नीयत साफ़ रखो, जितना हो सके आगे बढ़ो || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

22 min
155 reads
नीयत साफ़ रखो, जितना हो सके आगे बढ़ो || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: शत-शत नमन, आचार्य जी। आचार्य जी, मुझे इतना समझ आना शुरू हुआ है कि गीता ज़िन्दगी में उतरनी चाहिए। इसके लिए जीवन गीता के अनुरूप होना चाहिए, तभी गीता समझ आती है। आप मुझे पिछले दो-तीन माह से मार्गदर्शन कर रहे हैं।

अपने रिश्तों को सुधारने की कोशिश की, ख़ास तौर पर अपनी पत्नी के साथ रिश्तों को। उसमें आपने बहुत मार्गदर्शन किया मेरा। काफ़ी हद तक दिखना शुरू हुआ है कि जीवन में कैसे हो रही हैं चीज़ें। आपने समझाया कि जीवन का रोल (भूमिका) सही चुनना है।

आपने कहा था मुझे कि 'सर्वपति' नहीं, 'गुरुपति' बनना है। और मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि रिश्तों में मैं बहुत संभल गया हूँ। और जो ज्ञान मैंने आपसे लिया है, वो अपने व्यवसाय, अपनी नौकरी और सबमें ले जाना चाहता हूँ।

उस समय चुनाव था कि पत्नी आए, बच्चे आएँ; अब उनकी ज़िम्मेदारी है। नौकरी करनी है क्योंकि बच्चों के स्कूल की फ़ीस है, हर महीने की पत्नी की ज़रूरतें हैं। तो लगता है कि नौकरी करना तो ज़रूरी है। एकदम से मैं उसको छोड़कर कोई और काम नहीं शुरू कर सकता। तो क्या जो मैं अपने लिए सोच रहा हूँ वो सही है?

क्योंकि मैं वो एकदम से नहीं कर सकता तो उसकी मुझे तैयारी धीरे-धीरे करनी है। क्योंकि सही रोल चुनना ज़रूरी है। इतना समझ आ गया है कि ज्ञान तभी जीवन में उतरेगा। उसकी शुरुआत करने का तरीक़ा तत्काल तो मुझे नहीं दिख रहा है। तो उसमें आपका मार्गदर्शन चाहिए कि कैसे जाया जाए।

क्योंकि मुक्ति व्यक्तिगत नहीं है, आपने ही समझाया है कई बार। और वो इस चीज़ को इतना नहीं समझते कि मेरे इस निर्णय का समर्थन करें। और हमने अपने घर के ख़र्चे और सब कुछ इतना बढ़ा रखा है कि मुझे एक मिनिमम सपोर्ट अमाउंट (न्यूनतम सहायता राशि) चाहिए-ही-चाहिए। इसमें आपका मार्गदर्शन चाहिए कि कैसे आगे बढ़ा जाए?

आचार्य प्रशांत: देखिए, एक पात्र है — मान लीजिए कोई ड्रम — उसमें छेद हैं कई। छेदों को मान लीजिए अभिव्यक्ति के द्वार। ठीक है? उसमें जब पानी भरता है तो पानी सबसे पहले किस छेद से बाहर आएगा?

प्र: जो सबसे नीचे है।

आचार्य: जो सबसे नीचे है। या पानी इंतज़ार करेगा कि जब पूरा भर जाऊँगा तब एकदम ऊपर से ही छलछलाऊँगा? नहीं, पानी कहेगा जो रास्ता अभी उपलब्ध है अभिव्यक्ति का, मैं उस रास्ते का तो समुचित इस्तेमाल कर लूँ। क्योंकि पानी पर एक दबाव है, पानी उस दबाव को अभिव्यक्त कर देना चाहता है।

यही बात अध्यात्म में, प्रेम में होती है। जो रास्ता मिले उस रास्ते से अभिव्यक्त करते चलिए। और आगे बढ़ते रहेंगे तो दूसरा रास्ता भी मिलेगा, तीसरा रास्ता भी मिलेगा। और जब पात्र पूरा भर जाएगा तो पानी मुँह से ही छलकने लगेगा — पात्र के मुँह से भी, आपके मुँह से भी।

समझ में आ रही है बात?

जो रास्ता उपलब्ध हो उस पर तेज़ी से आगे बढ़ो न! कहीं कोई मिल गया बड़ा छेद उसका पूरा मौक़ा उठा लो। वहाँ जितनी अभिव्यक्ति कर सकते हो, कर दो। कहीं कोई छोटा सा छेद मिलेगा सुई की नोक बराबर, तो उसमें से कितनी अभिव्यक्ति होगी, लेकिन जितनी हो सकती है वहाँ भी कर डालो।

जहाँ जितना मौक़ा मिलता हो उसका अधिकतम सदुपयोग करते चलो न! और सदुपयोग करते चलोगे तो मौक़े मिलते चलेंगे। रास्ता सबको अपना-अपना बनाना है, नीयत होनी चाहिए रास्ता बनाने की। और रास्ता शुरू ठीक वहीं से होता है जहाँ आप इसी पल खड़े हुए हैं, प्रतीक्षा की कोई बात नहीं है।

अभिव्यक्ति के रास्ते अनन्त हैं। तो वो आपको देखना है, जहाँ जैसे हो सके वहाँ वैसे चीज़ों को अभिव्यक्त करते चलिए। मैं आपको इसमें कोई बहुत स्पष्ट, डेफिनिट (निश्चित) उत्तर नहीं दे पाया हूँ, और दिया जा भी नहीं सकता। इसमें तो बस मैं यही बता सकता हूँ कि प्रतीक्षा नहीं करनी है और छोटे-से-छोटा मौक़ा भी गँवाना नहीं है।

प्र: शायद उसमें बस एक ही शंका हमारे मन में रहती है कहीं-न-कहीं कि जो चुन रहा हूँ वो ग़लत न हो।

आचार्य: ग़लतियाँ तो होंगी, अभी भी होंगी, पर अभी की ग़लतियों में आपको इतना महत्व दिख गया कि उसकी वजह से आप सुधार की पूरी प्रक्रिया को स्थगित या बाधित करने के लिए तैयार हैं! और जीवनभर जब ग़लतियाँ करते रहे फर्राटे से तब नहीं रुके।

आप बात समझ रहे हो?

एक आदमी है, वो ग़लत रास्ते पर एक-सौ-चालीस की गति से भगाता गया है, भगाता गया है, भगाता गया है; लाल बत्ती आये, गतिअवरोधक आये, कुछ आये, वो एक-सौ-चालीस की गति से भगाता चला गया है। तब उसने न रास्ते की परवाह करी, न गाड़ी की परवाह करी, न उचित-अनुचित की परवाह करी। गति ज़बरदस्त रखी ताकि सही जगह से वो दूर-से-दूर निकल जाए ग़लत दिशा में और अब जब बताया गया कि भाई! मुड़, यू-टर्न ले, ग़लत आ गये थे। तो वो क्या कह रहा है — अब मैं बीस किलोमीटर प्रति घंटा से ज़्यादा की गति से नहीं चलूँगा। क्यों? ‘कहीं कोई ग़लती न हो जाए!’

अरे! जब एक-सौ-चालीस पर चल रहे थे वो भी ग़लत दिशा में तब ये विचार किया कि कहीं कोई ग़लती न हो जाए? क्यों नहीं गति बढ़ा रहे हैं? ‘अरे स्पीड ब्रेकर (गतिअवरोधक) है न सामने!’ कितना आगे है? ‘अभी ढाई किलोमीटर आगे है न! तो देखिए, आचार्य जी, हमने अतीत में बड़ी ग़लतियाँ की हैं तो अब हम संभल-संभल के कदम बढ़ाना चाहते हैं।’

ये जो अब संभल-संभल के बढ़ना चाहते हो, देख नहीं रहे हो इसमें क्या आंतरिक चतुराई निहित है? ग़लत काम सुपरसोनिक गति से होगा, सही काम चींटी की चाल से होगा। और उसमें हम कहेंगे विवेक का तकाज़ा है, बड़े-बूढ़ों ने समझाया है — हड़बड़ी नहीं, हड़बड़ी नहीं करनी है।

ग़लत काम में हड़बड़ी नहीं करनी है और सही काम में सुपरसोनिक नहीं हाइपरसोनिक गति दिखानी है। और फिर ग़लती हो-तो-हो! और ग़लतियाँ तो होंगी ही क्योंकि इंसान तो आप अभी भी लगभग वही हैं जो ग़लत दिशा में चल रहा था। तो किसने कह दिया कि अब आप ग़लतियाँ नहीं करेंगे? लेकिन ये ग़लतियाँँ भी शुभ हैं।

सही दिशा जाते हुए स्पीड-ब्रेकर पर धड़-धड़-धड़-धड़ चढ़ा दी गाड़ी, एकदम अंजर-पंजर हिल गये। चलो कोई बात नहीं, दिशा तो सही थी। लेकिन हम सारी सावधानियाँ सिर्फ़ सही काम करने में दिखाते हैं। कोई घटिया काम करना हो, तत्काल होता है। ‘हाँ, चलो अभी, यारों का बुलावा आया है। उठो चलते हैं।’ महोत्सव आना है — अभी हम विचार कर रहे हैं। जल्दी किस बात की है! जल्दी का काम शैतान का।

सारी विज़डम (बुद्धिमत्ता) याद आ जाती है सही काम करते वक़्त और घटिया काम सब भड़भड़ा के होते हैं। जैसे ज्वालामुखी फूटा हो; वो नहीं देख रहा कि लावा किधर जा रहा है, इधर-उधर बह रहा है, सब बढ़िया।

और मैं पहले से ही कह रहा हूँ ग़लतियाँ होंगी। लेकिन ये ग़लतियाँ भी बेहतर हैं उस दिशा से जिस दिशा में आप बिना ग़लती किये भागे जा रहे थे। सही दिशा में लुढ़कते-लुढ़कते भी चले, ठोकरें खाते भी चले तो भी बेहतर है न ग़लत दिशा में बड़ी सुगमता से गति करने से।

और फिर एक बात बताइए, आपका उम्रभर का अभ्यास किस दिशा में जाने का है? ग़लत दिशा में जाने का। तो आप पारंगत किस दिशा में चलने के हो गये हैं? आप एकदम सिद्धहस्त हो चुके हैं, हाथ मंझ चुका है, पूरा-पूरा अभ्यास है; किस दिशा में जाने का?

प्र: ग़लत दिशा।

आचार्य: और सही दिशा में पहली-पहली बार चल रहे हैं तो ग़लतियों की संभावना किस दिशा में ज़्यादा है — ग़लत दिशा में या सही दिशा में?

लेकिन सही दिशा में जैसे ही ग़लती करोगे वैसे ही कहोगे, 'उफ़! हो गयी न चूक। ये काम करना नहीं चाहिए था। ये काम करना ही नहीं चाहिए था।' अरे, बाबा! काम सही हो या ग़लत, करने वाले तो आप ही हो न? और आप जब उसको अभी नया-ताज़ा कर रहे हो तो ठोकरें तो खाओगे-ही-खाओगे।

ग़लत काम भी पहली-पहली बार करते हो उसमें भी ठोकर खाते हो, सही काम भी पहली बार कर रहे हो तो कर्ता तो आप ही हो। वो उस हिसाब से नहीं होगा जैसे आप चाहते हो, भूल-चूक उसमें होगी। लेकिन भूल-चूक हुई नहीं कि हमें मिल गया बहाना, ‘अरे! देखो, फँसा दिया। एकदम गड़बड़ कर दी। पहले सब ठीक चल रहा था, कहीं कोई बाधा, विषाद नहीं आता था। अब देखो, ये पता नहीं कौनसी सही राह बतायी है, इसमें दिक़्क़त आ गयी।’

सही राह में दिक़्क़त नहीं है, दिक़्क़त इस बात में है कि आपको उस सही राह का कोई अनुभव नहीं है। वो आपके लिए बिलकुल नयी चीज़ है। आप उसपर चलोगे तो लाज़िमी है कि लड़खड़ाओगे। लड़खड़ाने को बहाना मत बना लेना।

लड़खड़ाना तो एक तरह से एंट्री टिकट है। जब एक्सप्रेसवे शुरू होता है तो आरंभ में ही क्या आ जाता है कई बार — टोल। तो लड़खड़ाहट वैसी ही है। सही रास्ते पर चल रहे हो न, तो आओ ज़रा पहले भुगतान करो। और भुगतान क्या है — कि पहले ठोकर लगेगी, पहले चोट लगेगी। ये थोड़े ही है कि गये वहाँ पर, देखा, ‘अरे! टोल बूथ है, यू-टर्न ले बेटा! घुसेड़ दे गाँव वाली कच्ची गली में।’

आपमें से कई लोगों में कुछ उत्साह का संचार हो गया होगा। वो जाएँँगे, कुछ आज़माएँँगे। आजमाएँगे, चोट लगेगी। चोट लगेगी तो कहेंगे, ‘भक्क! हम भी किसके झाँसे में आ गये!’

तो पहले ही आगाह कर रहा हूँ चोट तो लगेगी। उसमें राह की ग़लती नहीं है, उसमें आपके अनाड़ीपन का दोष है। ज़िन्दगीभर आपने अपनी गाड़ी रिवर्स गियर में चलायी है और आप बिलकुल प्रवीण हो चुके हो उसमें। बैठ जाते हो, रिवर्स में गाड़ी चलाते हो, कहीं कोई एक्सीडेंट (दुर्घटना) नहीं होता। तुम दनादन देखते हो इधर रियर व्यू में और चलती जाती है गाड़ी।

अब पहली बार आप प्रयोग करोगे गाड़ी सीधी चलाने का लेकिन आदतें तो पुरानी हैं न, तो गाड़ी चलाओगे तो सीधी, देखोगे अभी भी कहाँ? रियर व्यू में और जाकर भिड़ी, भड़ाम! और आप कहते हैं कि संस्था से ही उगाहते हैं ये जितना हमारा इसमें खर्चा आया है। आज तक पीछे देखकर चलाते थे, कोई भिड़ंत नहीं, कोई तकलीफ़ नहीं, मस्त चलते थे अपना। कहाँ की पट्टी पढ़ा दी कि सीधे चलाओ!

अहंकार कहाँ मानता है उसका दोष है। कुछ भी हो जाए दोष किसी और का है। मैं तो नन्हा सा, मुन्ना सा; निर्दोष, मासूम, बेचारा। इसलिए तो अंडरटेकिंग साइन (उपक्रम पर हस्ताक्षर) कराते हैं‌ कि यहाँ से जाने के बाद जो भी उपद्रव करोगे, ज़िम्मेदारी तुम्हारी है। यहाँ मत चढ़ आना कि ये हो गया वो हो गया।

आपमें से जिन्होंने कभी स्पोर्ट्स (खेल) खेले हों वो भली-भाँति जानते हैं कितना मुश्किल होता है टेक्नीक करेक्ट (तकनीक को सही) करना। भारत में आमतौर पर आप जब भी कुछ खेलना शुरू करते हैं बचपन में तो कोचिंग वगैरह उपलब्ध नहीं होती। वो आप ही अपने गली-मोहल्ले, स्कूल में कुछ खेलने लग जाते हैं — क्रिकेट हो, टेनिस हो, कुछ भी हो; स्क्वैश हो, कुछ भी हो। तो आप ठीक से बल्ला भी नहीं पकड़ते या रैकेट भी नहीं पकड़ते। या बॉलर हो तो जैसा आपका बना, वैसा आपका एक्शन हो जाता है, वैसे ही बॉलिंग करना शुरू कर देते हो।

फिर एक स्तर पर आकर के आपको एक कोच मिलता है और वो कोच आपको इसलिए चाहिए होता है क्योंकि जैसी आपने अपनी टेक्नीक बना ली है, उसके साथ आपका खेल अब आगे नहीं बढ़ सकता। आपकी जो टेक्नीक है उसके साथ आप एक तल तक आ सकते हो, उससे आगे नहीं बढ़ पाओगे। तो फिर आपको क्या चाहिए होता है — *कोच*।

और कोच कहता है, ‘ये कैसे तुमने रैकेट पकड़ रखा है, ऐसे थोड़े ही पकड़ते हैं।’ और बहुत-बहुत मुश्किल होता है रैकेट को सही तरीक़े से पकड़ना क्योंकि आप दस साल से ग़लत तरीक़े से पकड़ रहे थे। आगे की बात सुनिए, दस साल तक रैकेट को ग़लत पकड़कर ही सही आपने कुछ महारत हासिल कर ली थी, आपका खेल एक तल पर आ गया था। अब कोच आता है, कोच कहता है, ‘रैकेट ऐसे नहीं पकड़ना, ग्रिप (पकड़) बदलो, ऐसे पकड़ो। और खड़े भी ऐसे नहीं होते, स्टांस (खड़े होने की मुद्रा) बदलो अपना।’

आप पाते हो कि अचानक आपका खेल एकदम ख़राब हो गया है। ग़लत टेक्नीक के साथ ही सही लेकिन पहले आप कुछ लोगों को हरा लेते थे। अब जब आपकी टेक्नीक ठीक की गयी है तो आप उनसे भी हारने लग गये जिनको आप आसानी से हरा लेते थे। तो आप कोच के पास जाते हो, कहते हो, ‘भाड़ में जाए तुम्हारी टेक्नीक , मुझे फ़ायदा कहाँ हो रहा है! मैं तो उन लोगों से भी हारने लग गया जिनको पहले हरा लेता था।’

और ये निश्चित रूप से होता है। जब आपमें सुधार लाया जाता है तो आरम्भ में आपका जीवन और आप जिस तरह के परिणाम प्रदर्शित कर रहे होते हैं वो थोड़े ख़राब होते हैं। इसमें दोष कोच का नहीं है, इसमें दोष आपके जीवन के ग़लत अभ्यास का है जिसमें आपने महारत कर ली है।

शरीर का एक हिस्सा है — कोई हाथ है, कोई पाँव है — उसमें चोट लग गयी थी, आपने बहुत दिनों से उठाया नहीं। उसके बाद फिज़ियोथैरेपिस्ट आये, वो उठवाये, तो देखा है कितना दर्द होता है? आपको फिज़ियोथैरेपिस्ट ने मारा है? ‘नहीं, लेकिन उसके आने से ही तो दर्द हुआ।’ उसके आने से पहले दर्द था? वो अभी नहीं था। वो ग्यारह बजे आया और उसने कुछ कराया और ग्यारह बजकर दस मिनट पर — हाय-हाय! बड़ा दर्द हो रहा है। तो ज़रूर इसमें फिज़ियोथैरेपिस्ट का ही दोष है।

उसका दोष है? क्यों नहीं है दोष? बताओ।

ग्यारह बजे तक कोई दर्द था? कोई दर्द नहीं था। बस हाथ ऐसे चिपका हुआ था। फिर उसने आकर के ऐसे हाथ उठा दिया और घुमा दिया और हाय-हाय! बड़ी पीड़ा! तो ये फिज़ियोथैरेपिस्ट को ही क्यों न ठीक कर दिया जाए बच्चू को! नाहक हमारी सुचारू चलती ज़िन्दगी में दखल दे रहा है, परेशानियाँ पैदा कर रहा है। इतना दर्द खड़ा कर दिया कंधे में! पहले तो कोई दर्द था ही नहीं।

जब भी आपमें कोई सुधार लाया जाएगा, जीवन थोड़ा अस्त-व्यस्त हो जाएगा। दर्द शुरू हो जाएगा। ये चुनाव आपको करना है।

आपका कंधा फँस गया है, आप ये बिलकुल चुनाव कर सकते हैं कि जीवनभर अब उसको ऐसे लटकाए-लटकाए घूमना है। दर्द नहीं होता उसमें। आप उसको ऐसे चिपका लीजिए, बस वो आपका हाथ ऐसा हो गया जैसे लकवा मार गया है। वो अब किसी काम का नहीं है। आप बिलकुल ये चुनाव कर सकते हैं कि आप एक मुर्दा जीवन जियें, जैसे हाथ मुर्दा हो जाता है। और मुर्दा जीवन में कष्ट नहीं होता क्योंकि कोई मुर्दा कभी रोता नहीं।

कष्ट से बचने का ये अचूक तरीक़ा है — ज़िन्दगी को मुर्दा कर लो। फिर कोई कष्ट नहीं होगा।

जैसे कोई हिस्सा शरीर का जब काटा वगैरह जाता है तो उसको पहले सुन्न करते हैं सर्जरी से पहले। करते हैं न? वैसे ही हम अपने मन को ही सुन्न कर लेते हैं, फिर कष्ट नहीं होता। तो एक तरीक़ा ये है जीवन जीने का।

जो दूसरा तरीक़ा है उसमें कष्ट निश्चित रूप से होता है लेकिन सुधार होता है। अब सारी बात इस पर आ जाती है कि आपमें सुधार के लिए प्रेम कितना है। जितना आपको प्रेम होगा उतनी ही तबीयत से आप कष्ट को सह लेंगे, स्वीकार कर लेंगे। सारी बात इसमें आती है कि आपमें ज़िन्दगी कितनी है। या आप मुर्दा होने के लिए बिलकुल तैयार बैठे हैं। उसी ज़िन्दगी को चेतना कहा जाता है।

और फिर ये दो ही तरह के लोग होते हैं — एक, जिन्हें जीना होता है, दूसरे, जो मर जाने के लिए जी रहे होते हैं। इसको और साफ़ तरीक़े से कहूँ तो कुछ ऐसे होते हैं जो जी रहे होते हैं ताकि अमर हो जाएँ और दूसरे, जो जी रहे होते हैं प्रतीक्षा में कि मौत कब आ जाए।

आप किस कोटि के हैं?

अधिकांश लोग बस मौत के इंतज़ार में जी रहे होते हैं; घिसट रहे होते हैं जीवन से। घिसट रहे हैं, घिसट रहे हैं। और प्रमाण ये है कि वो सुधरना नहीं चाहते। जीवन के प्रति आपमें कुछ उत्साह होता, कुछ सम्मान होता तो आप जीवन को और बेहतर-से-बेहतर बनाना चाहते न, चाहे जो भी क़ीमत लगती, चाहे जो भी कष्ट सहना पड़ता।

पर हम कहते हैं, ‘अब ज़िन्दगी अगर निर्जीव, बेजान, मुर्दा सी है, रहे आये ऐसे ही। कष्ट नहीं सहेंगे। देखो क्या है, बीस-चालीस साल जीना है, फिर मर जाना है। काहे के लिए तकलीफ़ सहें!’

एक जीवंत आदमी की यही पहचान होती है, वो तकलीफ़ों के लिए प्रस्तुत रहता है।

‘बताओ-बताओ, और क्या करना है, बताओ। झेलेंगे, कष्ट बहुत होगा, झेलेंगे। पहले ही पता है कि सही रास्ते पर चलेंगे तो चोट लगेगी, ठोकर लगेगी, ग़लती होगी। सही रास्ते को हम जानते ही नहीं, नया है हमारे लिए, कोई पूर्व अनुभव नहीं। परेशानियाँ होंगी पर बताओ, करेंगे। करेंगे।’

क्योंकि अगर वो नहीं कर रहे तो जी किसलिए रहे हैं — खाने-पीने, घर में झाड़ू देने और सो जाने के लिए?

क्या किया? ‘खाये-पिये, घर में झाड़ू मारा, टीवी देखा और सो गये। एक दिन और बीत गया। बला टली! जीने के लिए अभी लगभग साढ़े-तीन-हज़ार और दिन हैं, देखो, बहुत बड़ी चुनौती है, ऐसे ही करके एक-एक दिन अभी हटाना है।’ तो ज़िन्दगी फिर दुश्मन की तरह हो जाती है जिससे किसी तरह से पीछा छुड़ाना है; काट दो इसको बस! छ: घंटे की नींद में काम चल सकता है, बारह घंटे सोओ और जब उठो तो बोलो, ‘देखा, छः घंटे और हटा दिये न!’

मर जाओगे न, तो कष्ट भी झेलने को नहीं मिलेगा। जितना कष्ट झेल सकते हो, मरने से पहले झेल लो। या आख़िरी साँस होगी न, तब इस बात के लिए भी कलपोगे कि यार! थोड़ी तकलीफ़ ही दे दो और कुछ नहीं तो।

तब तकलीफ़ देने वाला भी कोई नहीं होगा। और जब तकलीफ़ों से डरना छोड़ देते हो तो फिर उनमें मज़ा आने लगता है। आध्यात्मिक आनंद इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता — तकलीफ़ों से अब हमें डर नहीं लगता। यही आनंद है। हार गये, पिट गये, कोई बात नहीं। रीढ़ नहीं टूटी है, दोबारा खड़े हो जाएँगे।

क्या बुरा है — हार जाना या मैदान में ही नहीं उतरना?

प्र: मैदान में ही नहीं उतरना।

आचार्य: इतना तो आपने पूछा भी नहीं था। (श्रोतागण हँसते हैं)

प्र: इतना ज़रुरी था, आचार्य जी! मतलब ऐसा लगा कि आईना रख दिया गया सामने। बहुत ही नालायक विद्यार्थी हैं हम। ऐसे ही कोचिंग देते रहिए, मार्गदर्शन करते रहिए। धन्यवाद! बहुत-बहुत धन्यवाद!

प्र२: प्रणाम आचार्य जी। लगभग ऐसी ही परिस्थिति हमारे साथ भी है। हम लोग अपनेआप को कम आँकते हैं और नहीं जूझते, नहीं उतरते मैदान में, तो वो संभावना भी नहीं पता चलती।

लेकिन एक और बात से आप चेताते हैं, अगर हम ग़लत नहीं समझे उसको, कि कुछ अगर हमें सही बात पता चल गयी है तो एक जुनून आने लगता है कि दौड़ पड़ते हैं, एकदम मैदान में उतर जाते हैं। माया के गढ़ में जाकर चुनौती दे देते हैं, फिर इतना उल्टा पड़ता है कि और गिर जाते हैं। तो विवेक की कमी है। लेकिन उस समय पर चुनाव भी करना होता है तो वहाँ पर क्या अभ्यास लगेगा?

आचार्य: दोनों बातें लगेंगी। बल्कि दो नहीं चार बातें लगेंगी। सबसे पहले तो जितना अभ्यास बढ़ा सकते हो, बढ़ाओ। अभ्यास बढ़ाने के बाद भी ग़लतियाँ होंगी, उन ग़लतियों के लिए तैयार रहो। क्रिकेट से उदाहरण देता हूँ। क्रिकेट देखते हो?

प्र: जी।

आचार्य: वो क्षण याद करो, एक लेग स्पिनर है वो गेंद डाल रहा है और जो बल्लेबाज़ है वो उसको उछालकर मारने के लिए आगे बढ़ रहा है। उस क्षण में उस बल्लेबाज़ के शरीर का तनाव समझो। उसे कितनी चीज़ों का ध्यान रखना है। एक छोर पर तो उसे छ: रन चाहिए और दूसरा छोर ये है कि ठीक से नहीं लगा तो कैच होगा। और तीसरा छोर ये है कि बिलकुल ही छूट गया तो स्टंप हो जाएगा। उसे कितनी चीज़ों का ख़याल रखना है।

ऐसे खेलना होता है कि छक्का तो मारना है पर ऐसे नहीं कि अंधा-धुंध घुमा दिया। और ये भी नहीं है कि विकेट बचाने के लिए बल्ला ही नहीं घुमाया। बल्ला भी घुमाना है लेकिन विकेट भी बचाना है।

प्र: उदाहरण के लिए, प्रतीत होता है क्रिकेट में कि आगे क्या होगा, जब ज़िन्दगी में कुछ अपेक्षतया बड़ा चुनाव लेना होता है तो दिख नहीं रहा होता है आगे ये सब आने वाला है, बस दिख रहा होता है कि चुनौतियाँ हैं। तो हम बस ये सोचकर कि ये सही है, बिलकुल उल्टा भी पड़ेगा तो बस हमें तैयार रहना है उसके लिए, इस पर उतर जाएँ?

आचार्य: बिलकुल तैयार रहना है और अपनी अधिकतम क्षमता का उपयोग करना है। मैंने दो बातें बोलीं — अधिकतम क्षमता का उपयोग करो लेकिन उसका उपयोग करने के लिए पता होना चाहिए कि अधिकतम क्षमता कितनी है।

अधिकतम क्षमता कितनी है — इसको अच्छे से समझ लो। जितना तुम सोचते हो तुम्हारी अधिकतम क्षमता है उससे थोड़ी सी ज़्यादा है। तो उससे ज़्यादा नहीं है अभी। हाँ, जितना तुम सोचते हो उससे ज़्यादा है। तो थोड़ा साहस दिखाना लेकिन अंधे कुएँ में नहीं कूद जाना है।

तो जितना सोचते हो उससे ज़्यादा हो तुम और उसका उपयोग करो। पूरा-पूरा उपयोग करो। लेकिन जाकर के ट्रक के ही सामने खड़े हो जाओगे और कहोगे कि मैं अपना जितना वज़न समझती हूँ उससे छ:-सौ गुना ज़्यादा है, तो मुझे नहीं कुछ होगा, ट्रक टूट जाएगा — ऐसा नहीं होगा।

देखो, मंज़िल तक पहुँचने के लिए दो बातें ज़रूरी होती हैं न — पहली बात तो ये कि तुम चलो और दूसरी बात ये कि दुर्घटना कम-से-कम हो। आप ये भी नहीं कर सकते कि दुर्घटना बचाने के लिए आपने अपनी चाल ही दस की कर दी। कह रहे हैं कि देखो, मंज़िल तो बहुत आवश्यक है, उस तक पहुँचना है तो अपनी गति हम कर देंगे दस किलोमीटर प्रति घंटा की। कब पहुँचोगे? जीवन अनन्त है क्या? पहुँचने से पहले ही मर जाओगे।

और ये भी नहीं कर सकते कि अपनी क्षमता का बिलकुल पता नहीं, नया-नया स्टियरिंग हाथ में आया है और भगा दी गाड़ी और फुटवा लिया सिर।

तो मैं एक तरफ़ तो उत्साहित करता हूँ और दूसरी तरफ़ सावधान भी करता हूँ। ठीक वैसे ही जैसे वो जो बल्लेबाज़ छक्का मारने के लिए आगे बढ़ रहा होता है उसमें एक ओर तो उत्साह होता है दूसरी ओर पूरी-पूरी सावधानी। उसे बहुत ऊँची उछाल के मारनी है — स्टैंड्स में पहुँच जाए, इतनी मारनी है — लेकिन उसको ये भी पता है कि इसी क्षण उसका विकेट भी जा सकता है। लेकिन होते हैं बल्लेबाज़, वो एक ही पारी में पाँच-पाँच छक्के मार देते हैं, दस भी मारे हुए हैं, और ऐसे भी होते हैं जो पहली बार बल्ला घुमाते हैं और खेल ख़त्म।

प्र: जैसे आध्यात्म की शुरुआत में ये विवेक ही है जो इसमें सहायता करता है कि आपको सावधानी रखनी है। इतना विवेक नहीं है तो बस यही है कि ध्यान रखते रहें कि एक ये भी संभावना रखें कि शायद ये अति में जा रहा है।

आचार्य: जितना तुम कर सकते हो उससे थोड़ा सा ज़्यादा करो। कोई ज़रूरत नहीं है कि क्रीज़ छोड़कर एकदम आगे निकल गये और बीच में खड़े हो गये। इतना तो कर सकते हो कि क्रीज़ में खड़े-खड़े ही थोड़ा-थोड़ा, थोड़ा ज़्यादा कोशिश कर लें।

प्र: जी।

आचार्य: बॉल गयी है एक रन आसानी से होगा, थोड़ा ज़्यादा तेज़ दौड़ करके क्या उसको दो बना सकते हैं? थोड़ा सा अतिरिक्त कुछ कर सकते हैं?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories