प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। मैं तो पहले से ही ऐसे एथीस्ट (नास्तिक) हूँ। कभी किसी ये प्रणाम नहीं किया, मैने; न पैर पड़े। लेकिन आपको सुनता हूँ, आपको देखता हूँ, तो तुरन्त एकदम से मेरे मन में भावना जागृत हो जाती है कि मैं आपके पैर पड़ूँ, यह करूँ। जैसे ही मैंने पहले दिन ही आपको देखा तो आपके पैर में उमड़ पड़ा था। तो बहुत ही यह कैसे, क्या हो सकता है मेरे साथ ऐसा कभी हुआ नहीं सर।
आचार्य प्रशांत: पैरों में पड़ने के लिए भी पात्रता चाहिए। आसान थोड़ी ही है जो व्यक्ति बन्धनों का अभ्यस्त रहा हो, भ्राँतियों का, वृतियों का अभ्यस्त रहा हो, उसके लिए बड़ा मुश्किल है कि मुक्ति के पास आये और फिर उसे स्पर्श कर ले। अपनी क़ाबिलियत बढ़ाते रहो ताकि ये योग्यता बनी रहे कि पाँव भी छू पाओ।
जब तुम पाँव छूते हो तो ये तुमने समर्पण मात्रा ही नहीं किया है, ये तुमको पारितोष मिला है, पुरस्कार मिला है। झूठ-मूठ का पाँव छूना किसी काम का नहीं।
पाँव छूने का अर्थ जानते हो क्या होता है? पाँव छूने का अर्थ होता है कि तुम अपनेआप को एक ओहदा दे रहे हो, एक रुतबा दे रहे हो। जिसके पाँव छू रहे हो उसको नहीं;अपनेआप को। तुम अपनेआप को ये बता रहे हो, ये जता रहे हो कि तुम इस क़ाबिल हो गये हो कि सच्चाई को स्पर्श कर सको। तभी स्पर्श करना जब उस क़ाबिल हो गये हो, झूठ-मूठ का पाँव छूना किसी काम का नहीं। वो पाखण्ड हो जाता है, न। झुके तुम हो नहीं और शारीरिक रूप से झुक रहे हो। अहम् अभी झुका नहीं है, अकड़ अभी गयी नहीं है, झूठ अभी मिटा नहीं है, लेकिन सबसे पहले आकर के चरण स्पर्श कर रहे हो, किसको यह झूठ दिखा रहे हो। क्या पाखण्ड है ये।
जब चरण स्पर्श करना तो वाक़ई करना है और अगर कर लिया है तो अब उसको एक बड़ी-से-बड़ी ज़िम्मेदारी मानो कि छू आएँ है। नाता बना लिया। जुड़ गये। अब दुबारा वैसे मत हो जाना, जैसे पहले थे।
गुरु के पाँव छूते हो इसमें गुरु का सम्मान नहीं बढ़ गया, अगर वाक़ई वो गुरु है। कोई फ़र्जी आदमी है जो इसी बात के मज़े ले रहा है कि देखो, देखो, चार लोगों ने मेरे पाँव छू दिये तो वो अलग बात। गुरु के पाँव छूकर के तुमने अपनी जिम्मेदारी, अपनी मुश्किल बढ़ा ली है। क्योंकि मैंने कहा, पाँव छूना पात्रता की बात है जिसने पाँव छू लिया या पाँव छूने का इरादा कर लिया उसे पात्रता दिखानी पड़ेगी।
गुरु के पाँव छूना, ऐसा ही है जैसे किसी मंच पर चढ़ जाना, मंच पर चढ़ना आसान तो नहीं, मंच पर चढ़ने की सबको तो अनुमति तो नहीं होती न। होती है क्या? मंच पर चढ़ने की अनुमति उसे ही होती है, जो मंच पर चढ़ने के लायक होता है। तो अपनी क़ाबिलियत बनाकर के रखना, बरक़रार रखना।
बिना क़ाबिलियत के अगर जाओगे और शारीरिक रूप से स्पर्श करोगे, तो वो बात सिर्फ़ शरीर की रह जाएगी कि किसी के हाथ ने किसी के पाँव को छू दिया, उसमें क्या रखा है। फिर तो बात बस इतनी सी है कि खाल ने खाल को छू दिया तो फिर तुम गुरु की खाल को भी क्यों छू रहे हैं; अपनी ही खाल को छूलो। जब खाल का मिलन ही खाल से होना है सिर्फ़ तो गुरु की खाल क्या किसी की भी खाल छू लो। जाकर के गधे की खाल छू लो, खाल तो खाल है।
जब झुको तो वाक़ई झुको। झुकने का मतलब होता है पूरा जीवन अब सच्चाई को दे दिया। झूठ के पीछे नहीं चलेंगे— ये है चरण स्पर्श का मतलब।
वही करें चरण स्पर्श जिन्होंने वाक़ई अब गाँठ बाँध ली हो, मद, मोह, लोभ इनके पीछे नहीं चलना है। जीवन का एक ही लक्ष्य है सच्चाई और मुक्ति।
आग होता है गुरु क़रीब आओगे, जलोगे। जिन्होंने जलने की ठान ली हो, वही इतने क़रीब आयें कि छूएँ। दूसरे पाएँगे कि बेकार ही फफोले पड़ गये, गए थे मज़े लेने, औपचारिकता पूरी करने और फफोलें को लेकर आ गये। आग पर होलिका बैठे तो एक अन्जाम होता है, प्रहलाद बैठे दूसरा अन्जाम होता है; गुरु आग हैं। प्रहलाद जैसे हो तो आग के पास आना। अभी होलिका ही जैसे हो;तो मत आ जाना, जल जाओगे।
प्र१: गुरुवर प्रणाम। साधक के जीवन में गुरु की बहुत अनिवार्यता है। जब वह साधना करता है और जब उसको मुक्ति प्राप्त होने का समय आता है, सम्बोधि का समय तब गुरु की अनिवार्यता बहुत बतायी है। नहीं तो बोले, ऐसा कहा है कि बहुत ख़तरे का सामना करना पड़ता है, तो यह बात बताने की अनुकम्पा करें।
आचार्य: नहीं, सम्बोधि का कोई विशेष समय इत्यादि नहीं होता। यह कोई ट्रेन यात्रा नहीं है कि चढ़े हो गुरु नामक गाड़ी में और सम्बोधि नामक स्टेशन पर उतर जाओगे—ये सब ऐसा नहीं है। ख़तरा निरन्तर है, पैदा होना ही ख़तरा है, उसके बाद हर साँस ख़तरा है, कभी भी फ़िसल सकते हो न।
तो ख़तरा यही नहीं है कि सम्बोधि निकट आ गयी, अरे! ख़तरा है, अरे! ख़तरा। जब ख़तरा निरन्तर है, तो सच्चाई से फिर निकटता भी निरन्तर ही होनी चाहिए। ये सब क़िस्से कहानियाँ हैं कि एक क्षण आता है, जब सम्बोधि बहुत निकट होती है। नाटकीय, फ़िल्मी बातें हैं। कोई ऐसा छण विशेष नहीं आने वाला जब सम्बोधि बहुत निकट होगी।
मुक्ति भी सदा निकट है और माया भी सदा निकट है — ये दोनों ही सदा निकट हैं, किसी विशेष छण में न मुक्ति निकट आ जानी है, न माया निकट आ जानी है, दोनों ही लगातार पास ही पास है आपके। जिसको चुनना हो चुन लीजिए। ये हाथ बढ़ाएँ तो मुक्ति (बाँया हाथ बढ़ाते हुए), ये हाथ बढ़ाएँ तो माया (दायाँ हाथ बढ़ते हुए)।
गुरु का साहचर्य सम्बोधि के किसी विशेष पल के लिए नहीं किया जाता। जिस ट्रेन पर आप चढ़े हो उस पर किसी विशेष मंज़िलभर की बात नहीं की जाती। जीवन तो आपका ट्रेन में बीतना है न। तो जीवन के प्रत्येक पल की बात की जाती है।
अध्यात्म का लक्ष्य ये नहीं है कि आपको अंततः मुक्ति मिल जाए। अध्यात्म का लक्ष्य कोई पल विशेष, कोई स्थिति विशेष नहीं है। अध्यात्म का लक्ष्य है कि आप जो दिन-प्रतिदिन जी रहे हो, सुबह-शाम लगातार, हर घंटा, हर पल, वो मुक्त और आनंदित होना चाहिए। आज से बीस साल, चालीस साल, चार सों साल बाद घटने वाली किसी समाधि के लिए अध्यात्म नहीं है। अरे! कल किसने देखा है, कल तो मर ही गये तो। तुम तो पंचवर्षीय योजना बनाकर के चल रहे हो कि पाँच साल बाद में समाधि की पहली सीढ़ी पर चढ़ूँगा। तुम समय के स्वामी हो, तुमने कल देखा है। तुम तो लम्बी-चौड़ी योजना पर काम कर रहे हो कि पहले ये करिए, फिर ये करिए, फिर ये करिए, फिर ये करिए, फिर ये करिए और उतना करने के लिए तुम जिये ही नहीं, तो।
तो आध्यात्म का मतलब यह नहीं है ये कि अब ये करिए, अब ये करिए, अब ये करिए, अब ये करिए। अध्यात्म पूछ रहा है, ठीक इस पल बैठे हो, चैतन्य हो और चेतना का अर्थ होता है चुनाव। बताओं, क्या चुन रहे हो? कल की बात नहीं कर रहा अध्यात्म अभी की बात कर रहा है, बताओ, अभी क्या कर रहे हो?
कल की बात करोगे तो अभी का कचरा बरकरार रख लोगे। तुम कहोगे सफ़ाई कब होनी है—कल। तो अभी जो कचरा है, चलने दो। अध्यात्म तुम्हें इतनी मोहलत, इतनी छूट, इतनी सहूलियत नहीं देता।
अध्यात्म कहता है, 'अभी बताओ, अभी क्या करने जा रहे हो, क्या क्या खाने जा रहे हो, किससे बात कर रहे हो, क्या सोच रहे हो, चल क्या रहा है, भाई! अभी क्या चल रहा है? क्या वही चलना चाहिए?'
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