आचार्य प्रशांत : तुम एक बार ये समझ गए के ये डोमिनेशन (वर्चस्व) है, फिर ये काम कर नहीं सकता ! यह काम ही सिर्फ तभी करता है जब तुम नहीं जानते की ये वर्चस्व है ।
तुम वर्चस्व को कई बार प्यार समझ लेते हो, तुम वर्चस्व को कई बार हिफाज़त समझ लेते हो । तुम वर्चस्व को कई बार नियम समझ लेते हो । वो इसलिए काम कर रहा है । जैसे तुम्हें ये बात समझ में आ गई की ये कुछ नहीं है वर्चस्व है, तब काम करना बंद कर देगी । देख लो, बस साफ़-साफ़ देख लो कि ये है । तब यह काम नहीं करेगी । उसको, जो उसके दूसरे रूप हैं, जो वो छवियाँ ले के आ रहा है वर्चस्व है, झूठी छवियाँ बड़ी-बड़ी, ले कर के आ रहा है; उसके पीछे देख लो, ये और कुछ नहीं है वर्चस्व ही है ।
ये कहने को ख्याल और चिंता है, पर वास्तव में ये सिर्फ वर्चस्व है । यदि एक बार तुम समझ गए, तब कुछ बचेगा नहीं । उसके बाद जो तुम्हें करना है, वो तुम खुद करोगे । फिर तुम्हें किसी से पूछने की, समझने की और ज़रुरत नहीं है । और वो काम भी याद रखना, सिर्फ और सिर्फ डायरेक्ट ऑब्ज़रवेशन (सीधा प्रेक्षण) से होगा । याद कर के नहीं । कभी जब चल रहा हो ना, तो उसी वक़्त समझना- अच्छा, तो ये चल रहा है । ठीक है, मैं समझ गया । समझे? हाँ? बोलो ? तुम्हारा जीवन है, याद रखना, न की मेरा ! बोलो ! कुछ समय में हमारी बातचीत खत्म हो जाएगी ।
अवसर जो है, उसका फ़ायदा उठाओ । बोलो ! नहीं तो गाय होगी तुम्हें याद दिलाने के लिए । बोलो !
तुम ही बोलते रहोगे? ये भी एक अधिकार है, जब बोल रहे हो सबके हेतु तो कुछ भी गलत नहीं है । यहाँ तक की ये बढ़िया बात है की ये बोल रहा है पर बाकी क्यूँ नहीं बोल सकते? हाँ, बोलो ?
श्रोता : आचार्य जी, फिर करें क्या? ज़रूर चीज़ बताइए !
(छात्र हँसते हैं)
आचार्य जी: आचार्य जी, फिर करें क्या? ज़रूर चीज़ बताइए ! बाकी सब छोड़ो ।
यही तो तुमने बचपन से करा है !
(अट्टहास)
और इसलिए इस हालत में पहुँच गए हो । कि मैं नहीं फैसला करूँगा । कोई और मुझे बता दे कि मैं करूँ क्या? और इसलिए आज वो गाय भी बता रही है कि क्या करना है ।
बस यही करना है कि ये सवाल पूछना बंद करदो कि ‘मैं क्या करूँ’ ! तुम्हारी ज़िन्दगी है और तुम फैसला करोगे । किसी और के ये बताने का अधिकार नहीं है की आपको क्या करना है ।
श्रोता : सर कुछ कर के आए हैं, तभी तो यहाँ बैठे हैं ।
आचार्य जी: तुम यहाँ वास्तव में अपने फैसले से बैठे हो? दीपशिखा, ये अपने फैसले से हैं?
बोलो ज़ोर से ना?
श्रोतागण : (धीमी आवाज़ में) जी, आचार्य जी !
(तेज़ आवाज़) बिलकुल नहीं ! मुझे इन्हें लेकर आना पड़ा ।
आचार्य जी: तुम तो आगे बैठे हो, ये पहली दो बेंच तो यहाँ पूरी तरह खाली थी । वो तो वहाँ से खींच कर के लाइ है, मैंने पीछे से खींचा है !
तुम अपने फैसले से ज़िन्दगी में करते ही क्या हो ?
हमेशा आपको कोई धक्का दे रहा है, हमेशा आपके लिए कोई निर्णय लेता है । “मै कितना?” क्रिया करी थी ना? क्या तुम्हें याद है ‘मैं कितना’ ? उस में सबका यही आया था ना, कि अपनी ज़िन्दगी १०% अपनी है और ९०% दूसरों की है । याद आ रहा है? अपनी ज़िन्दगी में तुम्हारे अपने निर्णय हैं कहाँ? और तुम हमेशा दूसरों की तरफ देखते रहते हो, कि आचार्य जी आप बता दो क्या करें ? अगर मैंने तुम्हें बता दिया कि क्या करना है, तो मैं तुम्हारा दुश्मन होऊँगा । यह आपके लिए एक दुश्मन करता है जो आपको बताता है की आपको क्या अवश्य करना चाहिए । तुम देखो, तुम पता लगाओ, तुम खोजो और तब एक स्वचालित प्रक्रिया होगी। तुम खोजो खुद के लिए ।
ठीक है?
इसे लागू करें । आपने लिए खोजें और दूसरों को न सुनें कि कोई बता रहा है कि ये कर लो, वो कर लो । तुम्हें दुनिया में हज़ार तरह के स्ल्ह्कार मिल जाएंगे । देने का एक मात्र मूल्य आपकी स्वयं काबिलियत है । और इसके अलावा कोई सलाह और मत दे देना । और देखो मैं कितनी खतरनाक सलाह दे रहा हूँ, पहले से कई लोगों के चेहरे उतरे हुए हैं कि आचार्य जी और कोई सलाह दे दीजिये, ये मत दीजिये । क्योंकि इस सलाह का आपने जैसे ही पालन किया, ये विशेषज्ञ को ठेंगा दिखाने वाली बात है – “मैं तुम्हारी नहीं सुनूंगा !”
श्रोता : अपनी करुँगा ।
आचार्य जी: तो इसलिए आप को डर लग रहा है । आपने चेहरे देखो, कितने डरे हुए हो तुम, के ये कर कैसे दें ।
श्रोता : आचार्य जी, अभी जो आपने हमें इतना सारा बताया है, तो क्या आप ये अपने जीवन में लागू करते हैं?
आचार्य जी: क्या फर्क पड़ता है? अभी भी जो उसने सवाल पूछा, उसने क्या पूछा? “आप बता दो”, तुमने क्या सवाल पूछा? “आप करते हो क्या?”
और मैं तुमसे क्या कह रहा हूँ? ये तुम्हारी ज़िन्दगी है, मेरी नहीं ।अंदर देखो, न की बाहर । तुम ज़िन्दगी भर दूसरों से यही तो पूछते रहे हो ना, कि तुम क्या करते हो और तुम क्या करते हो? अब फिर मुझसे पूछ रहे हो, आप क्या करते हो?
(छात्र हँसते हैं)
और मैं तुम्हें बता दूँ, तो उससे फर्क क्या पड़ेगा? और मैं तुम्हें बता भी दूँ के मैं क्या करता हूँ, तो क्या तुम समझ पाओगे? आप क्या हैं, क्या आप वास्तव में समझ सकते हैं ? तुम्हें अपनी ज़िन्दगी समझ नहीं आती, तुम मेरी समझ लोगे?
सबसे पहले, अपने आपको देखो और उसका रास्ता ये है, कि पहले दूसरों की तरफ देखना बंद करो ।
सिर्फ तभी तुम स्वयं को देख पाओगे।