नौकरी करें या नहीं? || आचार्य प्रशांत, वैराग्य शतकम् पर (2017)

Acharya Prashant

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नौकरी करें या नहीं? || आचार्य प्रशांत, वैराग्य शतकम् पर (2017)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम! कुछ ही महीने हुए हैं आपसे यूट्यूब के माध्यम से जुड़े हुए। 'वैराग्य शतकम' का इक्कीस्वाँ श्लोक मुझे सता रहा है, मेरे वजूद पर सवाल उठा रहा है। मैं कॉर्पोरेट में काम कर रहा हूँ तीन साल से, आप समझ ही गए होंगे मैं पापियों के लिए काम कर रहा हूँ। क्या करूँ छोड़ दूँ?

आचार्य प्रशांत: पापियों के लिए काम कर रहे हो ठीक है लेकिन कौन है वह पापी यह ठीक से समझे नहीं। बहुत जल्दी दोष रख दिया तुमने उनके ऊपर जो तुम्हारे साथ काम करते हैं या जिन्होंने तुम्हें नौकरी दी है। लोग नौकरियाँ छोड़ते हैं, बहुत नौकरियाँ छोड़ते हैं एक से दूसरी में जाते हैं। नौकरी देने वाला पापी होता अगर, मालिक में पाप होता अगर तो नौकरी छोड़ने से पाप हट जाना चाहिए था। क्योंकि लोग नौकरियाँ तो खूब छोड़ते हैं। लेकिन एक नौकरी छोड़ते हैं तो दूसरी पर जाते हैं क्योंकि पाप मालिक में नहीं है, नौकर में है। पापियों के लिए काम तो निश्चित कर रहे हो, वह पापी तुम स्वयं हो। वह पापी तुम्हारी वासना और वृत्ति है, भीतर बैठी है वासना, भीतर बैठा है डर। वह तुम को ले जाता है तमाम दुकानों पर, तमाम मालिकों की चौखट पर। जब तक भीतर पापी तुम्हारे बैठा रहेगा तब तक नौकरियाँ छोड़ने से कुछ नहीं होगा, एक नौकरी छोड़ोगे दूसरी कर लोगे। हो सकता है दूसरी नौकरी का आकार प्रकार बहुत भिन्न हो। हो सकता है दूसरी नौकरी को तुम नौकरी का नाम भी न दो। हो सकता है तुम सारी पारंपरिक नौकरियाँ छोड़कर घर पर बैठ जाओ, लेकिन फिर भी तुम किसी न किसी की ग़ुलामी ज़रूर कर रहे होगे। कोई ना कोई तुम्हारा मालिक ज़रूर बना होगा क्योंकि तुम्हारे भीतर जो वृत्ति है वह कहती ही यही है कि तुम बड़े छोटे हो, तुम किसी को मालिक बनाओ। भीतर जो हीनता बैठी हुई है, वह आश्रय माँगती है, वह सहारा माँगती है। उसे अपने पर भरोसा नहीं है वह किसी न किसी के दरवाजे जाकर ज़रूर नाक रगड़ेगी।

भर्तहरि तो कह गए पीने को साफ पानी है, पहनने को छाल है, खुले आसमान के नीचे सो जाओ, जो मिले खा लो पी लो, तुम्हें यह स्वीकार कहाँ है? तुम कहते हो अगर यह सब हो गया तू जीवन व्यर्थ हो जाएगा और भर्तहरि की बातों को शाब्दिक तौर पर मत लो। अगर वह कह रहे हैं छाल पहनो और पीने के लिए मधुर पानी हो, खाने के लिए फल हो, सोने के लिए पृथ्वी हो तो इसका आशय है कम से कम में गुजारा और कम से कम से यह न समझ लेना कि मन को मारा जा रहा है। 'कम' से आशय है ठीक उतना ही, जितना तुम्हें वास्तव में चाहिए। तो जब कम-से-कम कहा जा रहा है तो वह कुछ कम नहीं है, वह ठीक उतना ही है जितना तुम्हें वास्तव में चाहिए पर भीतर तुम्हारे कोई बैठा है, जिसे कुछ पता नहीं है कि वास्तव में तुम्हें कितना चाहिए। वह बड़ा भूखा है और वह ऐसा भूखा है कि उसे अपनी भूख का भी कुछ पता नहीं है। भूख का भी सिर्फ उसे एक धुंधला सा एहसास है। कि जैसे उसे रटा दिया गया हो कि तुझे भूखा होना चाहिए। अपनी भूख से भी वास्तव में वह संपर्क में नहीं है।

एक भूखा जीव हो, जो भीतर बैठा हो। लेकिन अपनी भूख में उसका विश्वास गहन है और जो अपने आप को भूखा मानेगा वह फिर हर उस शख्स के सामने माथा टेकेगा, जो उसकी भूख को किसी तरह भर सकता हो। क्या होता है जब कोई कंपनी, किसी पद के लिए कुछ लोगों को नौकरी पर रखना चाहती है? क्या वह जाती है और ज़बरदस्ती लोगों को लेकर आती है? यह लोग जो हर शाम, हर रात अपने दफ्तरों से अपने घर जाते हैं अगली सुबह क्या ये जंजीरों से बाँधकर दफ्तर वापस लाए जाते हैं? यह स्वेक्षा से ही तो आ रहे हैं।स्वेक्षा से ही यह गए थे नौकरी माँगने, इन्होंने देखा कि विज्ञापन है, इन्होंने देखा की जगह खाली है, और यह खुद पहुँच गए शर्ट-पैंट-टाई डालकर हमें नौकरी दे दो। तुम मालिक को क्यों पापी बोल रहे हो, तुम नौकरी देने वाले को क्यों पापी बोल रहे हो? उसने तुम्हें रस्सी से नहीं बाँधा, वह तुमसे बेगार नहीं करवा रहा, और रोज़ सुबह वो तमंचे के बल पर, तुम्हें काम पर नहीं ला रहा। तुम्हारी भूख, तुम्हारी लिप्सा, तुम्हारा डर, तुम्हारा लालच तुम्हें खींच करके लाता है। असली बात वह है।

जब तुम सहमत होते हो कि नौकरी करोगे, तब अनुबंध या करार तुमने नौकरी दाता के साथ नहीं किया है तब अनुबंध किया है तुमने अपनी झूठ के साथ, अहंकार के साथ, अपनी भूख के साथ। यह बात साफ समझ लो जब तक वह भूख कायम रहेगी, यह ग़ुलामी कायम रहेगी। जब तक तुम्हारे भीतर हीनता का एहसास कायम रहेगा, तब तक तुम किसी ना किसी के गुलाम बने रहोगे। हाँ तुम किसके गुलाम हो यह बात बदल सकती है। आज तुम किसी ऐसे के गुलाम हो जो तुम्हारा अन्नदाता है, कल तुम किसी ऐसे के गुलाम हो सकते हो जिससे तुमको मत भिन्नता हो, परसों किसी ऐसे के गुलाम हो सकते हो जिससे तुम्हें कोई आकर्षण हो गया हो,फिर हो सकता है कि कोई ज्ञानदाता हो तुम उसके गुलाम बन जाओ। पर भीतर जब तक भिखारी बैठा हुआ है तब तक कोई न कोई दाता तो तुम्हारे सर पर चढ़ा ही रहेगा। कभी धन दाता, कभी आश्रय दाता, कभी प्रेम दाता, झूठा प्रेम! कभी संबल दाता।

नौकरी को मत छोड़ो, उसको छोड़ो जो नौकरी की तरफ भागा था। उसके बाद नौकरी शेष रहनी हो तो रहे और जाती हो तो जाए। उसको छोड़ो जो एक नौकरी में होते हुए, दूसरी नौकरी का विज्ञापन देखता है कर पाता है 10% तनख्वा ज्यादा मिलेगी वहाँ, तो लार टपकाने लगता। जब तुम किसी नौकरी में घुसते हो तो बड़ा सीमित प्रयोजन होता है तुम्हारा कि तुम्हारे झूठे हितों की पूर्ति होती रहे, तब यह थोड़े ही देखते हो तुम कि किसके लिए काम कर रहे हो? तुम यह थोड़े ही देखते हो कि तुम किसके लिए दिन-रात एक कर रहे हो, खून पसीना एक कर रहे हो? वह कौन है? और वह तुम्हारे श्रम का, तुम्हारे द्वारा उत्पादित पैसे का क्या कर रहा है? तुमने कभी जानना चाहा कि जो महानुभाव तुम्हारी कंपनी के ऊँचे से ऊँचे शिखरों पर बैठे हैं, बोर्ड में हैं, स्टेक होल्डर इत्यादि हैं, वह कौन है तुम उन्हीं के लिए तो काम कर रहे हो न? तुमने कहा तुम कॉर्पोरेट में काम कर रहे हो, कॉर्पोरेट का प्रथम सिद्धांत है- कंपनी का वजूद होता है शेयर होल्डर के लिए। तो तुम नौकर हो तो तुम कंपनी के नौकर नहीं हो, वास्तव में तुम शेयर-होल्डर के नौकर हो। एक तरीके से उसके व्यक्तिगत नौकर और किसी का नौकर हो जाना भी बुरी बात नहीं अगर मालिक उच्च कोटि का हो। मालिक में योग्यता हो तो हंसते-हंसते सर झुका दो और नौकर हो जाओ। तुमने कभी जानना चाहा तुम्हारे मालिकों में कितनी योग्यता है? कोई तुम्हें महीने का एक लाख देता है तो तुमसे पाँच लाख-दस लाख उगाहता भी है। तुम उतना उसे कमा कर देते हो तो एक लाख तुम्हें देता है। तुमने कभी जानना चाहा जो पैसा तुम उसे कमा कर दे रहे हो उसका करता क्या है। क्योंकि वह जो कुछ भी करता है उस पैसे का, उससे पूरे संसार पर फर्क पड़ता है। उस पैसे का कमाया जाना और उस पैसे का खर्च होना किसी का व्यक्तिगत मामला नहीं है।

तुम जिनके हाथ में पैसा दे रहे हो अगर वह तुम्हारे पैसे से अपनी बीवियों को लंदन में ख़रीदारी करवाते हैं, तो तुम कर क्या रहे हो। तुम जिनको पैसा कमा-कमा कर दे रहे हो अगर वह अपने पैसे से प्राइवेट जेट ख़रीदते हैं, आलीशान बंगले बनवाते हैं तो तुम क्या कर रहे हो? तुम अपना यह एकमात्र जन्म इसलिए गवाँ रहे हो ताकि के किसी की मोटी बीवी लंदन में जाकर गहने और साड़ियाँ, जो कुछ भी है ख़रीद सके।

कोई तुमसे पूछे कि तुम्हारे जन्म की सार्थकता क्या रही? तो तुम कहोगे कि मैं दिन के 12 घंटे काम करता हूँ ताकि कोई अपने परिवार को हजार तरह की अय्याशियाँ करवा सके। तुम्हें लाज नहीं आती? तुम इसलिए पैदा हुए थे? किसी मोटे पूँजीपति की मोटी बीवी को शॉर्टकट पहनाने के लिए जन्म हुआ था तुम्हारा? जितनी भद्दी को दिखती है उस शॉर्ट स्कर्ट में, उतना भद्दा तुम्हारा जीवन है। और पूँजीपतियों की जो बीवियां होती है वह आम तौर पर मोटी और भद्दी ही होती हैं हाँ बीवियों के अलावा जो अन्य सहेलियाँ होती हैं वह ज़रूर छरहरी और आकर्षक होती है। तुम दिन रात इसलिए खट रहे हो ताकि कोई शेयर होल्डर तुम्हारी कमाई से पांच सहेलियाँ पाल सकें? वह तुम्हारा अन्नदाता है तुम उसके सखी दाता हो? मैं कमा कमा कर दूँगा ताकि तू रंगरलिया मना सके। और तुम्हारे द्वारा किए गए श्रम से बहुत अनर्थ हो रहा है, वैश्विक तल पर अनर्थ हो रहा है, आज दुनिया के सामने हजार तरह के संकट है संकटों में संकट है यह जो दुनिया का तापमान बढ़ रहा है। यह तापमान कौन बढ़ा रहा है? यह तापमान क्या गरीब लोग बढ़ा रहे हैं? यह तापमान बढ़ाने वाले दुनिया के 1% लोग हैं। ग्लोबल वार्मिंग, वैश्विक तापन का कारण दुनिया के 1% लोग हैं। 95% जो कान कार्बन उत्सर्जित हो रहा है, वह दुनिया के 1% लोगों के द्वारा हो रहा है और वह 1% लोग कौन हैं? वो वही हैं जिनके लिए तुम अपनी जवानी बर्बाद कर रहे हो और वह तुम्हारे ग्रह को नर्क बना रहे हैं, पृथ्वी को भी और तुम्हारे घर को भी। और तुम काम करे जा रहे हो।

मज़ेदार बात यह है कि अधिकांश लोग वास्तव में जिनके लिए काम कर रहे होते हैं उन्होंने उनकी शक्ल भी नहीं देखी होती है क्योंकि वह बहुत दूर बैठे होते हैं, बहुत ऊँचे। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा तुम किसके लिए काम कर गए। तुम बहुत निचले पायदान पर काम करते हो। वह ऊँचे लोग कभी-कभार, जैसे नए साल इत्यादि पर एक मेल भेज देते हैं। कंपनी के सारे 12000 कर्मचारियों को और तुम उनकी शक्ल उस मेल में देख लेते हो और खुश हो जाते हो कि मैं भारत में काम कर रहा था और अमेरिका से, हेड क्वार्टर से मुझे भी ईमेल आई या की जब कोई बहुत बड़ा ले-ऑफ होना होता है,बहुत सारे कर्मचारियों की छटनी होनी होती है तब आती है एक ईमेल जो बताती है देखो हम कितने संकट के दौर से गुजर रहे हैं और संकट का दौर क्या है?

संकट का दौर यह है- कि पूरा एक देश ख़रीदना था अमेरिका में बैठे उस धन पशु को, वह ख़रीद नहीं पाया। बीवी कह रही थी एक पूरा शहर ख़रीद के दो, वह ख़रीद नहीं पाया बड़ा संकट आ गया है। कंपनी इतना पैदा ही नहीं कर पाई कि उसकी सारी लालसाएँ और भोग-विलास पूरी कर पाए। बड़ा संकट आ गया है तो वह लिख कर भेजेगा कि अब ऑर्गेनाइजेशनल रिस्ट्रक्चरिंग होगी, वह आपको बताएगा भी नहीं सीधे-सीधे कि आप को लात मारी जा रही है। वह बड़े चिकने-चुपड़े और संयमित शब्दों में तुम्हारा काम तमाम कर देगा। ऐसों के द्वार के कुत्ते इसलिए बने हुए हो, क्योंकि पापी तुम्हारे भीतर बैठा है। तुम लालची हो। वो टुकड़ा डालते हैं तुम्हारे सामने और तुम लालच में दुम हिलाना शुरू कर देते हो और बहुत बड़ा टुकड़ा भी नहीं डालना पड़ता ऐसे भूखे कुत्ते हैं हम। किसी को बता दो कि 8 फ़ीसदी इज़ाफा हो गया है उसकी तनख्वा में, वह नाचना शुरू कर देता है, किसी को 5% बोनस दे दो, वह पगला जाता है। बस इतनी-सी ही रोटी डालनी पड़ती है। लालच न होता आम आदमी में तो उसका शोषण क्यों होता? और इस सिद्धांत को दिल से लगा लो कभी भी पाओ कि तुम्हारा शोषण हो रहा है तो उसकी वजह सिर्फ़ और सिर्फ़ लालच और डर होंगे। जिस कुत्ते की हम बात कर रहे हैं उस कुत्ते के गले में जो पट्टा है, उसका नाम है 'लालच'। लालच हमें हजार तरह की ठोकरे खाने के लिए, बेगैरत होने के लिए, निर्लज्ज होने के लिए मजबूर कर देता है। वह लालच कुछ भी हो सकता है- पैसे का लालच तो है ही, सुरक्षा का लालच, देह का लालच, कामवासना, दूसरों की नजर में अच्छा बने रहने का लालच, ज़िम्मेदार कहलाने का लालच और लालच का हीं दूसरा नाम 'डर' भी है। एक से एक लोग होते हैं, पूछो कि क्यों फंसे हुए हो? क्या कर रहे हो? वह कहेंगे- ज़िम्मेदारियाँ पूरी कर रहे हैं। कर्म का सिर्फ एक उचित आधार हो सकता है- वो है सत्यनिष्ठा। उसके अलावा तुम जिस भी वजह से काम कर रहे हो तुम्हारा काम गलत है मत करो! ऊँचे-ऊँचे शब्दों के पीछे मत छुपो, मत कहो कि मैं ज़िम्मेदारी पूरी करने के लिए काम करता हूँ, मत कहो मैं प्रेम के लिए काम करता हूँ। एक से पूछा मैंने तुम ये काम क्यों करते हो? देखिए केमिकल इंजीनियरिंग की डिग्री है मेरे पास 4 साल मैंने वहाँ लगाए थे, तो वह 4 साल व्यर्थ कैसे जाने दूँ। तो मैं अब जीवन भर केमिकल इंडस्ट्री में ही काम करूँगा, यह तर्क है। किस को बेवकूफ़ बना रहे हो तुम कह रहे हो दूसरी बोल इसलिए करनी है क्योंकि पहली कर दी, तुम कह रहे हो एक झूठ जिया है तो उसके कारण सौ और झूठ जीने हैं। यह क्या तर्क हैं?

एक आया मेरे पास दुःखी। मैंने पूछा क्या है? बोला गलत शादी हो गई। मैंने कहा-वो तो सभी की होती है। खैर कुछ बातें उससे कहीं। मुझे लगा नहीं की यह बातें उसके कान में घुसी, पर वह बातें सुनकर वह चला गया। वह दोबारा आया कुछ महीनों बाद अब वह बहुत-बहुत दुःखी था। मैंने कहा- अब क्या? बोला गलत नौकरी मिल गई। मैंने कहा पहले तुम मेरे पास आए थे गलत शादी हो गई, अब आए हो गलत नौकरी मिल गई यह हो क्या रहा है तेरे साथ? बोला अब वो बीवी की इच्छाएं तो पूरी करनी पड़ेगी न? तो इसलिए यह नौकरी पकड़ी है। यह तुम देख रहे हो क्या हो रहा है? या इतने बुद्धू हो कि कुछ दिखाई नहीं देता? तुमने एक गलती करी और फिर उस गलती के फलस्वरूप अब दूसरी गलती कर रहे हो। गलत बीवी उठा लाए और अब उस गलत बीवी की इच्छाएं पूरी करने के लिए या उसका मन रखने के लिए तुम अब नौकरी भी गलत कर रहे हो। पहली गलती तो यह करी कि माँ-बाप से सच्चा रिश्ता नहीं रखा। वह झूठ की पट्टी पढ़ाते गए और तुम पढ़ते गए और अब दूसरी गलती यह करो कि उनके कहे अनुसार अब जीवन भी बिता लो। कि उनकी इच्छा है- मैं फ़लाने तरह की नौकरी करूँ तो करनी ही पड़ेगी। तुम्हारे संबंधी अति स्वस्थ होते, माँ-बाप से तुम्हारे रिश्ते यदि सहज और प्रेमपूर्ण होते, उन संबंधों का आधार यदि सच्चाई होती तो वह कभी यह दुराग्रह नहीं करते कि तुम घटिया और जलील नौकरी में उतरो पैसों के लिए। पहली भूल तो यह थी कि वह संबंध ही सदा से कुत्सित थे और अब उस भूल को ठीक करने की जगह तुम उसी भूल को आधार बनाकर दूसरी भूल करते हो फिर तीसरी फिर चौथी।

और कोई क्यों करता है उस तरह की कॉर्पोरेट नौकरियाँ जिसमें तुम फंसे हुए हो? 1 महीने तनख्वा ना मिले तो कौन रुकेगा वहाँ? लालच के मारे ही तो सब करते हैं कि प्रेम है किसी को उस दफ्तर से? कल मेरी किसी से बात हो रही थी वह एक अंतर्राष्ट्रीय टैक्सी सर्विस कंपनी में काम करता है जो अपने आप को एक टेक्नोलॉजी कंपनी बोलती है। हम सब जानते ही हैं हम सब उनके ग्राहक हैं। तो मैंने पूछा तुम क्या करते हो?बोला डाटा एनालिसिस। मैंने बोला डाटा क्या एनालाइज करते हो? बोला यही कि पैसेंजर कहाँ चढ़ा कहाँ उतरा और उससे संबंधित 50 बातें। मैंने कहा अच्छा एक बात बताओ कोई इसलिए चढ़ा हो कि उसे कहीं पहुँचकर, किसी की हत्या करनी है। इससे तुम्हारी कंपनी को अंतर पड़ता है? वह जो पूरा डाटा टेबल है उसमें कोई कॉलम ऐसा है जिसमें यह फील्ड भी रिकॉर्ड होता जो मेरी गाड़ी में बैठा उसका मन और मंतव्य क्या थे?? कोई तुम्हारी गाड़ी में चढ़े, मंजिल पर पहुँचे जितना भाड़ा था उतना देकर उतर जाए तो तुम्हारी कंपनी खुश रहेगी या नहीं रहेगी? बिल्कुल खुश रहेगी क्योंकि भाड़ा पूरा दिया। मैंने कहा बिल्कुल ठीक बात। और कोई तुम्हारी गाड़ी पर चढ़े और सत्संग के लिए जा रहा हो और ₹200 भाड़ा आ रहा हो और वह डेढ़ सौ ही दे तो तुम्हारी कंपनी बिदकेगी न? बोला हाँ बिल्कुल बिदकेगी। मैंने कहा- अब बताओ तुम कहाँ काम कर रहे हो? तुम्हारी कंपनी को इससे बिल्कुल प्रयोजन नहीं जो बैठ रहा है वह कौन है, जो यात्रा हो रही है वह हो क्यों रही है किस दिशा हो रही है? तुम्हारी कंपनी को बस यह प्रयोजन है कि जो बैठा उसकी जेब जरा हल्की कर दी जाए। ऐंसों के लिए तुम काम कर रहे हो। एक जिंदगी में बार-बार दोहराता हूँ क्यों व्यर्थ गवा रहे हो? यह तो भाड़े के लोग हैं, मर्सनरीज़! जीवन जीने के दो ही तरीके हैं या तो मर्सनरी हो के जी लो या मिशनरी होके। तुम क्यों भाड़े के टट्टू बने हुए हो? ग़ुलामी करनी है तो सत्य की करो। यह थोड़े ही कि किसी ने गाड़ी बुलाई और तुम गाड़ी लेकर पहुँच गए जी हुजूर! वह बैठा और बोला ले चलो फलानी जगह, तुम ले गए, वह उतर गया और तुमने कहा जी हुज़ूर। यही तुम्हारा रिश्ता है बस उस इंसान से। यह इंसान का इंसान से रिश्ता है। तू मुझे बता तुझे कहाँ जाना है? मैं तुझे छोड़ दूँगा। मैं जानना भी नहीं चाहूँगा तू सही जगह जा भी रहा है कि नहीं। यह क्रूरता नहीं है क्या? यह हिंसा नहीं है क्या? कोई जाता हो आत्महत्या करने और बैठे तुम्हारी गाड़ी पर तुम मुझसे बस यह पूछोगे कि तू मुझे पूरे पैसे दे रहा है कि नहीं उतर के? और अगर तुम्हारी गाड़ी से उतर कर उसने तुम्हें पूरे पैसे दे दिए तो भली बात किस्सा खत्म! तुम्हें फर्क ही नहीं पड़ता कि वह आत्महत्या करने के लिए उतरा है।

कुछ लड़के मिलने आए। मैंने पूछा क्या करते हो? बोले मैं सॉफ्टवेयर एनालिस्ट हूँ। मैंने कहा ठीक है अच्छी बात है। मैंने कहा कर क्या रहे हो? बोले फ़लाने प्रोज़ेक्ट में काम कर रहे हैं। मैंने कहा बताओ उसके बारे में कुछ। बोले हमें बस अपने मॉड्यूल के बारे में पता है उसके आगे कुछ पता ही नहीं। मैंने कहा तुम्हे कुछ तो पता होगा कि ये जो पूरा प्रोजेक्ट होगा, अंत में जो पूरा सॉफ्टवेयर बैगेज निकलेगा उसका इस्तेमाल कौन करेगा? उपयोगकर्ता कौन है?बोले वो हम जानते नहीं। न हमने पूछा न उन्होंने बताया। एक थोड़ा होशियार था उसने कहीं से पता करके दो-चार बातें बोली। मैंने कहा ये जो भी तुम बना रहे हो ये अभी कहाँ-कहाँ प्रयुक्त है? कौन लोग हैं जो इसका इस्तेमाल कर रहे हैं और किस काम के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं? हक्का-बक्का! बोला ये सब भी जानना होता है क्या? ये पूछने की बातें हैं? तुझे ये नहीं पता तू जो कर रहा है उसका इस दुनिया पर असर क्या पड़ेगा? तू ये जाने बिना करे जा रहा है, जिये जा रहा है, दिन के बारह घंटे खटे जा रहा है। और तू पूछना भी नहीं चाहता है ये जो चीज़ निकल के आ रही है ये दुनिया के साथ क्या करेगी? किनके हाथों में जाएगी? किनकी वासना की पूर्ति करेगी? किसको हानि पहुँचाएगी? किसके ख़िलाफ़ इस्तेमाल होगी? किसके लिए इस्तेमाल होगी? तू जानना भी नहीं चाहता? तेरी कोई वृहद चेतना है कि नहीं? या तू बिल का चूहा है? कूएँ का मेढ़क है? तुझे बस इससे मतलब है कि तुझे रोटी मिल गयी। जैसे हिटलर के कारखानों में काम करने वाले मज़दूर। हिटलर के गैस चैंबर में भी तो कर्मचारी नियुक्त होंगे न? युद्ध ख़त्म होने के बाद उनमें से तमाम लोगों को पकड़ा गया, बड़े शोध किये गए, इंटरव्यू इत्यादि। उनसे पूछा गया तुम क्या करते थे? बोले हम अपना काम करते थे, कर्तव्य निभाते थे, ड्यूटी दी गयी थी हम वही करते थे। हमें और क्या मतलब? हमसे कहा गया था गिनो आज कितने मरे? हम गिन देते थे आज इतने मरे। हमने थोड़े ही मारा। ये तुम्हारा हाल है। और याद रखना तुम में से हर एक हिटलर के गैस चैंबरों के कर्मचारियों की तरह ही है। तुम जो कर रहे हो उससे मौंते हो रही हैं। वो मौंते बस तुम्हें दिखती नहीं है ठीक वैसे जैसे जब पैकेज्ड माँस आता है तो उस माँस के पीछे की मौत दिखाई नहीं देती है। तुम बस जाते हो सुपर मार्केट में और पैकेज्ड मीट ख़रीद लाते हो। उसके पीछे जो खून है, जो हत्या है, जो कष्ट है, जो पीड़ा है वो दिखाई नहीं देता। नहीं दिखाई देता कि एक जीव के प्राण कैसे तड़पे होंगे? जब उसकी जान ली गई होगी, वो पैकेज्ड मीट में कहीं दिखाई नहीं देता। ठीक तुम उसी तरह काम कर रहे हो, तुम्हारे उत्पाद सब पैकेज्ड मीट हैं। तुम सब गैस चेंबर के कर्मचारी हो। तुम्हें पता भी नहीं है तुम्हारे करे के कारण कितने लोग कितना कष्ट पा रहे हैं। ऐसे ही थोड़ी है कि यह धरती आज मिटने की कगार पर आ गई है। अकारण नहीं हुआ है यह। यह तुम जैसे लोगों की सौगात है।

कहानी कहती है कि दमनकारियों की फौजें बढ़ी आ रही थी, गंगा यमुना दोआब रौंदे जा रही थी और उत्तर भारत में तब भी जनसंख्या बड़ी और घनी थी। किसानों ने आम तौर पर कोई विद्रोह में ही नहीं किया। उनसे पूछा गया क्यों? बोले "कौन रिपु होए हमें क्या हानि?" हमें तो कर देना है, टैक्स, लगान। इसको दें चाहे उसको दें। आज यह शोषण करता है हमारा कल वो करेगा। आज इसके सिपाही आकर के फसलें उठा ले जाते हैं, कर उठा ले जाते हैं, लगान उगाह लेते हैं, कल उसके सिपाही लगान उगाह लेंगे। क्या फर्क पड़ता है? वह हालत है तुम्हारी। तुम कहते हो हम तो पैदा ही हुए हैं पिटने के लिए, बलत्कृत होने के लिए, लूटने के लिए। कोई लूटे हमें फर्क क्या पड़ता है? तुम हार मान चुके हो, तुम बड़ी हीनता से ग्रस्त हो, तुम ने घुटने टेक दिए हैं, तुम्हारी जवानी झड़ गई है।

तुम सब पच्चीस-पच्चीस साल के तीस-तीस साल के बुड्ढे हो। तुम्हारे भीतर कोई शोला, कोई अंगारा नहीं है। तुम इन धनपतियों को कुत्तों को रोटी डालते हुए देखते हो तो तुम्हारे भीतर जुगुप्सा नहीं उठती, तुम्हारे भीतर लालच उठता है। यह कितनी खौफनाक बात है? तुम इस पूरे खेल को देखते हो, तो तुम्हारे भीतर घृणा नहीं उठती, तुम्हारे भीतर लालच उठता है। तुम कहते हो सब कुत्तों को रोटी मिल गई, हम ही क्यों रह गए? तुम जाकर के उन कुत्तों में अलख नहीं जगाते, लौ नहीं लगाते, शंखनाद नहीं करते तुम जाकर के कुत्तों की कतार में पीछे खड़े हो जाते हो। हमें भी तो मिले रोटी, हम ही क्यों वंचित रह जाएँ? कुछ बेवकूफ़, चतुर लोगों की चतुराई, पूरी मानवता को भारी पड़ रही है। और मैं उनको दोष नहीं देता, उनकी तो तारीफ़ की जानी चाहिए कि वह मुट्ठी भर हैं और उन्होंने 8 अरब लोगों की इस पृथ्वी को शिकंजे में कसा हुआ है। वह मुट्ठी भर लोग हैं, कुछ 100 लोग, अधिक से अधिक कुछ हजार लोग। जो इस पृथ्वी के भाग्य विधाता हैं उनकी तो तारीफ़ होनी चाहिए। लानतें तो मैं भेजता हूँ बाकी सब आठ अरब लोगों पर जो कुत्ते बन कर घूम रहे हैं, भिखारी बन कर घूम रहे हैं, कटोरा लिए हुए। जिन्हें लाज नहीं आती बेवजह ग़ुलामी करते हुए। भूख बड़ी बात है पर बेवजह भूख और कितनी बड़ी भूख? कितना बड़ा पेट है तुम्हारा जो भरता ही नहीं? तुमने उसमें फर्नीचर डाल दिया, मकान डाल दिया या गाड़ी डाल दी, बीवी डाल दी, ज्ञान डाल दिया, भरता ही नहीं? दुनियाभर की ख़रीदारी कर के ले आते हो, शॉपिंग करके उसमें डाल दी। घर भर का सामान उसमें डाल दिया एक मोटी सास उसमें डाल दी और पेट भरता ही नहीं। जो कुछ भोगा जा सकता था तुमने सब भोग लिया और पेट भरता ही नहीं? और जो भोग रहे हो उससे अपच और हो रहा है, दस्त लगे हुए हैं और ठूसे जा रहे हो। जो खाया है वो फला है आज तक? पर और खाने की लिप्सा मिटती ही नहीं तुमको ये छोटी सी बात समझ में नहीं आती कि सच्चाई के अलावा जीने का कोई आधार नहीं हो सकता और निर्भयता के अलावा जीने का कोई तरीका नहीं हो सकता। सारा अध्यात्म इस छोटी-सी बात में है। सच मेरा आधार है और निर्भयता मेरा तरीका। बात ख़त्म!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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