प्रश्नकर्ता: सर, आप जब पिछली बार आए थे तो आपने बताया था कि प्यार ये नहीं, ये नहीं और ये नहीं है। पर आपने ये नहीं बताया कि प्यार क्या है और अगर हम किसी से प्यार करते हैं तो हमें उसे साबित करने की ज़रूरत क्यों पड़ती है?
आचार्य प्रशांत: हम इतनी अजीब हालत में पहुँच चुके हैं कि जो सबसे करीबी है, हम उसी को नहीं जानते। हमें दूर का बहुत कुछ पता है। तुमको बहुत अच्छे से पता है कि चाँद-सितारे क्या हैं और कैसे हैं। हम कभी मंगल ग्रह पर यान भेज रहे हैं, तो कभी चाँद पर। तुम पूरा जो ब्रह्मांड है, उसके आख़िरी छोर तक का पता लगा लेना चाहते हो, बस अपना ही पता नहीं है।
क्या है प्रेम? छोटे बच्चे को भी पता होता है, और हम उलझ गए हैं। तुम मग्न हो, यही प्रेम है। तुम मस्त हो, यही प्रेम है। जब तुम मस्त होते हो तो दुनिया भली-भली सी लगती है। कोई शिकायतें नहीं रहती न? कोई खास चाह भी नहीं बचती, जब मौज में होते हो। या तब ये कह रहे होते हो कि, "आज से पाँच साल बाद ये पाना है"? मस्ती में हो, चहक रहे हो, तो क्या आकाक्षाएँ तब भी सिर उठा रही होती हैं कि अब ये पा लूँ या वो पा लूँ? तब तो झूम-झूम कर योजनाएँ बना रहे होते हो। जब तुम मस्त-मगन होते हो तो तुम्हारे आसपास जो भी होता है, वो भी तुम्हारी मस्ती में भागीदार हो जाता है। तुम ऐसे हँस रहे होते हो, मुस्कुरा रहे होते हो, चहक रहे होते हो कि वो भी चहकना शुरू कर देता है। यही प्रेम है। मुझे मौज मिली और मेरे माध्यम से दूसरों तक पहुँची, यही प्रेम है। मुझे मिली, इस कारण वो मेरे हर सम्बन्ध में दिखाई देती है, यही प्रेम है। मैं जिस से भी संबंधित हो रहा हूँ उसमें ना शिकायत है, ना हिंसा है और ना ही अपेक्षा है; यही प्रेम है।
जो प्रेम से खाली आदमी होता है, वो जब कोई किताब भी उठाता है तो गुस्से में उठाता है। देखा है लोगों को कि उठा रहे हैं और फिर पटक रहे हैं। वो जूता भी पहन रहा है तो उस जूते पहनने में भी हिंसा है। शर्ट के बटन भी बंद कर रहा है तो हाथ ऐसे काँप रहे हैं उत्तेजना में और क्रोध में कि बटन ही टूट गया। उसका एक बटन जैसी चीज़ से भी हिंसात्मक संबंध है। एक छोटे से बटन के प्रति भी हिंसा है उसके मन में। ये वो आदमी है जो प्रेम से खाली है। वो किसी जानवर को भी देख रहा है तो उसके मन में बस ये ख्याल आ रहा होगा कि इसका माँस ऐसा होगा, इसको मार कैसे दूँ। वो सड़क पर चल रहा है तो अकारण ही कुत्तों को पत्थर मार रहा है और उसके पास ये करने की कोई वजह नहीं है। उसके पास एक छोटा कुत्ता आ गया है और कुछ नहीं कर रहा है, उसके पाँव के पास आ करके उसको सूँघ रहा है और वो उसको घुमा कर एक लात मारता है और कुत्ता चिचियाता हुआ भाग जाता है। ये वो चित्त है जो प्रेम से बिलकुल खाली है। इसको दुनिया से इतनी शिकायतें हैं, इतना क्षोभ है इसके मन में कि ये सब कुछ काट डालना चाहता है। इसे कुछ पसंद ही नहीं आ रहा है। मैं इस चित्त की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि हमें ये ही ज़्यादा दिखाई देता है अपने चारों ओर।
इससे हटकर जो होगा वो एक प्रेमपूर्ण मन है। कि वो एक पेड़ को भी छू रहा है तो आहिस्ता छू रहा है कि इसे चोट ना लगे। उसने जानवरों को खाने की, उपभोग की वस्तु नहीं समझ रखा है। उसने दुनिया को अपनों और परायों में नहीं बाँट रखा है कि ये तो मेरे अपने हैं तो इनके साथ ज़रा ठीक से व्यवहार करना है और बाकी सब पराये हैं तो भाड़ में जाएँ। उसकी मौज अखंड है, पूरी है और इतनी ज़्यादा है कि उस तक सीमित रह नहीं सकती, इसलिए दूसरों तक भी पहुँचती है। वो कुछ पा नहीं लेना चाहता, वो कुछ बाँट देना चाहता है। वो कह रहा है कि इतना सारा तो मिल रहा है। अब वो स्वार्थी नहीं हो सकता क्योंकि स्वार्थी तो वही होगा जिसे कमी लगेगी, जिसे अधूरापन लगेगा। उसे कमी और अधूरापन लगता ही नहीं। वो यही महसूस करता है कि, "मैं बड़ा अमीर हूँ"। वो कहता है कि, "अपनी क्या उलझन है सुलझाने के लिए, चलो दूसरों की है तो उन्हें सुलझा देते हैं", और बेशर्त सुलझा रहे हैं। ऐसे नहीं सुलझा रहे कि कोई हमारा धन्यवाद करे। वो अपने आप को दिए-दिए फिरता है। वो अपने आप से भाग नहीं रहा है, उसने अपने आप को पूरा पा लिया है। याद रखना कि पहले अपने आप को पाया है, पहले ख़ुद अपनी मौज में मग्न हुआ है, उसके बाद दूसरों में बाँट रहा है क्योंकि दूसरों में बाँटा नहीं जा सकता, जब तक पहले तुम्हें ख़ुद ना उपलब्ध हो जाए, ये है प्रेम।
तो प्रेम की जो पहली ही सीढ़ी है, वो है ख़ुद पाना, ख़ुद मस्त हो जाना। फिर दूसरी जो सीढ़ी है उस तक अपने आप पहुँच जाते हो, छलाँग यूँ ही लग जाती है क्योंकि तुम्हें जब मिलेगा तो दूसरों तक तो पहुँच कर रहेगा। सूरज जब प्रकाशित होगा तो पूरी दुनिया को रौशनी मिलकर रहेगी। अब सूरज को कोई विशेष प्रयोजन नहीं करना है और ना सूरज को दुनिया को अपने और परायों में बाँटना है कि मेरी रौशनी निकलेगी तो सिर्फ इस देश में पड़ेगी या इतने लोग सूर्यवंशी हैं तो इन्हें ही मिलेगी, मैं चंद्रवंशियों को नहीं दूँगा। या कि हिन्दुओं को मिलेगी, मुसलमानों को नहीं मिलेगी, या पुरुषों को मिलेगी, स्त्रियों को नहीं मिलेगी या आदमियों को तो मिलेगी, पर जानवरों को नहीं मिलेगी क्योंकि आदमी सबसे ऊँचा है, सर्वश्रेष्ठ है। ‘अरे! इन मुर्गों और बकरियों को क्यों? इनकी क्या हैसियत है, ये तो आदमियों के खाने के लिए बनाए गए हैं, इनको रौशनी देकर क्या होगा।'
प्रेम कभी किसी को अपने उपभोग की वस्तु नहीं मान सकता। उसके लिए मुर्गी और बकरे उसके खाने की चीज़ नहीं हो सकते। ये प्रेमपूर्ण हृदय बड़ा संवेदनशील हो जाता है। क्योंकि वो चोट अनुभव ही नहीं करता, तो वो किसी को चोट अब दे भी नहीं सकता। जिसको चोट अनुभव होती है, वही दूसरों को चोट देने में लगा रहता है। इस व्यक्ति को चोट लगनी बंद हो गई है, तो इसी कारण इसने चोट देना भी बंद कर दिया है। ये हिंसा कर ही नहीं सकता। ये हुआ एक प्रेमपूर्ण मन।
तो बहुत दूर मत जाओ, बस पहली सीढ़ी को पाओ। ख़ुद मस्त हो जाओ। देखो कि क्या तुम्हें रोक रहा है मौज में आने से। देखो कि क्या है जो तुम्हारे मन को तनाव में रखता है। उससे मुक्त हो जाओ, उसके यथार्थ को जानो और जैसे ही जानोगे, मुक्त हो जाओगे। जिन बातों को तुमने बड़ा महत्वपूर्ण समझ रखा है, जिनके बारे में तुम बड़े गंभीर हो, उनको ज़रा करीब से देखो। जहाँ करीब से देखोगे, वो सब उड़ जाएँगी।
मौज उपलब्ध है ही। तुमने उसे दूर कर रखा है। तुम्हें मिलेगी, दूसरों में बँटेगी, यही प्रेम है।