श्रोता: सर, हमारी क्लास में एक एक्टिविटी हुई थी, ‘हु ऍम आई? ’| उसमें हमने आइडेंटिफिकेशन के बारे में जाना था| उसके अंत में यही समझ आया था कि हम जिससे भी अपनी पहचान रखते हैं, हम वो नहीं हैं| उसके बाद एक दूसरी एक्टिविटी हुई, ‘आई इन आइडेंटिटीज़’, जिसमें ये था कि अपनी आइडेंटिफिकेशन लिखो जो तुम हो, और जो तुम नहीं हो| तो जब हमें पहली एक्टिविटी से पता चल ही गया कि हम कुछ हैं ही नहीं तो फ़िर दूसरी एक्टिविटी का क्या औचित्य?
वक्ता: आप ये नहीं हो, ये आप मानने के लिए तैयार कहाँ हो! (एक चॉक का टुकड़ा उठाते हुए) अगर मुझे साफ़-साफ़ पता ही हो कि मैं ये चॉक नहीं हूँ, तो फ़िर ठीक है| पर अगर किसी ने ये मान ही रखा हो, मान लो हो कोई ऐसा तीरंदाज जिसने ये मान ही रखा है कि मैं चॉक हूँ; “कौन हो तुम? मैं ये चॉक का टुकड़ा हूँ|” तो उसके साथ तो ये एक्टिविटी पूरी करानी पड़ेगी न| एक पूरा इंस्ट्रूमेंट बनाना पड़ेगा, जो उसे ये दिखा पाए कि तुम ये चॉक नहीं हो| जिसको पहले से ही पता हो कि मैं ये चौक नहीं हूँ, निश्चित रूप से उसके किसी काम की नहीं है ये एक्टिविटी| अब मैं ये एक्टिविटी कराऊँ, जिसमें ये बात निकल कर आये कि ‘तुम ये चॉक नहीं हो’, तो तुम कहोगे, “लो, ये तो हमें पहले से ही पता था कि ‘मैं ये चौक नहीं हूँ’ |”
(सभी हँस पड़ते हैं)
वक्ता: पर तुम्हारी जो एक्टिविटी है, उसमें तो जो बातें निकलती हैं कि ‘तुम ये नहीं हो, तुम वो नहीं हो’, वो तो वैसी बातें हैं जिनके बारे में तुम मन में माने बैठे रहते हो कि ‘तुम तो वो हो ही’|
क्या नाम है तुम्हारा?
श्रोता: विपुल चौधरी|
वक्ता: अब देखो ना, ‘आई ऍम विपुल, आई ऍम चौधरी’, बड़ा गहरा विश्वास है कि मैं ‘विपुल’ भी हूँ और मैं ‘चौधरी’ भी हूँ| तो अब तो एक्टिविटी करानी पड़ेगी ना, कि चौधरी साहब, मामला कुछ और है| समझे?
(सभी हँस पड़ते हैं)
वक्ता: (एक श्रोता से पूछते हुए) तुम्हारा क्या नाम है?
श्रोता: शैलेन्द्र कुमार|
वक्ता: तो जब विपुल को ये एक्टिविटी कराएँगे, तो विपुल उसमें ये थोड़े ही लिखेगा कि ‘मैं शैलेन्द्र हूँ’| और सोचो कि मैं एक एक्टिविटी बनाऊँ, जो विपुल को ये सिद्ध करे कि विपुल शैलेन्द्र नहीं है, तो ये एक्टिविटी बेवकूफ़ी की होगी| पर विपुल को ये बताना ही पड़ेगा कि ये जिस नाम के साथ अपनेआप को जोड़ कर बैठे हो, ये नाम कहीं और से आ रहा है| ये जिस धर्म के साथ अपनेआप को जोड़ कर बैठे हो, ये धर्म तो तुम्हें किसी दूसरे ने पकड़ा दिया है| तुमने कोई चुना था, चौधरी होना? और तुम्हें तो पता भी न चलता, अगर चौधरी के जगह तुम्हारे नाम में गुप्ता या तिवारी लिख दिया जाता|
और आज तुम बड़े उत्तेजित हो जाते हो, अगर चौधरियों को कुछ बोल दिया जाये|
“कुछ भी कर लेना, चौधरियों को कुछ मत बोलना|”
(सभी हँस पड़ते हैं)
वक्ता: (अपनी हथेली की ओर इशारा करते हुए) और इतने से थे तुम, जब चौधरी बना दिया गया था तुम्हें| और अगर जब तुम उतने ही बड़े थे, और तुम्हारा नाम रख दिया जाता, जेम्स क्रिस्टोफर, तो कहाँ जाता चौधरी? कहाँ जाता? ख़तम!
तो एक्टिविटी यही बता रही है कि जो सब बाहर से मिला है, उसके बारे में सीरियस मत होना| वो ठीक है कि तुम्हारे पासपोर्ट में ‘विपुल चौधरी’ ही लिखा जायेगा, कोई पूछे नाम तो बता देना, ‘विपुल चौधरी’, पर इस ‘विपुलता’ को, इस ‘चौधरीपने’ को बहुत सीरियसली मत ले लेना| ठीक है?
ये सब एक मज़ाक है, इसको मज़ाक ही मानना | वो एक्टिविटी बस यही बता रही है कि इन चीज़ों के लिए सीरियस हो जाने की कोई आवश्यकता नहीं है| ये बस ऐसे ही हैं, एक्सीडेंटल; बाहर से आईं हैं और बाहर को ही चली जायेंगी| और लड़कियों को तो अच्छे से पता है, बेचारी आज गुप्ता होती हैं, कल अग्रवाल बन जाती हैं| थोड़ी मॉडर्न हो गयी हैं तो ‘गुप्ता अग्रवाल’ बन जाती हैं|
इशारा किधर को कर रहा हूँ, समझो| ये दी जाने वाली चीज़ें हैं, ये बदल जानी हैं| अभी वो हेडली का केस हुआ था ना| रिचर्ड हेडली ने नाम बदला हुआ है| तुम्हें क्या लगता है कि वो रिचर्ड हेडली पैदा हुआ था? वो पाकिस्तानी है और पाकिस्तानी ही नाम है उसका| अब उसे क्राइम करना है, तो उसने अपना नाम बदला, सारे डाक्यूमेंट्स भी बदल डाले| तो ये सब तो आनी-जानी चीजें हैं| इनमें क्या रखा है? ये सब तो दी हुई चीज़ें हैं, कोई बाहरवाला छीन भी सकता है| ये सर्टिफिकेट्स हैं, लेबल्स हैं, उतारे जा सकते हैं और नये लग भी सकते हैं| तुम ध्यान दो कि बोतल के अन्दर क्या है; बोतल पर क्या लेबल लगा है, ये बात बहुत महत्वपूर्ण नहीं है| ध्यान इस पर दो कि बोतल के अंदर क्या है, थोड़ा उसको ध्यान से देखो| बस यही है वो एक्टिविटी — ‘आई इन आइडेंटिटीज़’|
– संवाद पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।