प्रश्न: सर, इंसान हमेशा दूसरो के अंदर ही कमियां देखता है, अपने अंदर क्यों नही देखता, कि हमारे अंदर भी कुछ कमी हो सकती है?
वक्ता: इंसान दूसरों के भीतर सिर्फ कमियां ही नहीं देखता, वो दूसरों को ऊँचा चढ़ा कर आदर्श भी बनाता है। असल में हम दूसरों को जबभी देखते हैं, तो दो ही तरीके से देखते हैं। पहला, इसमें खोट क्या है। दूसरा, इसमें प्रशंसनीय क्या है। अब सवाल ये हो रहा है कि अगर मैंने ये कहा कि तुम में खोट है, तो ये किसने कहा?
श्रोता: आपने।
वक्ता: मैंने अपने लिए कुछ मूल्य निर्धारित कर रखे हैं। ठीक है ना? उन मूल्यों पर मैंने तुमको तौला और पाया की हल्की है। तो मैंने कहा, ‘खोटहै इसमें कुछ’। फिर मैंने किसी और को लिया। कोई और है, राजीव है मान लो। राजीव को लिया, और मैंने कहा, ‘राजीव तो बड़ा तारीफ के काबिल है’। और तारीफ के काबिल क्यों है? क्योंकि जिन बातों को मैं समझता हूं कि बड़ी कीमती हैं, उन पर राजीव खरा उतरता है। ठीक है ना? तुम्हारी निंदा कर के मैंने इतना ही किया कि अपने आप को ठीक ठहराया। मान लो तुम्हारा रंग है बहुत गोरा है, और राजीव का रंग है काला। मैंने एक मूल्य बांध रखा है कि सफ़ेद रंग, गोरा रंग बड़ा अच्छा होता है। तुम्हारी निंदा कर के, मैं अपने मूल्य की पुष्टि करता हूं। मैं कहता हूं कि जो मैंने सोचा है, दुनिया में ‘वही’ ठीक है। उसकी तारीफ करके भी मैं यही कहता हूं कि मैंने जैसा सोचा है, दुनिया ‘वैसी’ ही है। दुनिया के केंद्र पर मैंने अपने आप को ही रखा हुआ है। मैं क्या सोचता हूं।मैं क्या सोचता हूं, उसी के मुताबिक कोई ‘निंदनीय’ हो जाता है, कोई ‘प्रशंसनीय’ हो जाता है।
तो दूसरे की बुराई करो, चाहे दूसरे की बड़ाई करो, तुम काम एक ही कर रहे हो। वो काम है, अपने अहंकार को बढ़ावा देना। चाहे किसी को छोटा बोलो, चाहे किसी को बड़ा बोलो, बोलने वाले तो तुम ही हो। तो उन दोनों से बड़े तुम हो। ‘तू बड़ा है, तू छोटा है और इसका निर्णय करने वाले हम हैं’। तोदोनों से बड़ा कौन हुआ? वो हम हुए। तुमने देखा है, छोटे से छोटा आदमी भी बैठ कर तय कर रहा होता है कि दिल्ली में जो नीतियां चल रहीं हैं, वोसही हैं या गलत हैं। ‘मोदी की जो योजना है ना, वो ठीक नहीं है। केजरीवाल को ऐसा करना चाहिए’। और वो इस पर बड़ी गंभीरता से चर्चा कर रहा होगा। राजनीति में उसने कभी “र” भी नहीं देखा है, पर बड़ी गहनता से चर्चा कर रहा है कि नरेंद्र मोदी को और अरविंद केजरीवाल को क्या करना चाहिए। ये समझ रहे हो क्या हो रहा है? ये भीतर से उसका दंभ आवाज दे रहा है कि ये काहे के राजनेता हैं? असली राजनीती तो हम जानते हैं। इन दोनों को हमसे सीखना चाहिए। कभी क्रिकेट का एक मैच चल रहा होता है, तुमने देखा होगा। ऐसे लोग, जिन्होंने कभी हाथ में बल्ला नहीं उठाया, कोई क्रिकेटर है, वो शॉट मरेगा और इधर से कहेंगे, ‘ऐसे नहीं मारना चाहिए था, इसको तो हल्के से फ्लिक कर देता, चार रन मिल जाते। ये कैसे इसने मिस कर दिया? यार ये क्या कर रहा है? इसने कोई बाउंसर डाली है, कमर की ऊंचाई तक? अरे, बाउंसर डाले तो कम से कम कान के बगल से निकले’। और ये ऐसे लोग हैं कि जिन्हें कह दिया जाए कि गेंद लुढ़का दो, तो इनकी लुढकाई गेंद बाईस गज भी नहीं पार करेगी। और ये बता रहें हैं कि बाउंसर कहां से निकलना चाहिए। ‘मन’ कहीं ना कहीं इस बात के मज़े लेना चाहता है कि तुम क्या गेंदबाज हो, तुमने लिए होंगे चार सौ विकेट, तुमसे बड़े हम हैं। हम तुम्हें बताएंगे, कैसे गेंदबाजी करो। बात समझ रहे हो ना?
तुम चाहे निंदा करो और तुम चाहे स्तुति करो, तुम दोनों में एक ही काम कर रहे हो, ‘हम बड़े हैं’। अच्छा एक बात बताओ, कभी किसी को कोई सर्टिफिकेट मिला है? कभी किसी भी चीज का, खेलने का, पढ़ने का या कुछ भी, गाने का, कुछ भी? कुछ प्रमाणपत्र किसी प्रतियोगिता का मिला है? किसको मिला है? हाथ खड़ा करो।
(सब हाथ उठा देते हैं)
जब सर्टिफिकेट मिलता है, तो तुम्हें सर्टिफिकेट दिया जाता हैऔर मंच पर एक होता है, जो सर्टिफिकेट देता है। है ना? उसको मुख्य अतिथि बोल लो, या जो भी बोलना है। ज़्यादा बड़ा कौन होता है? जिसे सर्टिफिकेट मिलता है, या वो जो सर्टिफिकेट देता है।
सभी श्रोतागण(एक स्वर में): जिसे सर्टिफिकेट मिलता है।
वक्ता: फिर से सोच कर जवाब देना। जो सर्टिफिकेट दे रहा है, वो बड़ा हुआ या जिसे सर्टिफिकेट मिल रहा है, वो बड़ा हुआ?
सभी श्रोतागण(एक स्वर में): जो दे रहा है।
वक्ता: जो दे रहा है। है ना? गवर्नर साहब आए थे, मुझे उनके हाथों से ये प्रमाणपत्र मिला है। तभी तो प्रमाण पत्र का मज़ा है। है ना? पद्मश्री मिल रहा है, वो खुद राष्ट्रपति दे रहें हैं। तो देने वाला हमेशा बड़ा है क्योंकि वही है मालिक। वो है जो प्रमाणित कर रहा है कि तुम कुछ हो। तो तुम यही मज़ा लेते हो। ‘मैं प्रमाणित कर रहा हूं, कि तुम कुछ हो’। चाहे छोटे, चाहे बड़े, पर जो भी हो उसे ‘मैं’ प्रमाणित कर रहा हूं। अहंकार के मजे हैं। तुमने कहा था, इंसान अपनी गलतियों को क्यों नही देखता। तुम अपनी ओर भी देखते हो। अरे! तुम अपनी कितनी ही निंदा करते हो, कितनी ही बार पछतावे में और ग्लानि में जाते हो। ऐसा होता है, या नही होता? और कितनी ही बार तुम गर्व से फूल भी जाते हो। आदमी अपने ऊपर तो निगाह रखता ही रखता है। लोग असफल होते हैं, तो आत्महत्या तक कर लेते हैं। वो अपनी ही नज़रों में इतना गिर जाते हैं। क्या ये होते नही देखा? परिणाम आया, फेल हो गए, आत्महत्या कर ली। तो आदमी अपनी निंदा भी जम कर करता है। अपनी निंदा करो, अपनी तारीफ करो, उन दोनों में ही भाव ये है कि ‘हम’ कुछ हैं। ‘हम’ फैसला करेंगे। सवाल ये उठता है, ‘तो फिर क्या करें? ना तारीफ करें, ना बुराई करें, तो करें क्या?’ आंखें साफ़ करो। दूसरो को देखने से पहले, अपनी आंखों को साफ करो, मन को स्थिर करो।
मेरे सामने ये कैमरा है। मैं इसको खूब हिलाऊं-डुलाऊं, और इससे तुम लोगों की तस्वीर उतारना चाहूं, तो क्या होगा? खूब हिला-डुला रहा हूं इसे, और इसके माध्यम से तुम्हारी तस्वीर उतारना चाहता हूं, एक विडियो बनाना चाहता हूं। तो कैसा विडियो बनेगा? खूब हिला-डुला सा? उसमें कुछ भी समझ में नही आएगा ना? कुछ भी समझ में नही आएगा। और इतना ही नही, जब मैं रिकॉर्डिंग कर रहा होऊं, तो मैं इसके आस-पास कुछ शोर भी करूं। तो तुम्हारी आवाजें भी फिर दब जाएंगी। ठीक है? उसके बाद मैं उस विडियो को लगाऊं, प्ले कर दूं और उसमें तुम्हारी शक्लें भद्दी सी हो रहीं हैं, क्योंकी हिल रहा है, और तुम्हारी आवाज कर्कश सी हो रही है क्योंकी शोर है। और मैं कहूं, ‘देखो ये लोग कितने तुच्छ हैं, बेकार हैं, गंदे हैं। इनकी शक्लें देखो, इनकी आवाजें सुनो। अब इसमें हुआ क्या है? इसमें हुआ ये है कि जो मेरा देखने का उपकरण है (कैमरा), वो उपकरण ही ख़राब है। ख़राब है या नहीं है? पर मैं ये नहीं कह रहा हूं कि पहले इसको तो साफ़ करूं, तब मुझे पता चले कि दुनिया कैसी है। अपनी नजरें साफ करो|
देखना कला है। सुनना भी कला है। जल्दी में ना रहो कि घोषणा कर दें कि क्या ठीक है और क्या गलत है। समझने की ताकत विकसित करो। सुनने की योग्यता लाओ कि जो कहा जा रहा है, ठीक-ठीक वही सुनें। अभी थोड़ी देर पहले हमने प्रयोग किया था। मैंने कहा था, ‘मैंने नदी बोली, तुमने जहाज बना दिया’ क्योंकी हममें सुनने की योग्यता नही है, पूरी-पूरी। कहा कुछ जाता है, हम सुन कुछ और लेते हैं। जो कहा गया, उसमें से आधा गायब हो गया और उसमें बहुत कुछ ऐसा जुड़ गया, जो कहा ही नहीं गया था।
अभी और चाहो तो प्रयोग कराऊं, कि पिछले आधे-एक घंटे में मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, मैं तुमसे कहूं कि लिखो कि मैंने क्या कहा है, दस महत्वपूर्ण बिंदु एक के निचे एक लिख लो और तुम लिख लो, फिर मैं कहूं कि अपने पडोसी से तुलना करो कि उसने क्या लिखा है, तुम हैरान रह जाओगे। तुम पाओगे कि तुमने जो लिखा है और तुम्हारे पड़ोसी ने जो लिखा है, वो बहुत अलग-अलग है। बात मैं यहां से एक ही बोल रहा हूं। लेकिन कैसे हो पा रहा है कि तुम्हें कुछ सुनाई दे रही है और उसे कुछ और सुनाई दे रही है। और बहुत सारी बातें तो तुम ऐसी भी लिख लोगे, जो मैंने कही ही नहीं हैं। और बहुत सारी महत्वपूर्ण बातें जो मैंने कहीं हैं, वो तुम तक पहुंची ही नही हैं। उनको तुम छोड़ ही दोगे। तो ये क्या हो रहा है? हमें सुनना नही आता, सुनने की कला नहीं है।
निंदा पर तुम्हारा सवाल था। तुमने वो सब लिखा कि ऊपर एक सर बैठे हुए हैं, और ये सब बातें कह रहें हैं और उसके आधार पर तुम मेरी तारीफ कर लो, तो उस तारीफ का कोई महत्व है? तुमने वो लिखा ही नही जो मैंने कहा। पर तुमने जो लिखा, वो तुम्हें ख़ुद बड़ा अच्छा लग रहा है। और तुम कहो, ‘बड़ी खुबसूरत बातें बोल गए हैं’, और तुम मेरी तारीफ करो, तो उस तारीफ का कोई अर्थ है? जो तुमने लिखा है, वो जब मैंने कहा ही नहीं, तो उसके आधार पर मेरी तारीफ कैसे हो सकती है? ठीक इसी तरीके से, कोई और कहे कि देखो इन्होंने ये सब बातें कहीं और बातें बड़ी बेकार थीं, और वो मेरी निंदा करे, तो क्या उस निंदा का भी कोई अर्थ है?
तो जब हम इस सवाल पर आतें हैं, ‘करें क्या?’, तो हम ठीक यही करें कि तारीफ और निंदा से हट कर के अपने पर ध्यान दें। देखने की, सुनने की, समझने की क्षमता विकसित करें। आ रही है बात समझ में? साफ दिखाई दे, मन पूर्वाग्रहों से भरा हुआ ना रहे, मन डरा हुआ ना रहे, सचजब सामने खड़ा हो, तो उसको अस्वीकार ना करे, उसके बाद निर्णय अपने आप हो जाएगा। उसके बाद तुम्हें निंदा करनी है, तो कर लेना। उसके बाद तारीफ करनी है, तो वो भी कर लेना। पर पहले ठीक-ठीक जान तो लो कि मामला क्या है। फिर जो करना हो, सो कर लेना।
-’संवाद’ पर आधारित।स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।