जीवन के बाद क्या है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

Acharya Prashant

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जीवन के बाद क्या है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

प्रश्नकर्ता: क्या जीवन को उसकी उच्चतम संभावना में जीना ही ब्रह्म को पाना है या जीवन के पार भी कुछ है?

आचार्य प्रशांत: जीवन के पार कुछ भी नहीं है। ठीक है? बिल्कुल इस भ्रांति से बाज़ आ जाइए कि अध्यात्म जीवन के पार, या मृत्यु के पार इत्यादि, किसी अन्य जीवन या लोक की बात करता है; कोई परलोक वगैरह नहीं, जो कुछ है यही है।

ये मृत्यु-लोक है, इसी मृत्यु-लोक में मृत्यु के पार जाना है। चाहें तो लिख लें, या स्मृति बद्ध कर लें: मृत्यु-लोक में ही मृत्यु को मात देनी है। मृत्यु को मात देने का ये नहीं मतलब है कि मरने के बाद कोई स्वर्ग वगैरह मिलेगा और वहाँ पर अमर होकर बैठे रहोगे हमेशा; पगला जाओगे। यही सही जगह है, जो करना है यहीं करना है, सब यहीं हो रहा है।

समझ में आ रही है बात?

जीवन को उसकी उच्चतम सम्भावना में जीना है। इसका क्या मतलब है? इसका बहुत बड़ा कोई मतलब नहीं है, ‘उच्चतम’ का कोई बहुत बड़ा मतलब नहीं है। हमारे लिए किसका मतलब होना चाहिए, गौर करिए, ‘उच्चतर' का; अभी जिस स्तर पर हो, उससे उच्चतर स्तर पर चले जाओ। जहाँ तुम बैठे हो वहाँ बैठे-बैठे तुम उच्चतम की बात करोगे तो ये आडम्बर जैसा हो गया, ये शोभा नहीं देता न? जहाँ बैठे हो वहाँ बैठे-बैठे उच्चतम की बात करो, अच्छा लगता है क्या?

तुम कहाँ बैठे हो? तुम बैठे हो ज़िन्दगी के तहखाने में, और वहाँ बैठकर के तुम बात किसकी कर रहे हो? उस आसमान की जो तुम्हारी इमारत की सौंवीं मंज़िल के भी पार है, और बैठे कहाँ हो खुद? कतई तहखाने में घुसे हुए हो, और वहाँ बैठकर बात किसकी करी? उच्चतम की, ‘ऐब्सोल्यूटली द हाइएस्ट' की। ईमानदारी की बात है?

ईमानदारी की बात क्या है? ये रही सीढ़ी, काम करने की बात करो, काम करने की। उच्चतम को छोड़ो, उच्चतर की बात करो। प्रगति करो, रोज़-रोज़ प्रगति करो, रोज़ आगे बढ़ो, रोज़ ऊपर बढ़ो। ये रही सीढ़ी, चलो पहले माले पर जाओ, वहाँ से दूसरी मंज़िल, तीसरी-चौथी-पाँचवीं; रोज़ ऊपर बढ़ते रहो, बढ़ते रहो, बढ़ते रहो।

जो उच्चतम है वो उच्चतम ही नहीं है, वो अंतरतम भी है; भीतर बैठा है तुम्हारे, वहाँ से सब उसको पता है। जैसे तुम जो कर रहे हो वो तुम्हें तो पता ही है न? उसको सब कुछ पता है; वो देख रहा है तुम्हारी प्रगति को, तुम्हारे हौसले को, तुम्हारे श्रम को। वो कह रहा है “ये आदमी पसीना बहा रहा है, चोट खा रहा है, कुर्बानियाँ दे रहा है, लेकिन ऊपर बढ़ता ही जा रहा है।” तुम ऊपर बढ़ते जाओ, सौवें माले तक जाना तो तुम्हारे बस में है न? वहाँ तक चले जाओ।

अब प्रश्नकर्ता कहेंगे, “फिर क्या होगा? उच्चतम तो बताया ही नहीं, उच्चतर तो सौवें पर आकर रुक गया। अब इसके आगे तो कोई तुलनात्मक प्रगति तो हो नहीं सकती, तो अब?” तुम वहाँ तक तो जाओ; वहाँ मिलेगा कोई, आगे का बता देगा। अभी शोभा नहीं देता कि हम उससे आगे की बात करें। तुम वो करो जो अधिक-से-अधिक तुम कर सकते हो अपनी बेहतरी के लिए।

तो प्रश्नकर्ता कहेंगे, “अगर मुझे पहली मंज़िल, दूसरी-तीसरी-पाँचवीं पर ही जाना है तो मैं आसमान को याद ही क्यों रखूँ? फिर मैं मंज़िलों को याद रखूँगा न? फिर अध्यात्म में पार की, अतीत की, परमात्मा की बात क्यों होती है? अगर आप यही शिक्षा दे रहे हो कि जीवन में ही, मृत्यु-लोक की इस इमारत में ही एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल पर प्रगति करते रहो, तो आकाश को क्यों याद रखें?”

आकाश को इसलिए याद रखो क्योंकि आकाश का प्यार, आकाश का खिंचाव ही तुमको एक मंज़िल से उठाकर ऊपर वाली, और फिर ऊपर वाली मंज़िल पर ले जाएगा। नहीं तो फिर ऊपर क्यों जाओगे? तहखाना भी तो मस्त था, वहीं बिस्तर मारकर सो जाओ। कोई ऊपर क्यों उठेगा वर्ना? भई तुम जिस भी मंज़िल पर हो, खिड़की-दरवाज़े सब बंद करलो, तुम्हें पता ही नहीं चलेगा किस मंज़िल पर हो! तहखाने में तुम खिड़की-दरवाज़े सब बंद करलो, तुम्हें पता चलेगा कि कहाँ पर हो? तुम बेशक अपने-आपको ये समझा भी सकते हो कि मैं पचासवीं मंज़िल पर बैठा हुआ हूँ, समझा सकते हो कि नहीं?

तो ऊपर उठने की वजह ये नहीं हो सकती कि एक मंज़िल दूसरी मंज़िल से श्रेष्ठतर है; एक मंज़िल और दूसरी मंज़िल में वस्तुगत रूप से कोई अंतर है नहीं, अंतर उनमें वास्तव में इतना ही है कि जब तुम नीचे से ऊपर को जा रहे हो तो ऊपर जाते हुए स्वयं को ये भरोसा दे रहे हो कि आकाश के थोड़ा और करीब पहुँचे। तुम पचासवीं से इक्यावनवीं मंज़िल पर जब पहुँचे हो तो इक्यावनवीं मंज़िल प्यारी नहीं है, ये भाव प्यारा है कि “मैं आकाश के थोड़ा और करीब पहुँचा, मैं उच्चतम के थोड़ा और निकट पहुँचा।“ अब वास्तव में पहुँचे नहीं तुम, क्योंकि आकाश तो ऐसा है कि तुम कितना भी ऊपर उठ जाओ वो तब भी तुमसे बहुत दूर है। लेकिन तुम और क्या करोगे? अपनी सीमित सामर्थ्य में तुम इससे ज़्यादा कुछ कर नहीं सकते न?

कोई छोटा बच्चा है बिल्कुल एकदम, और खड़ा हुआ है आम के पेड़ के नीचे; एकदम छोटा है। वो क्या कर सकता है अधिक-से-अधिक? आम चाहिए उसको, रसीले आम लटक रहे हैं शाखों से, क्या करेगा? उछलेगा। वो कितना भी उछल ले, आम बहुत दूर है, लेकिन फिर भी वो उछलेगा; तुम यही करो। इतने बड़े नहीं हो तुम, इतना महान कोई नहीं कि इतनी ज़ोर की उछाल मारे कि हाथ में बिलकुल आम आ जाए; ये नहीं होने वाला। तुम उछलते रहो, उछलते रहो, तुम इतना उछलो कि किसी को आना पड़े तुम्हारी मदद के लिए, तुम इतना उछलो कि पेड़ ही आम तुम्हारे हाथ में दे दे। लेकिन ये दम्भ कभी मत कर लेना कि मैं ऐसी उछाल मारूँगा कि सीधा आम नीचे खींचकर ले आऊँगा; ये तुमसे नहीं होने का।

तो तुम्हें दोनों बातें करनी हैं; तुम्हें अपनी पूरी सामर्थ्य का ज़ोर भी लगा देना है, और, तुम्हें याद भी रखना है कि तुम कितना भी ज़ोर लगा दो तुम्हारे बस की है नहीं। अब ये कैसे करें? यही तो करना है। तुम्हें अपनी पूरी जान भी लगा देनी है, तुम्हें ये भी कह देना है कि “विजय से नीचे कुछ नहीं चलेगा, आम तो चाहिए ही चाहिए आज”, और साथ-ही-साथ ये भी याद रखना है कि तुम्हारे मत्थे आम नहीं मिलने वाला तुमको। ये क्या बात है? ये कर्ता-भाव की बात है या अकर्ता-भाव की बात है? ये दोनों की बात है। जैसे तुम दो हो न, वैसे ही ये दो बातें साथ-साथ चलेंगी; इन दो में से तुमने किसी एक बात को पकड़ लिया तो मारे जाओगे।

कुछ होते है जो अकर्ता-भाव को पकड़ लेते हैं, वो कहते हैं “देखो अगर मैनें आम की कोशिश की तो इसमें तो मेरा अहंकार है न। तो मेरा काम तो ये है कि नीचे लेट जाऊँ मुँह खोलकर, और आम गिरेगा।" पहली बात तो आम गिरेगा नहीं ऐसे, दूसरी बात, छह-सात सौ साल में गिरा भी तो कोई ज़रूरी नहीं तुम्हारे मुँह पर गिरे; शरीर में और भी जगहें हैं, वहाँ बढ़िया, मोटा, पका हुआ आम गिरा तो दिक्कत में आ जाओगे। तो ये वाली जो बात है कि “मैं काहे को कुछ करूँ? जो करेगा करतार करेगा,” ये बात बहुत चलेगी नहीं।

और दूसरे ध्रुव पर वो लोग हैं जो बोलते हैं, “हमीँ करके दिखा देंगे, हमीं अभी आम तोड़ते हैं।“ अब वो इतना-सा है वो, पौने दो फीट का, लोलू, कह रहा है, “आम तोड़ते हैं, आम।“ आम तो पता नहीं टूटेगा नहीं टूटेगा, उसकी हड्डी ज़रूर टूट जाएगी। इधर उछल रहा है, उधर चढ़ रहा है; थोड़ा सा चढ़ेगा पेड़ पर, पट्ट से नीचे गिरेगा। कुछ कर रहा है, पत्थर ऊपर उछाल रहा है; ऊपर उछाला पत्थर, अपनी ही खोपड़ी पर आकर वापस गिरा। तुम्हें ये दोनों चीज़ें साथ-साथ याद रखनी हैं।

जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं कौन? मैं जीव, मेरी सीमित सामर्थ्य, मुझे पता। मेरा काम क्या? अपनी इस सीमित सामर्थ्य को झोंक देना किसी असीमित लक्ष्य के लिएㄧये मेरा काम। “ये तो बेवकूफ़ी भरा काम है। अरे तुम्हारी सीमित सामर्थ्य, लक्ष्य असीमित, तुम झोंक रहे हो; तुम हारोगे।”

“मैं हारूँ, मैं जीतूँ; मैं तो लड़ूँगा।“

तो एक ओर तो मैं कह रहा हूँ कि मैं झोंक दूँगा अपने-आपको पूरी तरह, दूसरी ओर मुझे पता है कि बहुत सीमित हूँ। काम इतना बड़ा है, लक्ष्य इतना ऊँचा है, आसमान इतनी दूर है, मेरी पकड़ में आने से रहा, लेकिन मैं तो फिर भी उछलता ही रहूँगा। मैं तो बच्चा हूँ, मुझे आम चाहिए।

“तुझे पक्का भरोसा है आम मिलेगा?”

“ये सब हम नहीं सोचते। हम ये नहीं सोचते कि आम मिलेगा कि नहीं मिलेगा, हमें तो ये पता है कि हमें आम चाहिए।“

“नहीं, चाहिए तो, पर मिलेगा कि नहीं मिलेगा?”

“ये तुम सोचो। तुम वो हो जिसके लिए ये विकल्प है कि नहीं मिलेगा, तो तुम सोचते हो कि मिलेगा या नहीं मिलेगा। तुम वो हो जिसको अभी ये विकल्प दिखाई देता है कि क्या पता आम न भी मिले, तो इसलिए तुम विचार करते हो कि मिलेगा या नहीं मिलेगा; हमें ऐसा कोई विकल्प दिखाई ही नहीं देता। हम सब विकल्पों से अभी मुक्त हैं, क्योंकि हमारे मन में सिर्फ़ क्या है? आम। तुम्हारे मन में क्या है? विकल्प। हमारे मन में आम है, तुम्हारे मन में विकल्प है, तुम्हारी तुम जानो, हमारी हम जानें; हमें तो आम चाहिए।“

“नहीं आम के बदले कुछ और?”

“हमें तो आम चाहिए, विकल्प तुम जानो, हमें विकल्प नहीं दिखाई देता।“

“पर तुम बहुत छोटे हो।”

“होंगे, हमें आम चाहिए।“

“तुम बेवकूफ़ी की बात कर रहे हो।”

“वो तुम जानो, हमें आम चाहिए।“

“पर कैसे होगा?”

“वो तुम सोचो, हमें आम चाहिए।“

“अरे, तुमने कोई योजना बनाई है? कोई तरीका सोचा है?”

“वो सब तुम जानो, हमें आम चाहिए।“

“तुम पगला गए हो।”

“वो तुम सोचो, हमें आम चाहिए।“

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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