परिवार में साथ कैसे रहें?

Acharya Prashant

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परिवार में साथ कैसे रहें?

प्रश्नकर्ता: लगभग सभी परिवारों में समस्याएँ होती ही हैं। अनबन, खटपट होती ही है। फिर भी इनमें लोग साथ रहते ही हैं। इसका क्या समाधान है?

आचार्य प्रशांत: साथ रहने का अर्थ होता है संगति देना; एक-दूसरे को। संगति का अर्थ होता है कि दूसरे के ऊपर आपका प्रभाव कैसा है। दूसरे के ऊपर अगर आपका प्रभाव ऐसा है कि उससे दूसरे का चित्त शान्त होता है, उसकी आँखों का पर्दा हटता है, उसे चीज़ें साफ़ दिखाई देती है, उसका ध्यान गहराता है, तो बहुत अच्छा है कि आप दूसरे के साथ रहें। अगर आपका दूसरों पर सद्प्रभाव पड़ता हो तो बड़ी अच्छी बात है कि आप दूसरों के साथ रहें। बेशक रहें।

वो कहानी तो आपने सुनी ही होगी न, नानक एक गाँव में पहुँचे तो वहाँ के लोगों को पाया की शिकायतों से भरे हुए हैं, कलह से, कपट से भरे हुए हैं; तो उनसे बोले की इकट्ठे रहो। और आगे चले एक दूसरा गाँव पाया। वहाँ के लोग ध्यान से, सत्य से, चैन से भरे हुए थे, तो उनसे कहा बिखर जाओ। जो ऐसा हो गया है कि उसकी संगति दूसरों के लिए लाभप्रद है, उसे अब दूसरों की संगति में खूब रहना चाहिए। मात्र उसे ही रहना चाहिए। और यही एकमात्र उचित पैमाना है किसी को संगति देने का।

यही प्रश्न पूछना आवश्यक है कि यदि मैं उस व्यक्ति या उन व्यक्तियों के साथ होऊँगा, तो मेरे होने से क्या वो और शान्तिपूर्ण, बोधपूर्ण हो जाएँगे? यदि हाँ, तो उन्हें छोड़िए ही मत। आपके पास जितना हो बाँटिए। दो नहीं हज़ार लोगों के साथ जुड़िए। अपने चारों ओर एक पूरा समुदाय खड़ा कर लीजिए। दूसरी ओर आप अगर पाते हैं कि आपके सानिध्य से दूसरा चेतना के निम्न तलों पर गिरता चला जाता है, तो क्यों आप दूसरे को संगति देते हैं। आपकी उपस्थिति यदि दूसरे को पतन और अधोगमन की ओर धकेलती है तो क्यों इतने स्वार्थी होते हैं कि दूसरे से फिर भी आबद्ध हैं।

अब आपने कहा कि परिवारों में खटपट रहती है फिर भी वो साथ बने रहते हैं। एक परिवार ऐसा भी हो सकता है जिसमें कुछ सदस्य हैं या कोई सदस्य है जो बाकियों को इसलिए नहीं छोड़ रहा क्योंकि उसे वास्तव में बाकियों से प्रेम है। वो जानता है कि उसके सम्पर्क से दूसरों का ऊर्ध्वगमन हो रहा है। फिर तो ठीक ही है कि वो अपने परिवारजनों से जुड़ा रहे। उसे किसी हाल में नहीं छोड़ना चाहिए। धर्म है अब की साथ लगे रहो। ठीक वैसे, जैसे किसी डूबते व्यक्ति का हाथ नहीं छोड़ा जाता। किसी पीड़ित या शरणागत के लिए दरवाज़े बन्द नहीं किए जाते। किसी का प्रेम नहीं ठुकराया जाता। वैसे ही फिर परिवार को नहीं छोड़ा जाएगा।

तो अब आप परिवार में इसलिए नहीं हो कि आपको परिवारजनों से कुछ मिल जाएगा या छोड़ने पर कुछ टूटने का भय है। अब आप इसलिए हो क्योंकि आपके माध्यम से उनका कल्याण हो रहा है। अब आप देने के लिए हो; लेने के लिए नहीं हो। अब आप परिवारी नहीं हो, अब आप परिवार में रहकर भी एक धार्मिक कृत्य कर रहे हो; वस्तुत: आप संन्यासी हो।

आम अर्थों में जो परिवारी होता है वो परिवार में अपनी दैहिक और मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए होता है। और जहाँ आप दूसरे से जुड़े हो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए, वहाँ आप दूसरे का शोषण करोगे, हिंसा होगी, नोच-खसोट होगी, माँगे होंगी, फ़रियादें होंगी और फिर शिकायतें होंगी।

तो परिवार यदि ऐसा है जिसमें की इकट्ठा कर रखा है लोगों को उनकी बेहतरी के लिए, तो बहुत सुन्दर है कि परिवार अखंड रहे, जुड़ा रहे। लेकिन अधिकांश परिवार ऐसे नहीं होते। अधिकांश परिवार टूटने से इसलिए बचे होते हैं क्योंकि टूटने पर स्वार्थ को चोट लगती है। जुड़े रहने पर बेचैनी है और टूटने का खौफ़ है। खौफ़ बेचैनी पर भारी पड़ता है तो लोग साथ बने रहते हैं।

जैसे की कोई पक्षी किसी पिंजरें में फँसा हुआ है। पिंजरा उसे नहीं सुहा रहा, वो देख लगातार आसमान की ओर ही रहा है, लेकिन पिंजरे का ऐसा अभ्यस्त हो चुका है कि पिंजरे का दरवाज़ा खुला होने पर भी अब वो उड़ेगा नहीं। पिंजरे के भीतर उसके लिए घुटन है, कुंठा है, खीझ है और पिंजरे के बाहर उसके लिए अज्ञात आकाश है। पिंजरे के बाहर अनिश्चितता है और वो निश्चितता को चैन से ज़्यादा मूल्य देता है।

बेचैनी है पर निश्चित बेचैनी है; अनिश्चित तो नहीं न। तुझे पता है कि दुख मिलेगा पर कितना मिलेगा कैसे मिलेगा ये भी पता है। दुख तो है पर निश्चित है, अनुपातिक है, सधा और बँधा हुआ है। ज्ञान के भीतर है। ऐसा लगता है जैसे दुख को वश में कर लिया हो। पता है कि आ रहा है पर एक निश्चित परिमाण में ही आ रहा है।

तर्क देख रहे हैं न आप?

दुख है पर एक निश्चित परिमाण में आ रहा है। इसका अर्थ है कि मैंने उसकी सीमा बाँध दी है, मेरे पास ताकत है। दुख है पर उसे मैं एक अनुपात से बढ़ने भी तो नहीं देता। इसका अर्थ है कि मुझ में बड़ा बल है। तयशुदा दुख है। पूर्व निर्धारित दुख है। यदि इस तर्क के सहारे परिवार आपस में जुड़ा हुआ है, तो इस परिवार का जुड़ा रहना उसके सभी सदस्यों के लिए घातक है। ये एक-दूसरे को पसन्द नहीं करते। ये एक-दूसरे से प्रेमवश साथ नहीं है। एक-दूसरे से तो ऊबे हुए हैं। खीझे हुए हैं। लगभग नफ़रत करते हैं। लेकिन ये नहीं जानते कि एक-दूसरे को छोड़ा तो क्या होगा। जाहिर-सी बात है कि परमात्मा पर, अस्तित्व पर कोई भरोसा है नहीं, कि छोड़ने के बाद की जो अनअनुमान्यता है, अनप्रिडिक्टिबिलिटी है, उससे खौफ़ खाते हैं।

छोड़ने के बाद क्या होगा, इसको आप अप्रत्याशित मत रखिए, निश्चित कर दीजिए। एक पूर्व घोषित भविष्य उन्हें थमा दीजिए कि छोड़ोगे तो ऐसा-ऐसा होगा, ये-ये कीमत अदा करनी पड़ेगी, ऐसी-ऐसी घटनाएँ घटेंगी इत्यादि। अब फिर देखिए कि वे परिवार बचते हैं कि टूटते हैं, तुरन्त टूट जाएँगे। तुरन्त नफे-नुकसान का आकलन किया जाएगा। देखा जाएगा की टूटने के बाद जो कीमत अदा करनी है, वो कीमत उस कीमत से ज़्यादा है कि नहीं, जो अभी दे रहे हैं। और फिर होगा विघटन।

घर जल रहा हो और द्वार पर भूखा शेर खड़ा हो और आप घर के भीतर रह लो, तो इसका अर्थ ये नहीं है कि आपको घर से प्रेम है। शेर को हटने दो आप जान बचाकर भागोगे। और वो जो शेर है उसका नाम है, आशंका। अप्रत्याशित का भय। और कुछ बातें अप्रत्याशित भी होती हैं। परिवार के टूटने पर सम्पति के नुकसान आदि का खतरा रहता है। समाज में हैंठी होती है। लोग पूछते हैं रिश्ता क्यों टूटा, तो वो कीमत भी अदा करनी होती है। तो ऐसे जुड़े रहते हैं अधिकांश परिवार। उनको इकट्ठा रखने वाली गोंद का नाम है भय; प्रेम नहीं।

किसी भी दल, समूह, समुदाय, सम्बन्ध में न कुछ अच्छा होता है न कुछ बुरा होता है। परिवार न शुभकारी है न अशुभ। विवाह शुभ है न अशुभ। दो लोगों की दोस्ती-यारी न शुभ है न अशुभ। जिन्हीं भी दो व्यक्तियों या दो हज़ार व्यक्तियों की पारस्परिक संगति न शुभ है न अशुभ। बात इसकी है ही नहीं की कोई संस्था ठीक है या नहीं। बात सारी ये है कि तुम कैसे हो। तुम अगर अच्छे हो तो तुम परिवार से भी अच्छे ही कारणों से जुड़े हुए होओगे। और तुम अगर पतित हो तो तुम परिवार से भी पतित ही कारणों से जुड़े होओगे।

बुद्ध ने बहुत बड़ा परिवार खड़ा करा था। आप अपने घर को घर कहते हैं, बुद्ध अपने घर को संघ कहते थे। और उनका परिवार, परिवारजनों के लिए और समस्त संसार के लिए बड़ा शुभ था। बुद्धों को हक है बड़े-से-बड़ा परिवार खड़ा करने का। बुद्धों से विनती की जाती है कि आप बड़ा कुटुम्ब खड़ा करें। देवताओं ने भी आकर बुद्धों से कहा था, ‘आपने जो पाया है, दूसरों को दें।’, ये यही तो विनती थी कि सम्बन्ध बनाएँ, परिवार बढ़ाएँ।

ये परिवार आम परिवार जैसा नहीं है, पर है तो आदमी का आदमी से नाता ही न। बुद्ध जाते हैं और किसी भिक्षु को ज्ञान भिक्षा देते हैं। ये नाता तो बना न, इंसान का इंसान से कुछ सम्बन्ध तो हुआ। ये है असली परिवार। हम तुमसे जुड़े इसलिए नहीं कि तुम्हें नोच खाए, इसलिए नहीं कि तुमसे हमें उम्मीदें हैं। इसलिए क्योंकि करुणावश और प्रेमवश बोध बाँटना चाहते हैं। कुछ पाया है जो पता है कि जीवन का अमृत है उसे अपने तक रख नहीं सकते। अधर्म हो जाएगा। हमें ही पाप लगेगा। पाए हुए को बाँटना ज़रूरी है, इसलिए जुड़े हैं तुमसे। अपने जीवन का अब हमें न अफ़सोस है, न मलाल है, न सुरक्षा की चिन्ता है। पर तुम्हें देखते हैं तो विचित्र लगता है। तुम अकारण दुख में हो। तुम इस अकारण दुख को त्याग सको, इसलिए जुड़े हैं तुम्हारे साथ। ऐसा परिवार बनाइए।

सबसे बड़ा पारिवारी जानते हैं कौन है? परमात्मा। सब उसके बच्चे हैं, पर लोग संन्यास की बात करते हैं। सबसे बड़ा गृहस्थ स्वयं परमात्मा है। इतना बड़ा कुनबा खड़ा कर दिया है उसने। उसमें सिर्फ़ इंसान ही नहीं है, पेड़-पौधे, नदी, पहाड़, रेत, बालू, पत्थर, पक्षी, कीड़े, समुद्र के समस्त जानवर, वनस्पतियाँ।

परमात्मा अकेला है जो इतना बड़ा कुनबा सँभाल सकता है, पूछो क्यों? क्योंकि उसे कुनबे से कुछ चाहिए ही नहीं। वो उस कुनबे को सिर्फ़ देता है। जो देने के पात्र हो, जो देने के अभिलाषी हो, उन्हें हक है गृहस्थी में प्रवेश करने का। और जो अभी माँग ही माँग रहे हैं, याचक हैं उनके लिए भला है कि वो अभी एकान्त का अभ्यास करें।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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