प्रश्नकर्ता: जैसा आपने बताया कि कोई अन्तिम अवस्था नहीं होती है। हमें निरन्तर जीवनपर्यन्त अपनेआप को शुद्ध करते रहना होगा। तो हम जिन जीवनमुक्त महात्माओं के बारे में हमने जो पढ़ा है ‘निसर्गदत्त महाराज’,’रमण महर्षि’, ‘परमहंस योगानन्द’। वो जिस निरन्तर अवस्था में रहते हैं, वो जो बिलकुल फ्री फ्लो एटीटयूड जो उनका रहता है, वो क्या है? और दूसरा प्रश्न है कि यदि अहम् ने दुनिया बनायी है तो हम हमारी क्या, हम क्यों नहीं उसको कंट्रोल कर पाते हैं? उस दुनिया में हमारा क्या स्टेटस है? उस चीज़ पर हमारा कंट्रोल क्यों नहीं है?
आचार्य प्रशांत: पहली बात तो अगर कोई व्यक्ति हुए हैं अतीत में ऐसे, जो वास्तव में तत्व को समझे हैं। तो उनका लगातार यही काम रहा है कि वो अपनी रोज़ सफ़ाई करते रहे। और उनमें अगर कोई ऐसा है जो दावा कर रहा है कि नहीं, मुझे तो किसी सफ़ाई इत्यादि की ज़रूरत ही नहीं। तो ठीक है। दावे हैं दावों का क्या। बहुत ज़्यादा इस पर खयाल करना नहीं चाहिए कि कौन अपने बारे में क्या बोल रहा है।
अभी भी आपने तीन नाम लिए उसमें से दो नाम एक कोटी के हैं, तीसरा नाम आपने व्यर्थ ही जोड़ दिया। तो कोई अपनी ऑटोबायोग्राफी में कुछ भी उड़ा सकता है, आप पर कोई अनिवार्यता नहीं है कि आप बैठकर विश्वास करने लग जाएँ। आप ये मत देखिए कि कोई अपने बारे में कैसी धूम मचा रहा है। आप ये देखिए कि उसने आपको जो बताया, वो आपके जीवन के लिए कितना सार्थक है।
रमण महर्षि अहम् की बात करते हैं। वो चीज़ आप समझेंगे, अपने जीवन में उसका उपयोग करेंगे तो बहुत सारी गाठें खुलेंगी। और दूसरी और कोई आपको बताये कि देखो, मैं हूँ न मैं यहीं बैठे-बैठे शिकागो पहुँच जाता हूँ और मेरे जन्म से पहले फ़लाने ने आकर मुझे अंगूठी दी थी माँ को, वो पहन लेता हूँ तो मुझे यहाँ का ये दिख जाता है, वहाँ का दिख जाता है, मैं फ़लाने का मन पढ़ सकता हूँ। हाँ! भाई तुम हो बहुत बड़े सिकन्दर, उससे हमें क्या मिल गया?
शिष्य गुरू के पास इसलिए जाता है न कि उसको शान्ति मिले या शिष्य गुरू के पास इसलिए जाता है कि गुरू अपना उसको अल बाबा चालीस चोर सुनाए और शिष्य बोले, ‘वाह! वाह! वाह! वाह! और सुनाइए।‘ गुरू का काम ये थोड़ी ही होता है कि वो अपनी धूम मचाता रहे। जो अपनी धूम मचा रहा है वो काहे का गुरू है। वो धूम भी इस तरीके की जो सुनने वालों को, पढ़ने वालों को और नीचे ही गिराएगी। जो उन सब बातों में विश्वास कर ले वो कहीं का नहीं बचेगा।
ये सब बातें, ये सब तो उस स्तर की हैं। क्या है? हैरी पॉटर , स्पाइडर मैन। अध्यात्म ये थोड़े ही होता है तिलिस्मी अंगूठी, चमत्कारी तलवार, जादुई कालीन जो यहाँ से उड़ता था उजू-जू-जू बोलकर। जादुई कालीन वाले अध्यात्म से बहुत बचकर रहा करिए। और फिर आप मुझे बताइए आपको क्या मिल जायेगा ये मानकर कि एक बिन्दु ऐसा आता है जिसके बाद सफ़ाई की कोई ज़रूरत नहीं रहती? चलिए आता होगा। तो, तो?
प्र : एक ऑबजेक्टिव है की यहाँ पहुँचना है। अदरवाइज तो वो एक प्रोसेस, नेवर एंडिंग प्रोसेस (कभी न् खत्म होने वाली प्रक्रिया) हो जाएगा फिर तो?
आचार्य : हाँ तो जो आप ओब्जेक्टिव बना रहे हो न वो ऑब्जेक्टिव आपको और परेशान कर देगा। क्योंकि आप एक ऐसी चीज़ माँग रहे होगे जो पायी जा नहीं सकती। वो जितना नहीं मिलेगी आप उतने ज़्यादा निराश और व्याकुल हो जाओगे।
भई! आपके मन में किसी ने ये धारणा बैठा दी कि एक कोई अवस्था आती है जिसे कुछ कहते हैं, कोई नाम दे दीजिए, कोई अवस्था बोलिए? ये कोई आखिरी अवस्था आती है जिसको कुछ नाम देते हैं। उसको क्या नाम दे दिया? नहीं ये तो शास्त्रीय नाम है। आप ऐसे ही। हैरी पॉटर वाला नाम बताइए न। कुछ नाम बोलिए। अरे! आप फिर। बाहर ही नहीं आ रहे उपनिषद से। कुछ भी नाम, ‘पक्को’। ठीक है? पक्का वाला हो गया ‘पक्को’। और जब ‘पक्को’ अवस्था आती है तो आपकी पीठ पर पंख निकल आते हैं और आपके सिर पर कमल खिल जाता है। अब आपका क्या होगा? आपने अपने लिए जीवनभर के लिए क्या तैयार कर लिया? दुख तैयार कर लिया न। क्योंकि आपके सर पर तो कमल खिल ही नहीं रहा और आप लगे हुए हैं कमल खिलाने में। रोज़ खाद भी डाल रहे हैं उसमें सब कर रहे हैं, खुरपी लेकर एक दिन गड्ढा भी कर दिया, उसमें खाद भी भर दी। कमल निकल ही नहीं रहा।
तो अध्यात्म का उद्देश्य ये सब जादुई करतब करना नहीं होता। यही है जीवन, इसमें कोई तिलिस्मी चमत्कार नहीं हो जाना है। इसी जीवन को सही और सहज जीना है। अब ये बात इतनी सीधी-सादी है के हमें आकर्षक ही नहीं लगती। हमें कुछ फिल्मी चाहिए, ‘कोई मिल गया’। वो उतर रहा है उसकी इतनी बड़ी आँखें हैं और उसका ऐसे मुँह निकला हुआ है और उसके पास कुछ दिव्य शक्तियाँ हैं। किसी का हकलाना ठीक कर देता है, किसी का कुछ कर देता है, किसी पर ऐसे राख फेंककर मारता है तो वो भस्म हो जाता है।
तो अगर आपको ये सब देखना है तो फिर आप ये ऑटोबायोग्राफी वगैरह क्या पढ़ रहे हैं। आप जाइए कोई बढ़िया तिलिस्मी पिक्चर देखिए उसमें ज़्यादा अच्छा मनोरंजन है। ये तो एक अजीब सा मोंग्रेल हाइब्रिड है। जिसमें न अध्यात्म है, न मनोरंजन है।
प्र: आचार्य जी! फिर उस अवस्था में अगर हम भोग का रास्ता चुनते हैं वर्सेज़ हम ये रास्ता चुनते हैं जिसमें कि बहुत सारे रेस्ट्रिक्शन्स हैं। तो फिर तो भोग का रास्ता ज़्यादा आसान होगा?
आचार्य: मैं समझा नहीं। भोग का रास्ता माने क्या?
प्र: मतलब इस प्रक्रिया में निरन्तर हमें अपनी सफ़ाई का निरन्तर ध्यान रखना है और हम इसमें कहीं पहुँचने नहीं वाले हैं ये जीवनपर्यन्त हमें इस प्रोसेस को चालू रखना है। आचार्य: तो रोज़ आपको नहाना है।
प्र: जी।
आचार्य: नहाकर के तकलीफ़ होती है? जीवनपर्यंत नहाना है उसमें कोई तकलीफ़?
प्र: तकलीफ़ नहाने में नहीं है। क्योंकि वो अब हमारी प्रैक्टिस में आ चुका है।
आचार्य: बस! अच्छा प्रैक्टिस में नहीं हो तो? मान लीजिए किसी की प्रैक्टिस में नहीं है तो? तो नहाना तो उसे भी पड़ेगा न, नहीं तो खुजलाएगा।
प्र: जैसे एक उदाहरण के लिए। क्षमा चाहूँगा, जैसे एक शूकर होता है, शूकर किसी नाली में पड़ा हुआ रहता है, उसको उसी अवस्था में।
आचार्य: हाँ पर मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता न।
प्र: जी।
आचार्य: अगर आदमी नहीं नहा रहा है तो अपनी तकलीफ़ बढ़ा रहा है। और बीमार और हो जाएगा पाँच तरीके से। तो इस रास्ते को आप कष्ट का रास्ता क्यों बोल रहे हैं? कष्ट का रास्ता नहाने में है या कष्ट न नहाने में है?
प्र: कष्ट का रास्ता हमेशा अपनेआप को चैलेंज करने में है।
आचार्य: माने रोज़ नहाना न?
प्र: रोज़ अपने जो जिस स्थिति में हम कम्फ़र्टेबल हैं, उस स्थिति को हर दिन चैलेंज करने का।
आचार्य: हाँ तो भई! आप कम्फ़र्टेबल तो न नहाने में भी होते हो कई बार। पर अगर नहीं नहाते तो क्या होता है?
प्र: गन्दगी रहती है।
आचार्य : बदबू उठती है, लोग भागते हैं इधर-उधर आप से। फिर वही बात है। मन को भी अगर नहीं नहलाओ तो खुद को ही समस्या हो जाएगी। लेकिन हम ऐसे बता रहे हैं जैसे समस्या नहाने में है। समस्या नहाने में नहीं है, समस्या न नहाने में है। तो उसको तकलीफ़ का रास्ता आप क्यों बता रहे हैं? आप उसे तकलीफ़ का रास्ता घोषित कर देंगे तो आप अपने लिए ही अड़चन बढ़ा रहे हैं। और भोग का रास्ता क्या है? न नहाना भोग का रास्ता है?
प्र: वो एक आराम की अवस्था है, जिसमे की कोई चाल
आचार्य: किसको आराम मिल रहा है? अगर भोग से आराम मिल रहा होता तो मैं कह रहा हूँ हम सब चलिए परम भोगी हो जाते हैं। ये रास्ता आ कहाँ से गया? ये नया-नया कोई आविष्कार होगा पिछले बीस-पचास साल का, भोग का रास्ता। ऐसा कोई रास्ता होता ही नहीं है। कौनसा भोग का रास्ता? कौनसा मार्ग है ये? ये भोग मार्गी कौन होते हैं?
भोग से अगर मुक्ति मिल रही होती तो चलिए भोगते हैं। या भोग से कुछ भी मिल रहा होता जो भी आपको चाहिए अगर वो मिल रहा होता तो चलिए न भोगते हैं। हम क्यों अपना समय खराब कर रहे हैं। भई! रास्ता महत्वपूर्ण नहीं होता। अन्त, मंज़िल, मुक्ति महत्वपूर्ण होती है, वो मुक्ति अगर भोग से मिल रही है तो मैं भोग से क्यों इनकार करूँ। नहीं मिल रही न। आज़माकर देख लीजिए। मिलती हो तो हमें भी बताइएगा। इतने भोगी आये, इतने चले गये। भोगी ही तो ज़्यादा हुए हैं न? निन्यानवे दशमलव नौ प्रतिशत क्या हैं? भोगी ही तो हैं। उनकी हालत नहीं देख रहे?
ये एक भ्रम है कि भोग का रास्ता सुख का रास्ता है और स्नान का रास्ता कष्ट का रास्ता है, ऐसा नहीं है। दूसरी बात, जब तक शरीर है तब तक तो वो प्रकृति के साथ सम्बन्ध रखेगा ही, संसार के साथ। भोग के मूल में अनुभव होता है। आपको अनुभव हो रहे हैं, उसी को आप भोग कहते हैं। तो भोगना तो हमें पड़ेगा ही। जिस दिन तक जी रहे हैं उस दिन तक भोग तो चलेगा ही। प्रश्न ये है कि क्या भोग रहे हैं? भोगना तो है ही।
ऐसा नहीं है कि दो रास्ते हैं, जिसमें से एक रास्ते पर भोग है और दूसरे रास्ते पर त्याग है। ये धारणा बिलकुल मन से निकालें। अहम् ऐसी ही धारणा बनाना चाहता है। वो इस तरह का एक द्वैत, इस तरह की एक बायनरी खड़ी करना चाहता है कि एक रास्ता है जिस पर भोगा जाता है, दुनिया के मज़े लिए जाते हैं और दूसरा रास्ता है, त्याग का रास्ता।
वास्तव में हर रास्ता भोग का ही रास्ता है। स्नान का रास्ता भी भोग का ही रास्ता है। बस उसमे आप दूसरी चीज़ भोग रहे हो। तो भोगना तो पड़ेगा ही जब तक जी रहे हो तो भोगोगे। अभी हम साँस ले रहे हैं तो साँस भी एक तरह का भोग है। अगर मैं आपको देख रहा हूँ तो वो भी एक तरह का भोग है।
प्रश्न ये नहीं है कि त्याग या भोग। प्रश्न ये है, किसका भोग। क्या भोग रहे हो? तो इसको इस प्रकार का द्वंद्व मत बनाइए। ये द्वन्द्व आप बनाओगे। ऐसा प्रश्न आप खड़ा करोगे कि भोग या त्याग तो भीतर से एक ही उत्तर आयेगा, भोग,भोग,भोग। क्योंकि ये प्रश्न गढ़ा ही बड़े शरारती तरीके से गया है। इस प्रश्न के निर्माण में ही शरारत बैठी हुई है। क्या प्रश्न करा आपने? भोग या त्याग? तो तुरन्त क्या उत्तर आयेगा? भोग यार, त्याग कौन करना चाहता है। क्योंकि ये सवाल ही बहुत बचकाना है। सवाल ये होना चाहिए सही भोग या गलत भोग। समझिए। क्या होना चाहिए सवाल? सही भोग या गलत भोग। भोगें, बेशक भोगें विवेक के साथ भोगें न।
“तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा:”
और भोगना अनिवार्यता है। मर जाते हो तब भी शरीर आग का भोग करता है। जीते जी तो छोड़ो, मरने पर भी हमें आग चाहिए।
क्या भोग रहे हो लेकिन? सवाल है क्या भोग रहे हो लेकिन? इसको भी भोग सकते हैं (कागज़ को उठाकर दिखाते हुए) और कुछ और भी भोग सकते हैं।
दीपावली है इस समय पर आप पता नहीं क्या-क्या भोग सकते थे। भोग का जितना कार्यक्रम आज चलता है, उतना तो अन्य दिनों पर चलता भी नहीं। आपने चुना है आज उपनिषद को भोगना। जब आप उपनिषद को भोगते हो तो फिर वो भोग दूसरे नाम से जाना जाता है, फिर उसको तप भी कह देते हैं, उसको त्याग भी कह देते हैं।
सही भोग का नाम ही त्याग है। तो त्याग के साथ ये छवि मत जोड़िये कि कुछ छोड दिया। त्याग के साथ ऐसी छवि जोड़िये कि जो सही था वो ग्रहण किया। जो व्यर्थ था उसको काहे को पकड़ेंगे। अब बेहतर लग रहा है न। तो ये तो शब्द का खेल है कि आप कैसे उस बात को अपनेआप को समझा रहे हो। सही तरीके से समझाइए, आसानी रहेगी।
अभी सुबह मैं पढ़ रहा था कि वन-विभाग ने अपने सचल दस्ते आज खासतौर पर सक्रिय करे हैं। क्यों? क्योंकि ये झाड़फूंक, जन्तर-मन्तर, टोने-टोटके वाले जो हैं, ये आज लग जाते हैं उल्लू पकड़-पकड़कर उल्लू काटने में। यहाँ तक कि जो उल्लू की विलुप्त प्राय प्रजातियाँ हैं, उनको भी पकड़कर आज उनकी बली दी जा रही है वो भोग रहे हैं। आप उपनिषद भोग रहे हैं। और कहने को वो भी धार्मिक काम ही कुछ कर रहे हैं। उनको बताया गया है कि देखो ऐसा होता है, ऐसी एनर्जी निकलती है उल्लू में खास वाइब्रेशन होते हैं। ऑकलटिस्टस (तान्त्रिक) हैं वो।
और आज सैकड़ों, हज़ारों में ये सब काम होता है कि उल्लू पकड़कर लाओ उसका सम्बन्ध लक्ष्मी जी से है न और उसको काट दो। वैसे बात भी थोड़ी अतार्किक है। लक्ष्मी जी का तो वाहन है उल्लू, आयेंगे भी तो नहीं लेकिन फिर। आने वाले की गाडी पंचर कर दी, वो आयेगा कैसे। क्या भोगना है? उल्लू का माँस या वेदान्त।
समझ में आ रही है बात?
त्याग शब्द ही हटाइए। त्याग का क्या, कुछ नहीं। चाहिये सम्यक भोग, सही भोग, उचित भोग। त्याग शब्द लगाएँगे न तो फोमो हो जायेगा, फियर ऑफ मिसिंग आउट, सबको मिल गया, मैं ही त्यागी रह गया। ये अध्यात्म चीज़ ही बुरी है। सब मज़े मार रहे हैं मैं त्याग कर रहा हूँ। बड़ा बुरा लगता है।
त्याग नहीं सही भोग। तुम घटिया चीज़ में मुँह मार रहे हो। वही जैसे आपने कहा शूकर की तरह। और हम “माखन-माखन सन्तों ने खाया, छाछ जगत बपरानी।”
सन्तों को ये नहीं कहा गया की उन्होंने कुछ खाया ही नहीं। उन्होंने क्या खाया? माखन-माखन। मक्खन-मक्खन सन्तों के पास जाता है और छाछ जगत में फैली हुई है। वो सही भोग करते हैं, वो ऊँचा भोग करते हैं। समझ में आ रही है बात?
“पहले तो मन कागा था, करता आतम घात अब मनवा हंसा भया, मोती चुन-चुन खात ”
ये थोड़ी कहा है कुछ नहीं खात। भोग करता है लेकिन अब किसका भोग करता है? मोतियों का भोग करता है, ऊँचा भोग करता है। त्याग नहीं कर रहा है, ऊँचा भोग कर रहा है। डरें न बिलकुल, कुछ नहीं छोड़ना है। या ऐसे कह दीजिए कि सिर्फ़ जो घटिया चीज़ है, उसी को छोड़ना है। बढ़िया-बढ़िया, माखन-माखन बिलकुल पकड़कर रखना है। वो अपने पास मिलेगा।
प्र: आचार्य जी! यदि अहम् ने ही दुनिया बनायी है तो फिर उस दुनिया पर हमारा कंट्रोल क्यों नहीं है?
आचार्य: नहीं, अहम् ने दुनिया बनाई नहीं है, दुनिया और अहम् एक साथ हैं। अहम् से दुनिया, दुनिया से अहम्। जैसे दो शीशे आमने-सामने रख दिये गये हों। निर्माता इसमें से कोई नहीं है। सिक्के का एक चेहरा क्या सिक्के के दूसरे चेहरे को, एक पक्ष दूसरे पक्ष को बनाता है? बनाता नहीं है। पर दोनों साथ-साथ हैं। निर्माता कोई नहीं है इसमें से।
द्वैत में ऐसा नहीं होता कि द्वैत का एक सिरा दूसरे की रचना करता है। रचना नहीं करता। पर एक-दूसरे के बिना हो नहीं सकता। इन दोनों चीज़ों में अन्तर है। ये दोनों साथ-साथ हैं, इनका सह-अस्तित्व है, ये कॅान्करेंट हैं लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है कि एक-दूसरे का निर्माता या प्रोजेनाइटर है।
प्र : ये जो सही भोग वाला आप कह रहे हो, ये तो चॉइस वाला हो गया। लेकिन जब व्यक्तिगत आदमी के इशूज़ हों, तो फिर चॉइस कैसे करेगा बन्दा?
आचार्य: सही चॉइस। चॉइस ही तो असली चीज़ है। तुम क्या चुन रहे हो? चुनते तो हो न? तो गलत चुन सकते हो, सही नहीं सुन सकते।
प्र: लेकिन इतनी सारी जब चीज़ें होती हैं तो ओवरवेल्म (डूब जाना) भी तो हो जाता है।
आचार्य: वो तो अपने ऊपर है। चीज़ों की ही बात करोगे कि चीज़ें कितना छा गईं या जैसे कल इनसे कहा था अपनी भी कुछ बात करोगे। ये कमज़ोरी वाला कार्ड मत खेला करो जल्दी से। मैं क्या करूँ? इतनी सारी चीज़ें थीं, मैं बह गया, मैं बहक गया। मैं क्या करूँ? दुनिया बड़ी ताकतवर है, मैं उसके दबाव में आ गया। या दुनिया बड़ी शातिर है, मैं उसके झांसे में आ गया। ये विक्टिम कार्ड है, ये शोभा नहीं देता।
प्र: तो फिर कैसे माइन्ड सेट चेंज भी कैसे होता है?
आचार्य: या तो इच्छा सही हो जाए या फिर जब बार-बार, बार-बार पड़ती है समय की, दुनिया की, जीवन की, ठोकर तो? और आवश्यक नहीं है कि तुम्हारे जीते जी माइन्डसेट तुम्हारा बदल ही जायेगा, सही ही हो जायेगा। ज़्यादातर लोग तो विकृत माइन्डसेट के साथ ही जीते हैं और वैसे ही मर भी जाते हैं। किसी ने कोई नियम थोड़ी बना रखा है कि मरने से पहले तुमको ठीक-ठाक होकर के और स्वस्थ होकर के ही मरना है। आप बीमार जी सकते हो और बीमारी में मर भी सकते हो। अस्सी साल जिए मानसिक विक्षिप्तता में, फिर मर गये।
प्र: बट एकदम हीट ऑफ द मोमेंट में पता भी तो नहीं लगता। तो उस वक्त क्या करें?
आचार्य: गर्मी बाहर ही है, तुम क्यों गर्म हो जाते हो? जो बोल रहे हो, मैं उससे इत्तेफ़ाक रख रहा हूँ, है वैसा लेकिन दिक्कत ये है कि तुम आधी बात ही बोल रहे हो। बाहर गर्मी है ये तो बता रहे हो, अपना हाल नहीं बता रहे, अपनी मर्ज़ी नहीं बता रहे। बाहर से कोई तुमको आकर्षित कर रहा है, प्रलोभन दे रहा है, ये तो बता रहे हो, तुम्हारी नीयत बहकी जा रही है इसकी चर्चा नहीं कर रहे। मैं तो नन्हा सा, मुन्ना सा नन्दू हूँ। मैं क्या करूँ? लहर आयी मुझे बहा ले गयी।
प्र: अंडरस्टैंडिंग भी फिर कैसे थोड़ा?
आचार्य: देखो! समझ तुम भी रहे हो, समझ हम भी रहे हैं। अब ये बात विधि की नहीं है, ये बात नीयत की है। शरारत ये है। चाहोगे तो हो जायेगा, नहीं चाहोगे तो नहीं होगा। जब बहने, बहकने में ही मज़ा आ रहा हो तो कौन तुम्हारा नशा रोक सकता है। मज़े के खिलाफ़ नहीं हूँ मैं। मैं छोटे मज़े के खिलाफ़ हूँ।
प्र: नहीं तो मज़ा भी तो नहीं आ रहा होता न।
आचार्य: अरे छोडो! मज़ा नहीं आ रहा? और मज़ा नहीं आ रहा तो ये कोई बहुत गर्व की बात नहीं है। जीवन मज़े के लिए ही है। किसने कह दिया कि मज़ा नहीं आ रहा तो ये तुमने बड़ी उपलब्धि कर ली। जीवन तो है ही मज़े के लिए। दिक्कत तब होती है जब हम छोटा, गन्दा, मैला मज़ा करते हैं। ऊँचा मज़ा करो न। हाइयर प्लेज़र, सब्लाइम हैप्पीनेस, उद्दाम आनन्द। टुच्ची खुशी नहीं कि हि! हि! हि! हि! हि!
ये ऋषि वगैरह क्या लगते हैं ये, इनसे ज़्यादा आनन्द का कोई कभी प्रार्थी हुआ नहीं। वो कहते हैं न, “दिन में होली रात दिवाली” इनका ये हाल रहता है। वो तो हम इन्हें समझते नहीं तो हमें लगता है कि हम भोग रहे हैं और वो त्यागी हैं, हम मज़े कर रहे हैं दुनिया में और गृहस्थी में, वो बेचारा ऋषि अपनी कुटिया में मायूस बैठा है। अरे! वो मायूस नहीं बैठा, प्रतिपल वो दावत में है। तुम्हारी तो पार्टी फिर भी चार बजे रुक जाती है सुबह। उनकी तो अहरनिश है चौबीस घंटे, उनकी कभी नहीं रुकती। पर वो भी वही तस्वीरों का और धार्मिक पोस्टरों का काम है कि तुम ऋषि को कैसा दिखा देते हो? लग रहा है अभी रो ही पड़ेगा, लूज़र। वो लूज़र नहीं है। कभी किसी असली वाले के साथ समय बिताना तो पता चलेगा। वो जान दे रखी है उसने अपनी आनन्द पर। आनन्द के लिए वो ज़िन्दगी कुर्बान कर रखी है। वो सबकुछ छोड़ सकता है आनन्द नहीं छोड़ सकता। उसी को कभी मौज-मस्ती, रामखुमारी सब नामों से सम्बोधित किया गया है। और तुम छोटी-छोटी मौज के पीछे ही पड़े रहते हो कि अरे! वो छोटी सी खुशी आयी, वो फ़लाना आया ललचा गया, फ़लानी आयी रिझा गयी। वो इतने में ही तुम। हाय! मैं बर्दाश्त नहीं कर पाया। गुरूजी मैं बहक गया था।
ऊँची खुशी माँगो। अध्यात्म में दुख नहीं है, अध्यात्म में बस टुच्ची खुशी का नकार है क्योंकि टुच्ची खुशी ही तो दुख है। आप जिसको खुशी बोलते हो, उसमें क्या रखा है। शनिवार की शाम को सस्ती बीयर, बीयर भी मँगाने से पहले पूछ रहे हैं कि कौनसा ब्रांड कितने का है। ससुरी चढ़ी भी नहीं, तो पहले तो पियो उसके बाद झंझट ये कि नाटक करना है जैसे कुछ सुरूर आया हो। ज़बरदस्ती झूमने का नाटक कर रहे थे। मेज़ से जाने खम्भे से टकरा गये। अब हाय! हाय! करके घूम रहे हैं। नशा भी नहीं चढ़ा, गूमड़ भी निकल आया।
अभिनय यूँ था जैसे चढ़ गयी है, जब बिल आया तो पूरी उतर गयी। अब देख रहे हैं कि चार यार बैठे थे कौन जल्दी से अपनी पॉकेट में हाथ डाल रहा है, पे करने के लिए। बिलकुल उतरी हुई है लेकिन ऐसे झूम रहे हैं (इशारे से समझाते हुए। ये खुशी है तुम्हारी? इसमें खुशी कहाँ है? और जब एक ने थोड़ी शर्म खाकर के जेब में हाथ डाल ही दिया, कि अच्छा आज मैं दिये देता हूँ। तो बाकी तीन, नहीं, नहीं हम दे रहे हैं। बोला उफ़! मुझे पेटीएम करना था। लेकिन फोन डिस्चार्ज है। दूसरा बोला उफ़! मेरे वॉलेट में आज कार्ड नहीं है। तीसरा बोल रहा है अरे! वो लाइट नहीं है तो सारे एटीएम बन्द हैं, कैश नहीं है आज मेरे पास। ये खुशी है? और किन चीज़ों में मिलती है खुशी?
प्र: अभी तो पता नहीं लग रहा।
आचार्य: अजी! छोडो। योजना खुशी की ही बनाते रहते हो और पता नहीं लग रहा किन चीज़ों में खुशी मिलती है। जिन चीज़ों को अपनी खुशी बोलते हो, उन्हीं में अगर थोड़े से सतर्क होकर देख लो, पूछ लो वाकई खुश हूँ मैं इस पल में। तो सिर पर घड़ों पानी पड़ जायेगा, पता चलेगा कोई खुशी है नहीं, नाटक कर रहे हो।
आम आदमी को अपने खुशी के क्षणों में उतनी ही खुशी रहती है जितनी कि आम दिवाली पर उसे राम के घर वापस आने की खुशी रहती है। पर स्वांग पूरा रहता है न। दिये जलाए जा रहे हैं, नए कपड़े पहने जा रहे हैं, मिठाईयाँ बाँटी जा रही हैं। राम के वापस आने की खुशी है वाकई? पर हम अभिनय करने में माहिर होते हैं, खुद को ही धोखा देने में माहिर होते हैं। हम तो खुश हैं जी, आज बहुत खुश हैं। और तय कर रखा होता है फ़लानी चीज़ हो तो ऐसा बोलना होता है कि ये खुशी का काम है। रिवाज़ है रिवाज़।
दो-चार ने धृष्टता कर दी है, मुझे भी भेज दिया सुबह से हैप्पी दीपावली। मैं किताब लिख सकता हूँ तुम्हारी हैप्पीनेस पर, हैप्पी दीपावली और भी चीज़ हैं, हैप्पी एनिवर्सरी। उसकी शक्ल देखो वो हैप्पी लग रहा है तुम्हें। काहे की हैप्पी एनिवर्सरी? लेकिन नहीं बस पता भर चल जाए, वो भी पता कैसे लगता है? वो आटोमेटेड कैलेंडर वगैरह सेट कर देते हैं तो सुबह ही नोटिफिकेशन आ गयी आज इसकी है। उसको हैप्पी एनिवर्सरी, वो बोल रहा है दो हफ़्ते पहले तो हो गया तलाक, तू क्या पगला गया है। ये भी फीड कर दे अपने कैलेंडर में।
किसी को बच्चा हो गया उसने फोटो डाल दी, ओ! सच अ क्यूट बेबी। उसने अभी-अभी डायपर गन्दा करा है, वो गन्धा रहा है, वो रो रहा है, बदबू उठ रही है, वो कह रहा है आकर कोई पोंछ दो। लेकिन तुमने तो रिवाज़ बना रखा है न वो हैप्पी बेबी। हैप्पीनेस है कहाँ! और है हैप्पीनेस तो यहाँ क्या कर रहे हो? जाओ हैप्पी हो जाओ। फिर तुम्हें उपनिषद क्यों चाहिए अगर हैप्पी हो ही तो।
प्र: आप जैसे अब उपनिषद पढते हो तो जैसे उसकी इंटरप्रेटेशन वो नॉर्मल बन्दे को पता भी तो नहीं लगती न?
आचार्य: माने मैं अबनॉर्मल हूँ?
प्र: नहीं, अब जैसे अब यही बता रहे थे की वो झूठ काट रहे हैं, जो भी है इतना तो, इतना डीपली तो ऐसे, मेरे को तो शायद पता भी न लगता ऐसा कुछ।
आचार्य: उसको नहीं डीपली पढ़ा जाता। पहले अपनी ज़िन्दगी सही जी जाती है। और तुम उसको डीप भी इसलिए बोल रहे हो क्योंकि तुम शैलो जीते हो वरना उसमे कोई डेप्थ नहीं है। मैं उसे सहज बोलता हूँ, मैं उसे सहज बोल रहा हूँ। सहज बात है तो दिख रहा है। तुम पूछोगे इतनी गहरी बात आपको पता कैसे चली? दिख रही है, सामने है, स्पष्ट है, जैसे जीवन में सबकुछ स्पष्ट होता है। जीवन में सब स्पष्ट रहेगा ही अगर तुम तुले न हो खुद को धोखा देने पर। आप तय करके बैठे हो कि मुझे खुद को ही भ्रम में रखना है। तो फिर वो भ्रम आदत बन जाती है, वो भ्रम तुम्हारी रगों में बहने लग जाता है।
देखो, ये फ़ैसला तुम ही करते हो न कि आज पीनी है। जब ये फ़ैसला कर रहे हो पीनी है तब कुछ तो होश होगा, कुछ तो होश होता है न? उसी होश में तुम बेहोशी को चुन लेते हो न। लेकिन एक बार बेहोश हो गये। अब क्या होश में वापस आना आसान है? होश में तुमने बेहोशी को चुन लिया, वो होश पक्का नहीं था, पूरा नहीं था पर जैसा भी था आधा-अधूरा उसमें तुमने बेहोशी को चुन लिया। होश से बेहोशी की ओर जाने में कितना समय लगा? पन्द्रह मिनट, बीस मिनट। और पी लो तुम खूब बिलकुल, अब बेहोशी से होश की ओर आने में कितना समय लगेगा?
प्र: काफ़ी।
आचार्य: ये हमारा हाल है सबका। हम सबने अपने जीवन में समय-समय पर, जगह-जगह पर बेहोशी को चुना। और अब वही बेहोशी क्या बन गयी है हमारी? ज़िन्दगी बन गयी है, आदत बन गयी है, खून बन गयी है। अब हम कहते हैं, नॉर्मल आदमी कैसे होश में आयेगा? विडियो है एक, उसका शीर्ष है, ‘नीम्बू चाटो’। वो सारे काम करो जो तुम्हारी बेहोशी को काटते हों। प्र: हम जैसे खुद ही को, मतलब धोखा देते रहते हैं या कह लो खुद ही को गलत रास्ते पर जैसे जाते हैं। तो हम खुद ही को कैसे चेक करें उस चीज़ में। कोई ऐसे अगर होता है, जैसे बताया था
आचार्य: अभी तुम्हें कैसे पता, यहाँ आना है?
प्र: क्योंकि नहीं सही लग रहा था।
आचार्य: वैसे ही। नकार से शुरू करा न कि जो चल रहा था वो नहीं सही लग रहा था। पहला शब्द क्या है? नहीं। तो ‘न’ बोलना पड़ता है न। जो चल रहा है वो सही नहीं है। अहम् को इसमें चोट लगती है क्योंकि जो चल रहा है, वो चुना किसने है? अहम् ने ही। तो अब कैसे बोल दूँ कि मैंने ही जो चुना, वो सब गलत हो गया कि मैं ही मूर्ख था, एक-एक करके सब गलत चुनाव करता गया है और आज भी कर रहा हूँ। तो अहम् ये मानने को आसानी से राज़ी होता नहीं कि जो चल रहा है वो सही नहीं है।
विनम्रता के साथ ये मानना पड़ता है कि मैं भोन्दू हूँ। और एक के बाद एक गलतियाँ करता ही चला गया हूँ। लेकिन श्रद्धा है और साहस है, सुधर सकता हूँ।
प्र: और इस पर टेंडेंसी दोबारा अगर आदमी की हो जाती है।
आचार्य: सौ बार आएगी, अभी बोला तो प्रतिपल सफ़ाई करनी पड़ती है, रोज़ नहाना पड़ता है टेंडेंसी तो मेज़ की यही रहेगी कि उस पर मैल पुनः-पुनः बैठ जाए।
प्र: प्रणाम आचार्य जी! आचार्य जी आपने कहा था कि हर इंसान दो प्रकार की क्षमताओं के साथ जन्म लेता है। एक तो जो उसकी निजी व्यक्तिगत क्षमता होती है। दूसरा, अगर वो अपनी निजी व्यक्तिगत क्षमता को साइड में रख देता है और जो दूसरी सत्ता है उसके सुपुर्द कर देता है अपनी क्षमता को। तो इस साइड में रखना या फिर मतलब अपनी बुद्धि को लगाना, ताकत को पाना ये साइड में रखने के ईक्वल ही कैसे जाने कि?
आचार्य: देखो, ऐसा नहीं है कि कुछ है जो तुम्हारा व्यक्तिगत है और जो दूसरी चीज़ है वो परायी है। वो परायी चीज़ नहीं है। जब तुम उसको देखते हो, सुनते हो, तुम्हें उसकी बात सुनायी पड़ती है, उसके बारे में बात सुनायी पड़ती है तो वो चीज़ आकर्षक लगती है। वो आकर्षक कैसे लगती अगर वो परायी होती? तो इसको इस तरीके से मत देखो जैसे कि कुछ तो तुम्हारे व्यक्तिगत सरोकार हैं या व्यक्तिगत सुख हैं। और उनको छोड़कर किसी परावैयक्तिक या निर्वैयक्तिक, इम्पर्सनल काम को करना है, ऐसा नहीं है।
अगर वो काम इतना ज़्यादा इम्पर्सनल होता तो इस पर्सन को फिर प्यारा हो ही नहीं सकता था न? पर जब तुम उस काम को जानते हो, उसके निकट आने लगते हो तो उससे प्रेम हो जाता है। वो पराया होता तो उससे प्रेम कैसे हो जाता? माने वो तुम्हारा ही था बस तुम्हें पता नहीं था। तुम्हारा ही था लेकिन तुम छोटी चीज़ों में उलझे हुए थे। ठीक है? फिर जब उसकी खबर लगी, आहट आयी तो मन उससे जुड़ा। जैसे तुम्हारे ही घर की कोई चीज़ हो जिसको तुम कहीं रखकर भूल गये हो और तुम किसी बहुत छोटी चीज़ से अपना काम चला रहे हो, वो भी तुम्हारे घर की ही है। और तुम उस छोटी चीज़ से अपना काम चलाने के अभ्यस्त हो गये और फिर एक दिन किसी संयोग से या किसी अन्य तरीके से तुम्हें उस बड़ी चीज़ के बारे में पता चला।
जब बड़ी चीज़ के बारे में पता चला तो फिर एक पुलक आती है, प्रेम आता है। वो बड़ी चीज़ तुम भूल बैठे थे पर वो परायी नहीं थी। किसी चीज़ को भूल जाना और किसी चीज़ का बेगाना हो जाना, इन दोनों में अन्तर होता है कि नहीं होता है? तुम जिस तरीके से बात को रख रहे हो, उससे ऐसा लग रहा है कि जैसे तुमसे किसी अपनी चीज़ को पीछे रखकर के, किसी परायी चीज़ की सेवा में लगने को कहा जा रहा है। जिस चीज़ की बात उपनिषद करते हैं, जो चीज़ वास्तव में जीवन का लक्ष्य है, वो परायी वगैरह कहाँ से हो गयी, वो अपनी से अपनी है।
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