प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। धृतराष्ट्र जब युद्ध में अपने पुत्रों की दुर्गति देखते हैं तो कहते हैं कि "काश! पांडवों को पाँच गाँव दे ही दिए जाते, पितामह और कृष्ण की बात मान ही ली जाती।" ऐसी ही स्थिति हमारी ही होती है जब हम अपने कर्मों का कुफल भुगतते हैं। तब मन पछतावे में होता है और उदासी होती है। कृपया मन की इस स्थिति के बारे में समझाएँ।
आचार्य प्रशांत: जब हमें यह भी लगता है कि हमने कुछ ग़लत कर दिया, तो भी ऐसा मत समझना कि हमें हक़ीक़त दिख ही जाती है। हम बड़े पहुँचे हुए लोग हैं। हमें लगता है कि बस भूल हो गई, ग़लत फैसला कर दिया धोखे से, और फिर हम पछताते हैं। हमारे पछतावे में कभी यह बात नहीं होती कि हम ग़लत हैं; हमारा पछतावा हमेशा कहता है कि हमारा निर्णय ग़लत हो गया। और इन दोनों बातों में बहुत अंतर है, समझना।
धृतराष्ट्र अगर पछताएँ तो यह बात बड़ी व्यर्थ है क्योंकि जैसा जीवन धृतराष्ट्र ने जिया है, उस जीवन के चलते उन्हें वही सब निर्णय करने थे जो उन्होंने किए। तुम दिन भर शराब पी रहे हो, फिर सूरज ढलता है, तुम कहीं को चलते हो और ठोकर खा करके गिर जाते हो, और फिर तुम पछताते हो कि "अरे नहीं, ग़लती यह हो गई कि ठीक से देखा नहीं और गिर पड़े।" ग़लती यह है कि ठीक से देखा नहीं और गिर पड़े?
जैसा तुमने पूरा दिन बिताया, उस दिन के बाद वह होना ही था जो हुआ। क्या हुआ? नशा इतना था कि कुछ दिखा नहीं, गिर पड़े।
पर तुम यह नहीं मानोगे कि, "मैंने पूरी ज़िंदगी ही ग़लत बिताई है।" तुम कहोगे, “अरे, वो तो बस एक ग़लती हो गई, एक मौक़े पर चूक गए वरना तो सब ठीक था।” पछतावे में सदा यही भावना निहित होती है, “वैसे तो हम बढ़िया आदमी हैं, बस एक ग़लती हो गई।”
और मैं इतनी बार कह चुका हूँ कि ग़लती नहीं हुई है तुमसे, तुम जैसे हो, तुमसे ये होना ही था। तुमने अगर कोई ग़लती करी है तो वो ग़लती बहुत व्यापक है। तुम्हारा पूरा जीवन ही तुम्हारी ग़लती है, तुम्हारे पूरे मन की संरचना ही तुम्हारी ग़लती है, तुम्हारी अहंता का संपूर्ण विस्तार ही तुम्हारी ग़लती है। किसी क्षण-विशेष में जो घटना घट गई, वही मात्र ग़लती नहीं है।
पर तुम ग़लती को बहुत संकुचित करके देखना चाहते हो, तुम ग़लती को बड़े छोटे दायरे में देखना चाहते हो। बताओ क्यों? ताकि तुम्हें बाकी सब कुछ बदलना ना पड़े। अगर तुमने मान लिया कि तुम्हारा पूरा जीवन ही एक बड़ी भूल है, तो अब अगर तुम्हें सुधार करना है तो तुम्हें क्या करना पड़ेगा? तुम्हें पूरे जीवन को ही बदलना पड़ेगा। तो इसीलिए तुम कभी नहीं मानोगे कि, "मेरा पूरा जीवन ही भूल है", क्योंकि अगर मान लिया तो बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी आ जाएगी; फिर ज़िम्मेदारी ये होगी कि पूरी ज़िंदगी ही बदलो।
तो तुम कहते हो, "नहीं, हमारी ज़िंदगी अन्यथा तो ठीक-ठाक ही है, हम बढ़िया आदमी हैं, बस इस मौक़े पर चूक गए।” बस इस मौक़े पर चूक गए?
मैं तथ्य बताए देता हूँ। अगर किसी तरह घड़ी के काँटे वापस लौटाए जा सके, तुम्हें पुनः वही स्थिति दी जा सके जिस स्थिति में तुमने एक बार भूल करी है, तो अच्छे से जान लो कि वही भूल तुम दोबारा करोगे; दोबारा ही नहींं करोगे, दस बार मौक़ा दिया गया, तुम दस बार वही भूल करोगे। हाँ, यह हो सकता है कि अलग-अलग तरीकों से करो, पर करोगे वही भूल क्योंकि तुम वही हो जो तुम हो। तुम थोड़े ही बदल गए। जब तुम नहीं बदले तो तुम्हारी भूलें कैसे बदल जाएँगी, तुम्हारी ग़लतियाँ कैसे बदल जाएँगी?
वास्तव में तुम्हारी ग़लतियाँ, ग़लतियाँ नहींं है, वो तुम्हारी हस्ती की छाया हैं, वो तुम्हारे अस्तित्व का प्रतिबिंब हैं। जो तुम हो, वही तुम्हारे कर्मों में परिलक्षित होता है। चूँकि तुम ग़लत हो, इसीलिए तुम्हारे कर्म भी ग़लत हैं। जिस केंद्र से तुम संचालित होते हो, उस केंद्र से तुम जो कुछ करो, वो ग़लत ही होगा।
धृतराष्ट्र हमेशा कष्ट भुगतेंगे, इस तरीके से नहीं तो उस तरीके से। पांडवों के हाथ ना मारा जाता दुर्योधन, तो किसी और के हाथ मारा जाता, पर मारा ज़रूर जाता। हो सकता है कि ना मारा जाता; अगर दुर्योधन ना मारा जाता तो दुर्योधन की ज़िंदगी बहुत बड़ा कष्ट बन जानी थी धृतराष्ट्र के लिए।
तुम अभी तो बस यह देख रही हो कि धृतराष्ट्र को कष्ट है दुर्योधन की मौत का। तुम्हें एक बात नहीं पता कि अगर नहीं मरा होता दुर्योधन महाभारत में, तो धृतराष्ट्र को कष्ट होता दुर्योधन की ज़िंदगी का। एक बात सोचो तो कि दुर्योधन अगर राजा बन जाता तो कैसा कहर ढाता। फिर यही धृतराष्ट्र कहते कि “मौत मिल जा, काश!” धृतराष्ट्रों से ग़लतियाँ होंगी ही, ये ग़लती नहीं तो वो ग़लती।
इसीलिए पछताओ मत, पछताने में बड़ी भूल है। भूल तो भूल है ही, भूल पर पछताना और बड़ी भूल है। पछतावे से कहीं ज़्यादा सुंदर एक शब्द होता है – प्रायश्चित। प्रायश्चित का अर्थ होता है भूल को समग्र रूप से देख लेना। पछतावे में दुःख निहित है, प्रायश्चित में बोध। पछतावा हुआ, आदमी दुखी होता है, उदास होता है और जो आदमी प्रायश्चित कर रहा होता है, वह दुखी या उदास नहीं होता, वह जागृत होता है, वह कहता है, “जैसे हम थे, वैसे हमें रहना ही नहीं है। हम आमूलचूल बदल जाएँगे। हम अपने सारे आवरण उतार देंगे।”
प्रायश्चित में शांति होती है, प्रायश्चित में तुम कुछ छोड़ रहे होते हो। पछतावे में तुम बस रो रहे होते हो और रो-रोकर अपने-आपको अभागा सिद्ध कर रहे होते हो या शोषित।