प्रश्नकर्ता: बड़े होते होते ऐसा क्यों होता है कि उनके व्यूज़ क्लैश करने लग जाते हैं और कभी-कभी पेरेंट्स अपने दो या तीन बच्चों में ये टेस्ट करने लग जाते हैं कि ये ज़्यादा होशियार है। ये नालायक निकलेगा ये ऐसा होगा ऐसा क्यों होता है मतलब बड़ा होने पर?
आचार्य प्रशांत: देखो पहली बात तो ये जो बचपन का और किशोरावस्था का सम्बन्ध होता है इसको प्यार कहना भी ठीक नहीं है। तुम कुछ लोगों के साथ रहते हो और लगातार उन्हीं के बीच बने हुए हो तो स्वभाविक सी बात है कि आकर्षण हो जाएगा वो एक तरह का परिचय बस है, गहरा परिचय हो गया है। वो प्यार नहीं है वो प्यार नहीं। तुम और जानते ही किसको थे? तुम्हारी दुनिया ही इतनी छोटी-सी थी, तो स्वभाविक-सी बात है कि पहले अपने भाई-बहन, फिर नाते-रिश्तेदार और फिर मोहल्ले के कुछ दोस्त इससे ज़्यादा बड़ी तो तुम्हारी दुनिया है ही नहीं। सबसे करीब हुए तुम्हारे अपने छोटे परिवार के, फिर उससे बड़े हुए तुम्हारे एक्स्टेंडेड फैमिली (विस्तृत परिवार) के, नाते-रिश्तेदार फिर उसके आगे तुम्हारे बहुत-बहुत कुछ अड़ोसी-पड़ोसी आ गये इससे ज़्यादा तुम और किसको जानते हो, तो इन्हीं लोगों में तुम दस साल, पन्द्रह साल रहते हो तो इनसे एक आकर्षण हो जाना स्वभाविक सी बात है। इन्हीं लोगों में जी रहे हो।
फिर तुम घर से बाहर निकलते हो वहाँ तुम्हें नयी दुनिया मिलती है। तुम कुछ अपना पाते हो, जो तुम्हारी अब तक की चली आ रही रूढ़ियों से अलग था। तुम्हें कुछ ऐसा मिलता है जो परिवार ने तुम्हें नहीं दिया है। तुम्हें कुछ ऐसा मिलता है जो नाते-रिश्तेदारों ने, शहर ने तुमको नहीं दिया है। तुम अपनेपन को पाना शुरु करते हो। तुम्हारी अपनी समझ खुलती है। अब स्वभाविक ही है कि तुमको उसमें से कुछ पसन्द न आये जो तुमको पहले परोसा जाता था और जिसे तुम पहले सहर्ष स्वीकार कर लेते थे। कि हाँ लाइए बहुत बढ़िया है। अब हो सकता है उसमें से कुछ तुमको अब अखरने लगे। इस अखरने में चिन्ता की कोई बात नहीं।
इस अखरने में कुछ गड़बड़ नहीं हो रहा अच्छा ही हो रहा है। तुम चले आ रहे थे एक लीक पर, एक लीक पर, एक लीक पर और तुम्हारे सामने कोई विकल्प भी क्या था? तुम एक घर में पैदा हुए हो तुम्हें एक प्रकार के संस्कार दिये गये हैं तुम्हारे पास और विकल्प ही क्या है? तुम उस लीक पर चलोगे-ही-चलोगे फिर एक दिन होगा कि जब घर छूटेगा तुम्हारी आँखें खुलेंगी तुम दुनिया का विस्तार देखोगे और अब अगर तुम्हारी दिशा बदलती है तो उसे बदलने दो, उसमें कोई बुरायी नहीं है।
हाँ, बस ये है कि दोबारा वही न होने लगे जो घर में होता था, घर में तुम प्रभावित थे। दुनिया में आकर के प्रभावित मत हो जाना। मैंने कहा, ‘दुनिया में आकर तुम्हारी आँखें खुलती हैं।‘ आँखें खुलना और बात है और प्रभावित हो जाना बिलकुल दूसरी।
आँखें खुलकर के अगर तुम अपना रास्ता बदल रहे हो तुम्हें कुछ नया ही दिखायी पड़ रहा है, तुम्हें कुछ नया ही सुनायी पड़ रहा है, और वो तुम्हें पुकारता है तो उसमें परेशान बिलकुल मत हो। इस बात से मन में क्षोभ मत पालो कि अब मैं पहले जैसा नहीं रहा या कि दूसरे पहले जैसे नहीं रहे। भली बात है पहले जैसे नहीं रहे।
कैसा लगेगा तुम्हें कि अगर पन्द्रह साल कि उम्र में भी वही है किशोर जो पाँच साल की उम्र में था। तुम कहोगे कि अरे! इसका तो कोई विकास ही नहीं हुआ। ठीक उसी तरीके से तुम पच्चीस की उमर में भी वैसे ही रह गये जैसे पन्द्रह की उम्र में थे तो इसका अर्थ है कि तुम रुक गये। इसका अर्थ है कि कोई ग्रोथ नहीं है।
अच्छा जब मैं ग्रोथ कह रहा हूँ तो इसका मतलब ये मत समझ लेना कि मैं किसी नयी चीज़ को अपने ऊपर लादने की बात कर रहा हूँ जब मैं ग्रोथ कह रहा हूँ, तो उस ग्रोथ से मेरा आशय है मैच्योर्टी (परिपक्वता) से था, अपने आप को पाना। जब तक तुम परिवार में रहते हो तब तुम अपने आप को थोड़े ही पाये रहते हो। तुम पूरे तरह से एक परिवारिक प्राणी होते हो।
ईमानदारी से बताओ एक बच्चा पैदा होता है उत्तर प्रदेश के किसी गाँव के एक घर में। उसका एक देश है, उसका एक धर्म है। और एक बच्चा पैदा होता अमेरिका के किसी बड़े शहर में। क्या पैदा होते से ही दोनों में कोई विशेष अन्तर है? हाँ, ठीक है दोनों की जेनेटिक संरचना कुछ अलग होगी, पर उसके अतिरिक्त भी क्या दोनों में अन्तर है? कोई अन्तर नहीं है जबकि दोनों का धर्म अलग है, दोनों की आर्थिक परिस्थिति अलग है, दोनों का देश अलग है, सबकुछ अलग-अलग है; पर उसके बाद भी उन बच्चों में अभी शरीर के अतिरिक्त और कोई अन्तर नहीं है। शरीर के जो अन्तर है वो हैं। उसके अतिरिक्त उनमें अभी कोई अन्तर नहीं हैं; पर दस साल का होते-होते दोनों में ज़मीन-आसमान का अन्तर आ जाता है।
तुम जो होते हो दस साल में, बारह साल में वो तुम नहीं होते, वो तुम्हारे ऊपर डाला गया होता है। अमेरिका वाले पर एक चीज़ डाल दी जाएगी और हिन्दुस्तानी के ऊपर दूसरी चीज़ डाल दी जाएगी। दोनों बिलकुल अलग-अलग भाषा में बात करेंगे। दोनों के तरीके बिलकुल अलग हो जाएँगे, सोच अलग हो जाएगी, दोनों को आकर्षक अलग-अलग चीज़ें लगेंगी। ये सबकुछ उनके ऊपर डाल दिया गया है और ये सब अगर छूटता है तो इसी का नाम ग्रोथ है।
जैसे ही तुम बाहर निकलते हो तो तुम ये जानते हो कि ये सब अब छूटेगा। ये तो मेरे ऊपर डाल दिया गया था। अगर वो छूटता है तो उसका नाम ही ग्रोथ है। मैं उसकी बात कर रहा हूँ। उसमें कोई चिंता नहीं करनी। कोई परवाह ही मत करो, दुखी मत हो जाओ और अगर कोई तुम्हें कोई ताना मारे कि तुम बदल गये हो तो तुम कहो, ‘अच्छा है न कि बदल गया हूँ, बीमार था स्वस्थ हो गया हूँ।‘ और लोग करते हैं फ़बतियाँ कसते हैं कि अच्छा बेटा तुम तो बदल गये, तुम्हारे नये यार-दोस्त मिल गये, पुराने रिश्तों को भूल गये! होना ही चाहिए। यही उचित है। ठीक है।
प्रश्नकर्ता: सर, गुस्सा क्यों उठता है?
आचार्य प्रशांत: बेटा दो बातें हैं। पहली बात, गुस्सा कारणों से उठता है। अभी गुस्सा नहीं हो न? तो अभी उन कारणों की परवाह कर लो। गुस्से की एक पूरी प्रक्रिया होती है वो अचानक नहीं आता उसके कुछ कारण पीछे बैठे होते हैं। और कारण के कारण होते हैं, कारण के कारण होते हैं, तमाम पूरी एक चेन होती है। अभी जब गुस्सा नहीं हो तो उन कारणों की परवाह कर लो। उन कारणों को नियन्त्रित कर लो नियन्त्रित करने के लिए उन्हें समझना होगा, उन्हें जानना होगा। एक तो ये बात हुई। ठीक है? ये तब की बात है जब गुस्से का क्षण नहीं है और एक बात जब गुस्से का क्षण है तो अब इस समय गुस्से से लड़ना मत क्योंकि ये गुस्सा तो अब आना-ही-आना था। ये गुस्सा उन कारणों का फल है। बीज रहता है तो, फल तो पैदा होता ही है न। अब फल से लड़ कर क्या करोगे? बीज था तो फल आना है तो, अब जब गुस्सा आये तो उस दबाने की कोशिश मत करना, उससे लड़ना मत, देखना कि क्या होश में रह सकते हो गुस्सा होते हुए भी, एक तरह की याद बनी रह सकती है गुस्सा होते हुए भी। मैं होश को याद कह रहा हूँ कि गुस्सा तो चढ़ रहा है लेकिन साथ-ही-साथ एक हल्की सी याद बनी हुई है कि ये क्या हो रहा है? मैं पूरी तरह से बह नहीं गया इसके साथ। ये जो दूसरा काम मैंने बोला ये ज़्यादा मुश्किल होगा। मैंने दो काम बताए पहला जब क्रोधित नहीं हो, तब क्रोध के कारण की परवाह कर लो।
प्रश्नकर्ता: सर कैसे?
आचार्य प्रशांत: जैसे तुमको पता है उदाहरण के लिए क्रोध अपेक्षाओं से आता है अपेक्षा पहले आती है अपेक्षा पूरी नहीं होती तो फिर क्रोध आता है। अपेक्षा कारण है क्रोध का अभी अपेक्षाएँ पाले बैठे हो क्रोध अभी नहीं है तो अभी ही जागरुक हो जाओ।क्या जागरुक हो जाओ?
प्रश्नकर्ता: अस्पष्ट
आचार्य प्रशांत: जैसे तुमको पता है कि उदाहरण के लिए कि क्रोध अपेक्षाओं से आता है। अपेक्षा पहले आती है। अपेक्षा पूरी नहीं होती तो क्रोध आता है। अपेक्षा कारण है क्रोध का। अभी जो अपेक्षाएँ पाले बैठे हो, क्रोध अभी नहीं है। तो अभी ही जागरूक हो जाओ। क्या जागरूक हो जाओ? कि अपेक्षा है तो क्रोध आने वाला है। तो अभी जग जाओ और अपेक्षा को सतर्क होकर देख लो। अपेक्षाएँ अभी होगीं बहुत लोगों से, अपनेआप से, जीवन से, घटनाओं से, अपेक्षाएँ लेकर बैठे होगे, ये तुमने क्रोधित होने की तैयारी कर ली। इस तैयारी को रोको।
जब तुम देखोगे कि अपेक्षाएँ क्या कर रही हैं तुम्हारे साथ, जब तुम्हें इन अपेक्षाओं की हकीकत पता चलेगी तो अपेक्षाएँ अपने आप फिर बचेंगी कहाँ?
तुम धारणाओं में जी रहे हो। धारणाओं की नियति है टूटना क्योंकि धारणाएँ झूठी होती हैं, उनको चोट लगेगी। धारणाएँ टूटती हैं क्रोध आता है। दुख होता है, क्रोध आता है। तुम धारणाओं को लेकर के बैठे हो तुमने क्रोध की तैयारी कर ली है। जब क्रोध आ ही गया तब तुम विवश हो जाते हो, तब नहीं कर सकते कुछ। अभी कर लो। अभी क्या कर लो? अभी अपनी धारणाओं को देख लो। धारणाएँ समझ रहे हो? बिलीफ़्स, कि मैं किन आधारों पर जिए जा रहा हूँ। तो अभी ही कुछ कर सकते हो।
दो तुमको मैंने बातें कहीं हैं। पहली जब क्रोध नहीं है तब क्रोध के जो कारण हैं उनकी परवाह कर लो, दूसरी जब क्रोध का क्षण आ ही गया तो क्रोध से लड़ो मत। देखो कि क्या उस समय होश में रह सकते हो, कि क्रोध है पर साथ में कहीं पर होश का एक बिन्दु बना हुआ है। इतना ही, इससे ज़्यादा कुछ कहूँगा तो तुमसे हो भी नहीं पाएगा। करा ही नहीं जा सकता; तुमसे क्या, हो ही नहीं सकता। तो तुम पहले की परवाह करो; जो पहले बात कही, फिर दूसरे की। ठीक।