न संदेह न संशय || आचार्य प्रशांत, ऋभुगीता पर (2014)

Acharya Prashant

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न संदेह न संशय || आचार्य प्रशांत, ऋभुगीता पर (2014)

सर्वभावं न सन्देह : सर्वं नास्ति न संशय:। सर्वं तुच्छं न सन्देह : सर्वं माया न संशय:।।

All is thought. There is no doubt of this. All is not. And there is no doubt of this. All is trifling. And there is no doubt of this. All is illusion. And there is no doubt of this.

सब कुछ भाव है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। सब कुछ नहीं है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। सब कुछ तुच्छ है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। सब कुछ माया है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

~ऋभु गीता (२१.३०)

नेदं नेदं सदा नेदं न त्वं नाहं च भावय। सर्वं ब्रह्म न सन्देह : सर्वं वेदं न किञ्चन।।

Not this, not this; ever this is not.

~ऋभु गीता (२१.२३)

भूतं नास्ति भविष्यं नास्ति। शरीरं नास्ति स्थानं नास्ति।।

न ही भूत(past), न ही भविष्य(future); न ही शरीर, न ही स्थान।

~ऋभु गीता

अशुद्धं शुद्धमद्वैतं द्वैतमेकमनेकम्। सर्वं नास्त्येव नास्त्येव अहमेव हि केवलम्।।

न मैं शुद्ध हूँ, न मैं अशुद्ध; न द्वैत, न अद्वैत; न एक, न अनेक।

~ऋभु गीता (२५.११)

सर्वं नास्तीति सन्मन्त्रं। ब्रह्मेव सर्वमित्येवं मन्त्रम् सर्वोत्तम्।।

All is not—is the true Mantra. Brahma is all this—is the best of all great Mantras.

~ऋभु गीता (२५.३५)

अनुक्तमन्त्रं सन्मन्त्रं वृत्तिशून्यं परं महत्वम्। सर्वं ब्रह्मेती सङकल्पं तदेव परमं पदम्।।

The true Mantra is which has not been uttered. Absence of thought is supreme and grand. And that can be there only when there is no utterance of Mantra. The conviction all is Brahma. That indeed is the supreme state.

~ऋभु गीता (२५.३६)

सर्वं नास्त्येव नास्त्येव अहमेव चिदेव हि। एवं वद त्वं तिष्ठ त्वं सद्यो मुक्तो भविष्यसि।।

All is non-existent only; indeed non-existent. I am only consciousness alone. Proclaim thus, and abide from. You shall be instantly liberated.

~ऋभु गीता (२५.४१)

प्रश्नकर्ता: वृत्ति शून्यता परम पद कैसे है?

आचार्य प्रशांत: एक चीज़ है इसमें, जो समझना ज़रूरी है। दो बातें कहते हैं ऋभु हमसे। दो बातें हैं जो कही जा रही हैं। पहली, ‘सर्वं नास्ति न संशय:'—ये सब कुछ नहीं है, इसमें कोई संशय नहीं है। ये सब नहीं है, नहीं है, नहीं है और दूसरी ओर वो हमसे कहते हैं—‘सर्वं ब्रह्म न संशय:'। साथ ही हमसे ये भी कहते हैं कि हालाँकि ये सत्य है कि ‘सर्वं नास्ति'। लेकिन मंत्रों में सर्वोत्तम मन्त्र है—‘सर्वं ब्रह्म'। ये हमारी ज़िन्दगी के लिए सबक है। नकारने का, नेति-नेति कहने का, ‘इदं नास्ति' कहने का फ़ल होता है, एक विधायक, पॉज़िटिव समझ। रास्ता तो आपका नेगेटिवा का है, न कहने का है। पर अगर उस न कहने में ईमानदारी रही है, चालाकी नहीं, तो ये जो ‘न' कहने वाला मन है ये बड़ी गहराई से और बड़ी सरलता से सत्य को ‘हाँ' कहता है। बात को समझिएगा। और अगर ये ‘न' कहने पर ही अटक गया तो बात अभी बनी नहीं। ‘सर्वं नास्ति' ठीक है, लेकिन जीवन ‘सर्वं नास्ति’ में नहीं जिया जा सकता। क्योंकि एक तरफ़ तो आप कह रहे हो कि ‘सर्वं, ‘सर्वं' का अर्थ है कि बहुत कुछ है, नानात्व है, जो आपको दिखाई दे रहा है, दूसरी ओर आप कह रहे हो ‘नास्ति'। तो दिखाई दे रहा है तो कैसे नहीं है? और अगर नहीं है तो वो कुछ और होगा अन्यथा आप कहते कैसे कि ‘सर्वं इदं नाना'? ये आते कहाँ से शब्द? तो काटने भर से काम नहीं चलेगा।

कोई ये न समझे कि ऋभु गीता सिर्फ़ काटती है। वो काटती नहीं है, वो सत्य को प्रतिस्थापित करती है। उसका काम यही भर नहीं है कि भ्रम को हटा दे। भ्रम का हटना और सत्य का चमकना एक ही घटना है, एक साथ घटती है। आप ये नहीं कह पायेंगे कि बादल छँट गये, चमकता सूर्य अभी भी नहीं दिख रहा, कैसे होगा ये? कैसे होगा? ‘सर्वं नास्ति’ कहने की परिणति है ये कह पाना कि ‘सर्वं ब्राह्म'। बादलों के छँटने और सूरज के आलोकित होने में न दूरी है, न अन्तर है, न समय है, एक साथ है और बादलों का छँटना किसी महत्व का नहीं, अगर उनके पीछे से? (श्रोतागण उत्तर देते हैं) सूरज चमके न। तो फिर क्यों कहा—‘सर्वं नास्ति'? फिर ये जानने का महात्म्य क्या रह गया? फिर कहाँ आनन्द है? ज्ञान फ़लीभूत होता है उस अज्ञेय के प्रति श्रद्धा में, जिसे ब्रह्म कहते हैं। समझिएगा बात को। ज्ञान आपको अज्ञेय के द्वार पर ले जाकर खड़ा कर देता है, अगर वास्तव में ज्ञान है। अज्ञेय के द्वार पर खड़ा करता है आपको ज्ञान। और उस मन्दिर में भीतर घुसते हैं आप, सर झुकाकर के, श्रद्धा में। उसी अज्ञेय का नाम है, ब्रह्म। नेति-नेति, नेति-नेति करके आप उस मन्दिर की सीढ़ियों तक तो पहुँच जायेंगे, द्वार तक तो पहुँच जायेंगे पर मन्दिर में प्रवेश नहीं पायेंगे क्योंकि प्रवेश पाने के लिए उसी सिर को झुकना पड़ेगा जिस सिर ने नेति-नेति करी। जिस बुद्धि ने, जिस चैतन्य ने, जिस चिन्मयता ने आपको उस मन्दिर तक पहुँचाया, उसी को समर्पित होना पड़ेगा तभी ‘सर्वं नास्ति' ‘सर्वं ब्रह्म' बनेगा अन्यथा आप सर्वं ‘नास्ति' पर अटक कर रह जायेंगे। और अगर आप ‘सर्वं नास्ति' पर अटक कर रह गये, तो जीवन बड़ा रुखा, बड़ा बोझिल हो जाएगा। आप जियेंगे कैसे? कैसे जियेंगे?

आ रही है बात समझ में?

जब तक गहरी आन्तरिक अनुभूति न होने लगे कि मैं विराट का अविभाज्य अंश ही नहीं, उसकी सम्पूर्णता हूँ, तब तक आप चैन नहीं पायेंगे। आप अगर पाते हैं कि आपकी ज़िन्दगी में क्षुद्रता, संकीर्णता, तनाव, खिंचाव बहुत है, तो साफ़ समझ लीजिए कि बुद्धि तो है आपके पास, समर्पण ज़रा नहीं है। बुद्धि संसार का मायाजाल तो काट सकती है, पर माया के स्रोत तक आपको नहीं पहुँचा सकती है। आप अधर में टँगे रह जायेंगे। माया तो कटेगी और ब्रह्म मिला नहीं, इसी को क्या कह गये कबीर?

‘माया मिली न राम'

इससे तो भला ये होता कि माया के सपनों में ही डूबे रहते, भ्रम में ही खेलते रहते। माया तो गयी। अब दिखाई तो दे जाता है कि ये सब कुछ जो इन्द्रियगत आकर्षण है, इसमें कुछ रखा नहीं है। ये तो दिख जाता है पर किसमें कुछ रखा है, ये समझ में नहीं आता। बड़ी दुविधा की स्थिति है। ‘माया मिली न राम'! माया को ज्ञान ने काटा, पर समर्पण था नहीं, तो राम तक पहुँचे नहीं। उसी राम को ब्रह्म, एक ही है।

आ रही है बात समझ में?

‘सर्व ब्रह्म’ तक जाना ज़रूरी है। नकार में मत जीने लग जाना। सब कुछ नकारोगे तो नकारते-नकारते अन्ततः जीवन को भी नकार दोगे। ‘आध्यात्मिकता’, ‘सत्य’, जीवन का नकार, जीवन के प्रति इंकार नहीं है, जीवन की सम्पूर्णता है, जीवन को पूरा जीने का सन्देश है। अब ये घास है (ज़मीन पर उगी घास की ओर संकेत करते हुए), ‘नास्ति-नास्ति’ करते रहोगे तो तुम्हारे लिए बहुत आसान हो जायेगा, घास की हत्या करते जाओ। नहीं है, जब है ही नहीं तो इसकी हत्या कर दो! और अगर कहोगे, ‘सर्वं ब्रह्म', तो ये घास क्या हो जायेगी? (श्रोतागण उत्तर देते हैं) ये पूजनीय हो जायेगी। ये अन्तर है दोनों द्रष्टियों में, ‘सर्वं नास्ति' और ‘सर्वं ब्रह्म' में।

आ रही है बात समझ में?

‘सर्वं नास्ति' है, तो न ये घास कुछ है, न मैं कुछ हूँ, न हत्या है, न हिंसा है। और अगर ‘सर्वं ब्रह्म' है, तो मैं जो हूँ वही ये है। तो कौन किसको मार रहा है? और मारने का विचार फिर कहाँ?

आ रही है बात समझ में? (श्रोतागण मंत्रों का ससंगीत उच्चारण करते हैं)

हमने कहा था, न? आत्मा से मन है, मन से विचार हैं, कर्म हैं। विचारों और कर्मों का ही नाम शब्द है। आत्मा से उठते हैं शब्द और वो शब्द, जो आत्मा से उठे हुए हैं, जब वो दोबारा इन्द्रियों पर पड़ते हैं तो वो मन को बड़ा शान्त कर देते हैं।

बात समझ में आ रही है?

ऐसे समझ लो जैसे, जैसे ग्रूव्स मिल जायें, जैसे खानें मिल जायें। जैसे कि दो चीज़ें एक-दूसरे के लिए बनी हुई हों और वो क़रीब आ गयीं। उनका मिलना पक्का है और वो ऐसे मिल जायेंगी जैसे कि वह कभी अलग नहीं थीं क्योंकि वो हैं ही एक-दूसरे की न? उनमें कोई विशेष अन्तर नहीं है। जब ये जो, महावाक्य हैं, ये कानों में पड़ते हैं तो मन इनका विश्लेषण भले न कर पाए, बुद्धि इनकी थाह भले न ले पाये लेकिन इसके बाद भी कुछ होता है भीतर जो अचानक से कह देता है कि बात ठीक है क्योंकि वो जो कह रहे हैं वो बात तुम्हारा स्वभाव ही है। बुद्धि की पकड़ में नहीं आ रही बात लेकिन फिर भी तुम जान रहे हो कि बात ठीक है, बात ठीक है। क्यों ठीक है? तुमसे कोई पूछे तुम बता नहीं पाओगे।

तुमसे कहा जाये कि ‘सर्वं नास्ति न संशय न संशय:'। तुमसे कहा जाये कि बताओ क्यों ठीक है? तुम बता नहीं पाओगे। लेकिन कुछ है तुम्हारे भीतर, जो गवाही देता है कि ठीक है, ठीक है, बिलकुल ठीक है। इसलिए कह रहा था।

बात समझ रहे हो न?

क्यों ठीक है? समझा पाने का तरीक़ा नहीं है। लेकिन ठीक है, ये लगने लग जाता है। कुछ है उसमें, जो ठीक है। वो पागल हो गया है, वो भूल गया है पानी का नाम, स्मृति का लोप हो गया है, ठीक? स्मृति का लोप हो गया है, न वो खुद को जानता है, न संसार को जानता, पानी को भी नहीं जानता। न खुद को जानता है, न संसार को जानता है, न पानी को जानता है, न भाषा को जानता है। ‘पानी’, ‘जल’ ये शब्द ही उसकी व्याकरण से गायब हो गया है। इन सब को नहीं जानता तो क्या, वो प्यास को भी नहीं जानता? जवाब दो। (श्रोतागण उत्तर देते हैं) इन सब को नहीं जानता, तो क्या वो प्यास को भी नहीं जानता?

श्रोतागण: जानता है।

आचार्य: अब प्यास को तो जानता है पर ये नहीं जानता कि कहाँ से मिटेगी प्यास। नहीं जानता न?

श्रोता: नहीं।

आचार्य: स्मृति गयी, बुद्धि भी गयी। तुम उसे पानी दे देते हो, उसे कुछ नहीं पता, उसे क्या दिया गया। अचानक, अनायास उसके हाथ एक चीज़ आ गयी है, प्यासे के हाथ एक चीज़ आ गई है और प्यासे को कुछ पता नहीं कि उसके हाथ में क्या आ गया है, बिलकुल नहीं पता। तुम यहाँ तक कह सकते हो कि उसकी इन्द्रियों का लोप हो गया है तो वो पानी को देख भी नहीं पा रहा। न उसने पानी का कभी नाम सुना है, न उसे पानी जैसी चीज़ की कोई स्मृति है लेकिन प्यास तो है उसके पास। और ज्योंहि अब इस अनजानी चीज़ को, बिलकुल अनजानी चीज़ है उसके हाथ में, उसे ये भी नहीं पता कि पीना होता है। कोई कहेगा कि होठों तक ले जाओ, कोई सहारा देगा कि होठों तक ले जाओ, जैसे बच्चे को देना पड़ता है कि इसको खाते हैं, चलो मुँह तक ले जाओ। आप उसे सहारा देते हैं, कहते हैं कि पियो इसको। मुँह में डालता है। क्या होगा? क्या होगा? (श्रोतागण उत्तर देते हैं) बुद्धि उसकी पकड़ पायेगी कि प्यास क्यों बुझी? उसके अतीत से कोई गवाही आयेगी कि प्यास क्यों बुझी? लेकिन प्यास तो बुझ जायेगी, न? यही काम मन्त्र करते हैं। तुम्हें मन्त्र का कुछ पता नहीं क्या है, क्यों है। लेकिन वो किसी ऐसे स्रोत से निकला है कि वो तुम्हारी प्यास बुझा देगा। तुम्हें पता भी नहीं होगा कि उसने क्यों बुझा दी और कैसे बुझा दी पर वो तुम्हारी प्यास बुझा देगा। भला हो कि वो जो पागल व्यक्ति है, वो पानी का नाम जान ले। भला हो कि वो ये भी जान ले कि पानी कहाँ रखा है और किस प्रकार हासिल किया जाता है, बहुत अच्छा हो। पर अगर उसे ये सब नहीं भी पता और सिर्फ़ संयोगवश उसे पानी मिल गया है, पानी तब भी उसके काम आ जायेगा। इसलिए पूछ रहा था कि कैसा लगा। तुम्हें भी शायद संयोगवश पानी मिल गया है। तुमने माँगा नहीं, तुम्हें पानी का कुछ पता नहीं लेकिन तुम्हें एक बात का तो पता है ही, किसका?

श्रोता: प्यास का।

आचार्य: प्यास का। अब संयोगवश मिल गया है तो, प्यास तो? बुझेगी, न? फिर भी बुझेगी। यही पूछ रहा था। ये करके देखना, अजीब-सा लगेगा, बुद्धि कहेगी, ‘पागल हो गये हो क्या?’ तनाव में कभी गाकर देखना। (आचार्य जी गाते हैं) “अहमेव केवलम्, अहमेव हि केवलम्"! गाकर देखना।‘सर्वं ब्रह्म', ‘सर्वं नास्ति', कुछ देर तक बुद्धि विद्रोह करेगी। कहेगी, ‘पागल हो गये हो? काम करो न! जो समस्या है उसे हल करो, सॉल्व करो! ये तुम मन्त्र-वन्त्र क्या गा रहे हो! कुछ और करो। किसी से बात करो, किसी को ईमेल करो, किसी को फ़ोन करो, किसी से जाकर लड़ जाओ, किसी से जाकर कुछ और करो।‘ और, थोड़ी देर में कहोगे, ‘ये क्या हो गया! समस्या के किसी हल की ज़रूरत ही नहीं रही।‘ मैं कोई नुस्खा नहीं दे रहा हूँ, न ही ये कह रहा हूँ कि कुछ भी हो यही करना शुरू कर दो; कि हाईवे पर गाड़ी खराब हो गयी है और तुम बैठकर गा रहे हो कि ‘सर्वं ब्रह्म, सर्वं ब्रह्म’! उससे गाड़ी नहीं चालू हो जायेगी। (श्रोतागण हँसते हैं)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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