पहला याद रखो, आखिरी स्वयं हो जाएगा || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक पर (2014)

Acharya Prashant

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पहला याद रखो, आखिरी स्वयं हो जाएगा || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक पर (2014)

श्रोत १: आचार्य जी, एक प्रश्न इसके अनुवाद में था, लिखा था, कोई उसकी शक्ति का गुणगान करे, ये शक्ति किसके पास है?

आचार्य जी: नहीं, वो ठीक है। वो अनुवाद में गलती नहीं है। नानक कह रहें हैं कि जिसको मिलता है, वो गाता है। वो सबको दे रहा है, लेकिन तुम्हारा गाना भी, तुम्हारी समस्त अभिव्यक्तियाँ भी कभी उसे पूर्णता से व्यक्त नहीं कर पाएँगी। कोई उसकी ताकत के बारे में गाएगा। कल तुम गा रहे थे ना – “ओ सबसे बड़ी ताकत वाले, तू चाहे तो हर आफत टाले”।

कोई गाएगा कि उसने हमें कितना दिया है!

श्रोता १: उसके उपहार…

वक्: हाँ।

गावै को दाति जाणै नीसाणु ।।

आचार्य जी: कोई गाएगा कि उसमें कितने गुण हैं, महानता है, ऐश्वर्य है, सुन्दरता है। कोई गाएगा कि समस्त बोध उसी से आ रहा है। कोई गाएगा कि वो रचियता है। वही बनाता है, वही मिटाता है। कोइ गाएगा कि जीव की समाप्ति के बाद वही है, जो जीवन का पुनरारंभ करता है। कोई गाएगा कि वो कितनी दूर नजर आता है। कोई गाएगा कि वो बिलकुल पास है। सभी ठीक ही गा रहे हैं। पर, किसी ने भी पूर्ण को गा नहीं दिया। जो कह रहा है कि वो बहुत दूर है, वो बिलकुल ठीक गा रहा है। जो कह रहा है कि वो करीब से करीब है, वो भी बिलकुल ठीक गा रहा है।

कल ईशावास्योपनिषद् हमसे क्या कह रहा था? ‘वो भीतर भी है और बाहर भी है’। कोई गा रहा है कि वो भीतर है। कोई गा रहा है कि वो ह्रदय की गुफा में निवास करता है। और कोई गा रहा है कि वो चाँद – तारों में है। कोई गा रहा है कि वो बड़ा द्रुतगामी है – कितनी तेज चलता है। उपनिषद् ने हमसे ये भी कहा था, “मन की गति से ज्यादा तेज, उसकी गति है।” और कोई गा रहा है कि वो चलता ही नहीं, वो स्थिर खड़ा है, अकम्पित। दोनों ही ठीक गा रहें हैं।

कौन उसकी महिमा का पूर्ण वर्णन कर सकता है? कोई नहीं। नानक आगे आ कर के हमसे कहेंगे कि मात्र वही है, जो अपने आप को जान सकता है। अभी कहा था ना मैंने? आपे?

सभी श्रोतागण (एक साथ): … आपे जाणै आपु ।।२२।।

वक्ता: जाणै आपु। तो पूरा पूरा उसे तुम तो जान नहीं सकते। पर तुम गाओ। तुम तब भी गाओ। तुम्हारा गाना, हमेशा आंशिक होगा। लेकिन गाओ। समझ रहे हो बात को? गाते, गाते, गाते, गाते, तुम वहाँ पहुँच जाओगे जहाँ मौन हो जाओगे। और फिर, वहाँ कुछ आंशिक नहीं रहता। गीत के बोल तो सदा आंशिक ही होंगे। शब्द हैं, शब्दों की सीमाएँ होती हैं। मौन की कोई सीमा नहीं होती। उसके गीत गाओगे तो मौन को पा जाओगे। गीत भले अधूरा होगा, पर मौन पूरा होगा। बाहर गीत होगा, जो अधूरा – अधूरा सा। और भीतर?

सभी श्रोतागण (एक साथ): मौन।

आचार्य जी: मौन होगा! नितांत पूरा, और दोनों एक साथ होंगे। ये है इन सारी पंक्तियों का अर्थ।

श्रोता २: इसका तीसरा?

आचार्य जी: देदा दे लैदे थकि पाहि ।।३।।

दिये जा रहा हैं, दिये जा रहा हैं, दिये जा रहा हैं, जितना बड़ा तुम्हारा कटोरा नहीं है उससे ज्यादा वो उसमें उड़ेले जा रहा है, उड़ेले जा रहा है। तुम्हारे कटोरे तो हमेशा सीमित होंगे। तुम अपना आँचल कितना फैला सकते हो? इतना (हाथों से इशारा करते हुए)? और, देने वाले के पास अक्षय भंडार है। तुम थक जाते हो लेत-लेते। उसका देना नहीं बंद होता।

आचार्य प्रशांत: तुम पात्र हो, पात्र। पात्र माने? कटोरा, बर्तन। तुम पात्र हो, पात्रता तुम्हारी है। और हर पात्र, अपनी सीमा के साथ होगा। जैसे बारिश बरस रही हो, और कटोरे में, इतना सा आ रहा हो। और जो बाकी आ रहा हो, वो छलका जा रहा हो। तो, वो तो बारिश है। लूटो, जितना ले सकते हो, पियो। कल कबीर कह रहें थें ना?

मदवा पी गई बिन तोलै…

नापने की जरुरत ही नहीं। असंख्य को, असीमित को, नापा नहीं जा सकता। वहाँ नापने-तौलने का कोई मतलब ही नहीं है। जितना चाहिये, उठाओ। ले जाओ, जाओ।

श्रोता १: एक चीज आई थी कि हमें दूसरों के हक़ का नहीं लेना चाहिये। तो ये तो..

आचार्य जी: तुमको जितना अपने कटोरे में, मिल रहा है, लो। ये परवाह मत करो कि कल के लिये रखूँ कि परसों के लिये रखूँ। ठीक वही बात तो कही जा रही है कि बारिश लगातार है, और तुम्हारा कटोरा? इतना बड़ा। तो लूटो। फ़िक्र क्या करनी है? लूटने से क्या अर्थ है कि इधर-उधर जाना पड़ेगा, बारिश इकठ्ठा करने? कटोरा जहाँ है, वहीँ बैठा रहे, कुछ न करे, तो भी कैसा रहेगा?

सभी श्रोतागण(एक साथ): भरा हुआ।

आचार्य प्रशांत: सदा भरा हुआ। तुम्हें मिलता रहेगा। पर यहाँ, ऐसे भी कटोरे हैं। जो खुद खाली हैं, और जा के दूसरों से भी लड़-लड़ के, उन्हें औंधा कर देते हैं कि इसमें भी भरने न पाए। कटोरे को मिले, उसके लिये एक शर्त तो है ही ना? क्या?

सभी श्रोतागण (एक साथ): उसका मुँह खुला रहे।

आचार्य प्रशांत: उसका मुँह, ऊपर की ओर खुला रहे, प्रार्थना में, कि जैसे सीप जब खुली होती है,तो उसमें बूँद पड़ती है और कहते हैं कि मोती बन जाती है। पर उसके लिये एक अनिवार्यता होती है, क्या?

सभी श्रोतागण (एक साथ): सीप का मुँह खुला हो।

आचार्य प्रशांत: सीप का मुँह, आसमान की ओर हो। पर यहाँ, कटोरों के पास अहंकार है। तो जिनका मुँह खुला भी होता है, उन्हें जा कर औंधा कर देते हैं, पलट देते हैं। न उनके पास खुद कुछ है, न वो औरों को कुछ लेने देंगे। या कि जा कर, एक कटोरा चढ़ कर बैठ गया है, दूसरे के ऊपर।

मस्त रहो, मगन रहो, पाते रहो, गाते रहो और छक के पीयो।

श्रोता ३: गाने की भी क्या जरुरत है?

आचार्य प्रशांत: जरुरत कुछ नहीं है। पर अगर पाने से, गाना स्वयं उठता हो, तो? जरुरत तो अपूर्णता में होती है। कोई कमी है। कमी का नाम होता है, जरुरत। और अगर गाना, जरुरत से न उठता हो, तो? पर सवाल जायज है तुम्हारा, क्योंकि तुमने आज तक जो भी करा है, वो जरुरत की खातिर करा है। कुछ भी कर्म हम करते क्यों हैं? क्योंकि कोई कमी लगती है, जरुरत है, कष्ट है, दुःख है, बेचैनी है, तो कुछ करते हैं। गाया जरुरतवश नहीं जाता। गाया मजे में जाता है, आनन्दवश।

श्रोता ४: चौथा, नहीं समझ आया।

आचार्य प्रशांत: क्या लिखा है? यही तो लिखा है, सुबह-सुबह नाम गाओ उसका। और थोड़े ही कुछ लिखा है। अमृतवेला, ब्रम्ह्मुहूर्त – उसको अमृतवेला कहते हैं। सुबह-सुबह उसका नाम गाओ। मतलब क्या है इस बात का? कुछ भी और करो उससे पहले उसका नाम आए। वो पहला है, वो प्रथम है, वो अव्वल है। बाकी अपनी गतिविधियों में घुस जाओ, उससे पहले, उसका नाम लो। क्या पता, वो गतिविधियाँ ही बदल जाएँ?

उसका नाम लेना कोई नियम नहीं है कि सुबह उठते ही, उसका नाम ले रहे हो। ये किसी रिवाज का हिस्सा नहीं है। इसका अर्थ ये है कि उसका नाम लिया। अब उसका नाम लेने से, दिन भर जो होगा, सो होगा। ये नहीं है कि दिन भर जो करना है, उसकी योजना तो तैयार है, और उस योजना का, एक हिस्सा है कि सुबह सुबह नाम भी लेना है। पहले वो आ जाए।

श्रोता ५: इसमें ये है? जो शिवपुरी में किया था कि एक की रौशनी में तीन-दो, सब एक्ट करें, रौशनी बनी रहे।

आचार्य प्रशांत: हाँ। पहले वो आ जाए। उसके बाद जो होना है, सो हो। और यदि पहले वो आ गया, तो बाद जो होना होगा, अच्छा ही होगा। शुभ ही होगा। इसी को कृष्णमूर्ति कहते हैं, “पहला कदम ही…?”

सभी श्रोतागण (एक साथ): आखिरी कदम है।

आचार्य जी: आखिरी कदम है। पहला ठीक रखो, अव्वल, प्रथम, केंद्र। आगे सब अपने आप ठीक हो जाएगा। पहला, कौन है पहला?

श्रोता ६: प्रथम।

आचार्य जी: उसको ठीक रखो। और आगे की चिंता छोड़ो। उसकी चिंता छोडो। बात आ रही है समझ में? इसको कबीर क्या कहते हैं?

एक साधे सब सधे।

एक को साधो, बाकी सब सध जाएगा। इसको नानक कह रहें हैं कि सुबह अमृतवेला में, सबसे पहले उठ कर के, उसका नाम लो।प्रथम

अमृत वेला सचु नाउ वाडियाई वीचारु ।।४।।

उसकी वडियाई को विचारो, पहला काम ये करो। वो बात, जितनी आचरण की है, उतनी ही अंतस की भी है। ये तो होना ही चाहिये कि प्रातः काल उठ कर के नाम लो। पर वो नाम, मात्र मौखिक नहीं हो सकता कि मुँह से तो बोल दिया। नाम लेने का अर्थ है कि सबसे पहले, उसमें स्थापित हो जाओ। ये तुम्हारा पहला दायित्व है, “पहला कदम”। उसके बाद, अपने आप सब ठीक होगा। अपने आप तुम्हारे जीवन में, एक सुन्दर व्यवस्था रहेगी। सब शुभ रहेगा।

श्रोता ७: आचार्य जी, ये बात ये भी संकेत कराती है कि हम कुछ भी करें, उन सब में वो सबसे पहला होना चाहिये?

आचार्य जी: बिलकुल! हमेशा प्रथम। हमेशा केन्द्रीय। हमेशा सबसे ज्यादा जरूरी।

आचार्य जी: जो अमृतवेला होती है, वो एक बहुत अच्छा मौका होती है याद करने के लिये; क्यों? वो, वो बिंदु होता है जहाँ पर द्वैत के दो सिरे मिल रहे होते हैं। कल किसी ने कहा, और बिलकुल ठीक कहा। दिन कभी रात को नहीं जानता। रात कभी दिन को नहीं जानती। किसने कहा था?

श्रोता ८: उपनिषद् में था।

आचार्य जी: है ना? दिन कभी रात को नहीं जानता, रात कभी दिन को नहीं जानती। पर एक बिंदु होता है जहाँ रात और दिन, गले मिलते हैं। वो ब्रह्ममुहूर्त होता है। वो, वो बिंदु होता है, जहाँ पर अद्वैत के दो सिरे, एक क्षण के लिये, करीब आ जाते हैं। याद रखना, रात में ऐसा कुछ नहीं होता, जो ये सूचना दे कि दिन आने को है। रात, रात होती है। तुम रात को देखो, कहीं से तुम्हें दिन नहीं दिखाई देगा। और अभी दिन है, दिन में कहीं रात की झलक नहीं है। अप्रत्याशित घटना घट जाती है, जादू हो जाता है। रात की कोख से दिन निकल आया! ये कैसे हो गया? यही ब्रह्म का काम है। यही जादू है। समझ रहे हो? अकारण कुछ हो गया ना? कोई कारण है, कि अँधेरे में से, उजाला निकल पड़े? अकारण कुछ हो गया। इस कारण, वो ब्रम्हवेला बड़ी महत्वपूर्ण मानी गयी है। और दूसरे कारण, तो हैं ही कि सो कर के उठते हो, मन तजा रहता है, थकान कम रहती है। वो सब लेकिन बाद की बातें हैं।

ये जो परंपरा रही है कि सुबह और साँझ पूजा की जाए। उसके पीछे, समझ यही रही है कि ये दोनों संधि काल होते हैं। जब दो विपरीत ध्रुव, मिलते से होते हैं। आ रही है बात समझ में? इसका ये नहीं अर्थ है कि सुबह नाम लेकर खतम करो। मन पता नही..। नानक ने कहा था कि अमृतवेला में नाम लेना, तो ले लिया अमृतवेला में। अब दिन भर हमें जो करना है सो कर रहें हैं – इसका ये अर्थ न कर लेना। हर वेला, अमृतवेला है। लगातार नाम लेना है।

श्रोता ९: स्मरण।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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