायी दे रही है। आने वाला समय ऐसा भी हो सकता है कि पश्चिम विज्ञान में तो आगे है ही, अध्यात्म में भी आगे निकल जाए। भारत क्या बनने की दिशा में अग्रसर है? मध्यम-वर्गीय और निम्न-मध्यमवर्गीय लोगों का एक साधारण, औसत क़िस्म का बाज़ार, जिसकी ख़ासियत बस ये है कि उसमें लोग बहुत सारे हैं, जिस कारण बाज़ार का आकार बड़ा है।
क्यों विशेष है भारत? भई, कोई पूछेगा तो क्या बोलेंगे? "क्योंकि हम एक-सौ-चालीस करोड़ लोग हैं!" उन एक-सौ-चालीस करोड़ लोगों की गुणवत्ता कैसी है, इसकी कोई बात नहीं करनी है। उन एक-सौ-चालीस करोड़ लोगों के ज्ञान का स्तर क्या है, चेतना का स्तर क्या है, इसकी कोई बात नहीं करनी है। वो सब जो लोग हैं अधिकांशतः, आर्थिक-तौर पर भी और मानसिक-तौर पर भी, या तो औसत दर्जे के हों या औसत से भी नीचे के, लेकिन वो इतने ज़्यादा हैं कि कुल मिला कर के वो एक बड़ा बाज़ार बन जाते हैं, जिसमें विक्रेता, कम्पनियाँ ये सब आ कर के अपना माल बेच सकती हैं। तो बस इतना ही कुल महत्व पाने की दिशा में भारत अग्रसर है; और ये निश्चित रूप से न सिर्फ़ दुखद है, बल्कि भयानक बात है।