नोबल प्राइज़ लाना है तो बकरा चबाना है || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

19 min
35 reads
नोबल प्राइज़ लाना है तो बकरा चबाना है || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ये जो होते हैं माँस-मच्छी खाने वाले, इनसे मैंने काफ़ी बार बात की है। जैसे ज़िम में मिलते हैं, या कहीं मिलते हैं। और बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी, इनके पास एक तर्क रहता है कि यह जो माँस-मच्छी होते हैं इनका अमीनो प्रोफाइल कम्पलीट (पूरा) होता है, यह कहते हैं। जैसे कि ब्रोकली खा लो, एवोकाडो, यह सब चीज़ें, इनमें अच्छा प्रोटीन होता है। कहते हैं, अमीनो प्रोफ़ाइल, जैसे एसेंशियल (आवश्यक) अमीनो एसिड – ल्यूसीन, आइसोल्यूसीन, वेलिन...

आचार्य प्रशांत: नहीं, ऐसा नहीं है, बिलकुल नहीं। मेडिकल साइंस (औषधि विज्ञान) इस पर बहुत स्पष्ट है। तुम्हें जो कुछ भी अपने शरीर के लिए चाहिए वो सबकुछ तुमको प्लान्ट बेस्ड (वनस्पति आधारित) स्रोतों से भी मिल सकता है। तो ऐसा कुछ नहीं है कि तुम जब तक माँस-मछली नहीं खाओगे तब तक तुम्हारा शरीर स्वस्थ ही नहीं रहेगा, बिलकुल व्यर्थ बात है।

हिन्दुस्तान में सबसे ज़्यादा शाकाहारी लोग पाए जाते हैं – हरियाणा में, राजस्थान में, गुजरात में और पंजाब में, और यही वो प्रान्त हैं जहाँ औसत वज़न सबसे ज़्यादा है, औसत ऊँचाई सबसे ज़्यादा है, सारे पहलवान यहाँ से निकलते हैं, सारे मुक्केबाज़ यहाँ से निकलते हैं। और जिन जगहों पर माँस ज़्यादा खाया जाता है उन जगहों को देख लो—जानते हो सबसे ज़्यादा माँस कहाँ खाया जाता है? दक्षिण में तो खाया ही जाता है, बंगाल में खाया जाता है, बिहार में खाया जाता है, उत्तर पूर्व में खाया जाता है। वहाँ तुमको बहुत स्वास्थ्य दिखाई दे रहा है?

एक पंजाबी को, एक बंगाली को आमने-सामने खड़ा कर दो; सम्भावना यही है कि पंजाबी या हरियाणवी शाकाहारी होगा और बंगाली माछ-भात के बिना जी ही नहीं सकता। ये कल्पना करके ही लोगों को हँसी आ रही है कि पंजाबी और बंगाली आमने-सामने खड़े हैं। तुम मुझे बताओ न, माँस खाने से क्या लाभ हुआ।

अभी बीते बीस सालों में भी—अभी टोक्यो ओलम्पिक चल रहे हैं—बीते बीस सालों में भी भारत को बॉक्सिंग (मुक्केबाज़ी) में और रेसलिंग (कुश्ती) में जो पदक मिले हैं उसमें जाकर देखना बहुत हैं जो शाकाहारी हैं, माँस नहीं खाते और दुनिया के सब बॉक्सर्स (मुक्केबाज़ों) को उन्होंने चित कर रखा है, पहलवानों को चित कर रखा है। ये कैसे हो गया? और तुम जिन जिमबाज़ों की बात कर रहे उनको भी चित कर देंगे।

ये तो बात सीधी है कि एक बेज़ुबान, कमज़ोर, गरीब जानवर है। उसकी जान लेने का कोई बहाना तो चाहिए न। तो एक बहाना बन गया कि अमीनो एसिड प्रोफाइल यहाँ कम्प्लीट होती है। ये तो ग़ज़ब हो गया! करोगे क्या अपनी अमीनो एसिड प्रोफाइल कम्प्लीट करके भी, अगर ज़िन्दगी किसी के खून पर जीनी है तो। भाड़ में जाए ऐसी ज़िन्दगी।

पहली बात तो शरीर को कोई नुकसान होता नहीं शाकाहार से। दूसरी बात, अगर होता भी हो तो बर्दाश्त करो यार! सप्लीमेंट्स (अनुपूरक) खाओ। इतनी सारी चीज़ें हैं तुम्हारी दैनिक खुराक में जो फैक्ट्रियों से बनकर आती हैं, आती हैं की नहीं आती हैं? डब्बों से निकालते हो, खा जाते हो। ये ‘थम्स अप’ क्या है? ये कोक क्या है? ये सारे पैकेज्ड फूड्स (डिब्बाबन्द भोजन) क्या हैं? ये चिप्स क्या हैं? क्या करते हो — पैकेट खोलते हो, खा जाते हो।

जब इतनी सारी चीज़ें पैकेट खोलकर खा रहे हो, तो कुछ सप्लीमेंट्स भी पैकेट खोलकर खा लो। क्या समस्या है? किसी की जान बचेगी। या तो ये कह दो कि साहब हम पैकेट वाले कुछ खाते ही नहीं, हम तो सबकुछ ताज़ा-ताज़ा खाते हैं। ऐसा है क्या? तुम तो दूध भी पैकेट खोलकर पीते हो। जब इतनी चीज़ें डिब्बाबन्द ही खा रहे हो, तो डिब्बाबन्द सप्लीमेंट भी खा लो। और आते हैं प्लान्ट बेस सप्लीमेंट्स (वनस्पति आधारित अनुपूरक), वीगन सप्लीमेंट, खा लो न उनको। उसकी भी ज़रूरत पड़ेगी नहीं, देखो। ठीक है? लेकिन अगर पड़ती है, तो खा लो।

एक कहानी है कि — एसॉप की — 'एसॉप्स फेबल' (ईसप की लघु कथाएँ) सुना होगा। तो भेड़िया है उसमें और एक मेमना है। तो ऐसे (हाथ से इशारा करते हुए) नदी बह रही है, ठीक है। मान लो बायें से दायें को नदी बह रही है। तो भेड़िया थोड़ा उधर बायीं तरफ़—नहीं, मेमना उधर बायीं तरफ़ पानी पी रहा है। मेमना वहाँ बायीं तरफ़ खड़ा होकर पानी पी रहा है और भेड़िया इधर दायें तरफ़ खड़ा होकर पानी पी रहा है।

भेड़िया मेमने को देख रहा है, उसके मुँह में पानी आ रहा है। हम भेड़िये ही जैसे तो हैं, जानवर! किसी का माँस देखा नहीं कि ललचा गये कि नोच खाएँ उसको। तो भेड़िया अब कहता है कि कुछ कारण तो बताना पड़ेगा न इसको मारने का। ऐसे कैसे मार दें, जस्टिफ़ाई (सही साबित करना) भी तो करना पड़ता है।

तो भेड़िया मेमने से बोल रहा है, ‘मेमने, तेरी हिम्मत कैसे हुई अपना जूठा पानी मुझे पिलाने की?’ मेमना बोल रहा है, ‘अरे महाराज! आप पीयो, मैं बिलकुल दूर खड़ा हो जाता हूँ। मैं उधर नीचे चला जाता हूँ। मुझे कोई तकलीफ़ नहीं।’

‘अरे! ये तो मान गया।’ तो बोलता है, ‘मेमने’—भेड़िया बोलता है मेमने से—‘तू वही है न मेमना जिसकी माँ ने मुझे गाली दी थी कल-परसों।’ मेमना बोलता है, ‘भेड़िया महाराज! मेरे माँ-बाप दोनों को ही आप दो महीने पहले खा चुके हैं, वो आपको कल गाली कैसे दे सकते हैं।’ गज़ब हो गया!

भेड़िये की भूख बढ़ती ही जा रही है, और मेमना जितना बोल रहा है भेड़िये की हवस उतनी बढ़ती जा रही है उसके माँस की। तो भेड़िया बोलता है, ‘मेमने, तू बहस बहुत करता है। पिछली दो बातें मैंने बोली, तूने मानी नहीं दोनों बातें। तू बहस बहुत लड़ा रहा है, तुझे सजा मिलेगी — मेमना साफ़।

हमें तो मेमने को काटने का बहाना चाहिए। वो बहाना अमीनो एसिड भी हो सकते हैं। और क्या-क्या होते हैं बहाने? वो बहाना बी-ट्वेल्व भी हो सकता है, वो बहाना कोई त्योहार हो सकता है कि साहब कुर्बानी देनी है, कि बली देनी है, कुछ भी बहाना हो सकता है। लेकिन घुमा-फिरा करके बात कुल इतनी है कि मेमने का जो माँस है वो बड़ा मुलायम है। आहा!हा! चटोरी ज़बान को बिलकुल स्वाद आ जाता है, कुल बात इतनी है।

वैसे ही एक साहब का आया। वो कह रहे हैं कि क्या आपने कभी गौर फ़रमाया है जनाब कि जिन-जिन जानवरों को हम खाते हैं या उनकी बलि या कुर्बानी देते हैं वो फल-फूल रहे हैं। और वो सारे जानवर जिन्हें हम खाते नहीं या जिनकी कुर्बानी नहीं देते वो विलुप्त हो गए, वो एक्सटिंक्ट (विलुप्त) हो गये। इसका मतलब समझिए आप — जानवर बचे रहें इसीलिए तो हम उनको खाते हैं, हम एहसान करते हैं उनपर उनको खाकर के।

क्या देखो गज़ब दलील है! अब बात सुनने में सही है। बोल रहे हैं, ‘देखो, वही सब जानवर खत्म होते जा रहे हैं जिन्हें हमने खाया नहीं।’ पहली बात तो आपने थोड़ा सा भी इतिहास शायद पढ़ा नहीं है, आपको एक्सटिंक्ट स्पीसीज़ (विलुप्त प्रजातियों) का कुछ पता नहीं है। जानवरों की प्रजातियों की विलुप्ति में बहुत बड़ा हाथ इंसान के चटोरेपन का रहा है। चाहे वो ‘डोडो’ पक्षी हो जो विलुप्त ही इसलिए हुआ क्योंकि सीधा-साधा था। लोग उसके पास जाते थे और पकड़कर उसको खा जाते थे। इतना खाया कि वो बचा ही नहीं। और चाहे ऑस्ट्रेलिया की न जाने कितनी प्रजातियाँ थीं जहाँ इंसान जब पहुँचा तो वो इंसान से डरे ही न, क्योंकि इंसान से उनका कोई पूर्व परिचय नहीं था। तो इंसान को देखें और सामने खड़े हो जाएँ, इंसान उनको खा गया। वो बची ही नहीं हैं।

तो पहली बात तो ये है कि आपको पता होना चाहिए कि ऐसा नहीं है कि जिनको आप खाते हैं वो बचे रह जाते हैं। जानवरों की सैकड़ों प्रजातियाँ हैं जो सिर्फ़ इसलिए खत्म हुई हैं क्योंकि हम उन्हें खा गये। लेकिन फिर भी इस सवाल में एक बेहतर बात है — उन्होंने इतना तो माना कि जिनको हम खाते हैं वो बचे हुए हैं।

थोड़ा गहरे में समझना होगा कि जिनको हम खाते हैं वो बचे कैसे हुए हैं। वो इसलिए बचे हुए हैं क्योंकि उनका औद्योगिक उत्पादन होता है। भला हुआ ये बात आपको सूझी तो सही, नहीं तो बहुतों को तो ये लगता है कि साहब! हमने जिसको खाया वो यूँही कहीं घूम रहा था, पेड़ पर बैठा हुआ था, सड़क पर चल रहा था; हमने पकड़ कर खा लिया।

तो वो कहते हैं, ‘देखो, ये तो ऐसे ही हैं, इनको हम अगर खाएँगे नहीं, तो इनकी तादाद बहुत बढ़ जाएगी।’ ये बड़ा प्रचलित तर्क है कि इनको अगर हमने खाया नहीं, तो पूरी दुनिया में यही सब फैल जाएँगे। जैसे कि अगर तुम मेंढ़क नहीं खाते तो पूरी दुनिया में मेंढ़क ही मेंढ़क हो गये हैं, जैसे कि तुम अगर कौए नहीं खाते तो दुनिया में कौए ही कौए फैल गये हैं।

ये कितनी बेवकूफ़ी भरे तर्क हैं। खाते तो तुम ब-मुश्किल आठ-दस तरीके के जानवर हो, और जानवर हैं लाखों तरह के। वो बाकी सब जिन्हें तुम नहीं खाते वो फैल गए हैं क्या? चील नहीं खाते तुम, तो दुनिया में चील-चील हो गए हैं? गिद्ध नहीं खाते तुम, तो गिद्ध-ही-गिद्ध हो गए दुनिया में?

तो एक तरफ़ तो वो हैं जो कह रहे हैं कि इनको खाया नहीं, तो ये बहुत बढ़ जाएँगे। दूसरी तरफ़ ये जनाब हैं जो कह रहे हैं कि अगर हमने इनको खाया नहीं, तो ये विलुप्त हो जाएँगे। जैसे हम शेर को नहीं खाते न, तो देखो आज शेर खत्म हो रहा है बेचारा। हम गैंडे को नहीं खाते न, देखो गैंडा खत्म हो रहा है बेचारा।

तुम्हें पता भी है! जो खत्म हो रहे है, वो क्यों खत्म हो रहे हैं? अब इसके आगे की बात जो है वो दिमाग पर ज़रा ज़ोर डालोगे तभी समझ में आएगी। वो खत्म इसलिए हो रहे हैं क्योंकि वो जिन जगहों पर रहते हैं, हम वो जगहें उजाड़े दे रहे हैं। अगर तुमने जंगल तबाह कर दिए सारे, तो शेर तो खत्म हो ही गए न। और शेर ही नहीं, न जाने कितने जीव-जन्तु और पेड़-पौधे भी सब खत्म हो गए, अगर तुमने जंगल तबाह कर दिए।

जंगल क्यों तबाह करने पड़ते हैं शायद तुम्हें पता ही नहीं है, मैं बताता हूँ — इसलिए ताकि उन पशुओं के लिए चरागाह बनाए जा सकें जिन्हें तुम काटकर खाने वाले हो। साहब, आप जितने जानवरों को काटकर खा रहे हैं आपको क्या लग रहा — वो प्राकृतिक रूप से पैदा हो रहे हैं? नहीं, उन्हें ज़बरदस्ती पैदा किया जाता है।

दुनिया का सत्तर प्रतिशत अन्न उत्पादन सिर्फ़ इसलिए होता है ताकि उन जानवरों को खिलाया जा सके जो आपका आहार बनेंगे। अब उतनी ज़मीन कहाँ से लायी जाए उतना अन्न उपजाने के लिए। तो वो ज़मीन कहाँ से आती है फिर? जंगल काटकर। जब जंगल कटते हैं तो शेर, भेड़िये, हाथी, गैंडे, ये सब खत्म हो जाते हैं क्योंकि उनके रहने की जगह नहीं बची।

तो माँसाहारी सिर्फ़ उस जानवर को नहीं खाता जिसको वो खा गया, माँसाहारी सैकड़ों और जानवरों को भी खा गया। उसने उनको इनडायरेक्ट (अप्रत्यक्ष) मौत दे दी।

और इतना ही नहीं, जैसे अब सवाल आता है न कि पेड़-पौधों में भी तो जान होती है, उनको खा रहे हो। तुम्हें पेड़-पौधों की जान की इतनी फ़िक्र है तो ये समझो बात को। तुम एक किलो चावल खाओ और एक किलो मुर्गा खाओ, तो उसका अन्तर समझना — एक किलो चावल खाने में तुमने एक किलो चावल खाया। ठीक है, उसमें कुछ जो धान के पौधे थे वो काटे गये। एक किलो चावल खाया तो एक किलो चावल खाया, उसमें कुछ धान के पौधे कटे। लेकिन जब तुमने एक किलो मुर्गा खाया तो तुमने एक किलो मुर्गा और पन्द्रह किलो धान खाया। क्योंकि वो मुर्गा कहाँ से आया? मुर्गे का एक किलो माँस तब तैयार हुआ था जब उसने पन्द्रह किलो अन्न खाया था।

तो अगर तुम्हें वनस्पतियों से, पेड़-पौधों से भी इतना प्रेम है—एक साहब ने लिखकर भेजा है, ‘मैंने तो पेड़ों को रोते हुए देखा है’, बोल रहे हैं, ‘मेरी अन्तरात्मा रो पड़ती है जब मैं देखता हूँ की कोई फल खा रहा है, क्योंकि मैंने पेड़ो को रोते हुए देखा है।’

तुम्हें अगर पेड़-पौधों से भी इतना लगाव है—निसरत अली हैं, कह‌ रहे हैं, ‘मैंने पेड़ों को रोते हुए देखा है।’ तुम्हें अगर पेड़-पौधों से भी इतना लगाव है तो मुर्गा खाना बन्द करो, बकरा खाना बन्द करो, क्योंकि बकरे का एक किलो माँस तीस किलो अन्न पर तैयार होता है। तीस किलो अन्न से एक किलो बकरे का माँस बन रहा है। इससे अच्छा तुम एक किलो अन्न ही खा लो न, पेड़-पौधे कम रोएँगे।

गज़ब दया उठ रही है तुम्हारे मन में! कह रहे हो, ‘मैं बकरा इसलिए काटता हूँ ताकि मुझे दाल-चावल, इनके पेड़ न काटने पड़ें।’ ज़बान की वहशत आदमी से कैसे-कैसे कुतर्क करवा लेती है, कैसी-कैसी काली दलीलें निकलवा लेती है। और बात कुछ नहीं है, बस ये ज़रा सी चमड़े की ज़बान है, इसकी हवस। बिलकुल इनके शब्द हैं — ‘मैंने पेड़ों को रोते हुए देखा है।’ तुम्हें पेड़ों का रोना दिखाई देता है जिनके पास आँखें भी नहीं। और जब तुम मुर्गा, बकरा, भैंसा काट रहे होते हो, जिनकी आँखें हैं, तब उनका रोना तुम्हें नहीं दिखाई देता या तुम्हारे आँखें नहीं हैं।

प्र: एक यह तर्क भी आता कि जैसे अंडा, कहते हैं, ‘अंडा तो वेजिटेरियन (शाकाहारी) ही है।’ वो यह कहते हैं।

आचार्य: किस पौधे से निकलता है?

प्र: तो वो कहते हैं, ‘वो अंडा तो होता है नॉन फ़र्टिलाइज़्ड (गैर निषेचित)। आजकल जो आते हैं, बिना मुर्गे के संसर्ग के होते हैं। तो कहते हैं, ‘चूज़ा तो निकलेगा नहीं।’

आचार्य: चूज़ा भले नहीं निकलेगा, वो अंडा कैसे निकला है?

प्र: हाँ, वही कह रहा हूँ। हिंसा है, पहले मुर्गी की चोंच काट दी जाती है।

आचार्य: बस बात सीधी है, हो गया, हो गया। बात ये थोड़ी है कि वो पेड़ पर लटका मिला कि नहीं लटका मिला, ये भी तो देखो, वो अंडा आया कहाँ से? मुर्गी स्वेच्छा से आकर के तुम्हारी गोद में अंडा डाल गई थी? कि मुर्गे के हाथ नहीं लगने दूँगी, वो फ़र्टिलाइज़ (निषेचित) कर देगा, साहब आप ले लो और खा जाओ। मुर्गा बड़ा लफ़ंगा है, उसको अंडा मिला नहीं कि खट से काम कर देता है। तो मुर्गे को मिले अंडा इससे अच्छा आप आमलेट बना लो उसका, मुर्गी के कुछ ऐसे इरादे हैं?

ये लोग जो बातें करते हैं, इन्होंने ज़िन्दगी में कभी कोई पोल्ट्री फॉर्म देखा है या बस हवाई मारते रहते हैं? इन्हें पता भी है कितनी यातना, कितना दर्द, कितनी क्रूरता बर्दाश्त करती हैं मुर्गियाँ ताकि तुम्हें अंडा मिल सके? एक मादा है वो, एक मादा से उसका अंडा निकलवाया जा रहा है ज़बरदस्ती ताकि तुम्हारे यहाँ मुनाफ़ाखोर गा सकें कि सन्डे हो या मन्डे, रोज़ खाओ अंडे।

ये बात ही अपनेआप में कितनी भद्दी नहीं है? एक मादा जानवर के स्तन पकड़कर दूह रहे हो, एक मादा जानवर का अंडा निकलवा लिया; ये बलात्कार नहीं है? ऐसे ही आगे और भी हैं ये।

प्र: शिवाली ठाकुर का तर्क आया है जिसको मैं ले ही चुका हूँ लगभग। कह रही हैं कि एक वेजिटेरियन को फीड (खिलाने) करने के लिए आपको पता है कितने पौधे मारने पड़ते हैं?

आचार्य: एक नॉन वेजिटेरियन (माँसाहारी) को फीड करने के लिए तुमको पता है कितने पौधे मारने पड़ते हैं? उससे दस गुना ज़्यादा। ये जो इक्वेशन (समीकरण) है, शिवाली, अच्छे से समझ लो — जब तुम एक किलो माँस खाती हो तो तुमने उसके पीछे बीस किलो फूड ग्रेन (खाद्यान्न) बर्बाद कर दिया। क्योंकि माँस आसानी से नहीं तैयार होता, माँस तैयार करने के लिए बहुत कुछ खिलाना पड़ता है उस जानवर को। और वो जो खिलाना पड़ता है वो पैदा करना पड़ता है। इतना ही नहीं है, वो जो माँस बनता है न एक किलो उसके पीछे हैरान रह जाओगी ये जानकर कि कितने लीटर पानी बर्बाद होता है। और दुनिया की जो वाटर क्राइसिस (जल संकट) है उसका भी बड़े-से-बड़ा कारण माँसाहार ही है।

प्र: अगला तर्क इन्हीं का है। शिवाली कह रही हैं, ‘दुनिया के नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा नोबेल प्राइज़ विजेता तो माँसाहारी हैं न, और जितने देशों में माँस खाया जाता है वो विकसित भी इतना हैं?

आचार्य: वो माँस खाने के बावजूद विकसित हैं, वो माँस खाने से नहीं विकसित हैं। इसको स्टेटिस्टिक्स (सांख्यिकी) में एट्रिब्यूशन एरर (आरोपण त्रुटि) बोलते हैं। कि जैसे कुतुब मीनार के नीचे से जनाज़ा निकल रहा हो, और तुम बोलो कि ज़रूर ये कुतुब मीनार से ही गिरकर मरा है।

तुमने पहला फैक्ट (तथ्य) भी ठीक बोला और दूसरा फैक्ट भी ठीक बोला। पहला फैक्ट है— जनाज़ा निकल रहा है, दूसरा फैक्ट है— कुतुब मीनार खड़ी है और कुतुब मीनार बहुत ऊँची है। लेकिन तुमने उन दोनों में जो एट्रीब्यूशन (आरोपण) का, काज़ेशन (कारणता) का सम्बन्ध लगाया है वो बिलकुल गलत है।

तुमने कहा, ‘पहला, जो पश्चिमी देश हैं वो विकसित हैं।’ ठीक बात। तुमने दूसरी बात कही, ‘पश्चिमी देशों में माँस खाया जाता है।’ वो बात भी ठीक है। लेकिन तुमने इन दोनों बातों को जोड़ दिया। ये जो काज़ेशन तुमने बीच में लगा दी है, ये गलत है बिलकुल। अगर ये सही होती, तो पश्चिमी देश खुद माँसाहार से इतने परेशान नहीं होते।

थोड़ा देसी जो ये फ़ालतू की न्यूज़ वेबसाइट्स होती हैं, इनको छोड़कर के कभी ग्लोबल, इंटरनेशनल न्यूज़ भी पढ़ा करो। तो तुम्हें पता चलेगा कि उनके लिए कितना भीषण मुद्दा है — एक्सेसिव मीट कंज़म्प्शन (अत्यधिक माँस भक्षण)। वो जूझ रहे हैं। ये भी उनके लिए एक एपिडेमिक (महामारी) की तरह है। और तुमको लग रहा है कि ये उनकी खासियत है। उनसे जाकर पूछो न, वो बताएँगे कि ये बहुत बड़ी बीमारी है जो हमें लग गयी है, कैसे इससे पीछा छुड़ाएँ।

वैसे ही लिखा है कि इतने सारे जो नोबेल प्राइज़ विजेता हैं वो तो सब माँसाहारी हैं। तुम ये तो बताओ न, वो जिन समाजों से आ रहे हैं वहाँ कितने माँसाहारी हैं। जब वो पूरा समाज, पूरा देश ही माँसाहारी है तो उसमें से जो भी निकलेगा नोबेल प्राइज़ विजेता वो माँसाहारी ही होगा। इसका मतलब ये थोड़ी है कि माँसाहार के कारण उसे नोबेल प्राइज़ मिल गया।

माँसाहार तो पूरा देश ही कर रहा था, अब उसी में से किसी को मिलना है। क्यों उसी में से किसी को मिलना है? क्योंकि नोबेल प्राइज़ मिलना बहुत सारी चीज़ों पर निर्भर करता है, खासतौर पर विज्ञान में नोबेल प्राइज़ का मिलना। अगर आपके पास उतने पैसे ही नहीं हैं, उतने रिसोर्सेस (संसाधन) ही नहीं हैं कि आप सही लेबोरेटरी (प्रयोगशाला) सेटअप (स्थापित) कर सको तो आपके वैज्ञानिक को कहाँ से मिल जाएगा नोबेल प्राइज़ ? यह बताइए।

तो कैपिटल (पूँजी) वहाँ पर है इसीलिए बहुत सारे नोबेल प्राइज़ उधर जाने-ही-जाने हैं। तो अगर कोई सम्बन्ध है भी नोबेल प्राइज़ में और पश्चिमी देशों में, तो वो सम्बन्ध कैपिटल का है, कार्निवोरिज़्म (माँस भक्षण) का नहीं है। उनके पास पैसा है इसलिए उनको नोबेल प्राइज़ मिल रहा है।

और भी बहुत कारण है, मैं सिम्प्लिफाइ (सरलीकरण) कर रहा हूँ आपके लिए, शिवाली। और भी बहुत कारण हैं, पर जो प्रमुख कारण हैं वो यही है — पैसा है। अभी मैं यहाँ पर नोबेल पीस प्राइज़ की नहीं बात कर रहा है और नोबेल लिटरेचर प्राइज़ की नहीं बात कर रहा।

बाक़ी जितने भी नोबेल हैं, बहुत हद तक पैसे पर निर्भर करते हैं। आपके पास बहुत ऊँची लेबोरेटरीज़ (प्रयोगशालाएँ) होनी चाहिए, यूनिवर्सिटीज़ होनी चाहिए। तब जाकर के न वहाँ ऐसी रिसर्च (शोध) होगी कि आपको नोबेल मिले।

और जहाँ पर लेबोरेटरी या नहीं चाहिए यूनिवर्सिटी, वहाँ देख लीजिए — आपके रविन्द्र नाथ ठाकुर को भी मिल गया था, बहुत पहले मिल गया था। वहाँ पर तो ये तर्क नहीं चलेगा न आपका कि पश्चिमी देशों को ही मिलता है, उन्हीं लोगों को मिलता है। भारतीयों को भी मिल गया था, कब? जब वो वहाँ पहुँच गए। तो वो वहाँ पहुँच गए तो आप क्या बोलोगे कि भारतीयों को तब मिल जाता है जब वो माँस खाना शुरू कर देते हैं? नहीं।

अगर एक भारतीय, मान लो हरगोविन्द खुराना, वो पश्चिम पहुँच जाते हैं और उनको वहाँ पर नोबेल पदक मिल जाता है। तो इसकी वजह ये थी कि वो वहाँ गए, उन्होंने भैंसा चबाना शुरू कर दिया और तुरन्त उनको नोबेल प्राइज़ दे दिया गया? कि देखो ये अभी देसी आया है और यहाँ पर फट से इसने भैंसा मारा और चबा गया, उसको नोबेल प्राइज़ दे दो।

उनको नोबेल प्राइज़ इसलिए मिला क्योंकि वहाँ पर कैपिटल है, रिसोर्सेज़ हैं, इंटलेक्चुअल इंफ्रास्ट्रक्चर (बौद्धिक आधारभूत संरचना) है। समझ में आ रही है बात, शिवाली?

माँस खाने से नोबेल प्राइज़ नहीं पा जाओगी, कितना भी खा लो। लेकिन नहीं, अगर खाना है, तो बनाना है कोई तो बहाना। यही सही — नोबेल प्राइज़ चाहिए। दसवीं में भले पचास प्रतिशत न आते हों, अभी दसवीं का एग्ज़ाम (परीक्षा) दे रहे हों, पचास प्रतिशत उसमें नम्बर नहीं आ रहे हैं, उसकी बात नहीं करेंगे। बता रहे हैं, ‘वो नोबेल प्राइज़ लाना है न, तो बकरा चबाना है।’

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories