मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधु समझता।
शत्रु मेरा बन गया है छल रहित व्यवहार मेरा।।
प्रश्न: सर, क्या यह पंक्तियाँ सही कह रही हैं?
उत्तर: विवेक,
छल रहित होना कभी कमज़ोरी नहीं होती।
निश्छलता आती है इस गहरी आश्वस्ति के साथ कि मुझे छल, धोखा, चालाकी की ज़रुरत ही नहीं है।
निश्छलता आती है अपनी आतंरिक ताकत के स्पष्ट आभास के साथ।
तुम्हारे द्वारा उद्धृत पंक्तियाँ किसी श्रद्धाहीन कमज़ोर मन के लिए लिखी गयी हैं। न छुपाने की ज़रुरत है, न छल की।
जो दूसरों को छलने की सोचता है, वो स्वयं को ही छल रहा होता है। उसका कुटिल मन ही उसकी सज़ा है। वो लगातार द्वेष, उधेड़बुन, हिंसा, भय, संदेह और योजना के विचारों में फंसा रहेगा। प्रेम और शान्ति उसे उपलब्ध न होंगे। तड़पेगा।
नर्क और क्या होता है? नर्क वो जगह है जहां चालाक मन पाया जाता है।
याद रखना: घी सीधी उंगली से ही निकलता है 🙂