नींद और मौत क्या बताते हैं? || आचार्य प्रशांत, कुरान शरीफ़ पर (2013)

Acharya Prashant

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नींद और मौत क्या बताते हैं? || आचार्य प्रशांत, कुरान शरीफ़ पर (2013)

ईश्वर खींच लेता है जीवों को उनकी मृत्यु के समय , और जिन्हें मृत्यु नहीं आयी उन्हें निद्रा की स्थिति में खींच लेता है। फिर जिन की मृत्यु निश्चित हो चुकी होती है , उन्हें रोक लेता है और शेष को विदा कर देता है , एक निश्चित अवधि के लिए इसमें निशानियां हैं उन लोगों के लिए जो सोच विचार के अभ्यासी हैं।

~कुरान शरीफ

वक्ता: इन्हें चार हिस्सों में तोड़ कर देखें तो सब समझ आ जायेगा।

पहला हिस्सा है- *ईश्वर** खींच लेता है जीवों को उनकी मृत्यु के समय , और जिन्हें मृत्यु नहीं आयी उन्हें निद्रा की स्थिति में खींच लेता है ।*

मृत्यु और निद्रा की स्थिति में समानता क्या है?

श्रोता : मन।

वक्ता : दोनों ही स्थितियों में मन नहीं है निद्रा में फिर भी सूक्ष्म रूप में है, और पूर्ण मृत्यु में पूर्ण लय हो जाता है, मन बचता ही नहीं।

निद्रा एक प्रकार से अपूर्ण मृत्यु है।

कुरान आपसे कहना चाह रही है कि ‘वो’ आपको लगातार आकर्षित कर ही रहा है जहाँ मन थमा नहीं वही आपको उसके संकेत मिलने शुरू हो जाते हैं मन थमा नहीं कि आपको उसका एहसास मिलना शुरू हो जायेगा। दिक्कत क्या है कि मन थम गया है तो इसलिए वो संकेत विचार रूप में नहीं हो पाएंगे। आप सो कर के उठते हो तो आप क्या बोलते हो, अनुभव कैसा रहा? आप बहुत बीमार हो पर फिर अगर आप सो कर के उठे हो तो क्या बोलते हो कि हाँ अच्छी नींद आयी। यहाँ पर निद्रा से आशय सुषुप्ति (अच्छी गाढ़ी नींद) लेंगे। आप जेल में भी हो, तो भी जब आप सो कर के उठोगे तो कैसा लग रहा होगा?

श्रोता : शांत, जगह उस समय कोई महत्त्व नहीं रखती।

वक्ता : वो संकेत है, नींद एक प्रकार से परम का संकेत है कि अगर मन गड़बड़ ना करे तो देखो जीवन ऐसा भी हो सकता है। शांत, स्थिर, थकान से दूर। और जो योगी होता है उसकी लगातार कोशिश ही यही होती है कि वो जागृत अवस्था में भी ऐसा ही रहे जैसे कि सो रहा हो। इसलिए समाधि को जागृत सुषुप्ति भी कहा गया है। कि जगे तो हैं, पर हैं ऐसे जैसे सो रहे हैं। इसका मतलब ये नहीं कि ऊँघ रहे हैं, वो समाधि नहीं है। जगे हैं पर हैं ऐसे कि सो रहे हैं, इससे क्या आशय है?

श्रोता : मन शांत है।

वक्ता : तो जिन्होंने जाना है, ज़रा भी ध्यान दिया है, उनके लिए नींद ही अपने आप में बड़ा संकेत है और इसलिए वो जो परम मिलन है, उसे अक्सर सन्तों ने मौत का ही नाम दिया है। *मैं** कबीरा ऐसा मरा , दूजा जनम ना होये **’*, उसे परम मृत्यु का नाम दिया है, महापरिनिर्वाण। कि अब ऐसी नींद में चले गए जहाँ से कोई उठना ही नहीं है। और उस नींद से आशय बस शान्ति का है, परम शांति, मौज। तो यही कह रही है क़ुरान, कि ईश्वर खींच लेता है जीवों को उनकी मृत्यु के समय, खींच लेने का अर्थ यही है – लय हो गया मामला।

कल एक बड़ा मज़ेदार संदेश आया था, कि दो बच्चे हैं गर्भ में और दोनों बात कर रहे हैं, और बात क्या कर रहे हैं? क्या प्रसव के बाद भी कोई जीवन है?

और अगर बच्चे हों गर्भ में तो और क्या बात करेंगे, कहेंगे देखो, जिंदगी नौ महीने की होती है, और नौवें महीने के बाद हो जाती है मृत्यु। उनमें से एक कह रहा है कि देखो ऐसा नहीं है, ये जीवन तो ख़त्म हो जाता है पर उसके बाद एक दूसरा शुरू होता है। और दूसरा कह रहा है, नहीं, दूसरा कोई नया जीवन नहीं है। कहता है देखो, अभी हम हैं यहाँ पानी के अंदर लगातार, और ये पानी नहीं रहेगा तो जियेंगे कैसे? तो पहला कहता है कि देखो पानी नहीं रहेगा तो जीने के और सौ सहारे रहेंगे, तुम हवा में साँस ले सकते हो। तो दूसरा कहता है, हवा? हवा तो कुछ होती ही नहीं, पानी होता है। पहला कहता है, देखो हवा भी होती है और जब तुम बाहर रहोगे तो तुम्हारी देखभाल करने के लिए माँ भी होगी। तो दूसरे वाला कहता है, माँ, माँ क्या होती है, कहाँ है माँ? माँ जैसा कुछ नहीं होता। तो पहला कहता है, माँ जैसा कुछ होता है और हम सब लगातार माँ में ही स्थित हैं। माँ हम से बाहर नहीं है, हम माँ में ही हैं। तो दूसरा कहता है, कहाँ है माँ, दिखाओ? तो इस तरह वो समझाता ही रह जाता है पर दूसरा मानता ही नहीं कि मृत्यु (प्रसव) के बाद भी जीवन है

तो ईश्वर खींच लेता है जीवों को उनकी मृत्यु के समय, आप जिसको मृत्यु बोलते हैं, वो एक प्रकार की डिलीवरी ही है। पढ़ा होगा आपने – (डे ऑफ़ देव डेलिवेरांस ) , वो डिलीवरी ही है। पर जब तक गर्भ में है शिशु तो उसको अंदाज नहीं हो सकता कि बाहर क्या है? उसको तो गर्भ में रौशनी भी नहीं दिख रही है, तो अब वो कैसे माने कि रौशनी जैसा कुछ होता है। वो कैसे माने कि अपनी नाक से भी साँस ली जाती है। वो कैसे माने कि ‘लोग’ होते हैं, क्योंकि गर्भ में तो होते नहीं। वो कैसे माने कि माँ जैसा कुछ होता है? उसके लिए तो जीवन का अंत हो गया। कि अरे यार अब तो बहुत बुड्ढा हो गया, नौ महीने का होने को आ रहा हूँ, अब जीवन कहाँ बचा? बस अब अंत ही होने वाला है। तो ईश्वर को माँ से संबोधित कर लीजिये, ईश्वर खींच लेता है जीवों को उनकी मृत्यु के समय।

और जिन्हें मृत्यु नहीं आयी, उन्हें निद्रा की स्थिति में खींच लेता है। दोनों ही स्थितियों में, जहाँ हमारी उत्तेजना शांत होती है वहाँ उसका एहसास हो सकता है; पर फिर कह रहा हूँ कि वो एहसास मानसिक नहीं होगा? आप उसे अपने विचार में नहीं पकड़ सकते। ना आप वापस लौट के बता सकते हो, कि देखो मुझे ऐसा-ऐसा एहसास हुआ। घण्टियाँ सुनाई दे रही थी, रौशनी दिखाई दे रही थी, बाग़ बगीचे थे, कुछ भी नहीं।

फिर जिन पर मृत्यु निश्चित हो चुकी है, उनको रोक लेता है, *‘मैं कबीरा ऐसा मरा , दूज जनम ना होये *। बुद्ध ने भी वर्ग बनाए हैं, एक वो है जिसने अभी-अभी प्रवेश किया है नदी में, उसको अभी बहुत जन्म लगेंगे एक वो है, जो अभी सात बार लौट के आएगा। एक वो है जो अभी एक बार लौट के आएगा, और एक वो है जो कभी लौट के नहीं आएगा। गया, तथागत। वो आखिरी मृत्यु हो गयी, अब ये लौट कर नहीं आयेगा। लौट कर के आने से मतलब है, कि दोबारा फिसलेगा नहीं। हमारे साथ क्या होता है? यहाँ से बाहर जाते हो, और फिसल जाते हो। क्योंकि वृत्तियाँ तो बची हुई है ना। तो अभी इस कमरे में जब तक बैठे हो ध्यान में हो, यहाँ से निकले नहीं कि धड़ाम से गिरे। तो बुद्ध ने तो कहा था कि एक है जो अभी सात बार फिसलेगा, यहाँ पर सत्तर बार वाले भी हैं, और सत्तर हज़ार बार वाले भी हैं। तो रुकता वही है जिसका अब पूर्ण मनोनाश हो गया है बाकियों के चक्कर लगते ही रहते हैं। ‘रोक लेता है’ का ये मतलब नहीं है कि वो भूत बन जाते हैं कहीं पे, रोक लेता है का मतलब है, कि अब वो उसी में स्थित हो गए। अब वो व्यक्ति, व्यक्ति भी नहीं रहा, अब इसे व्यक्ति कहने के भी कोई कारण नहीं हैं।

*और** शेष को विदा कर देता है एक निश्चित अवधि के लिए *। बाकियों से कहता है, तुम तो बेटा अभी जैसे कक्षा में जो लोग फेल हो जाते हैं, तो उनको क्या कहा जाता है? आप फिर से जाइये, रिपीट । ये सब इशारे हैं, जिस किसी ने भी इनको शाब्दिक तौर पर ले लिया वो फंस जायेगा। और दिक्कत यही होती है, कि जो बात एक ध्यान कि अवस्था में कही गयी है, उस बात को हम वहाँ से पकड़ लेते हैं जहाँ हम बैठे हैं। ये जो शब्द हैं, ये परम ध्यान से आये हैं, इतने परम ध्यान से आये हैं कि उसको आप मोहम्मद का ध्यान भी नहीं कह सकते। इसलिए उन्होंने बड़े विनीत भाव से कहा कि ये मेरे शब्द हैं ही नहीं, और बहुत ठीक कहा। क्योंकि ये किसी व्यक्ति के शब्द हो ही नहीं सकते ना। तो इन पर दावेदारी बड़ी अनुचित होगी, ठीक वैसे जैसे उपनिषदों की कितनी ऋचाएं हैं जहाँ पर जो ऋषि है उसने उन पर कोई दावा ही नहीं किया है कि मेरी हैं। खूबसूरत से खूबसूरत, गहरी से गहरी बात, और किसने कही, ये पता ही नहीं। तो जो बात इतने गहरे परम ध्यान से निकली हो, उसे उतने ही गहरे परम ध्यान से समझा भी जाना चाहिए।

पर आदमी का मन ऐसा नहीं है, आदमी कहेगा- अच्छा लिखा हुआ है कि ईश्वर खींच लेता है जीवों को उनकी मृत्यु के समय- तो चलो कल्पना करते हैं कि वो किसी सिंहासन पर बैठा हुआ है, और उसके सामने सब रूहें खड़ी हुई हैं और एक तरफ तेल उबल रहा है जिसमें सब कमीनो को डाल दिया जायेगा, और दूसरी तरफ मस्त दूध की नदियां बह रही हैं, दूसरों को उधर भेज दिया जायेगा। तो इन बातों का शाब्दिक अर्थ नहीं लेना है, कि कोई यमराज है जो भैंसे पर चलता है और वो आएगा और बोरे में आपकी आत्मा को भर के ले जायेगा, और आत्मा अंदर छटपटा रही है, बोरा ऐसे-ऐसे हिल रहा है, और वो मेरी आत्मा है।

कहीं कोई यमराज नहीं है। और कहीं पर अल्लाह का दरबार नहीं सजा हुआ है कि वो आखिरी दिन, क़यामत के दिन आपका फैसला करेगा। ये सब बातें सांकेतिक हैं। ये बहुत ध्यान से पढ़ी जानी चाहिए। बिलकुल जब मन की शुद्धि हो तभी पढ़ना चाहिए, वरना नहीं पढ़ना चाहिए, नहीं समझ में आएँगी। आप अर्थ का अनर्थ कर देंगे। और वही हो रहा है, कहा क्या गया है और अर्थ उसका क्या ले लिया जाता है। और लोग कहते हैं, ये बात तो कुरान में लिखी है। कुरान को पढ़ने की योग्यता है तुममें? एक शराबी कुरान पड़े तो क्या अर्थ निकलेगा? और आप कैसे दावा करोगे कि आप शराबी नहीं हो। और उन शब्दों को पढ़ने की कोई पात्रता चाहिए की नहीं चाहिए? ये जो ज़लील लोग बैठे होते हैं मंदिरों में, मस्जिदों में, अनपढ़, गंवार, इनको समझ में आ सकती है कुरान? पर अर्थ तो यही करते हैं। और जो सामान्य आदमी है वो सोचता है उन्होंने जो अर्थ किया है तो ठीक ही किया होगा, और फंस जाता है। और ये क्या अर्थ करेंगे? इनको पजामा बांधना आता नहीं, ये कुरान का अर्थ करेंगे? तो

दो तरह के लोग होते हैं जो किसी धर्म ग्रन्थ का अर्थ करते हैं, एक वो जो वही धर्मावलम्बी हैं, वो अनर्थ करेंगे पक्का, और दूसरे वो जो विरोधी हैं। कुरान को आप ऐसे लोगों के हाथ में दे दीजिये जो इस्लाम को नहीं पसंद करते, वो कुरान का ऐसा भयानक अर्थ निकालेंगे, कि देखो ये तो बड़ा ही गिरा हुआ ग्रन्थ है। एक तरफ वो लोग बैठे हुए हैं जो कहेंगे कि हम तो बिलकुल डूबे हुए हैं श्रद्धा में और देखो इसका ये अर्थ है। वो भी उल्टा-पुल्टा अर्थ कर रहे हैं, दूसरी ओर वो लोग बैठे हुए हैं जो गहरायी से नफरत में डूबे हुए हैं, वो भी उल्टा अर्थ करेंगे। समयक अर्थ करने के लिए आपको न तो विश्वाशी होना है ना अविश्वाशी होना है, आपको ध्यानस्थ होना है। बड़े गौर से, बड़े शांत चित्त के साथ उसमें उतरना है, तब जा कर के पता चलता है कि बात तो इतनी दूर की थी।

और हम तो समझ ही नहीं पा रहे थे। हम क्या सोच रहे थे?देखिये कुरान की जहाँ तक बात है, मोहम्मद ऐसे समय में थे, जो बड़ा ही हिंसक समय था। जिस जगह में वो थे, अरब, वो बड़ी ज़बरदस्त हिंसक जगह थी, कबीलाई संस्कृति थी तो वो एक पैगम्बर बाद में थे पहले एक समाज सुधारक थे। और जब आप समाज सुधारक हो तो आपको ध्यान में रखना होता है जो समाज के लोग हैं। क्योंकि बात तो आप उन्ही से कर रहे हो न। तो इसलिए शब्द ऐसे हैं कि आपको बिलकुल ऐसा लगेगा कि ये तो बिलकुल मंझे हुए शब्द हैं ही नहीं। अरे इसलिए नहीं हैं क्योंकि भाई, जो लोग पढ़ रहे हैं, उन्हें समझ भी तो आने चाहिए। ग्रन्थ का आशय ही यही है कि उससे फायदा हो, और उसके लिए उसकी एक विशिष्ट भाषा होनी चाहिए वैसी ही भाषा है, उसको उसी परिपेक्ष में देखना पढ़ेगा। और आप नहीं देख रहे तो फिर आप नादानी कर रहे हैं।

श्रोता : जैसे की ओशो ने कहा है कि तुम कृष्ण को पता नहीं कैसे कपड़े पहनाते रहते हो, पता नहीं क्या खिलाते रहते हो, अगर कृष्ण अभी यहाँ होते तो वो वही पहनते वही खाते जो तुम पहने हो, जो तुम खा रहे हो।

वक्ता : बिलकुल, मुद्दे से बहार देखने में बड़ा अनर्थ हो जाता है। अभी मैं एक बात सुन रहा था, उसमें था कि इस्लाम बड़ा स्त्री विरोधी है, नहीं तो चार शादियों की इज़ाजत क्यों देता? तो मैंने कहा कि देखना पड़ेगा कि कौन-कौन सी आयतें हैं जहाँ ऐसी बात कही गयी है। उसको पढ़ा, उसका सन्दर्भ देखा, तो बात जो निकल के आयी, वो बिलकुल दूसरी है। बात ये थी कि उस समय पर चालीस शादियां करने की परंपरा थी, और वो शादियां भी नहीं होती थी, गुलामी होती थी। तो उन्होंने चालीस को घटा के चार किया है। अब चालीस को हटा कर के एक तो नहीं किया जा सकता ना झटके में। लोग तुम्हें ही मार देंगे। और जीवन भर वो लड़ते ही रहे, लोग तो चाहते ही थे मार देना। चौबीस साल लड़ाईयां लड़ी हैं । तो आप ये नहीं देख रहे हो कि चालीस को घटा कर के चार किया गया है। आप कह रहे हो, चार क्यों है?

ये जो हमारे सामने ही है इसी के कितने अनर्थ निकले जा सकते हैं। कि एक आवाज़ आ रही है जो कह रही है अब तुम जाओ, (शेष को विदा कर देता है एक निश्चित अवधि के लिए) तुम २५ साल, तुम ३७ साल, और तुम माह पापी ५००० साल। और ये सब सोच के आप के भीतर ऐसी गहरी श्रद्धा उमड़ रही है, आप लेट गए ज़मीन पर, या अल्लाह। अरे ऐसा कुछ नहीं कहा जा रहा।

एक शायद गहरी भूल ये हुई है इंसान से कि हमने सबको लाइसेंस दे दिया है इनको पढ़ने का और सबको अनुमति दे दी है इन पर टिप्पणी करने की भी। देखिये, आप मंदिर में जाते हैं तो एक नियम है कि नहा-धो के जाइए। नमाज़ से पहले वजूह होता है। ये सब शारीरिक प्रक्रियाएं नहीं हैं, उसका अर्थ है कि जाओ पहले मन धो कर के आओ। किसको फर्क पड़ता है कि तुम्हारा मुँह साफ़ है की नहीं? क्या साफ़ होना चाहिए? मन। और जिसका मन साफ़ नहीं है उसको इन ग्रंथों में उतरना ही नहीं चाहिए। बंदर के हाथ में तलवार आ जाएगी, कुछ भी काटेगा उससे वो।

*इसमें** निशानियां हैं उन लोगों के लिए जो सोच विचार के आदि हैं *’- देखिये शब्द बहुत बारीक है, ‘निशानियां’ हैं । संकेत हैं, किन लोगों के लिए? जो सोच विचार के अभ्यासी हैं, जो दिमाग से बंद नहीं हैं । जिनमें ज़रा विवेक है, जो समझ सकते हैं। उनके लिए यहाँ पर इशारे हैं। और जो इतना मंदबुद्धि हो जो इशारे ही नहीं समझ सकता हो, वो फिर कुछ भी कर सकता है। और ये सब निशानियां ही होती हैं। इनको निशानियों के तौर पर ही लिया जाना चाहिए, तभी सत्य सामने आएगा। नहीं तो फिर शब्द सामने आएंगे। शब्द तो सत्य नहीं होते ना। चाहे वो वेद के हों, या कुरान के हों। सत्य तो शब्द के पीछे खड़ा है, और उसे देखने के लिए आँख चाहिए। तो पहले उस आँख को ठीक करिये उसके बाद शब्द में उतरिये।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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