प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ऐसा क्या है जो हमें सदा उत्कृष्ट होकर जीने के लिए प्रेरित कर सकता है?
आचार्य प्रशांत: मैं पिछले उत्तर पर वापस जाऊँगा। उत्कृष्ट होकर जीने के लिए एक ही प्रेरणा हो सकती है — वर्तमान जीवन की निकृष्टता। उत्कृष्टता स्वभाव है, जिसको शस्त्रों ने आत्मा कहा। वो उत्कृष्टता का, एक्सीलेन्स का दूसरा नाम है। इसीलिए तो आदमी सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता है। इसीलिए तो आदमी को चैन नहीं मिलता जब तक उसके काम में या उसके जीवन में कहीं भी कमियाँ, खोट, छिद्र शेष हैं।
ग्रन्थ हमसे कहते हैं ऐब्सलूट पर्फेक्शन , पूर्णता। ज़रा सी भी कमी रह गयी तो खलती है न? अखरती है न? भले ही तुम उसके साथ समन्वय कर लो, भले ही तुम मन को समझा लो कि कोई बात नहीं, पर ज़रा सी भी कहीं कमी रह जाए तो अपना एहसास तो करा ही देती है। वो इसीलिए क्योंकि आत्मा है हम और आत्मा माने पूर्णता, पूर्णता माने *पर्फेक्शन*।
कुछ भी जो जीवन में मैला है, अपूर्ण है, आधा-अधूरा है, कटा-छटा है, वो तुम्हें भा ही नहीं सकता। वही प्रेरणा बनेगा तुम्हारी उत्कृष्टता की तरफ़। हाँ, तुम अपनेआप को खूब समझा-बुझा लो, अपनेआप को खूब अभ्यस्त कर लो, प्रशिक्षित कर लो अपनेआप को, सौ तरीक़ों से अपनेआप को अनुकूलित कर लो, ट्रेन्ड और कन्डिशन्ड कर लो कि मैं घटिया जीवन जिऊँगा; घटिया जीने में भी कुछ बुरा नहीं है तो बात अलग है।
और ऐसा बहुत लोग कर लेते हैं, उनको देख कर ऐसा लगेगा कि इन्हें किसी भी तरह की अपूर्णता से, मलिनता से, निकृष्टता से कोई अब परेशानी बची नहीं। पर ऐसा सिर्फ़ सतह पर है, भीतर-ही-भीतर वो भी यही चाहते हैं कि जीवन में कुछ ऐसा आये जिसमें कोई कमी, कोई खोट हो ही न। यही तो वजह है आदमी की असन्तुष्टि की, वो छोटे से कभी सहमत हो ही नहीं सकता। जो कुछ भी क्षुद्र है वो आदमी के लिए कभी आनन्द और उल्लास का कारण बनेगा ही नहीं। तुम्हारे भीतर कोई बैठा है जो लगातार विशाल को, विराट को, तलाशता, पुकारता रहेगा।
उपनिषद् कहते हैं, “यो वै भूमा तत् सुखं”, जो बड़ा है सुख तो उसी में पाओगे। सीमाओं में, अस्तित्व की अर्धचेतन अवस्थाओं में सुख नहीं मिलना। तो समझौता करना छोड़ो, उत्कृष्टता की अगर माँग कर रहे हो — यही प्रश्न है तुम्हारा — तो समझौता करना छोड़ो। भीतर-ही-भीतर बन्धन तुम्हें बुरे लगते हैं, क्यों अपनेआप को समझा लिया है कि चलेगा।
यह चलता है का रवैया छोड़ो, ये सत्तर-अस्सी प्रतिशत के धन्धे छोड़ो, सौ से नीचे ठहरो ही मत। सौ क्या अप्राप्य है? हो सकता है, अप्राप्य हो सकता है, लेकिन उसकी तरफ़ बढ़ने से तो तुम्हें किसी ने नहीं रोका न। हो सकता है जीवनभर भी साधना करते रहो तो सौ तुम्हें प्राप्त न हो। लेकिन सत्तर-अस्सी पर रुकने पर किसने विवश कर दिया तुमको?
इतना तो अधिकार है न तुम्हारा कि तुम सौ की तरफ़ बढ़ते रहो। सौ मिलेगा या नहीं वो दूसरी बात है, बढ़ते रहने पर तो तुम्हारा पूरा अधिकार है; बढ़ते रहो। अस्सी अखरना चाहिए, पिच्चयासी अखरना चाहिए, नब्बे ऐसा हो कि तुम्हें रुला दे, पिच्यान्वें पर दिल टूट जाए तुम्हारा — बढ़ते रहो आगे।
सौ स्वयं भले तुम्हें न प्राप्त हो, पर वो तुम्हारी यात्रा को ऊर्जा देता रहेगा। जो सौ की तरफ़ बढ़ते हैं सौ उनके भीतर बैठ जाता है और उनकी यात्रा को, उनकी गति को शक्ति देता रहता है। अब बताओ सौ मिला कि नहीं मिला? बाहर-बाहर देखोगे तो नहीं मिला, क्योंकि इंसान सौ साल भी लगा रहे तो सौ तक नहीं पहुँचने वाला। लेकिन मैं कह रहा हूँ, जो सौ की तरफ़ बढ़ रहे हैं उन्हें सौ की तरफ़ बढ़ने की प्रेरणा ही सौ दे रहा है, उनके भीतर बैठ कर। तो बताओ सौ मिला या नहीं मिला? बाहर-बाहर देखोगे तो नहीं मिला, पर भीतर से देखोगे तो मिल गया।
जिस क्षण तुमने अस्सी से समझौता करना बन्द कर दिया सौ मिल गया तुमको। समझौते करना छोड़ो, उत्कृष्टता तो स्वभाव है, आश्चर्य यह है कि तुमने जीवन के निचले पायदानों पर घर कैसे बना लिये। आकाश तो निवास है तुम्हारा, आश्चर्य तो यह है कि तुमने खेतों में बिल कैसे बना लिये।
उत्कृष्टता की चाह करने वाले को विद्रोही होना होगा, उसे असहमति से भरपूर होना होगा। उसके भीतर एक छटपटाहट होनी चाहिए, उसका जीवन न से भरा हुआ होना चाहिए, बहुत कुछ होना चाहिए जो उसे बुरा लगे। और उसके भीतर ईमानदारी होनी चाहिए, ताकि वो झूठी शान्ति को न पकड़ ले। झूठी शान्ति को ही पकड़ना है तो बहाने बहुत हैं, कितने भी तुम सूत्र और श्लोक गिना सकते हो।
कोई कह सकता है कण-कण में नारायण हैं, तो किसी भी चीज़ के विरोध का क्या अर्थ है? जब वही और वही मात्र हैं सर्वत्र व्याप्त, तो अस्सी में भी वही हैं और सौ में भी वही हैं और दस-बीस में भी वही हैं। हम काम करें ही क्यों? किसी प्रगति की आवश्यकता क्या है? हम जहाँ हैं वहीं वही हैं, तो अगर हम गन्दे कीचड़ में भी पड़े हुए हैं तो वहाँ पर भी परमात्मा ही तो है। आवश्यकता क्या है वहाँ से उठ कर बाहर आने की?
एक से एक बढ़िया बहाने बताये जा सकते हैं। जिनकी अभी बहानों में आस्था है उत्कृष्टता उनके लिए नहीं है। उत्कृष्टता उनके लिए नहीं है जो कहें कि हमें तो सब कुछ स्वीकार है, हमें तो फ़लाने गुरुजी ने सिखाया है कि एक्सेप्ट , सर्वस्वीकार की भावना से जियो। जिन्हें सर्वस्वीकार की भावना से जीना है, आप यही पाएँगे कि वो अधिकांशतः कीचड़ का ही सर्वस्वीकार करते हैं।
आजकल अध्यात्म में अन्कन्डिशनल एक्सेप्टेन्स (बेशर्त स्वीकार) और इस तरह की बातें खूब चलती हैं कि विरोध करना छोड़ो, रेज़िस्टेन्स (प्रतिरोध) छोड़ो, एक्सेप्ट करलो। और जाँच कर देख लीजिएगा कि एक्सेप्टेन्स के नाम पर वही चीज़ें स्वीकार होती हैं जो किसी भी हालत में स्वीकार की नहीं जानी चाहिए।
अभी गर्मी चल रही है, हाल ही के एक शिविर में मैंने कहा कि पक्षियों के लिए कुछ पानी इत्यादि रख देना चाहिए बाहर, सड़क के कुत्ते भी होते हैं उनके लिए भी रख देना चाहिए। नहीं तो जिन जगहों पर हम बसते हैं वहाँ खुला पानी तो उपलब्ध होता नहीं है। तो एक सज्जन बोले, ‘हम कितना बचा लेंगे? इतने पक्षी हैं, इतने कुत्ते हैं। और फिर प्रभु की प्रकृति है, परमात्मा द्वारा संचालित यह पूरा अस्तित्व है। अगर प्रभु की ही यही मर्ज़ी है कि पक्षी और कुत्ते प्यास से मरें तो वो हम अस्वीकार क्यों करें? हमें प्रभु की मर्ज़ी स्वीकार कर लेनी चाहिए।’
मैंने कहा, ‘ठीक है। बढ़िया सिद्धान्त है, अब यही सिद्धान्त आप तब भी लगाइएगा जब आपका बेटा प्यासा होगा कि प्रभु का अस्तित्व है, प्रभु की मर्ज़ी है, प्रभु का ही बेटा भी है वो! तो प्यास से अगर मर रहा है तो प्रभू की मर्ज़ी है स्वीकार करो, *एक्सेप्ट*। जो सिद्धान्त आप पक्षियों और कुत्तों पर लगा रहें हैं न वो अपने बेटे पर भी लगा दीजिएगा।’ महाशह बोले कुछ नहीं, पर भाव-भंगिमा से स्पष्ट था कि चोट लग गयी है।
अस्वीकार होना चाहिए, विरोध होना चाहिए, रेज़िस्टेन्स होना चाहिए। और मैं फिर कह रहा हूँ कि निकृष्टता का विरोध करोगे तो ऐसा नहीं कि उत्कृष्टता हासिल हो जाएगी। जो अनन्त है वो अनन्त दूरी पर भी है; हासिल नहीं हो जाएगा। बाहर-बाहर देखोगे तो अभी भी दूर दिखायी देगा, पर अगर उसकी ओर बढ़ने की भीतर प्रेरणा बैठ गयी है, तो समझ लो कि जिसको पाने की प्रेरणा भीतर है वो स्वयं ही भीतर बैठ गया है।
बाहर-बाहर वो दूर है, भीतर-भीतर उसको पा लिया है। उसको पा लिया है तभी तो उसकी ओर बढ़ रहे हैं। बात विरोधाभासी है पर सच्ची है। उसको पा लिया है भीतर, इसीलिए अब बाहर-बाहर उसकी ओर बढ़ रहे हैं। क्योंकि भीतर उत्कृष्टता अब बैठ ही गयी है, इसीलिए बाहर की सब निकृष्टताओं से असहमति है हमारी, विरोध है हमारा।
भीतर वाले को एक्सेप्ट कर लिया न अब बाहर की गन्दगी कैसे एक्सेप्ट कर लें? भीतर जब पूर्ण प्रकाश के प्रति सहमति और समर्पण है तो बाहर अब अन्धेरे से कैसे सहमत हो जाएँ भाई!