प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरा दोस्त बहुत नशा करता है, वो नशा कैसे छोड़े?
आचार्य प्रशांत: सब छोड़ देगा। जब असली चीज़ ज़िन्दगी में आती है न, तो बाकी सब झड़ जाती हैं, छुटती भी नहीं हैं, क्या होता है? झड़ जाती हैं। जैसे कि तुम नदी से गीले निकलो और बहुत सारी रेत तुम्हारे पजामे में चिपक गयी हो, और थोड़ी देर में पजामा सूख गया, तो रेत अपने आप झड़ जाती है। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा, तुम चल रहे हो, रेत झड़ती जा रही है। आधा घंटा चल लिये, उतने में रेत अपने आप झड़ गयी। तुम्हें साफ़ भी नहीं करनी पड़ी।
असली के साथ रहे आओ, नकली से लड़ने की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी, वो झड़ जाएगा। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा, वो जीवन से कहाँ चला गया। उसका खयाल आना बन्द हो जाएगा। जिनकी ज़िन्दगी में मोहब्बत आ जाती है, यकीन मानो, उनका पीना अपने आप छूट जाता है। उन्हें पता ही नहीं चलता कहाँ चला गया। और जिनकी ज़िन्दगी से प्रेम चला जाता है, तुम गौर करोगे, वो तुरन्त शराब की ओर भागते हैं। अधिकांश नशेड़ी वही होते हैं, जो कहते हैं, ‘हम तो गम गलत करने आये हैं।’ फिर वो शराब पीते हैं और गज़ल करते हैं। वो गज़लें सारी क्या होती हैं? ‘बेवफ़ा, तू न हाथ आयी!’ यही तो गाते हैं?
तो शराब क्या है? प्रेम का अभाव। जो चाहिए था वो मिला नहीं, तो शराब चढ़ा रहे हैं। इनकी भी सिगरेट छूटेंगी। कबीर साहब और सिगरेट की कोई संगति नहीं। आज का दिन इसके लिए बड़ा शुभ और पहला दिन हो सकता है, जैसे कोई द्वार खुला हो। उस द्वार से यदि कबीर साहब प्रविष्ट हो गये, तो सिगरेट के सारे पैकेट उसी द्वार से बाहर हो जाने हैं। संगत इनकी बैठती ही नहीं। कबीर साहब अन्दर घुसे, तो हर सिगरेट का बोनफायर (होलिका) हो जाना है।
और अगर तुम ये कोशिश करोगे कि जीवन रुखा-सूखा रहा है, उसमें ज़रा सच्चाई, ज़रा अध्यात्म न हो, फिर भी तुम्हारे नशे छूट जाएँ, तो तुम चले आओ, रिहैब (पुनर्वसन) में चले जाओ, डिटॉक्स (विषहरण) एजेंट्स अपना लो। कुइटिंग (नशा मुक्ति) के तो, जानते हो न कुइटिंग कितनी बड़ी इंडस्ट्री है? नशा मुक्ति बहुत बड़ा उद्योग है। पता नहीं कितने तरीके के पाउडर आते हैं कि उनको चबाओ। गम्स आती हैं, इनको चबाओ, तो तुम्हारा नशा छूट जाएगा। शहर-शहर में रिहैबज़ (पुनर्वसन केन्द्र) होते हैं, उनमें जगह नहीं मिलती। उनमें भी नम्बर लगाना पड़ता है, इतने नशेड़ी हैं। और बहुत पैसा लेते हैं वो। तीन महीने रखेंगे, उसका बहुत पैसा लेंगे। वो सब असफल रहता है।
आदमी एक बार रिहैब में रहता है, दोबारा आता है। क्यों दोबारा आता है? कबीर मिले नहीं न? नशे से तो कबीर ही छुड़वाएँगे, रिहैब नहीं छुड़ा पाएगा। या तुम दमन कर दोगे, तुम अपने आप को कसम इत्यादि दोगे, तुम अपने आप को दंड दोगे या कि कोई तुम्हारे ऊपर डंडा लेकर खड़ा रहेगा कि अगर पीते पाये गये, तो थुरे जाओगे। इस तरीके के तुम्हें नाहक काम करने पड़ेंगे।
तुम्हारे जीवन में सत्य का शुभागमन हुआ है, इसकी एक ही पहचान होगी, गौर से सुन लो, जीवन से कूड़ा-करकट विलीन होने लगेगा। तुम्हारी अनुमति के बिना विलीन होने लगेगा। जैसे कि तुम सुबह उठो और अपने घर को साफ़ पाओ। रात में कचरा फैलाकर सोये थे और सुबह उठो तो अपने घर को साफ़ पाओ। तुमने साफ़ किया नहीं, साफ़ करने वाले किसी को तुमने बुलाया नहीं, कुछ रुपया-पैसा दिया नहीं, घर अपने आप साफ़ हो गया। ऐसा होता है।
घाव को खरोंचने से, और उसके चित्र लेने से और उसके बारे में रोने से, घाव ठीक नहीं होता। दवाई ले लो, सुबह उठोगे तो पाओगे घाव सुखा-सुखा सा है। दवाई अन्दर जानी चाहिए, प्रवेश होना चाहिए, द्वार मिलना चाहिए, घाव अपनेआप सूख जाता है। नकली से लड़ो मत, असली को आमन्त्रित करो। ये बात समझ आ रही है?
नकली से ध्यान बिलकुल हटा दो। एक बार जान लिया कि कुछ नकली है ― जानो ज़रूर, उस हद तक उस पर ध्यान दो वो नकली है ― जान लो और जानने के बाद उसकी बिलकुल उपेक्षा कर दो, जैसे कि वो है ही नहीं। उसके बाद तुम मुड़ जाओ, किधर को? असली की ओर। नकली को एक बार नकली जान लिया, अब उसकी अनदेखी करो। जब तक उसे नकली जाना नहीं, तब तक उसको गौर से देखो। जब तक पता ही नहीं चला कि वो नकली है, तब तक तो उसे गौर से देखो।
और जहाँ साफ़ हो जाए ये तो नकली है, तहाँ क्या करना है? अच्छा भाई, ठीक-ठीक-ठीक, पहचान गये, मैं जानता हूँ तुझे। एक बार दिख गया कि ये तो वही है, उसको बोलो, ‘मैं जानता हूँ तुझे’, और मुड़ जाओ। अब उसका विचार समर्थन योग्य नहीं है। अब तो तुम जाओ कहीं कबीर साहब बैठे हों, कहीं अष्टावक्र बैठे हों। गुरुजनों के पास चले जाओ, वहाँ काम बनेगा। अब ये रोने की बात नहीं है कि मैं डरता हूँ, कि लगता है मैं हीन भावना में जीता हूँ, कि मैं अपनी तुलना करता रहता हूँ, कि सिगरेट-शराब जीवन पर हावी है, कि ― और पचास जवान आदमी हो, विषय वासना सत्तर चीज़ें। उनका रोना क्या रो रहे हो? शुरुआत ही इससे करी है, वो तो हम सब अपने साथ लेकर पैदा होते हैं।
भाई, जीव पैदा हुए हो, इंसान पैदा हुए हो, न देवता हो, न ब्रह्मा हो। और इंसान पैदा होने का मतलब ही यही होता है कि पैदा होओगे और पहली चीज़ करोगे मूत्र-त्याग और चिल्लाना। छोटा बच्चा पैदा होता है तो ॐ (ओउम्) नहीं बोलता। कि बोलता है? पैदा होता है, तो तुरन्त आसन मारकर नहीं बैठ जाता कि योग बहुत आवश्यक है। कि पैदा होते ही मल-मूत्र, चीखना-चिल्लाना और दूध की माँग। ‘कहाँ माँ है? माँस कहाँ है माँ का?’ तो ये भूला मत करो, हम सब क्या पैदा हुए हैं? हम मल-मूत्र पैदा हुए हैं।
और वैसे भी देखो न, ये कोई संयोग मात्र थोड़े ही है कि माता-पिता के जिन अंगों से मूत्र इत्यादि का त्याग होता है वहीं से हम भी आते हैं। हम कोई बड़ी निर्मल शुद्ध जगहों से तो आये नहीं हैं। कोई ऐसा है, जो कमल की पंखुड़ी पर एक दिन पाया गया था? कि नहीं साहब, इनको आप मल-मूत्र वाला मत बोल दीजिएगा, ये तो अवतरित हुए थे, कमल दल पर।
गन्धाता हुआ ही पैदा होता है जीव। आपमें से किसी ने अगर नवजात का जन्म देखा हो, तो वो जानता है मैं क्या बोल रहा हूँ। गन्ध-ही-गन्ध फैली होती है, मल-ही-मल और माँ की वेदना। मृत्यु तुल्य होती है प्रसव वेदना। वो भी चीख रही है, चिल्ला रही है, हाथ-पाँव पटक रही है, जैसे हिंसा हो रही हो। माँ का शरीर करीब-करीब चीर-फाड़कर बच्चा बाहर आ रहा है।
अपनी हकीकत भूला मत करो। हम सब कोई बड़े पुण्यात्मा नहीं हैं। इसीलिए बताने वाले बोल गये हैं कि तुमने कुछ कर्म करे होंगे, इसीलिए जन्म लेना पड़ा है। इंसान जन्म लेता ही है, पूर्व के कर्मफल भोगने के लिए। अगर ये समझ जाओ अच्छे से, तो फिर ये भी समझ आ जाएगा कि जन्म लेने का उद्देश्य क्या है। अगर देख लो साफ़-साफ़ की गन्दे ही पैदा हुए हो, तो फिर समझ जाओगे कि क्यों पैदा हुए हो।
क्यों पैदा हुए हो?
प्रश्नकर्ता: साफ़ होने के लिए।
आचार्य प्रशांत: साफ़ होने के लिए। फिर ज़िन्दगी इधर-उधर नहीं बिताओगे। फिर सिर्फ़ एक काम करोगे, क्या? सफ़ाई। तुम कहोगे, ‘गन्दे पैदा हुए थे, गन्दे मरना नहीं है।’ “मुट्ठी बाॅंधे आया जगत में।” ऐसे नहीं जाना है।
बड़े गन्दे पैदा हुए थे। प्रार्थना के क्षण में कोई बच्चा पैदा होता है क्या? बाप की वासना, माँ की वासना, ये दोनों अन्धी वासनाएँ जब मिल जाती हैं, तो हमारा निर्माण होता है। या ऐसा होता है माता-पिता आमने-सामने बैठे हुए है, प्रार्थना कर रहे हैं और अचानक हम टपक पड़े। कि नहा-धोकर सुबह-सुबह ब्रह्म मुहूर्त में एक पुरुष और एक स्त्री बैठे, और दोनों ने उपनिषदों के सूत्र गाने शुरू किये, और उन सूत्रों के फलस्वरूप एक तेजस्वी बालक अचानक अवतरित हो गया। ऐसा होता है क्या?
हमारी यात्रा की शुरुआत ही कहाँ से होती है? उद्दाम वासना से। दो शरीर लपट-झपट रहे हैं, चीर-फाड़ मची हुई है, तब हम अंकुरित होते हैं। ये हैं हम। तो ग्लानि का क्या अनुभव करना, अगर पाओ कि नशे की लत होती है, तमाम तरह के दोष हैं जीवन में। प्रथम दोष यही था कि?
प्रश्नकर्ता: मनुष्य योनि में पैदा हुए।
आचार्य प्रशांत: मनुष्य योनि धारण की, पैदा हुए, लेकिन उससे छुटकारा सम्भव है। जीवन सही जियो। देने वाले बहुत कुछ दे गये हैं, उसका इस्तेमाल करो और सिर झुकाकर रखो। क्योंकि जो देने वाले जो दे गये हैं वो तुम्हें फलेगा ही नहीं, अगर तुमने उसे विनीत होकर ग्रहण नहीं किया तो। बहसबाज़ी से बाज़ आओ।
जब लगे कि ये क्या बात है, तो तुम्हारा पहला विचार ये होना चाहिए कि ज़रूर मेरी समझ में ही कोई गलती है। कबीर तो कुछ गलत बोलेंगे नहीं। दस बार अपनी ओर देखो, क्योंकि प्रथम दोषी स्वयं हम हैं, किसी दूसरे में दोष मत निकालो। हमारी तो शुरुआत ही दोष से है। और जब अपने दोष दिखाई दें, तो बहुत हड़कम्प मत मचाओ कि अरे, ऐसी क्या बड़ी बात पता चल गयी भाई। ये तो ऐसी सी बात है कि कोई कोयले की खदान में घुसा हो और आइने में देखे कि कहीं-कहीं काला है, रोना शुरू कर दे और कहें कि अरे, मैं तो काला हूँ। तो इसमें तुम्हें ताज्जुब क्यों हो रहा है। ये कोई ताज्जुब की बात है? देखो कि तुम घुसे कहाँ हुए हो। कहाँ घुसे हुए हो?
प्रश्नकर्ता: कोयले की खदान में।
आचार्य प्रशांत: तो इसमें ताज्जुब क्या? तुम रो किस बात पर रहे हो? कालिमा तो आनी थी, कालिख तो लगनी थी। कोयले की खदान में जो है उसका मुँह काला नहीं होगा, तो क्या लाल होगा? पर हम रोते तो बहुत हैं। ये रोना भी बड़ा अहंकार है। ये रोकर हम साबित करते हैं कि नहीं साहब, हमें काला होना नहीं चाहिए था। हमारी पात्रता, हमारी हैसियत तो कुछ और है, ये तो हम धोखे से दोषी हो गये। तुम धोखे से दोषी नहीं हो गये, तुम दोषी पैदा हुए। अब निर्दोष होने का अवसर है, इससे चुको मत।
कल रात यहाँ (आस-पास इशारा करते हुए) कुत्ते लड़ते थे। उन्हें किसी ने सिखाया थोड़ी लड़ना, पर देखो जैसे आदमी लड़ता है रोटी के लिए, खूब लड़े। आज वहाँ सामने मोरनियों के पीछे मोर भगते थे, उन्हें किसी ने सिखाया थोड़ी भगना, पर देखो वासना सवार है, पर थोड़ी देर में लड़ भी लेंगे आपस में। कुत्ते, रोटी के लिए लड़ रहे हैं। मोर, मोरनी के लिए लड़ रहे हैं। हम ऐसे ही पैदा होते हैं, पर इससे मुक्ति सम्भव है, अगर तुम चाहो। सारी बात इन्हीं तीन शब्दों पर आकर खत्म हो जाती है। अगर तुम चाहो।
प्रश्नकर्ता: फ़ेथ (श्रद्धा) या बिलीफ़ (विश्वास), मुझे अन्तर पता नहीं है दोनों में क्या होता है, पर मुझे किसी भी चीज़ में फ़ेथ नहीं है। खुद में भी फ़ेथ नहीं है। पूरी दुनिया में से मुझे ऐसी चीज़ मिलती नहीं, जिसमें मैं यकीन कर सकूँ।
आचार्य प्रशांत: फ़ेथ वो चीज़ होती है जिसे आदमी बहुत ज़ोर देकर बोल सके। अगर आप ज़ोर देकर के कुछ भी बोल सकते हो, तो आप फ़ेथफुल (श्रद्धायुक्त) हो। देखो, हमारे भाई ने ज़ोर करके क्या बोला, कि मैं फ़ेथलेस (श्रद्धाहीन) हूँ। आप ज़ोर देकर के ये भी बोल पा रहे हो कि आप फ़ेथलेस हो, तो आपकी फ़ेथ तो है ही। जिस बात को आप पूर्ण निश्चय के साथ बोल पाओ, उसी में तो आपकी श्रद्धा है। और आपने अभी-अभी पूर्ण निश्चय के साथ क्या बोला? क्या बोला?
प्रश्नकर्ता: अश्रद्धा है।
आचार्य प्रशांत: अश्रद्धा है। पूर्ण निश्चय के साथ अगर ये भी बोल दोगे कि अश्रद्धा है, तो यही श्रद्धापूर्ण वक्तव्य हो गया। श्रद्धा तो है, बस, उसका रुख ज़रा बहका हुआ है। ठीक है, अच्छी बात है, गाड़ी गलत पार्क है, पर गाड़ी है। कर देंगे सही जगह पार्क, अपनी चीज़ है।
कुछ बातें भाई असम्भव होती हैं। दुनिया में कोई नहीं है जिसमें सच्चाई के लिए आकर्षण न हो, ये हो नहीं सकता, तुम आत्मा थोड़ी बदल डालोगे भाई। दुनिया में कौन है, जो चाहता है कि उससे झूठ बोला जाए? सच सबको पसन्द होता है न? ये छोटी सी बात क्या सिद्ध करती है? सत्य स्वभाव है। कई मौकों पर तुम सच से डरते हो, लेकिन फिर भी झूठ के साथ कभी एकात्म तो नहीं हो पाते।
दुनिया में मिले हो किसी से कि जो चाहता हो उसे कैद में रखा जाए। आदमी क्या, पेड़ भी नहीं चाहते। तुम किसी छोटे से पौधे पर बाड़ लगा दो, मान लो लोहे की, और फिर उसका जब तना फैलता है। तुमने देखा है, वो उस लोहे के साथ क्या करता है। वो संघर्ष करता है। कई बार तो वो उस लोहे को तोड़ देगा और अगर लोहा टूटा नहीं, तो लोहे के छिद्रों के बीच में से तना बाहर आएगा, लोहे को जैसे खा गया हो। ये मुक्ति की आकांक्षा है पेड़ की।
तुम किसी जानवर को कैद करके देखो, क्या होता है? इससे क्या सिद्ध होता है? मुक्ति स्वभाव है। कुत्ते को भी दूर से पुचकार देते हो, देखा है कैसे तुरन्त पूँछ हिलाता चला आता है, और उसी कुत्ते को डपट दो, तो देखो उसका मुँह कैसे गिर सा जाता है। इससे क्या सिद्ध होता है? प्रेम स्वभाव है। दुनिया में कोई नहीं जो घृणा पसन्द करता हो, किसी से मिले हो जो चाहता हो कि सब उससे नफ़रत करें। कुछ बातें तुम बदल नहीं पाओगे। प्रेम, सत्य, मुक्ति इन्हीं की तरह श्रद्धा भी स्वभाव है। श्रद्धा नहीं होगी तो पगला जाओगे। कुर्सी पर बैठोगे कैसे?
आदमी को विश्वास करना होगा, अन्यथा वो बहुत असुरक्षित अनुभव करेगा। तुम कुर्सी पर बैठे हो, तुम्हें लगेगा कहीं धरती न फट जाए। कुछ बात तो मानकर चलते हो न, कि है। अब जैसे ये मानकर चलते हो, धरती दरकेगी नहीं। तुम रेत में समा नहीं जाओगे। मानते हो न? ये श्रद्धा नहीं है, पर ये श्रद्धा की तरफ़ इशारा है कि तुम्हें भी किसी-न-किसी चीज़ पर पूर्ण विश्वास तो है। न होता, तो कुर्सी पर नहीं बैठ पाते।
अच्छा, अभी मुझे सुन रहे हो न? सुन रहे हो, तो ये भरोसा है तुम्हें कि तुम जो सुन रहे हो, वही मैं कह रहा हूँ। अन्यथा तुम सुन कैसे पाते। गौर से देखो तो सही इस सुनने की प्रक्रिया को भी। अगर मुझे सुन पा रहे हो, इसका मतलब है कि तुम्हें भरोसा है न कहीं, कि मैं कहूँगा तो तुम सुन लोगे। अन्यथा कैसे सुन पाते। तुम शक में ही डूबे रहते कि पता नहीं इन्होंने कहा भी या नहीं कहा, मेरे कान बज रहे हैं, मुझे भ्रम हो रहा है, स्वप्न है। तो तुम्हें विश्वास करना पड़ेगा। नहीं तो जी नहीं पाओगे। विश्वास का विकल्प होता है, सतत संशय। जब संशय में होते हैं, तो देखा है न क्या हालत होती है तुम्हारी? क्या हालत होती है शक में? मज़ा आता है बहुत?