प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे दफ़्तर का काम तो हम करते ही हैं, लेकिन अपनी जो ख़ुद की इच्छा है, चैन या शांति की, उसके लिए अलग से समय कैसे निकालें?
आचार्य प्रशांत: ऑफिस (दफ़्तर) कोई प्रथम मूल्य तो नहीं हो सकता न, कि ऑफिस जाना ही जाना है। ऑफिस में अगर चैन मिलता है तो जाओ, नहीं तो मत जाओ भाई, बदल दो। तुम नौकरी के हो या नौकरी तुम्हारी है? तुम क्या बोलते हो ‘नौकरी मुझे कर रही है’, ये वक्तव्य है तुम्हारा? हम जीते लेकिन ऐसे ही हैं। हम नौकरी नहीं करते, नौकरी हमें करती है। तो क्यों नौकरी से ‘करवा’ रहे हो? (सभी हँसते हैं)
प्र: अगर नौकरी नहीं करूँगा तो पैसे कहाँ से आएँगे?
आचार्य: तुम्हें अंततः क्या चाहिए था?
प्र: हैप्पीनेस (खुशी)।
आचार्य: वो अगर सीधे-सीधे मिलती हो तो? इतना लम्बा घूम कर न मिले तो?
प्र: ऐसा तो है ही नहीं।
आचार्य: है, पर तुमने धारणा ये बना रखी है कि जब तक तिकड़म नहीं लगाओगे, जब तक गोल-गोल घूमोगे नहीं, तब तक आख़िरी लक्ष्य मिल नहीं सकता। आध्यात्मिकता का मूल सिद्धांत, मूल बात ही यही है कि जो सर्वाधिक क़ीमती है, जो असली चीज़ है, वो सामने खड़ी है, उसके लिए इतने चक्कर और इतनी तिकड़में लगाने की ज़रुरत नहीं है। तुम्हारी हालत ऐसी है कि जैसे तुम्हें मेरे पास आना हो और तुम इस दरवाज़े से निकलो, और उस दरवाज़े से गोल घूम कर, इधर से हो कर फिर इधर से आओ। मैं सीधे बैठा हूँ, सामने हूँ, इतना गोल घूमने की ज़रुरत नहीं है।
हमारे मन में डर बैठ गया है, वहम बैठ गया है। हम मान ही नहीं सकते कि गोल घूमे बिना भी जीवन जिया जा सकता है और न सिर्फ़ जिया जा सकता है बल्कि मज़े में जिया जा सकता है। हमने ये मान लिया है कि खुशी का मतलब ही है कि बीच में मध्यस्थ कोई बैठा होगा, उस मध्यस्थ को तुमने क्या नाम दिया है, ‘दफ़्तर’। तुम कह रहे हो, दफ़्तर नहीं है, और जो पचास बातें तुमने बोलीं कि ये सिक्युरिटी , ये पैसा, पाँच साल के गोल (लक्ष्य), और ये बीच के तुमने बहुत सारे जैसे दलाल बैठा दिये। काम सीधे हो सकता है लेकिन बीच में ये सब बैठे हुए हैं और ये कमीशन ले रहे हैं। और कमीशन इनका ऐसा है कि तुम यहाँ से प्रेम-पत्र भेजते हो अपनी मंज़िल को, अपनी ख़्वाहिश को, जो तुम्हारी उच्चतम आकांक्षा है उसको और बीच में उसका कोई एक हिस्सा ये रख लेता है, एक हिस्सा ये रख लेता है, पाँच प्रतिशत इसने रख लिया, उसने रख लिया और आखिर में कुछ नहीं पहुँचता, खाली लिफ़ाफ़ा; कभी वो भी नहीं पहुँचता। सब खा जाते हैं यह बिचौलिये। चाहते हो खुशी, एक तिहाई खुशी ऑफिस में छोड़ आते हो, फिर जो यहाँ बची उसको यहाँ छोड़ दिया, फिर वो बैलेंसिंग (संतुलन) में छोड़ दिया, फिर वो सिक्युरिटी (सुरक्षा) में छोड़ दिया, जितनी चीज़ों का आपने नाम लिया। जो तुम्हें चाहिए वो इन सबको खिलाए दे रहे ह, तो तुम्हारे लिए बचेगी कहाँ?
जैसे कि कोई चला हो कि मैदान में जाकर दौड़ेंगे, और हरा-भरा लहलहाता मैदान है, वहाँ दौड़ने की बात और है। और मैदान हो सामने, जैसे यहाँ सामने मैदान है बढ़िया, जितना दौड़ना हो दौड़िए। लेकिन मैदान तक जाने के लिए वो इतना लम्बा रास्ता ले, ऐसा घुमावदार कि जब मैदान पहुँचे तो दौड़ने की न हिम्मत बचे न ऊर्जा। लो हो गया!
ये हमारी हालत है। जो हमें पाना है, हम उस तक पहुँचने के काबिल ही नहीं रहते क्योंकि हम टेढ़े रास्तों पर चलते हैं। जानते हो टेढ़े रास्तों पर चलने की इस वृत्ति को क्या कहते हैं, इसी को कहते है ‘अहंकार’, अहंकार और कुछ नहीं है, यही है। जो सीधे-सीधे हो सकता है, वो सीधे नहीं करूँगा। ज़रा तिरछा चलूँगा, टेढ़ी बात बोलूँगा। प्यास लगी है और सामने पानी रखा है तो ये नहीं कहूँगा ‘मुझे पानी चाहिए’। मैं कहूँगा, ‘अच्छा, प्यास बस तुम्हें ही लगती है?’ ऐसे लोग देखे हैं न। दो लोग बैठे हैं, एक के पास पानी है, अभी ज़रा आपको प्यास लगी है तो ये सीधे सरल तरीके से नहीं कहेंगे कि मुझे पानी चाहिए। कहेंगे, ‘अच्छा, प्यास बस तुम्हें लगती है?’, यही कह देंगे, ‘अच्छा, पानी दबा कर बैठे हो, अपने प्यारों को पिलाओगे।’ ये अभी भी नहीं कहेंगे कि मुझे चाहिए, ताने मारेंगे। इन्हें कुछ नहीं मिलता, ये प्यासे ही मरते हैं।
यही अहंकार है, सीधे काम को सीधे न करना, कि जैसे चाहिए हो तुम्हें कि कोई तुम्हारे पास आए, तो तुम सीधे उससे न बोलो कि पास आ जाओ। तीन शब्दों में काम हो जाएगा न, ’पास आ जाओ’ तुम उससे कह रहे हो, ‘और, घूम आये दो जहाँ?’ ऐसे लोगों से मिले हो कि नहीं? किसी की तुम्हें बहुत याद आ रही है और वो आ गया और तुम उससे बोलो, ‘आज रस्ता कैसे भूल गये?’ आज रस्ता कैसे भूल गये! या कि, ‘आज सूरज किधर से उगा था?’ तुम्हें सूरज से इतना मतलब है? तुम रोज़ परखते हो, किधर से उग रहा है? तुम वास्तव में इतने बेहोश हो कि कभी वो दक्षिण से भी उग आये तो तुम्हें पता नहीं चलेगा। लेकिन तुम्हें मुहावरेबाज़ी ख़ूब करनी है, तानेबाज़ी ख़ूब करनी है, ये अहंकार है, सीधे न बोलना कि याद आ रही है, आ जाओ, सीधे न कहना कि प्यास लगी है, सीधे न कहना कि प्यार है। फुलझड़ियाँ मार रहे हैं, इधर-उधर, रिवर्स स्वीप खेलेंगे, स्ट्रेट नहीं खेल रहे हैं, वो बल्ला घुमाएँगे। और कितना फूहड़ लगता है न। कई बार देखा है, रिवर्स स्वीप खेलते हुए बोल्ड हो गये, मिडल स्टंप , वो हाथ में बल्ला टेढ़ा करके बैठा हुआ है, और फोटो खिंच रही हैं दना-दन। ज़्यादातर लोग हममें से ज़िंदगी ऐसे ही जीते हैं, टेढ़े बल्ले से, अब वो पिच पर बैठ गये हैं, सामने ऐसे, जैसे धोबी कपड़ा धो रहा हो, ऐसे उन्होंने बल्ला पकड़ रखा है, होशियार बन रहे थे।
प्र: सदा के लिए खुशी कैसे लाएँ?
आचार्य: ‘कैसे’ का तो अर्थ ही होता है कि बीच में कोई तरीक़ा पकडूँगा, ‘कैसे’ का अर्थ ही होता है कि आज तरीक़ा लगाऊँगा तो कल खुशी आएगी। ‘कैसे’ पूछ करके आपने दो चीज़ों को समाविष्ट कर लिया, पहला किसी दूसरे को जो बिचौलिया बनेगा, माध्यम बनेगा और दूसरा समय को। जहाँ आप दूसरे को ले आये और जहाँ आप समय अर्थात भविष्य को ले आये, वहाँ अपने खुशी को तिरोहित कर दिया। अब वो नहीं मिलेगी। यही बात पकड़ लो। जहाँ आपने यह कह दिया कि किसी के ज़रिये मिलेगी खुशी और जहाँ आपने यह कह दिया कि आज काम करूँगा तो नतीजे में कल मिलेगा आनंद, तहाँ आपने आनंद की संभावना को शून्य कर दिया, अब नहीं मिलेगा।
और हम तो यही चाल चलते हैं, यही हमारा तरीक़ा है, बच्चों को भी यही सिखाते हैं, ‘बेटा आज मेहनत करो, कल झाड़ पर चढ़ोगे’ या कि, ‘अगर जीवन में आनंदित रहना है तो फलाना ज़रिया अख़्तियार करो, ज़रिया जरूरी है’। और जहाँ ज़रिया आया और जहाँ भविष्य आया, तहाँ आनंद का लोप हो गया, भय आ गया। जो काम कल होना है, वो हो भी सकता है और नहीं भी, और अगर आप कल पर निर्भर हो तो आज डरे हुए रहोगे क्योंकि कल नहीं भी हो सकता है।
पूर्ण आश्वस्ति तो बस उसकी होती है जो ठीक अभी हो ही जाए; उसके अलावा किसी चीज़ की आश्वस्ति नहीं। कोई आपसे बोले कि कल आपसे मिलेगा ही मिलेगा, कभी सौ प्रतिशत पक्का होता है कि मिलेगा? और कल जो मिलना है, अगर वो आनंद जैसी मूल्यवान वस्तु हो तो फिर तो दिल धड़कता ही रहेगा। क्योंकि अब बात ऐसी हो गयी है कि जैसे कोई कहे कि कल तुम्हें दस करोड़ मिलने हैं। दस करोड़ कल मिलने हैं, रात भर दिल धड़केगा, नींद ही नहीं आएगी। जितनी क़ीमती चीज़ को जितनी दूर टालोगे, तुम उतने ही ज़्यादा बेचैन रहोगे। शांति से, सत्य से और आनंद से ज़्यादा क़ीमती कुछ होता नहीं, तुमने जैसे ही उसको भविष्य पर टाला, तुम्हारी रातों की नींद उड़ गयी। एक पिज़्ज़ा ऑर्डर करते हो, तीस मिनट में आना होता है, तीस मिनट में तुम कुलबुला जाते हो। और तुम बोल दो, ‘आनंद आएगा दो साल बाद, जब मेरी फैक्टरी (कारखाने) से मुनाफ़ा होना शुरू होगा, तब तो गए। तीस मिनट में कुलबुला जाते हो, दो साल में तो (गए)। जो असली है उसको कल पर मत टालो, जो असली है उसके लिए किसी को ज़रिया मत बनाओ, बीच में मध्यस्थ मत खड़े करो। ये मत कहो कि उसको पा लूँगा, तो मिलेगा चैन। अजी हटो, ये तुमने बीच में एक दलाल खड़ा कर दिया। ये मत कहो कि फलानी परीक्षा पार कर लूँगा, तो मिलेगी शांति; ये तुमने बेवजह शर्त रख दी बीच में।
हम ऐसे ही जी रहे हैं। हमने उसको, जो जान है हमारी, शर्तों के सुपुर्द कर दिया है। जैसे कि मेरे बगल में पानी रखा हो और मैं कहूँ, ‘जब पूर्णिमा का चाँद खिलेगा तब पिऊँगा’। और मरे जा रहे हैं प्यास से, और इंतज़ार कर रहे हैं कि पूर्णिमा कब खिलेगी। पानी ने तुमसे कहा है कि पूर्णिमा के अलावा अन्य रातों को नहीं पिया जा सकता? पानी ने कहा क्या? पर यह शर्त तुम ख़ुद अपने ऊपर थोपते हो। ‘मेरा बच्चा प्यार के काबिल तभी होगा जब अट्ठानबे प्रतिशत आएँ’, प्यार तुमसे कहा है कि अट्ठासी प्रतिशत पर उसका अस्तित्व नहीं? बोलो!
पर तुम शर्त लगा देते हो, तुम कहते हो, ‘मैं अपनी नज़रों में सम्मान का पात्र तब बनूँगा जब एक करोड़ इकट्ठा कर लूँ’। अस्तित्व ने आकर के यह दीक्षा दी तुम्हें कि सम्मान सिर्फ़ करोड़पतियों को दिया जा सकता है? सड़क का एक कुत्ता हो, वो भी सम्मान का अधिकारी है। पर तुम अपने ऊपर शर्त रख लेते हो, अपनी ही नज़रों में गिरे रहते हो। जो भी कुछ आवश्यक है, उम्मीद करते रहते हो कि जब स्थितियाँ अनुकूल होंगी तब करूँगा। अब तुम जानते हो, कोई काम है जो अभी करा जाना चाहिए, पर तुम कहते हो, ’नहीं साहब, अभी ठंड बहुत है, थोड़ी गर्मी हो जाए तो करूँगा’। शर्त लगा दी न तुमने। दौड़ने जाना है और जानते हो दौड़ने जाना ज़रूरी है, तुम शर्त लगा दोगे, क्या, ‘नहीं, अभी ठंड थोड़ी कम हो जाए और वज़न मेरा थोड़ा कम हो जाए तब दौडने जाऊँगा। वज़न इतना ज़्यादा है कि दौड़ने में मज़ा नहीं आ रहा। अभी तो कुर्सी पर बैठता हूँ, बिस्तर में लेटता हूँ, पकोड़े लेकर आओ। वज़न कम होने का इंतज़ार कर रहा हूँ, कम हो जाएगा तो दौड़ने जाऊँगा’।
जो ज़रूरी है उसमें समय बीच में मत लाओ और जो ज़रूरी है उसमें बिचौलिया बीच में मत लाओ। ज़रूरी समझते हो? आवश्यक, जो अवश्य है, जो हट ही नहीं सकता। जिसको हटाने पर तुम्हारा कोई वश न चले वो है अवश्य, जिस पर तुम्हारा ज़ोर न चलता हो उसको कहते हैं अवश्य, आवश्यक। पर तुम उस पर भी ज़ोर चला देते हो, तुम उस पर भी शर्तें लाद देते हो। अब लाद दो शर्तें, तुम्हारी शर्तें मानी थोड़े ही जाएँगी। उसका तो नाम ही है ‘अवश्य’, वो बस में नहीं आएगा; तुम लगाए रहो जुगाड़।
इसीलिए हमारी पूरी हमारी ज़िंदगी जो है, वो हार का एक लम्बा सिलसिला बन जाती है; हम अवश्य को वश में करना चाहते हैं। हारेंगे ही, असंभव कोशिश कर रहे हो। और अहंकार किसको बोलते हैं, जो परमात्मा पर भी अपनी मर्ज़ी चलना चाहे, जो अवश्य को वश में करना चाहे, जो कहे, ‘अस्तित्व मेरे हिसाब से क्यों नहीं चलता? परमात्मा मेरे हिसाब से क्यों नहीं चलते? ग्रंथ मेरी बात क्यों नहीं करता? गुरु मेरे हिसाब से क्यों नहीं व्यवहार करता?’ तुम उसको बस में करना चाहते हो जो बस में किया नहीं जा सकता। इसी को अहंकार कहते हैं, अहंकार झूठ तो है ही, बहुत बड़ी मूर्खता है। तुम एक हारी हुई लड़ाई लड़ने की कोशिश कर रहे हो। तुम उस पर हुक्म चलाने की कोशिश कर रहे हो, तुम उससे कह रहे हो, ‘देख भाई, हमसे पूछकर किया कर काम’। और वह नीचे देखता है, कहता है, ‘ज़रूर! तुम्हीं से तो पूछेंगे, तुम्हारी होशियारी का नमूना तुम ख़ुद हो, तुम्हारे ही हिसाब से तो अब अस्तित्व चलेगा! अपने हिसाब से तुमने ख़ुद को चलाया और हालत देखो अपनी, थोबड़ा निहारो शीशे में, और तुम चाहते हो कि जैसे तुम हो अब तुम्हारे हिसाब से दुनिया भी चले!’
इसको सूत्र की तरह प्रयोग करना। जब भी मन में बड़ी इच्छाएँ उठें तो उनसे कहना, ‘ज़रूर!’, जब भी अवश्य को वश में करने का मन करे, तो कहना, ‘ज़रूर! आप ही तो करेंगे वश में। आप से ज़्यादा कौन धुरन्धर, कौन लाजवाब!’