प्रश्न: सर, ‘फ्रैंक'(निसंकोच) शब्द का क्या अर्थ है? हम कब निसंकोच होते हैं?
वक्ता: ‘फ्रैंक’ का अर्थ है सीधा, सपाट, सरल, अबाधित| संकोच शब्द समझती हो? संकुचन से जुड़ा हुआ है| संकुचन का मतलब है अपने आप को छोटा अनुभव करना, संकुचित अनुभव करना| जब तुम अपने आप को छोटा, सीमित, तुच्छ नहीं महसूस कर रहे होते हो, उसी अवस्था का नाम है ’फ्रैंकनेस’| तब तुममें एक सहज बहाव आ जाता है, जब तुम ठहर-ठहर कर, एक-एक कदम नापतोल कर नहीं उठाते, जब तुम निर्भयता से बहते हो, एक सरल बहाव से, उसी का नाम है ‘फ्रैंकनेस’|
‘फ्रैंकनेस’ का अर्थ मुँहफट होना नहीं है, ‘फ्रैंकनेस’ का ये भी अर्थ नहीं है कि हम बोलते बहुत हैं, ‘फ्रैंकनेस’ का ये भी अर्थ नहीं है कि हम आक्रामक हैं| ‘फ्रैंकनेस’ का अर्थ है कि हम सरल हैं| जो जैसा है, वैसा ही हमें दिखाई पड़ता है| कोई गुत्थियाँ नहीं हैं मन में, मन में लगातार ग्रंथियाँ नहीं पनप रहीं हैं, उलझन नहीं है| जीवन बहते पानी सा है| लगा कि पूछना है तो पूछ लिया, विचार नहीं कर रहे हैं कि अब पूछें कि तब पूछें और ये कि पड़ोसी क्या सोचेगा| और न ही पड़ोसी पर हावी होने के लिए पूछ रहे हैं कि ज़रा हम उठकर के इतने लोगों के बीच में कुछ बोल देंगे तो उससे हमारी प्रतिष्ठा बढ़ जायेगी| कई लोगों को तो ये विचार भी हो जाता है|
न हम इस कारण से बोल रहे हैं, और न हम इस कारण से रुक गये हैं| जो सीधा है सो सीधा है, बात सामने है, स्पष्ट है- ये ‘फ्रैंकनेस’ है, निसंकोच हो जाना| जो भी अपने आप को सीमित अनुभव करेगा, जो भी अपने आप को छोटा समझेगा, वो कभी ‘फ्रैंक’ नहीं हो पायेगा| जिस किसी ने अपने आप पर बंदिशें लगा रखी होंगी वो संकोच में ही घिरा रहेगा|
दिक्कत तब आ जाती है जब हमें ये भी बता दिया जाता है कि संकोच करना बड़ी बात है| लोग ऐसे बताते हैं कि वो संकोची हैं, जैसे अपनी तारीफ़ कर रहे हों कि हम कहना तो चाहते थे, पर आपसे संकोच के कारण नहीं कह पाए| तो ऐसा लगता है कि ये संकोची हैं, तो ये बड़ी पुण्यात्मा हैं|
(सभी श्रोतागण हँसते हैं)
‘भले आदमी हैं, संकोची मानस हैं’| संकोच वहीं से आता है जहाँ तुम्हारे मन में कहीं न कहीं कुछ छल छिपा हुआ है, कोई उम्मीद छिपी है| अगर किसी से कुछ पाना चाहते हो, तभी संकोच होगा, अन्यथा संकोच होगा नहीं| जिसको लालच है या डर है, वही झिझकेगा|
तुम लोग आते हो न ये सवाल लेकर कि ‘झिझक’ का क्या करें? जब तुम आते हो और पूछते हो कि ‘झिझक’ का क्या करें, तो तुम ऐसे कहते हो कि जैसे कि तुम झिझक के शिकार हो| पर मैं थोड़ा जीवन को समझता हूँ, इसीलिए जानता हूँ कि तुम झिझक के शिकार नहीं हो, तुम लालच के शिकार हो|
तुममें संकोच इसलिए आ जाता है, तुम्हारी सरलता इसलिए चली जाती है क्योंकि तुम्हें दूसरों से मान्यता चाहिए| फिर तुम्हारे पाँव कांपते हैं, फिर तुम कुछ कह नहीं पाते| और ध्यान देना तुम्हें जितना ज़्यादा चाहिए होगा, जितना ज़्यादा तुम्हें किसी से पाने का लालच होगा, उसके सामने तुम्हारे कदम उतने ही थर-थरायेंगे, तुम्हारी ज़बान उतनी ही कांपेगी| किसी के सामने अगर तुम्हारी घिघ्घी बंध जाती है, जीभ तालू से चिपक जाती है, तो ये बात पक्की समझ लेना कि उसको लेकर तुम्हारे मन में या तो भय है या लालच है, और भय और लालच एक ही बात है| बिना लालच के भय नहीं होता|
आमतौर पर हम सभी के जीवन में या तो ऐसे व्यक्ति हैं या ऐसी स्थितियाँ हैं जो हमें डरा देती हैं, जहाँ पर हम निसंकोच नहीं हो पाते| हैं या नहीं हैं? जहाँ पर तुम अटक जाते हो, जहाँ पर तुम्हारा बहाव रुक जाता है| ऐसा है?
सभी श्रोतागण(एक स्वर में): जी सर|
वक्ता: जब भी ऐसा हो तो देख लेना कि कहीं न कहीं वहाँ तुम्हारा लालच छिपा हुआ है| तुम्हें उस आदमी से कुछ पाने की आशा है, बल्कि मिल रहा होगा| तुम कुछ न कुछ ले रहे हो और वो लेना रुक न जाए, इसी बात का डर है तुमको|
लालच और डर, ये ही ‘फ्रैंकनेस’, सरलता के दुश्मन हैं, इसी का नाम संकोच, झिझक, ‘हैज़िटेशन’ है|
समझ आ रहा है?
-‘संवाद’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|