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पहले पागल थे, या अब हो गए?

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

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पहले पागल थे, या अब हो गए?

आचार्य प्रशांत: आलोक जी कह रहे है कि आचार्य जी अब कुछ उल्टा होने लगा है। दुनिया महत्वपूर्ण लगने लगी है। मौत का क्यों सोचूं, जीवन भी तो अच्छा ही लगने लगा। आत्मा को खोजने की ज़रूरत ज़रा कम हो गई है, क्योंकि शरीर भी तो बढ़िया चीज़ है। पेड़, पौधे, नदियां, दुनिया, प्यारे ही तो हैं, तो इनसे आंख बंद करके ध्यान क्यों लगाऊं? पैसा भी तो अच्छा है, खुल कर जीने की आज़ादी देता हैं। साधारण प्रेम करना, धोखा खा लेना, रो लेना, क्या बुरा हैं? उससे कविताएं आ जाती हैं। जिस पार से उकता कर इस पार आया, अब वह पार भी प्यारा लग रहा है। तो बताइए मैं पहले पागल था कि अब हो रहा हूं?

पागल को पागल होने के प्रति कोई विरोध नहीं होता। न पागल अपने पागलपन को लेकर बड़ा संवेदनशील होता है। देखा है कोई पागल जो पूछे कहीं मैं पागल तो नहीं हूं? तो आप अभी बड़े चैतन्य है। अभी बहुत सावधानी बची हुई है। आत्मा की बात जानने वालो ने हमसे इसलिए नहीं की कि आपको आत्मा की प्राप्ति हो सके, ध्यान से समझिए।

परमात्मा की बात, परलोक की बात आपसे इसलिए की गई ताकि आप इस लोक में जी सकें। उपनिषदों को आप पढ़ेंगे, तो वो बड़ा विषद वर्णन करते हैं कि कितने लोक हैं, और किस लोक में कौन सा पेड़ है, ब्रह्मा जी का कौन सा आसन है, कौन सी नदी है, कौन से दूत खड़े हैं, कौन सी अप्सराएं खड़ी हैं, कौन सा मार्ग वहां जाता है, कौन सा मंत्र वहां उपयुक्त है। और इस तरह का बहुत कुछ है ग्रंथों में। तो ऐसा लगता है कि जैसे आध्यात्मिकता किसी और दुनिया की बात हो; ऐसा लगता है कि जैसे आत्मा का संबंध कहीं और से हो, ऐसा लगता भर है।

संपूर्ण आध्यात्मिकता का अगर कोई एक ध्येय है, तो वो यह है कि आप इस ज़िन्दगी को भली-भांति भरपूर जिए; इस बात को दस बार दोहराइएं - सम्पूर्ण आध्यात्मिकता का अगर कुछ ध्येय है तो वह यह है कि आप, यह जो आपका जीवन है जिसको आप अपना आम जीवन बोलते है कि मै एक जीवी हूं, मनुष्य हूं, देह में जी रहा हूं, यह मेरा घर है, यह संसार है, यह समाज है, यह रुपया-पैसा है, कपड़े है इत्यादि - तो इस जीवन को आप भली-भांति, पूरे तरीके से आनंदित हो कर जी पाए; यह है सारी आध्यात्मिकता का लक्ष्य, कुछ भी और नहीं।

मरने के बाद क्या होगा, क्या नहीं, इसका अध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं है। पैदा होने से पहले क्या था, क्या नहीं, इसका अध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं है। बिल्कुल ही नहीं; हां, बातें उसकी होंगी, सदा होंगी। वह बातें इसलिए की जा रही है, ताकि आप इस दुनिया में भली-भांति जी सके। बातों से धोखा मत खा जाईयेगा। गर्भ में आने से पहले आप कहां थे, उसका करोगे क्या? अब वापस तो वह जाओगे नहीं। मरने के बाद कहां को उड़न-छू हो जाओगे, उसका करोगे क्या? तुम तो मर गए न? और मर गए माने - नहीं रहे, खत्म हो गए। अब कुछ उड़ा होगा, राख उड़ी होगी, कि चिड़िया उड़ी होगी, कि धूल, कुछ उड़ा होगा। तुम्हे क्या करना है?

आध्यात्मिक आदमी की पहचान यह नहीं होती कि उसके पास स्वर्ग का पासपोर्ट आ गया, परलोक का वीज़ा या ठप्पा लग कर आ गया, कि अब आप आ सकते है, स्वर्ग में। उसकी पहचान यह होती है कि वह धरती पर बड़ा तृप्त तृप्त घूमता नज़र आता है, समझ रहे हो? वह मिट्टी से कोई बैर नहीं रखता। उसका सुख-दुःख से कोई बैर नहीं होता। उसका किसी शरीरी, ज़मीनी अनुभव से कोई बैर नहीं होता। उसे जीवन से ही कोई बैर नहीं होता। आपने लिखा, आपको बहुत सारी चीज़ें प्यारी लगने लगी हैं; उसे जो कुछ प्यारा नहीं लग रहा होता, उसे उससे भी कोई आंतरिक कटुता नहीं होती, वह बोलता ठीक है न प्यारा है; जो प्यारा है भी, उसने भी क्या उखाड़ लिया। सारा अध्यात्म है ही उसी लिए जिसकी आप बात कर रहे हो। फिर कहते हो मै बात कर रहा हूं - तो क्या मै पागल हूं? क्या जवाब दूं?

यह ऐसी सी बात है जैसे कोई मंज़िल पर पहुंच रहा हो और फिर कोई कहे - अरे, कहां आ गए हम! यह कौन सी जगह आ गए? अरे, जहां के लिए चले थे, वही आ गए; जहां घर है तुम्हारा, वही आ गए।

आत्मा आत्मा सोच कर क्या करोगे? आत्मा कोई चीज़ है, पकौड़ा है, क्या है कि सोचोगे तो मिल जायेगा? आत्मा विधि है; आत्मा उपाय है। हम बेवकूफियों से निकल सके, उसके लिए एक तरीका बनाया गया है - आत्मा।

उस तरीके को क्या करोगे, खाओगे, पीओगे, क्या करोगे? आत्मा आत्मा! कुछ दिनों तक आत्मा-आत्मा बोलोगे तो कुछ लोग साधु जानकर रुपया-पैसा दे जाएंगे, सम्मान दे जाएंगे, उसके बाद वह भी नहीं देंगे। अब दिक्कत यह कि अतीत में कईयों का ऐसे ही ऊट-पटांग चल गया हैं। वो जीवन भर आत्मा आत्मा करते रहे और लोग आ कर उनको चढ़ावा चढ़ाते रहे, तो हमे लगा कि आत्मा बड़ा वरदान देती है; और आत्मा की बात करने से काम तो चल ही जाता है - देखो न, वह संत जन थे, उन्होंने जीवन भर कुछ नहीं करा, वो क्या करते थे? आत्मा, आत्मा, आत्मा। कोई आए, कुछ बोले - आत्मा। वह तुक्के में काम चल गया, बार बार नहीं चलेगा। आप नकल मत करने लग जाना।

जीवन जीने के लिए है, आत्मा आत्मा कर रहे हो। और मोबाइल फोन पर कॉल आ गई, तो तुम्हें रिसीव करनी नहीं आती - कह रहे हो, ज़रा कॉल लगा कर देना - आत्मा! तो आत्मा से ही बोलो कॉल लगा दे। यह जो इतने घूमते हैं, सब ऋषिजन बनकर, ये करके, वो करके, इनसे पूछो गाड़ी चलानी आती है? गाड़ी चलाने के लिए तो ड्राइवर चाहिए कि आत्मा आ कर चलाएगी? और गाड़ी चलानी आती है तो टायर बदलना आता है? आत्मा बदलेगी टायर?

आत्मा इसलिए है ताकि तुम समझ सको कि गाड़ी चलानी आनी चाहिए और टायर बदलना आना चाहिए। यह हुई आत्मा की बात। कहीं चले जा रहे हैं पहाड़ पर, मान लो ऋषिकेश जा रहे हो; संत जन है वो ऋषिकेश जा रहे है - आत्मा की बात करने, और गाड़ी अटक गई; वहां क्या करोगे? रियर व्यू मिरर में मुंह देखोगे, पूछोगे कि - मैं कौन हूं! अरे, जैक लगाना सीखो; यह हुई आत्मा की बात; अब तुम्हे पता चला कि तुम कौन हो।

आत्मा का मतलब है, दुनिया में बेवकूफ बन कर नहीं जीना है, हम जानते है जीने का मतलब। खुल कर जीयेंगे, भरपूर जीयेंगे और जब मरेंगे तो कहेंगे – बूंद-बूंद पी कर जा रहे हैं, कुछ छोड़ा नहीं है; अब किसी को ईर्ष्या होती हो तो हो। हमने कोई कोताही नहीं बरती; हमने किसी अनुभव से किनारा नहीं किया। हमारे लिए जीवन अपनी परिपूर्णता में स्वीकार्य था। हम डर कर नहीं भागे, हमने पलायन नहीं किया। हमने नहीं कहा कि पांच कोष तो व्यर्थ है, आत्मा भर स्वीकार है। आत्मा वह जो पांच कोषों के साथ सहजता से जीना सिखाएं - उसे आत्मा कहते है। वो सहजता नहीं है जीवन में तो क्या है फिर! और वह सहजता अगर आ रही है, तो उत्सव मनाओ; सवाल मत पूछो।

चौथी अवस्था की बात इसलिए की जाती है ताकि तीन अवस्थाओं में तुम मौज मना सको, समझ गए? अब चौथा असली है कि नकली, तुम जानो। जहां से मैं देख रहा हूं तो असली से असली है, पर अगर उसको तुम संसार के तल पर उतार दोगे, शरीर के तल पर उतर दोगे, तो एकदम नकली हो जाएगा।

आत्मा समझदारी है; समझदारी से खाओ-पियो; पर समझदारी को थोड़ी खाओगे पियोगे। समझ को खा गए और पेट भर गया। समझदारी से खाओ-पियो भई, समझदारी से पहनो ओढ़ो, समझदारी से कमाओ, समझदारी से संबंध बनाओ, पर समझदारी को थोड़े ही पहन लोगे, कि ओढ़ लोगे? आत्मा समझदारी है, आत्मा बोध है। जो करना है समझदारी से करो, करोगे कहां इसी दुनिया में तो करोगे और कहां करोगे?

यह लैपटॉप है, यह मेरा मुंह है, यह दाढ़ी है - आत्मा माहौल है, आत्मा नहीं बोलेगी। यहां वेबकैम लगा है, उससे मेरी शक्ल देख रहे हो। और वेबकैम नहीं चलाना आता तो वेबकैम कुछ नहीं कर पाएगी, कोई बात नहीं पहुंचेगी मेरी तुम तक।

विष्णु, वरुण, इन्द्र - जपते रहो माला। वह सब भी फ़र्ज़ी है। मस्त रहो बिल्कुल एकदम, भरपूर खाओ-पियो, खेलो, आनंद मनाओ, यही आत्मस्त जीवन है।

दिल की धड़कन है आत्मा। उसकी बहुत परवाह नहीं करते। स्वस्थ जी रहे हो तो दिल बढ़िया ही होगा। वह योगी न बन जाना कि कान निकाल कर यहां दिल में लगा रखा हो और हर समय धड़कन ही धड़कन सुन रहे है कि हमे तो आत्मा के साथ जीना है। धड़कन परेशान हो जाएगी, रुक ही जाएगी किसी दिन। आत्मा की इतनी नहीं परवाह करते, आत्मा को अनुमति देते है कि वह हमारी परवाह करे। हम इतना ज़्यादा राम राम जपते है कि हमें लगता है कि राम ही हमारे भरोसे है; तुम्हें राम भरोसे रहना है।

भारत का बहुत नुकसान हुआ है इन चक्करों में। बाहर से सेनाएं आती थी, आक्रमण करती थी। बहुत बार हुआ हैं, लोग साधु संतों के पास भागे है। और वह साधु संत भी सब लोगो ही जैसे हैं; उन्होंने कर भी दिए चमत्कार कि हां बस जाओ, कल सुबह हो जाएगा। यवनों के सारे अस्त्र-शस्त्र गल जाएंगे। और फिर जों पिटाई हुई कि पूछो मत। और जब मंदिर लुट रहे होते थे, तो यह आत्मा के पुजारी कुछ नहीं कर पाते थे। जब सामने दुश्मन खड़ा हो तो, आत्मा आत्मा नहीं करते। हाथ में ताक़त होनी चाहिए तलवार उठाने की - वही आत्मा है। उसी में आत्म की अभिव्यक्ति है। वास्तव में जीवन में कभी भी आत्मा की माला फेरने से कुछ नहीं पाओगे। जिस समय जो उचित है वह करो - यह आत्मा का नृत्य है।

YouTube Link: https://youtu.be/ihn78EUk9sM

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