सब मोह-माया है, बच्चा! || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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सब मोह-माया है, बच्चा! || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मेरा एक मित्र है, जब भी उससे बात होती है तो वो हर चीज़ में 'मोह-माया' कहता है, कि 'ये सब मोह-माया है'। तो फिर एक दिन मैंने पूछा, 'माया है क्या? मोह है क्या?' तो वह चुप हो गया। कुछ बोला ही नहीं। फिर उसने मुझसे पलट कर पूछा कि मोह क्या है? तो उस चीज़ में मैं भी सटीक कुछ नहीं बता पाया। तो आपसे जानना था कि मोह और माया है क्या असल में?

आचार्य प्रशांत: मोह माने जादू। मोह माने, जैसे किसी ने आपकी चेतना, आपकी बुद्धि पर पर्दा डाल दिया हो। उसको मोह कहते हैं।

और माया चूँकि पारंपरिक रूप से बाहरी चीज़ों को बोला गया है, तो इसलिए जब बाहर सब धुंधला दिखाई देने लगता है, तो उसको कहते हैं, माया।

अंदर धुंध का छा जाना है, मोह। मोह है मन पर धुंध का छा जाना, जैसे किसी को नशा हो गया हो। मोह माने एक आंतरिक नशा, भ्रम की स्थिति। एक अचेतन आंतरिक स्थिति, इसको कहते हैं मोह। चार्म (जादू), डिलयूज़न (भ्रम), जैसे परवश हो गया हो मन; ये मोह है, एनचैंटमेंट (आकर्षण)।

समझ में आ रही है बात?

आप जब किसी को बोलें कि तू मोहित है, तो उसका क्या अर्थ है? डिल्यूडेड (भ्रमित) हो। तुम्हारा दिमाग़ अभी ख़राब है, तुम्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मोह माने दिमाग़ पर पर्दा डल जाना, चेतना को नशा हो जाना। एक तरह का हिपनोसिस (वशीकरण), जादू, ये मोह है। मोह की पारिभाषा ही यही है। तो इसलिए फिर मोह से सम्बन्धित यह मुहावरा चलता है—"मोह-माया"।

जब कहते हो, 'मोह-माया', तो उसमें आशय होता है मोह से कि भीतर एकदम कोहरा फैल गया है। और माया से फिर आशय होता है कि बाहर अब कुछ साफ़ दिखाई नहीं दे रहा। मोह-माया माने, चूँकि भीतर अब कोहरा छा गया है, इसलिए अब बाहर कुछ साफ़ दिखाई नहीं दे रहा।

ऐसे ही चलता है—'मोह-ममता'। उसमें भी ममता से पहले मोह आता है। 'मोह-माया' में भी माया से पहले मोह आता है न? कोहरा पहले भीतर छाता है, फिर कोहरा बाहर छाता है।

माने कि अगर कोई कहे कि मुझे दुनिया की कोई चीज़ समझ में नहीं आ रही है, या मेरे साथ क्या घटनाएँ घट रही हैं, मुझे समझ में नहीं आ रहा। या लोग मुझे बेवकूफ़ बना जाते हैं। मैं समझ नहीं पाता कौन मेरा दोस्त है, कौन दुश्मन है; तो इसका क्या मतलब है कि सबसे पहले वो बेवकूफ़ कहाँ बना बैठा है? अपने भीतर। चूँकि तुम अपने भीतर मूर्ख बने बैठे हो पहले से, इसीलिए दुनिया वाले तुम्हें बार-बार आकर मूर्ख बना जाते हैं।

कोई बोले कि बाहर के सब लोगों से मेरी लगातार लड़ाई ही चलती रहती है, तो इससे क्या पता चलता है? कि वो अपने भीतर किसी संघर्ष में उलझा हुआ है। मोह पहले, फिर?

प्र: माया।

आचार्य: वैसे ही मोह पहले, फिर ममता। तो मोह-माया बोलेंगे, मोह-ममता बोलेंगे। माने शुरुआती गड़बड़ क्या है? मोह। मोह पहली गड़बड़ है।

चार्मड (सम्मोहित) हो जाना, किसी चीज़ का जादू चल गया आप पर; ये मोह है। आपका मन आपका नहीं रहा; ये मोह है। बुद्धि और विवेक अब कुछ भी साफ़-साफ़ देख ही नहीं पा रहे; इसको कहते हैं मोहित या भ्रमित होने की स्थिति। मोह माने भ्रम, अब कुछ पता नहीं चल रहा। तो मोह पहले आता है।

अब मोह के साथ फिर ममता क्यों जुड़ती है? क्योंकि ममता का मतलब है किसी बाहरी चीज़ को अपना मान लेना, कह देना, 'मम'। किसी बाहरी चीज़ को अपना मान लेना।

तो जब मोह-ममता कहा गया तो उसमें सीख, संदेश आपको ये दिया गया है कि जब तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो जाता है न, माने मोह, सिर्फ़ तभी तुम में ममता आ सकती है। बिना मोहित हुए ममता संभव ही नहीं है। बिना विक्षिप्त हुए, पागल हुए, ममता आएगी ही नहीं। ममता का मतलब है ऐसी चीज़ को अपना मानना जो तुम्हारी है ही नहीं। तुम्हारी कोई चीज़ नहीं है इस दुनिया में।

आप बोलते हो, 'मम देह'। यह देह तक आपकी है नहीं, तो और कौनसी चीज़ आपकी होगी? ममता का मतलब है परायी चीज़ को सचमुच ऐसा कहना कि मेरी है। और यही नहीं, फिर उसकी देखभाल करना, झाड़ना उसको, संभालना, संजोना। उसको तमाम तरीक़े के ख़तरों से बचाना, उस पर अपने समय और ऊर्जा का निवेश करना। यही ममता है न?

एक बार आप मान लो कि ये (रूमाल को दिखाते हुए) आपका है, अब आप क्या करते हो इसके लिए? आप सब कुछ करते हो इसके लिए। कोई इसे छीने, आप उससे लड़ोगे। आप इसको साफ़ करोगे, आप इसे तह करोगे, आप इसे सुरक्षित जगह पर रखोगे। सब करते हो न? और ये सब आप कर रहे हो, जबकि ये आपका है ही नहीं; जो इसका असली मालिक है, वो इसे कभी भी लेने आ सकता है। तो वो ममता कहलाती है।

दूसरे की चीज़ को अपना मानना कहलाता है, ममता। दूसरे की चीज़ को अपना मानने की मूर्खता को कहते हैं, ममता। और वो ममता बिना मोह के संभव ही नहीं है। जैसे बाहर की माया संभव नहीं है बिना मोह के, उसी तरीक़े से ममता संभव नहीं है बिना मोह के।

ठीक है न?

तो मोह माने अपनापन नहीं होता। मोह माने अटैचमेंट (आसक्ति) भी नहीं होता। मोह माने क्या होता है? भ्रम, जादू, काला जादू। जब आप पाओ कि कोई एकदम ही बहकी-बहकी बातें कर रहा हो, तो उसके लिए फिर शब्द है कि ये तो बेचारा 'मोहित' हो गया है। मोहित माने पागल बिलकुल। जिसका दिमाग़ एकदम ही सरका हुआ हो, उसको बोलते हैं, मोहित।

ये अलग बात है कि वर्मा जी के बेटे का नाम मोहित और बेटी का नाम ममता है। ये तो बड़े प्रचलित नाम हैं न। इसको हम क्या बोलते हैं? 'देखिए, संस्कारी हैं वर्मा जी। बच्चों के विशुद्ध भारतीय नाम रखे हैं, मोहित और ममता। और उनके बगल में शर्मा जी रहते हैं। उन्होंने अपनी बच्चियों के नाम रखे हैं, आशा और तृष्णा।'

प्र: माया भी रखते हैं।

आचार्य: हाँ, माया भी रखते हैं। नहीं, माया तो वर्मा जी की पत्नी का नाम है। (श्रोतागण हँसते हैं) वर्मा जी का अपना नाम है मायापति।

तो कोई मोहित हो रहा हो, यह बहुत बड़े ख़तरे की घंटी है। मोह का मतलब है कि अब वो तगड़ी हिंसा करेगा। जिसको मोहित जानिए, समझ जाइए कि अब वो ज़बरदस्त हिंसा करने जा रहा है। जो आदमी पागल हो जाता है, फिर क्या करता है? टूट-फूट, उपद्रव, तोड़-फोड़।

श्रीकृष्ण को तब मोहन क्यों बोलते हैं? साधारण मोह को वो काट देते हैं। मोह का मतलब है कि कोई आपके ऊपर जादू कर गया। श्रीकृष्ण माने वो, जिनका जादू सब जादूओं की काट है। इसलिए उनको मोहन बोलते हैं।

मोहन द चार्मर (एक जादूगर)। दुनिया छोटे-मोटे तरीक़ों से आपको चार्म (मोहित) करती है, माने आप पर जादू करती है। और श्रीकृष्ण आप पर बहुत बड़ा वाला जादू करते हैं। जिससे जितने भी सांसारिक जादू होते हैं, वो कट जाते हैं। तो इसलिए उनको मोहन बोलते हैं।

यहाँ तो कोई नहीं 'मोहित' (व्यंग्य करते हुए)?

हाँ, आगे। इससे सम्बन्धित कुछ हो तो बताइए।

प्र: प्रणाम आचार्य जी। आपने बताया, मोह है भीतर चेतना पर पर्दा पड़ जाना। और उस पर्दा पड़ने की वजह से बाहर अब भ्रम हो जाता है, वो है माया। तो ये है मोह और माया?

आचार्य: मोह भी माया ही है। पर आमतौर पर, प्रचलित तरीक़े से, माया बाहरी चीज़ों को माना गया है। उदाहरण के लिए कहीं पैसा रखा हो, तो कहेंगे, 'अरे माया'। कहीं सोना रखा हो तो कहते हैं, 'माया'। कोई आकर्षक स्त्री-पुरुष हो तो कह देते हैं, 'माया'। तो चूँकि माया बाहरी चीज़ों को माना गया, तो जो भीतर वाली माया है उसको मोह कह दिया गया; नहीं तो मोह भी माया ही है।

प्र: माया के दो प्रकार होते हैं: एक आवरण माया और एक विक्षेप। तो आवरण माया को ही मोह कहते हैं और...।

आचार्य: वो भी नहीं कह सकते। जो बाहर की माया है, उसमें भी आवरण-विक्षेप दोनों होता है। और जो भीतरी मोह है, उसमें भी आवरण-विक्षेप दोनों होता है। तो ऐसे नहीं बाँट सकते कि बाहर वाले में आवरण है, भीतर वाले में विक्षेप है। ऐसे नहीं बाँट सकते। बाहर भी दोनों हैं, भीतर भी दोनों हैं।

प्र: आपने एक कथा सुनाई थी, जिसमें कौआ और कोयल थे। क्योंकि कौआ को पता नहीं होता है...।

आचार्य: हाँ, तो वो जो ममता होती है कौए की, वो क्या कर रही है? कोयल के अंडे...। ठीक है न?

ऐसा कहा जाता है। मुझे नहीं मालूम ऐसा सचमुच होता है कि नहीं, पर ऐसा कहा जाता है। तो जो ममता है मादा कौए की, कोयल के अंडों से, वो ममता कहाँ से आ रही है? मोह से आ रही है। मोह माने, सच-झूठ की पहचान न कर पाना।

जैसे जादू में क्या होता है? जादूगर आपको कुछ करके दिखाता है। जो उसने करा है वो झूठ है, पर आपको क्या लगता है? सच है। तो मोह माने यही होता है। आप पर जादू चल गया है और आप सच और झूठ का फ़ैसला ही नहीं कर पा रहे हो; झूठ आपको सच जैसा लग रहा है।

प्र: क्या इसीलिए श्रीकृष्ण गीता में भी मोह को मोह कहते हैं और आसक्ति को संग कहते हैं?

आचार्य: आसक्ति बहुत बाद में आती है। मोह के बहुत बाद में आसक्ति आती है। पहले मोह होगा, फिर कुसंग होगा। ऐसे भी मत कहो। पहले मोह होगा, फिर विवेकहीनता होगी, फिर कुसंग होगा, फिर आसक्ति होगी। आसक्ति का मतलब है, ग़लत से चिपक ही गये। तो मोह होगा, फिर?

प्र: विवेकहीनता।

आचार्य: फिर कुसंग होगा और फिर कुसंग के साथ जब समय बिता लोगे, तो आसक्ति होगी।

प्र: और आसक्ति के बाद, मतलब आसक्ति से फिर मोह और..।

आचार्य: नाश, फिर तो नाश।

प्र: "प्रणश्यति!"

आचार्य: "प्रणश्यति!" नाश!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
S
Sakshi
10d ago
thank you acharya ji😄
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The one who is religion-less. A real Hindu does not have any religion. To go beyond all religions is to be a Hindu. There are religions that are on one plane, and then there is Sanatan Dharma, which is another dimension — the eternal religiousness. Liberation from religion is religiousness. Sanatan Dharma is awakened intelligence.
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