निष्कामता ही श्रेष्ठ जीवन है || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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निष्कामता ही श्रेष्ठ जीवन है  || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन। न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ।।१८।।

इस संसार के कर्मों के अनुष्ठान से निष्कामी मनुष्य को कोई प्रयोजन नहीं रहता फिर, और ऐसे मनुष्य को कर्मत्याग की कोई आवश्यकता नहीं रहती। ऐसे मनुष्य के लिए संसार में किसी प्रयोजन की सिद्धि हेतु आश्रय करने योग्य भी कुछ नहीं है।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, तीसरा अध्याय, कर्मयोग, श्लोक १८

आचार्य प्रशांत: “इस संसार के कर्मों के अनुष्ठान से निष्कामी मनुष्य को कोई प्रयोजन नहीं रहता फिर।” जो इस संसार में साधारण कर्म चक्र चलता है, वो कहता है, ‘ये चलने दो, मुझे पता है मुझे क्या करना है। दुनिया अपना खेल देखे, मैं अपना खेल देखूँगा।‘

“और ऐसे मनुष्य को कर्मत्याग की कोई आवश्यकता नहीं रहती।” न वो ये कहता है कि, ‘मैं कुछ कर्म करूँगा ही नहीं।’ वो कहता है, ‘करूँगा, पर वो नहीं करूँगा जो तुम करते हो।’ न तो वो दुनिया के कर्मानुष्ठान में लिप्त होता है, न ही वो कर्म का त्याग कर देता है। ये महीन बात है, समझो! सूक्ष्म चीज़ है।

जीना है खुलकर, खेलना है, पक्के खिलाड़ी की तरह खेलना है, पर वो खेल नहीं खेलना है जो ये सब खेल रहे हैं; ये गली क्रिकेट खेल रहे हैं। छी! प्लास्टिक की गेंद से। बैडमिंटन के रैकेट को क्रिकेट का बल्ला बनाकर। तुम्हें इनका खेल काहे को खेलना है? इनके खेल में क्या पाते हो? बस कुछ नहीं – पड़ोस की आंटी का शीशा तोड़ दिया, वो रोज़ गाली देती है। इस खेल में तुम चैम्पियन बन भी गए तो क्या मिलेगा? प्लास्टिक की गेंद, बैडमिंटन का बल्ला, ये खेल नहीं खेलना है, हम बड़ा खेल खेलेंगे।

न तो साधारण कर्मानुष्ठान में लिप्त होना है, और न ही कर्मत्याग कर देना है। घोर कर्म करना है, जज़्बे से खेलना है, जान लगा देंगे, आनंद आ जाएगा। दिल से चाहेंगे, डूबकर जिएँगे – ये कृष्ण का उपदेश है। हल्का-फुल्का नहीं, ज़िंदगी में उबाल चाहिए। गुनगुनी ज़िंदगी नहीं चलेगी, उबलती-खौलती ज़िंदगी चाहिए। वो सब नहीं कि थोड़ा है थोड़े की ज़रूरत है। हट! मध्यमवर्गीय मन, मध्यमवर्गीय जीवन।

ये (गीता) एक इलीट डॉक्यूमेंट है, उत्कृष्टता है इसमें। इससे प्यार वही कर पाएँगे जिन्हें ऊँचाइयों से प्यार है, जिन्हें एक्सीलेंस , पूर्णता, परफेक्शन , उत्कृष्टता चाहिए। जिनको ऐसे ही बीच में पड़े रह जाना है, मिडलिंग , मध्यमवर्गीय, मिडिऔकर , उन्हें गीता रुचेगी ही नहीं। वो कहेंगे, 'क्या है? ठीक है, ऐसे ही चल तो रहा है। क्या हो गया? छोटू, चाय पिला दे!’ हो गया।

उनको इसी में सुख है – छोटू चाय पिला दे! और चाय ठीक नहीं है तो छोटू को थप्पड़ मार दिया। छोटू को थप्पड़ मार दिया, छोटू की मम्मी आ गई, उसने दो गाली सुना दी। इनको चाहिए ही यही था कि बातचीत शुरू हो क्योंकि दो दिन से बातचीत नहीं चल रही थी उससे। जब उसने गाली सुनाई तो उसके पीछे-पीछे गए, कमरे में घुस गए, हो गया। और क्या चाहिए? क्या करना है कृष्ण का? पुराना सड़ा हुआ बिस्तर जो आवाज़ें करता है, छोटू की मम्मी और मैं, गंधाता तकिया। ऐ.सी , बुड़बुड़-बुड़बुड़ जो शोर करता है, चला दो। उससे जो कमरे का शोर है, वो पता नहीं चलेगा। हो गया बस!

करना क्या है कृष्ण का, गीता का? इतने में ही सुख मिल जाता है, इतने में ही तर गए, तृप्त हो गए इतने में ही। तृप्ति पूरी, आहा! दो-तीन घंटे खर्राटें मारेंगे। ये उथले लोग हैं। ये उथला पात्र है जो बहुत आसानी से भर जाता है, इसमें दो बूंद डाल दो ये भर जाता है। इसको इससे ज़्यादा कुछ चाहिए ही नहीं ज़िंदगी से।

कृष्ण उनके लिए हैं जिनमें अथाह गहराई हो। जो कह रहे हों, ‘पूरा समंदर चाहिए, प्यास हमारी इतनी गहरी है।’ जो थोड़े में ही भर जाते हों, गीता का उनके लिए कोई उपयोग नहीं। जिनको जीवन से और चाहिए, और चाहिए, और चाहिए, जो कह रहे हैं, ‘ये ज़िंदगी है, इसे छककर पीना है’, कृष्ण उनके लिए हैं। नहीं समझ में आ रही बात?

और यही वजह है कि जो कृष्ण का प्रचलित रूप है, भारत में जो स्वीकार्य रूप है, वो गीता का बहुत कम है। भारत ने कृष्ण को स्वीकार तो खूब किया पर किस तरीके से? बंसी-बजैया, माखन-चुरैया, बाल-गोपाल, सुदामा के मित्र, ग्वालों के सरताज, गोपियों के साथ क्रीड़ा कर रहे हैं, नन्हें से हैं, वो इधर-उधर जाकर मटकी फोड़ दी, बछड़े के साथ खेलने लग गए; भारत को कृष्ण का वही रूप ज़्यादा पसंद आया क्योंकि गीता के कृष्ण बहुत खतरनाक हैं। गीता के कृष्ण में और ये जो कृष्ण का प्रचलित रूप है, इनमें वास्तव में कोई समानता, कोई मेल है ही नहीं। बल्कि भारत ने तो ये कर दिया कि घरों में महाभारत मत रखना लड़ाई हो जाती है। महाभारत नहीं रखोगे तो गीता कैसे रखोगे बेटा? और फिर गीता रख ली तो महाभारत भी रख ली। गीता तो महाभारत का ही अंश है।

कृष्ण के साथ, वास्तविक कृष्ण के साथ हमने ये सलूक किया है। और हमें कौनसा कृष्ण पसंद आता है? वो छोटे से बना लो, उनको दही चटा दो, उनको खीर चटा रहे हैं, उनको लेकर घूम रहे हैं। और ऐसों से पूछो, ‘गीता?’ कहेंगे ‘हैं! देखो दिल के कमज़ोर हैं हम, हमसे इस तरह की बातें न किया करो।’ बाकी बड़ा अच्छा है, मंदिर में कृष्ण हों उनके बगल में राधा हों, वहाँ जाकर के अपना बैठे हुए हैं, अपना नाच-वाच रहे हैं।

मैं तो इतनी बार पूछता हूँ, ‘कृष्ण ने अर्जुन को नाचने को काहे नहीं बोला?’ अगर जो तुम कर रहे हो वो कृष्ण की सीख है, तो कृष्ण अर्जुन को बोलते, 'सबसे पहले तो बाल घुटाओ, उसके बाद लगो नाचने बीच में। हरे रामा हरे कृष्णा बोलकर लगो नाचने, नाचो खूब नाचो!’ कुरुक्षेत्र में अर्जुन नाच रहा है! क्या कृष्ण ने सिखाया और क्या कृष्ण के नाम पर हम कर रहे हैं! क्योंकि असली कृष्ण हमारे लिए बड़े खतरनाक हैं, वो तोड़ देते हैं हमें। वो कहते हैं, ‘बाकी सब छोड़, मामेकं शरणम व्रज।‘

न कर्मानुष्ठान से उसे कोई मतलब है, न कर्मत्याग से। फिर, “ऐसे मनुष्य के लिए संसार में किसी प्रयोजन की सिद्धि हेतु आश्रय करने योग्य भी कुछ नहीं है।”

माने किसी के साथ उसका स्वार्थ सम्बन्ध नहीं है। ये नहीं कहा है कि दुनिया में किसी से सम्बन्ध ही नहीं है, कहा है कि किसी से भी स्वार्थ सम्बन्ध नहीं है। समझो!

अब दिक्क़त ये हो जाती है कि हमारे बहुत सारे सम्बन्ध हैं, पर सब स्वार्थ सम्बन्ध हैं। तो जब कहा जाता है सम्बन्ध तो रखो, खूब रखो लेकिन स्वार्थ सम्बन्ध मत रखो, तो हम बगलें झाँकने लगते हैं। क्योंकि स्वार्थ हटा दिया तो हमारा एक-एक सम्बन्ध गिर जाएगा। कृष्ण कह रहे हैं, ‘सम्बन्ध तो पूरी दुनिया से रखो और गहरा रखो, प्रेम का रखो; स्वार्थ मत रखो बस।’ फिर गीता इसलिए खतरनाक हो जाती है। है न?

स्वार्थ माने कोई लाभ की बात नहीं होती। आपके स्वार्थ में आपका लाभ नहीं है, आपके स्वार्थ में आपका नुकसान है, इसलिए आपको कहा जा रहा है स्वार्थ हटाओ। अध्यात्म इसलिए नहीं है कि जहाँ-जहाँ पर आपको मज़ा आ रहा हो, वहाँ-वहाँ पर मज़ा कैंसिल कर दिया जाए। लोगों को ऐसा ही लगता है। माँ-बाप को पता चलता है कि लड़का अध्यात्म की ओर जा रहा है – आचार्य जी के शिविर में चला गया तो? मातम हो जाता है, बिलकुल।

स्वार्थ छोड़ना है, छोटी चीज़ छोड़नी है बड़ी चीज़ पाने के लिए। स्वार्थ जानते हो कैसा होता है? स्वार्थ ऐसा होता है जैसे कि मैं इस माइक का इस्तेमाल करने लगूँ पेपरवेट की तरह। ये माइक बहुत कुछ कर सकता है न, पर स्वार्थ उससे बस छोटा-सा कोई लाभ लेना चाहता है, क्षुद्र लाभ। आपके पास मोबाइल हो, मान लीजिए महँगा वाला एप्पल का है, और इस्तेमाल उसका आप कैसे कर रहे हैं? पेपरवेट की तरह। स्वार्थ ऐसा होता है। कि जहाँ बड़ा लाभ हो सकता था, वो बड़ा लाभ गँवाकर आप उससे कोई छोटा लाभ ले रहे हैं – ये स्वार्थ होता है।

अध्यात्म इसलिए स्वार्थ को मना करता है क्योंकि बड़े लाभ से चूक जाओगे। आपका छोटा लाभ नहीं छीना जा रहा, आपको बड़ा लाभ दिया जा रहा है। पर बड़ा लाभ हमको दिखता नहीं क्योंकि वो दूर की बात है। और हमने उसका अनुभव तो कभी करा नहीं है। बड़े लाभ का हमारा अतीत में कोई अनुभव नहीं है; छोटे-छोटे लाभों का हमको बहुत अनुभव है। तो जब छोटा लाभ हटता है तो हम डर जाते हैं, हम कहते हैं, ‘सबकुछ हट गया।’

सबकुछ नहीं हट गया। थोड़ा भरोसा रखो, थोड़ी श्रद्धा करो, कुछ बहुत बड़ा मिलेगा। जो लोग वो श्रद्धा दर्शा पाते हैं, वो बड़ा पा भी जाते हैं। और जो संदेह में ही घिरे रह जाते हैं, जिनकी शंका ही प्रबल रहती है कि, ‘अरे नहीं! दाल में कुछ काला-पीला, नारंगी, गुलाबी है’, वो फिर रंग ही गिनते रह जाते हैं। गिनो जितने रंग गिन सकते हो, कुछ नहीं पाओगे, ज़िंदगी इतनी-सी है, मर जाओगे। समझ में आ रही है बात?

आपको पुलक नहीं उठती भीतर से ये सुनते हो तो?

‘ऐसे मनुष्य के लिए संसार में आश्रय करने की अब कोई बाध्यता नहीं रह गई। किसी प्रयोजन की सिद्धि हेतु आश्रय करने योग्य कुछ नहीं बचा।‘

आश्रय करने योग्य माने किसी के स्वामित्व ग्रहण करने योग्य। जब आपके पास बड़ी कामनाएँ रहती हैं न तो आपको झुकना पड़ता है। कृष्ण यहाँ पर कह रहे हैं, ‘जो ऐसा हो जाता है जैसा मैं बता रहा हूँ, उस आदमी को अब ज़िंदगी में कभी झुकना नहीं पड़ता, उसे किसी का आश्रय नहीं लेना पड़ता।’ क्यों? क्योंकि उसके पास कोई स्वार्थ नहीं है तो वो अपना मालिक स्वयं होता है, वो किसी दूसरे के आश्रय के नीचे नहीं रहता।

(मुस्कुराते हुए, उत्तेजक स्वर में) अच्छा-सा नहीं लग रहा कुछ? एक्साइटिंग (उत्तेजक) नहीं लग रहा? अरे मेरा मन रखने को ही बोल दो!

(श्रोतागण हँसते हैं)

दबकर नहीं रहने का! मज़ा नहीं आ रहा? दबना क्यों पड़ता है? जब स्वार्थ होता है तो दबना पड़ता है। बस इतनी-सी बात बता रहे हैं। और मौज आ जाती है जब निर्द्वंद्व जीते हो, निर्भय। अब वो कर सकते हो जो सही है।

तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ।।१९।।

इसलिए अर्जुन, अनासक्त होकर के सतत (लगातार) कार्य करते रहो (समाचरण करते रहो) क्योंकि व्यक्ति निष्काम कर्म करके श्रेष्ठ पद प्राप्त करता है।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, तीसरा अध्याय, कर्मयोग, श्लोक १९

काम करने से रुकना नहीं, कुछ छोड़ नहीं देना है, कर्मसन्यास या कर्मत्याग की कोई बात ही नहीं है, तुम्हें लगे रहना है। ‘इसलिए अर्जुन असक्त माने अनासक्त होकर के सतत, लगातार कार्य करते रहो। समाचरण करते रहो।‘ सम-आचरण, सही आचरण, माने सही कर्म लगातार करते रहो। क्योंकि ‘व्यक्ति निष्काम रहकर, निष्काम आचरण करके, निष्कामकर्म करके, श्रेष्ठ पद प्राप्त करता है’। जीवन में जो भी ऊँचे-से-ऊँचा, श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठतर हो सकता है, वो निष्कामकर्म से ही मिलेगा। पीछे नहीं हटना है। पीछे आपको आपकी कामनाएँ हटाती हैं। ग़ौर से देखिएगा!

आप सोचते हो कामना से ऊर्जा मिलती है कुछ पाने की। मैं कह रहा हूँ कामना से भय मिलता है हारने का। सोचकर देखिएगा! आपको लगता है जब इच्छा होगी तो उससे ऊर्जा आएगी और हम कुछ करके दिखाएँगे। नहीं! जब इच्छा होती है न तो उसके साथ आता है भय, और भय आपको जमकर लड़ने नहीं देता। इच्छा प्राप्ति का कारण नहीं बनती, इच्छा हार की वजह बनती है। जो जीत की इच्छा लेकर लड़ रहा है, वो हमेशा हारेगा उससे जो बस लड़ने के लिए लड़ रहा है।

क्योंकि अगर आपमें ऊर्जा इच्छा की पूर्ति के भाव से आती है तो जब आपको दिखाई देगा कि इच्छा पूरी होती अब सम्भव नहीं लगती, तो आपकी ऊर्जा भी ढल जाएगी। लेकिन जो इच्छापूर्ति के लिए नहीं बल्कि अपनी मौज के लिए, अपनी ठसक में, अपने धर्म की खातिर लड़ता है, उसकी ऊर्जा कभी नहीं गिरेगी; वो मर सकता है पर पीछे नहीं हट सकता। इच्छा आपको जितवाती नहीं है, इच्छा आपको हरवाती है।

ज़ेन सिखाने में होता है; वो कहते हैं – कई तरीके हैं जापान में ज़ेन शिक्षा देने के, उसमें एक ये भी होता है – तीर मारना है निशाने पर, सामने। तो जो ज़ेन मास्टर होता है वो अभ्यास कराता रहता है, कराता रहता है और उसकी ज़ेन शिक्षा तब पूरी मानी जाती है जब उसमें तीर को निशाने पर मारने की कोई इच्छा, माने कोई विचार शेष नहीं बचता। अब वो बस धनुष उठाता है, तीर साधता है, मार देता है, निशाने पर लग जाता है, ये ‘ज़ेन माइंड’ है। कहते हैं अब ये ज़ेन माइंड हो गया, ज़ेन माने ध्यान।

अब ये ज़ेन माइंड है। कोई इच्छा नहीं है, बस कर रहा है। अब ये हारेगा नहीं, अब इसका निशाना चूकेगा नहीं। पहले इसको इच्छा थी निशाने पर मारने की तो ये चूकता था। इच्छा हार का कारण बनती है, ये बात आसानी से समझ में नहीं आएगी क्योंकि हम तो इच्छा के चलाए ही चलते रहे हैं आजतक। तो हमें समझ में ही नहीं आएगा कि इच्छा हार का कारण कैसे बनती है। इच्छा हार का कारण बनती है।

कभी किसी ऐसे से मत भिड़ जाइएगा जो निस्वार्थ लड़ाई लड़ रहा हो, जिसके पास इच्छा न हो बस निष्कामता हो, और उसकी निष्कामता उसको लड़वा रही हो। उससे लड़ मत जाइएगा, आप हारेंगे ही हारेंगे उससे। क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछ है ही नहीं, न उसे पाने की कोई इच्छा है; उसे हरा कैसे लोगे तुम? वो कैसे हारेगा? हार ही नहीं सकता। वो तो लगा ही रहेगा, लगा ही रहेगा, लगा ही रहेगा। हाँ, मर जाए तो अलग बात है, पर ज़िंदा है तो लगा ही रहेगा, हारेगा नहीं। सौ बार हारकर भी नहीं हारेगा वो। कुछ आ रही है बात समझ में?

ये जीने का एक नया तरीका बता रहे हैं कृष्ण, आप शायद इससे परिचित न हों। पर थोड़ा भरोसा करके आज़मा कर देखिए।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमस्ते। जैसे कोई कला विकसित कर रहे होते हैं हम तो उसमें एक इच्छा रहती है कि उसमें हम बेहतर हो जाएँ। थोड़ा-सा स्वार्थ रहता है। जैसे मैं गिटार बजाता हूँ तो अगर कुछ सीख रहा हूँ, कुछ नया कोर्स वगैरह कर रहा हूँ तो उसमें मुझे फिर एक अभिमान आ जाता है। तो निष्कामता को इस सन्दर्भ में कैसे देखें अगर मुझे बेहतर बजाना है तो?

आचार्य: क्यों बेहतर होना है?

प्र: ताकि मैं जो भी बजा रहा हूँ वो अच्छे से कर सकूँ।

आचार्य: क्यों बेहतर होना है और, बताओ?

प्र: कहीं-न-कहीं मन में ये छवि तो आ जाती है कि बीस लोग तालियाँ बजाएँ, ये सब चीज़ें।

आचार्य: तो फिर बेहतर नहीं हो पाओगे न। क्योंकि जो ताली बजाने वाले हैं, उन्हें पता भी है अच्छा संगीत क्या होता है? आप हो ही नहीं पाओगे बेहतर। नहीं हो पाओगे न?

एक बल्लेबाज है, जो इसलिए खेलता है कि लोग ताली बजाएँगे, वो घटिया बल्लेबाज ही रह जाएगा। क्योंकि एक अच्छा ब्लॉक करने पर या गेंद को अच्छे से छोड़ने पर लोग कभी ताली बजाते हैं क्या? लोग तो ताली तभी बजाते हैं जब गेंद को उछाल दो। अब गेंद को उछालना तो स्लॉगर का काम होता है। वो घटिया ही बल्लेबाज रह जाएगा जीवनभर क्योंकि वो ताली के लिए खेल रहा है।

गिटार भी तभी बेहतर बजा पाओगे जब निष्कामभाव से सीखो गिटार बजाना। जो स्वार्थ के लिए सीख रहा है, वो सीख ही नहीं पाएगा। जिसने सीखने में स्वार्थ जोड़ दिया वो स्वार्थ ही उसको सीखने से वंचित कर देगा। शुभांकर मेरे साथ स्क्वाश खेलने जाता है। अब मेरी सर्विस ज़रा तेज़ है और उसका बैकहैंड ज़रा कमज़ोर है। काफ़ी कमज़ोर है। तो सर्विस आती है तो उसको इतना समय ही नहीं मिलता कि वो रैकेट को पूरी स्विंग दे पाए। अब पूरी स्विंग आप नहीं दोगे तो आपके रिटर्न में पावर तो होगा नहीं। पर उसको स्वार्थ ये है कि किसी तरह से पॉइंट मिल जाए।

तो क्या करता है कि वो सर्विस आती है, उसको बस किसी भी तरीके से रैकेट को छुआ देता है बस। और सर्विस तेज़ आती है अगर और उसने रैकेट छुआ भी दिया तो क्या होता है? वो दीवार तक चली जाती है। और वो इतनी कम गति से जाती है कई बार, इतनी कम गति से जाती है क्योंकि आड़ा-तिरछा, कुछ भी करके छुआ है तो उसमें पावर तो आता नहीं तो गेंद ऐसे धीरे-धीरे जाकर के दीवार को छू जाती है और उसको पॉइंट मिल जाता है।

तो उसको स्वार्थ जुड़ गया है इसी बात से कि वो रैकेट बस ऐसे छुआ देता है और उसको पॉइंट मिल जाता है। वो कभी सीख ही नहीं पाएगा बैकहैंड । मैं बार-बार बोल रहा हूँ कि जीतो कि हारो, रैकेट को पूरी स्विंग दो बैकहैंड में, नहीं तो कभी नहीं सीखोगे। जिसने सीखने में भी स्वार्थ जोड़ लिया, वो कुछ सीख ही नहीं पाएगा। समझ में आ रही है बात?

तालियाँ ज़रूर मिलती रहेंगी। ताली बजाने वाले ही गँवार हैं, उन्हें क्या आता है? तुम उनकी तालियों के लिए सीखोगे? वो तो यही कहेंगे, ‘गुलाबी ऑंखें बजा दो गिटार पर।‘ और तुम गिटार पर बजा दोगे हैप्पी बर्थडे टू यू , वो तो मग्न हो जाएँगे। क्या बजाया? क्या बजाया? 'गुलाबी ऑंखें जो तेरी देखीं'। गिटार पर और क्या होता है? लोगों को तो यही चाहिए, उन्हें क्या पता है? संगीत जानते हैं वो? क्षुद्र लाभ से नज़रें हटाना सीखो, बड़ा माँगो। अगर गिटार भी सीख रहे हो तो जो बड़ी-से-बड़ी चाहत हो सकती है गिटार में, वो करो। बोलो, ‘जितने परफ़ेक्शन के साथ बजा सकता हूँ, बजाऊँगा।‘ ये मत माँगो कि लोगों की तालियाँ मिल जाएँ इसलिए बजाऊँगा।

निष्कामता का अर्थ है उच्चतम कामना!

प्र: और जैसे किसी के साथ हम खेल रहे हैं, जैसे कि आप कह रहे हैं, वो एक चीज़ हो गई। और फिर अगर हम अकेले में अभ्यास कर रहे हैं या सीख रहे हैं तो वहाँ पर अपने-आपको मोटिवेशन (प्रेरणा) कैसे दें?

आचार्य: आपने अपने-आपको मोटिवेटेड रखने के लिए मान लो ऐसा गिटार बजाया, ऐसा गिटार बजाया और कोई सेक्सी लड़की मौजूद थी, उसने बड़ी ताली बजाई और ताली बजाने के बाद जब सब ख़त्म हो गया तो पास आती है, कहती है, ‘ कैन वी हैव कॉफी प्लीज? (कॉफ़ी पीने चलें?)’ ये तुम सीख रहे हो? इसमें तुम क्या सीखोगे गिटार? अपने-आपको गिटार सिखाने के लिए अगर तुम ये मोटिवेशन दे रहे हो तो इसमें तुम कुछ ऐसा ही बजाओगे जिससे वो आकर्षित हो जाए। और वो ख़ुद ही फ़िज़ूल है। वो किस चीज़ से आकर्षित होगी? वो कुछ ऐसे ही उल्टा-पुलटा, वो आ जाएगी तुम्हारे पास कॉफी के लिए। तो तुम कॉफी पियो, गिटार क्यों सीख रहे हो फिर?

परफ़ेक्शन (उत्कृष्टता) से बड़ा मोटिवेशन क्या हो सकता है भाई? वो तुमको नहीं बुलाता? जस्ट द जॉय ऑफ बीइंग ग्रेट एट समथिंग? (किसी चीज़ में पूर्णतया निपुण होने का आनंद) या उसमें तुमको और भी चीज़ें चाहिए थ्रिल-स्प्रिल (रोमांच)? ये सब जो चलता है न आजकल सेल्फ सेल दुकानदारी में कि विजुअलाइज़ (कल्पना) करो कि एक दिन तुम इतना अच्छा गिटार बजा रहे हो, एल्बर्ट हॉल में बैठे हो लंदन के और तुमने गिटार बजाया और सब खड़े हो गए हैं, और स्टैंडिंग ओवेशन मिल रहा है; बहुत मूर्खतापूर्ण बात है। ये करके तो कभी नहीं मिलने वाला स्टैंडिंग ओवेशन

चुपचाप सिर झुका करके अपना काम करना सीखो। सिर झुकाओ, हाथ चलाओ। न कामना करो, न विजुअलाईज़ेशन ; काम करो काम। और फिर उसका तुम निष्काम परिणाम देखना। मज़ेदार बात ये है कि जब परिणाम आएगा तो वो तुम्हारे लिए कोई मायने नहीं रखेगा क्योंकि तुमने परिणाम के लिए काम करा ही नहीं था। वो बस परिणाम आएगा, तुम कहोगे, ‘ठीक है, ये भी आ गया अच्छी बात है। आज बहुत लोगों ने ताली बजा दी, अच्छी बात है। नहीं भी बजाते तो हम पर कोई फ़र्क नहीं पड़ना था। ताली मिले कि गाली, हमें तो परफेक्शन की तलाश है, गिटार सही बजना चाहिए। लोग क्या कहेंगे वो बाद की बात है। हम लोगों के ग़ुलाम थोड़े ही हैं कि उनकी तालियों के लिए बजाएँगे।‘

प्र२: आचार्य जी, ये प्रश्न पिछले प्रश्न से मिलता-जुलता है। मैं एक शिक्षक हूँ तो बच्चों को किस तरह से परफ़ेक्शन के लिए प्रेरित करूँ? जैसे आपने बताया वो तो हुआ स्व-प्रेरित, पर अगर इस बात को शिक्षक होने के नाते किसी को बताना हो तो कैसे किया जाए, उसके लिए मार्गदर्शन दीजिए।

आचार्य: आप बच्चों को प्रेरित मत करिए। बस वो सारे काम मत करिए जहाँ हम इम्परफ़ेक्शन (अपूर्णता) को रिवॉर्ड (प्रोत्साहित) करते हैं। मतलब समझिएगा!

आपको नहीं पता होता कि आप उनके भीतर किस केंद्र को प्रोत्साहित किए दे रहे हो। उदाहरण के लिए किसी काम को करने का एक सही तरीका है। मान लीजिए आप गणित पढ़ाते हैं। अब सवाल को हल करने का एक सही तरीका हो सकता है। और एक चीज़ हो सकती है कि सही उत्तर आएगा, मैं तो ही उसपर कुछ अंक दूँगा। जहाँ सही उत्तर पर अंक दिए जाते हैं, जैसे कि मल्टीपल चॉइस (बहुविकल्पी परीक्षण) वहाँ बिलकुल ऐसा हो सकता है कि आप तुक्केबाजी को प्रोत्साहन दे रहे हों।

आप जो अपनी पूरी परीक्षा प्रक्रिया है उसको बनाइए कि वो प्रोसेस (प्रक्रिया) को प्रोत्साहन दे। उसने सवाल को अगर सही तरीके से हल करने की कोशिश की है तो मैं नम्बर दे दूँगा, भले ही उत्तर उसका ठीक आया है कि नहीं आया है। और एक दूसरा लड़का है वो उत्तर लाने के चक्कर में उल्टी-पुलटी प्रक्रिया लगा रहा है, कहीं तुक्केबाजी कर रहा है, शॉर्टकट लगा रहा है; उसका उत्तर सही भी आ गया है तो उसको आधे नम्बर ही दूँगा।

आप उनको संदेश दे रहे हैं कि परिणाम क्या आएगा ये बात मायने नहीं रख रही है, प्रक्रिया ठीक होनी चाहिए। क्योंकि परिणाम ही तो कामना का विषय होता है न। कामना कहती है, ‘परिणाम मिलना चाहिए, चाहे जैसे मिल जाए, साम-दाम दंड-भेद।‘ आप कहिए, ‘परिणाम की बात नहीं है। मैं तुम्हें नम्बर परिणाम पर नहीं दूँगा, मैं तुम्हें नम्बर दूँगा सही प्रक्रिया पर।' समझ में आ रही है बात?

तुम सही खेलो और सही खेलते वक़्त संयोग के कारण तुम हार भी गए तो भी मैं तुमको कहूँगा कि तुम जीते हो। और जो ग़लत खेला है, ग़लत खेलते-खेलते भी जीत गया तो मैं कहूँगा, ‘तू हारा है।’ शिक्षक को ऐसा होना चाहिए। लेकिन हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था परिणामों पर केंद्रित हो गई है। वो परिणाम देखती है, ‘नम्बर कितने आए?’ कैसे आए, ये नहीं देखती। तो फिर विद्यार्थी भी यही करते हैं कि वो कैसे भी बस परिणाम लाना चाहते हैं, नहीं तो नकल क्यों करते? नहीं तो इतनी सारी कोचिंग क्यों चल रही होतीं? नहीं तो तमाम तरह की बेइमानियाँ क्यों करते? उन्हें भी यही शिक्षा मिल गई है कि बाय हुक ऑर बाय क्रुक गेट द रिज़ल्ट्स (किसी भी प्रकार से बस अपेक्षित परिणाम ले आओ)।

गीता कह रही है – अंजाम से अंतर नहीं पड़ना चाहिए; अंजाम से अंतर नहीं पड़ेगा। नीयत ठीक रखो, जान पूरी लगाओ फिर अंजाम जो भी आए, चलेगा। अपने-आपको इतना झोंक दो सही काम में कि अंजाम की खुशी मनाने की ऊर्जा भी न बचे, न अंजाम पर शोक करने का समय बचे। इतना डाल दो अपने-आपको जैसे कि ज़बरदस्त लड़ाई हुई हो और उसमें दोनों पक्षों ने अपने-आपको इतना झोंक दिया कि लड़ाई के बाद जो जीता, उसे लगा नहीं कि वो जीत गया। और जो हारा, उसे लगा नहीं कि वो हार गया। जो जीता उसके पास कुछ शेष नहीं था जीत की खुशी मनाने के लिए। जो हारा उसके पास भी कुछ शेष नहीं था हार का शोक करने के लिए।

वो बोला, ‘क्या शोक करूँ? जो मैं अधिकतम दे सकता था, दे दिया। मेरे भीतर कुछ बचा होता तो मैं शोक करता न। शोक करने के लिए भी भीतर अब कोई बचा नहीं है, सबकुछ झोंक दिया। फिर हार हार नहीं रहती, फिर जीत जीत भी नहीं रहती; फिर बस खेल मायने रखता है, फिर आदमी जमकर खेलता है। एक बहुत बेकार शब्द हमारे लिए महत्वपूर्ण हो गया है, स्मार्टनेस (चतुराई)। इससे बचना होगा। उस स्मार्टनेस का मतलब ही यही होता है, तिकड़म में माहिर होना, ट्रिकस्टर (चालबाज़) होना। बच्चों में ये बात मत जाने दीजिएगा, हमें बच्चे स्मार्ट नहीं बनाने। बहुत घातक हो जाती है ये स्मार्टनेस । वो बच्चा जो आपको आज स्मार्ट लग रहा है, यही कल का बोझ है दुनिया पर। उसको गहराई दीजिए, स्मार्टनेस नहीं।

गहराई और स्मार्टनेस में बहुत अंतर है। स्मार्ट लोग बहुत हैं दुनिया में, हर कोई स्मार्ट ही स्मार्ट है। हमें गहरे लोग चाहिए, स्मार्टनेस खा गई दुनिया को।

प्र२: आचार्य जी, अभी श्लोक में चार शब्द प्रयोग किए गए – कामना, इच्छा, कर्तव्य और ज़िम्मेदारी। क्या ये पर्यायवाची हैं या हर एक शब्द का अपना कुछ अलग अर्थ है?

आचार्य: कामना और इच्छा एक हैं, कर्त्तव्य और ज़िम्मेदारी एक हैं।

प्र३: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा प्रश्न आपकी उस बात पर है जहाँ आपने कहा कि इच्छा के पीछे अगर काम करते हैं तो डर रहता है, निराशा होती है। तो जो एक साधारण साधक होता है, तो हमारा अधिकतर यही काम है देखना कि क्या बंधन है और उसको कैसे हटाया जा सकता है। पर इस प्रक्रिया में भी, डर तो नहीं कहूँगी, पर चिंता तो होती ही रहती है कि समय बीत रहा है, आयु निकली जा रही है, अभी भी इतने सारे बंधन हैं। और कभी-कभी इंटेंसिटी लॉस (ऊर्जा की कमी) होती है उन्हीं बंधनों में फँसे रहकर। तो क्या ग़लत कर रहे हैं?

आचार्य: कृष्ण से प्रेम करिए, कृष्ण की चिंता होगी; वो चिंता शुभ है। जिससे प्रेम किया होता है, उसी को न पाने की चिंता होती है न? तो चिंता अशुभ नहीं है, अशुभ होता है व्यर्थ विषयों की चिंता करना। आपकी चिंता में भी अगर कृष्ण हैं, तो चिंता शुभ है।

प्र३: इंटेंसिटी लॉस भी लगता है।

आचार्य: इंटेंसिटी लॉस नहीं होता, इंटेंसिटी डिसिपेशन (ऊर्जा का अपव्यय) होता है। माने इंटेंसिटी बढ़ गई है। कृष्ण के अलावा किसी और दिशा में बह रही है। जो दूसरी दिशा है उसको रोकिए। कहाँ आप किसी बेकार विषय से आसक्त हो रही हैं? मन के पास इतनी ऊर्जा नहीं होती कि वो कृष्ण की ओर भी बढ़ लेगा और कंस की ओर भी बढ़ लेगा एकसाथ। कृष्ण और कंस दोनों को अगर आप साथ लेकर चल रही हैं तो कंस ही मिलेगा आपको, क्योंकि सस्ता खेल वहीं पर है।

कृष्ण तो आपसे आपका शतप्रतिशत माँगते हैं। वहाँ आपने दो-चार प्रतिशत की भी कोताही कर दी, आपने बाँट वगैरह दिया, आपने पोर्टफोलियो मैनेजमेंट (अनेक ईकाइयों में निवेश) कर दिया कि डायवर्सिटी (विविधता) तो होनी चाहिए न, इधर भी उधर भी, तो उसमें आपको कंस बड़ी सुविधा से मिल जाएगा। वो सस्ता है। उसको आप थोड़ा भी दे दीजिए वो उपलब्ध हो जाता है। उसको आप फिर कहेंगे, ‘ इंटेंसिटी लॉस है’। वो इंटेंसिटी लॉस नहीं है, वो बेईमानी है। जो कृष्ण के हिस्से का है, वो आपने किसी और को दे दिया है।

प्र३: तो इसीलिए जमकर काम या खेलना, आप जो कहते हैं वो नहीं होता?

आचार्य: शतप्रतिशत पूर्णता के साथ, एकनिष्ठ होकर के, बँटना नहीं चाहिए मामला भीतर। दो नहीं चलेंगे, 'एक'। कृष्ण भी एक तरह से तुनक मिजाज़ हैं बहुत, वो कहते हैं, ‘मेरे अलावा अगर कोई और है, तो उधर ही जा। मेरे पास तो वही आएगा जो सिर्फ़ मेरा होगा, पोज़ेसिव । वो पूरा-का-पूरा माँगते हैं आपको, समूचा आपको निगल लेना चाहते हैं। और हम कहते हैं, ‘थोड़ा-बहुत उधर का नहीं चलेगा, इत्तु-सा तो?’ इत्तु सा भी इधर-उधर करोगे तो इधर-उधर को ही पा लोगे। वही मिलता रहेगा फिर, सस्ता मामला।

प्र४: प्रणाम, आचार्य जी। इसी से सम्बन्धित मेरा एक प्रश्न है कि जब मुझे समझ में आया कि निष्कामकर्म कृष्ण के प्रति प्रेम होना चाहिए और इच्छाओं से आपको आगे जाना चाहिए, तो ये द्वंद्व कैसा होता है कभी-कभी कि पता होता है ये सही काम है, सत्य यही है लेकिन बाकी जो मोह-भय ये सब होते हैं, वो फिर भी हावी हो जाते हैं? और फिर सत्य की तरफ़ जाएँ तो बहुत चिढ़ आती है। क्योंकि कोई उसके विरुद्ध बोलकर रिझा रहा है तो संयम छूट जाता है। तो ऐसे समय क्या करना चाहिए?

आचार्य: जो भी आता है – मोह, भय, चिढ़, उसको साथ लिए-लिए आगे बढ़िए और क्या करेंगे? आपकी गाड़ी है, आपको मंदिर की ओर ले जा रही है, उसपर ऊपर से कौआ आकर अपना काम कर जाता है तो जो काम कर गया है उसको लिए-लिए आगे बढ़िए, अब क्या करेंगे आप? या बरसात हो रही है, गाड़ी में चारों ओर से कीचड़ लिपट गया है, तो कीचड़ को लिए-लिए आगे बढ़िए, और क्या करेंगे?

आपने कहा हावी हो जाता है; हावी कुछ हो नहीं जाता, आप उसे हावी होने देते हैं। ये निर्णय मत करिए। याद रखिए कि ये बात आपके चुनाव और संकल्प की है, कुछ आप पर तभी हावी होगा जब आप उसे अनुमति देंगे। मत दीजिए अनुमति, लठ गाढ़ दीजिए बिलकुल। जो भी हालत है, अच्छा लग रहा है, बुरा लग रहा है, सिर दर्द हो रहा है, चिढ़ उठ रही है, क्रोध आ रहा है, हार की भावना है भीतर, दुख है, चोट लग रही है, जो है है, ऐसे ही आगे बढूँगा। तभी तो मज़ा है कि नहीं?

आप देख रहे हों कोई ग्रैंड स्लैम , मान लीजिए विम्बलडन। आप क्या चाहते हो तीन सैट्स में ख़त्म हो जाए? मैन्स फाइनल है, नडाल और फेडरर हैं, आप क्या चाहते हो तीन सेट्स में ख़त्म हो जाए सिक्स टू, सिक्स टू, सिक्स टू ? मज़ा आएगा? मज़ा भी कब आता है? पाँच घंटे चलना चाहिए कम्बखत! पाँच घंटे। और पाँचवा सेट भी लंबा खिंच रहा है, खिंचे ही जा रहा है, खिंचे ही जा रहा है। अब दोनों के पास क्या है? दोनों के पास थकान है, चोट है, भय भी है, चिढ़ भी है और अब कुछ बात बन रही है, अब देखने में आनंद आ रहा है। क्योंकि उन दोनों ही के पास ये सबकुछ है, उसके बाद भी वो जूझे हुए हैं। तब आया न मज़ा?

हाँ, अपने खेलने में भी मज़ा तभी आता है जब थकान भी हो, पसीना भी हो, चोट भी हो, दर्द भी हो, डर भी हो, उसके बाद भी आप जूझे हुए हो। पाँचवा सेट चल रहा है, पाँच घंटे हो चुके हैं, आप जूझे हुए हो। आसान जीत मिल गई तो सस्ती बात है, उसमें क्या मज़ा आया? ये तो फिर सौभाग्य है आपका कि आपको बहुत सारी चोट वगैरह मिल रही हो रास्ते में; अब जीतने में मज़ा आएगा न कि चोट के साथ भी जीता। आराम से डेढ़ घंटे में मैच निपटा दिया तो क्या मज़ा आया! कुछ आया? कुछ नहीं। ऐसे ही हल्की घटना, कोई दम ही नहीं।

बॉक्सिंग है और पहले ही राउंड में नॉक आउट हो गया, आप कैसे लौटोगे वापस? आप देखने गए थे, दर्शक हो। ऐसे लौटोगे (मुँह उतरा हुआ)। चालीसवें सेकंड में नॉक आउट कर दिया, कुछ मज़ा आया? मज़ा कब आता है? आठवाँ राउंड, दसवाँ राउंड, बारहवाँ राउंड और चले ही जा रहा है और दोनों की आँखें सूज चुकी हैं, मुँह फट चुके हैं, खून गिर रहा है लेकिन दोनों जूझे हुए हैं; अब जीत का मज़ा आता है न, कि नहीं? कि बीच में बॉक्सर खड़ा होकर बोलना शुरू कर देता है, ‘क्या करें जब यहाँ पर घूँसा लग गया हो, बताइए? नहीं, बाकी तो ठीक है। लड़ाई निष्काम भाव से लड़नी चाहिए पर एक घूँसा यहाँ लगा है, एक यहाँ लगा है, ये आँख काली हो गई है’। ये कोई पूछने की बात है? अरे लड़! जैसा भी लड़, नहीं तो गिर जा, नॉक आउट दे दे। ले-देकर के यही जवाब आता है, इंसान हो तो लड़े रहो, जानवर हो तो गिर जाओ। बहुत आसान है गिर जाना, और क्या जवाब दे कोई?

आपकी लड़ाई है, आपके लिए कोई और तो लड़ने आएगा नहीं, आपको ही लड़नी है। और सबकुछ आपके संकल्प पर है कि आपको कितनी दूर तक जाना है। इंसान हो, अपनी कुछ गरिमा रखना चाहते हो तो जूझे रहो। नहीं तो झुक जाओ, टूट जाओ, समर्पण कर दो, बहुत आसान है, सस्ती चीज़।

इतना आपको मैं भरोसा दिला देता हूँ कि आप जितना सोचते हैं, आपमें उससे ज़्यादा दम है। कल्पना करोगे तो यही लगेगा कि चौथे-पाँचवें राउंड से आगे डटा नहीं रह पाऊँगा। कल्पना मत करो, बस डटे रहो, लड़ते रहो, तुम अंत तक जाओगे, हो सकता है जीतो भी। नहीं भी जीतोगे तो अंत तक जाने का श्रेय पाओगे। हम सब डरते हैं, हमें लगता है हमारा पता नहीं क्या होगा, क्या होगा।

अपनी ताक़त को जगाकर तो देखिए! अहंकार छोटा है इसीलिए वो अपने-आपको छोटा समझता भी है, उसको थोड़ा गिरने दीजिए। आत्मा में बहुत ताक़त है, अहंकार का मिटना इसीलिए ज़रूरी होता है। अहंकार अगर नहीं हटेगा तो आपकी दुर्बलता भी नहीं हटेगी। अहंकार ढोंगभर करता है कि ‘मैं बहुत ज़बरदस्त हूँ’, भीतर-ही-भीतर हमेशा डरा हुआ रहता है क्योंकि वो जानता है, वो दुर्बल है। बल होता है आत्मा में।

झुकना इसीलिए ज़रूरी है। सही काम के सामने, सही जगह पर, सही बात के सामने झुको। जो सही जगह झुकना सीख लेगा, उसे कहीं और झुकने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। जो सत्य से हारना सीख लेगा, उसे अब दुनिया में कोई और नहीं हरा सकता, हारना सीखो। हमें हारने की कला नहीं आती है। जहाँ सच्चाई हो वहाँ बिलकुल सिर झुका दो, भीतर से कितने भी कुतर्क उठते हों, सिर झुकाओ। ज़िंदगी में तुम जीत इसीलिए नहीं पाते हो क्योंकि सच के सामने तुमने हारना नहीं सीखा आज तक। बेशर्त हार, कोई बहसबाजी नहीं, कोई विरोध नहीं; सच है तो नमन है, बात ख़त्म!

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