न पकड़ना, न छोड़ना

Acharya Prashant

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न पकड़ना, न छोड़ना

यदा नाहं तदा मोक्षो

यदाहं बन्धनं तदा।

मत्वेति हेलया किंचिन्-

मा गृहाण विमुंच मा॥८- ४॥

अनुवाद: जब तक 'मैं' या 'मेरा' का भाव है तब तक बंधन है, जब 'मैं' या 'मेरा' का भाव नहीं है तब मुक्ति है। यह जानकर न कुछ त्याग करो और न कुछ ग्रहण ही करो ॥४॥

~ अष्टावक्र गीता

आचार्य प्रशांत: जो सिर्फ़ आख़िरी के चार शब्द हैं, उनको ही अगर कोई पकड़ ले, तो सब हो जाएगा।

किंचिन-मा ग्रहाण विमुञ्छ मा

ना पकड़ो न? छोड़ने की बात नहीं की जा रही है।

प्रश्नकर्ता: है ही नहीं तो छोड़ेंगे क्या?

आचार्य: है। अहंकार के लिए बहुत कुछ है। और जो है, अगर अहंकार उसे पकड़े हुए है तो तुम ज़बरदस्ती मत करना। पकड़े रहने देना। छोटा बच्चा होता है, वो फालतू किसी चीज़ को पकड़ कर बिल्कुल सीने से लगा कर घूम रहा होता है। क्या ज़रूरत है ज़बरदस्ती करने की? तुम बस यह जान जाओ कि वह छोटा बच्चा है, और तुम बड़े हो। तुम एडल्ट (वयस्क) हो, वह चाइल्ड स्टेट (बचपन) है। तो इसीलिए कहा था कि एडल्ट स्टेट (वयस्कता) कोई स्टेट नहीं होती, वह पेरेंट (अभिभावक) और चाइल्ड (बच्चा) के पीछे की एक अवस्था है। छोटा बच्चा है वह बिल्कुल चिपका कर के घूम रहा है। उसने पकड़ लिया है एक पत्थर उठा लिया है। एक रस्सी, कई बार होता है उन्हे पसंद आ गई तो आ गई। वह लेकर के घूम रहा है। तुम्हें क्या ज़रूरत है छुड़ा लेने की? कि तू छोड़ इसकी कोई कीमत नहीं है। ले मैं तुझे यह दे रहा हूँ, यह हीरा है इसकी करोड़ों की कीमत है।

प्र: अगर आप छुड़ाओगे ना, तो उसकी वैल्यू (क़ीमत) बढ़ जाएगी।

आचार्य: तुम बस यह जानते रहो कि बच्चा है, इसका काम है यह करना। यह जिस अवस्था में है, यह पकड़ने के अलावा करेगा क्या? यह ढाई-साल का है, इतना ही इसका विकास हुआ है। तो पकड़ने के अलावा वह करेगा क्या? अगर उसके हितैषी हो तो उसके बढ़ने में सहायता करो।

प्र: जो पेरेंट स्टेट (अभिभावकता) में होगा, वही छुड़ाने की भी कोशिश करेगा, जो एडल्ट स्टेट (वयस्कता) में होगा वह कभी कोशिश नहीं करेगा।

आचार्य: बहुत बढ़िया। तो छुड़ाने की कोशिश यही दर्शाती है कि अभी बच्चे ही हो, तुम भी। पेरेंट (अभिभावक) और चाइल्ड (बच्चा) निर्भर हैं एक-दूसरे पर।

"न कुछ ग्रहण करो न छोड़ो।" मन का काम है, अपने खेल, खेल रहा है। तुम उपस्थित रहो उसके सामने। यह कोई पॉलिसी (योजना) नहीं बताई नहीं जा रही है। आप इसके अतिरिक्त और कुछ कर भी नहीं सकते। यह नहीं कहा जा रहा है कि कई विकल्प हैं, उसमें से यह विकल्प चुन लो। मैं यह इसलिए नहीं कह रहा हूँ। आप इसके अलावा कुछ और कर नहीं पाओगे, आप कर लेना कोशिश। वह ऐसी ही बात है कि ‘आई एम ट्राईइंग टू फोरगेट’ (मैं भूलने की कोशिश कर रहा हूँ)। आप कर नहीं पाओगे। मन के नियमों के खिलाफ है, हो नहीं पाएगा।

आप मन से जितना लड़ोगे आप मन को उतना मज़बूत करोगे। मन से लड़ा नहीं जाता मन को जाना जाता है।

और आप मन से जितना लड़ोगे, एक बात और अभी आपको सावधान किए देता हूँ, एक दिन ऐसा आएगा कि आप इन सब बातों से दूर भाग जाओगे। आप मन से लड़-लड़ कर मन को इतना ज़बरदस्त बना दोगे कि वह अंतत: आपको इस रूम (कक्ष) से बाहर निकाल देगा। और यह मैंने बहुत होते देखा है।

जो भी आदमी आज तक मन से लड़ा है उसकी हार पक्की है।

यह तो भूल जाओ के आप मन पर हावी हो जाओगे, आपका सनडे (रविवार) को यहाँ आना बंद हो जाएगा मन ऐसा रिकोइल (पलटना) करेगा। मन ऐसा पलटवार करेगा कि आपका यहाँ आना बंद हो जाएगा। मन से लड़िएगा मत। आप मन ही हैं अभी। मन के अतिरिक्त आप अपना कोई रूप नहीं जानते।

मन के दोस्त बन जाइए। छोटा बच्चा है वह खेल रहा है फ़ालतू चीज़ से किसी, आप भी उसके साथ खेलिए - ठीक, कर। कर तू यही कर। वह अपने आप धीरे-धीरे परिपक़्व होगा, समझेगा, बात आगे बढ़ेगी। ज़ोर-ज़बरदस्ती करेंगे, मारे जाएंगें।

अहंकार की ताकत को कम मत समझना। बड़ी ताकत है उसमें। जो भी कोई बोले कि अहंकार नकली है, छाया है, नकली है, छाया है, उसके लिए जो अहंकार से दूर हो गया हो। जो अभी अहंकार के भीतर ही है, उसके लिए अहंकार से बड़ी कोई दूसरी ताकत नहीं है। उसकी ताकत को कम मत समझना। इतनी ज़ोर का झटका मारेगा कि चित बिल्कुल। चित। कुछ समझ में नहीं आएगा। अच्छा चित! चारों खाने, चित ही चित रहेगा बस फिर।

प्र: पूरी तरह अहंकार में डूब जाना क्या एक रास्ता हो सकता है, अहंकार को छोड़ने का?

आचार्य: अहंकार में डूब जाना, मतलब अहंकार के अतिरिक्त कुछ होगा। तभी तो डूबेगा ना उसमें? मैं पानी में डूब रहा हूँ, तो मुझे पानी से अलग होना पड़ेगा न?

प्र: जैसे होता है ना कि आप पार्शियल (आंशिक) होते हो, हर चीज़ में। आप सोचते हो मैं सही हूँ, यह भी सही है, वह भी सही है।

आचार्य: तो यह भी तो अहंकार ही है। यह भी अहंकार है। मैंने कहा मैं सही हूँ और मैंने कहा थोड़ा-बहुत यह सही है। यह भी किसने कहा कि यह सही है? मैंने। तो अंतत: कौन सही है? मैं कह रहा हूँ कि मैं बहुत छोटा हूँ, आप बहुत बड़े हैं - यह भी कौन कह रहा है? मैं कह रहा हूँ। तो अहंकार किसका पोषित हो रहा है? मेरा। मतलब आपको बड़ा कहने में भी अहंकार किसका बढ़ रहा है?

प्र मेरा ही।

आचार्य: तो आप यह मत समझियेगा कि अहंकार कभी पार्शियल (आंशिक) होता है। आप अहंकार को प्राईड (गर्व) समझ रहे हो, अहंकार प्राईड (गर्व) नहीं है। अहंकार है, ‘आई एम सेइंग', ‘आई एम' (मैं कह रहा हूँ, मैं हूँ)। प्राईड (गर्व) का नाम नहीं है अहंकार। आप जब यह भी बोलते हो ना कि "मैं बहुत छोटा हूँ" या "मैं बहुत गया-गुज़रा हूँ" वह भी अहंकार ही है। अहंकार प्राईड (गर्व) नहीं है, प्राईड (गर्व) तो सिर्फ एक क़िस्म है, अहंकार की। "मुझे तो एक्टिंग नहीं आती। पर मुझे अमिताभ की एक्टिंग बहुत पसंद है।" आपने क्या घोषणा की? कि आपको नहीं आता कुछ। और आपने क्या यही बोला न कि "मुझे तो कुछ नहीं आता", देखने में तो ऐसा लगेगा कि आप कह रहे हो कि मैं अपनी हुमिलिटी (विनम्रता) दिखा रहा हूँ। "मुझे तो एक्टिंग नहीं आती पर अमिताभ की बहुत पसंद है", ठीक? आप आते हैं और बोलना शुरू करते हैं, ‘अमिताभ यह है, अमिताभ नालायक है, ऐसा है, वैसा है।" और फिर मैं क्या करूंगा इनके साथ?

प्र: बहस।

आचार्य: तो अहंकार किसका है? यह कहने में कि मुझे नहीं आता, ज़बरदस्त अहंकार है, "मुह नोच लूँगा मैं।"

मन जीता ही, बन्दिशों में है। यह फॉर्मूला (सूत्र) है इसको समझिएगा।

जब आप उसपर बंदिश लगाना छोड़ देते हो न, तो वह पगला कर मर जाता है। वह ज़िंदा ही तभी होता है जबतक आप उसपर कुछ-न-कुछ लगाम रखो। जब आप इस स्थिति में आ जाते हो कि न कुछ ग्रहण करो न कुछ छोड़ो। तुझे जो करना है कर, जा। अब उसके लिए बड़ी दिक्कत हो जाएगी। जिस दिन बड़ी बेचैनी हो रही हो, उस दिन थोड़ा सा थम जाइये और पूछिए - "हाँ भाई बोल, चाहता क्या है?" चुप हो जाएगा वह।

प्र: इट नीड्स एन औडिएन्स (इसे श्रोता चाहिए)। एव्री टाइम इट नीड्स एन औडिएंस (श्रोता)।

आचार्य: ना। “इट सेज, इट नीड्स एन औडिएन्स। दी मोमेंट इट रिएली गेट्स इट, इट हैज़ नथिंग टू से”। (यह कहता है कि इसे श्रोता चाहिए, जिस क्षण इसे श्रोता मिलते हैं, यह चुप हो जाता है)।

प्र: वही आधा-आधा है, वही जो बात थी न कि पूरा भी नहीं जानना पर अक्चुएली औडिएंस (असल में श्रोता) समाने आ गई तो...

आचार्य: बोल भाई क्या चाहिए? गालिब पूछते हैं, "दिल-ए-नादां तुझे.......नादां।" रुक जाइए और पूछिये, “हाँ भाई नादां क्या हुआ है, बोलो। आओ आमने-सामने बैठ कर बात करते हैं।" यही आमने-सामने बैठना ही साक्षित्व है। आओ बात करते हैं। वह था न, वह पता नहीं, किसके पास वो गए, "महाराज मन बहुत भटकता है, क्या करें?" महाराज रहे होंगें किसी मूड (वेग) में, बोलते हैं, "उसको बोलो तुम्हें छोड़ कर चला जाए, जहां जाना है जाए।" अरे जब इतना भटकता है तो बोलो तुझे जहाँ जाना है जा। बोले बेवकूफ़ किसको बना रहे हो, तुम्हारी इच्छा के बिना वह भटक सकता है? उसको अच्छे से पता है कि जितना भी भटक ले वापिस आने के लिए दरवाज़े खुले हैं, वह इसलिए भटकता है। जैसे घर का बिगड़ा हुआ बच्चा, जिसे पता है चार दिन बाहर रहेगा, दरूबाज़ी करेगा, यह करेगा, वह करेगा, फिर भी जब लौट कर जाएगा तो माँ तैयार बैठी होगी कि "ले बेटा खाना।" उसको बोलो चला ही जाए। जा, भटक। पूरा भटक। नहीं भटकेगा। वह जीता ही रेपरेशन (दमन) में है न। उपलब्ध हो जाए, फिर नहीं।

प्र: कई लोगो की लाइफ ही उससे चलती है। जो लोग विक्टिम सिंड्रोम (असहाय स्थिति) में जीते हैं।

आचार्य: आपने सही शब्द पकड़ लिया, यह जो रोकना है मन को। मन इसमें विकटिमाइज्ड (शोषित) ही महसूस करता है और वही उसका इंजन है, कि मुझे यह सब नहीं मिला है और पाना है। नहीं मिला है का अर्थ ही यह है कि मैं विक्टिम (शोषित) हूँ। कुछ कमी है। मन जीता ही इसी भाव में है कि अभी कुछ कमी है।

प्र: वह हमेशा कोई न कोई एक ब्लेम निकाल ही लेगा। अगर सबकुछ सही भी हो जाए तो भी कुछ न कुछ निकाल ही लेगा।

आचार्य: उसे करने दीजिए। वह यही करेगा। अरे! वह है ही इसीलिए। आप उसको उसके स्वभाव से अलग थोड़े ही ले जा सकते हो। साँप, साँप है। गाय, गाय है। हाथ, हाथ है। और मन, मन है। मन जो है वैसे ही तो रहेगा। आप उसका स्वभाव थोड़े ही बदल दोगे। हाँ, आप अपना स्वभाव याद रखो यह अलग बात है। मन का स्वभाब बदलने की कोशिश मत करो, अपना स्वभाव याद रखो।

यह बात समझ में आ रही है?

मन का स्वभाव नहीं बदल पाओगे, अपना याद रखो। मन को करने दो, जो कर रहा है। एक चतुर नार बड़ी होशियार। लगा रहने दो, ठीक। हमको हमारा काम करने दे, तू अपना काम कर। कि जैसे एडेल्ट (वयस्क) बैठा हुआ है वह अपना पढ़ रहा है, लिख रहा है। नीचे बच्चा है वह क्या कर रहा है, उसने पूरी धूम मचा रखी है। नीचे पेंट बिखरा दिया है, छपक-छपक कर रहा है, यह तोड़ रहा है, वह फोड़ रहा है। और जो एडेल्ट (वयस्क) है वह क्या कर रहा है, वह अपनी टेबल पर बैठा हुआ है अपना काम कर रहा है। हम अपना काम करेंगे, तू अपना काम कर।

कबीर इसको बड़े मज़े तरीके से बोलते हैं। कबीर कहते हैं, "अपने-अपने चोर को सब कोई डाले मार, मेरा चोर मुझको मिले सर्वस डालूँ वार।" कबीर कहते हैं चोर इसको, मन को। कहते हैं सब लोग अपने-अपने चोर को मारने में लगे हुए हैं। आपकी सारी जो पद्धतियाँ हैं, कहीं की हों, उनका अर्थ यही निकाला गया है कि मन को मारना है। कबीर कहते हैं सब लोग अपने-अपने मन को मारने में लगे हुए हैं पर मेरा चोर मुझको मिले तो मैं उसपर सर्वश्व अपना वार दूँ। मुझे इसे मारने में कोई इंटरेस्ट (रूचि) नहीं है। मैं तो इसे अपना दोस्त बना लूँगा।

इसे मारा जा नहीं सकता। जिस दिन तक शरीर है उस दिन तक यह भी है। जीवन मुक्त का जो आदर्श बनाया गया है भारत में, वः आदर्श याद रखिएगा, यह नहीं है कि उसने देह त्याग दी। वह जीवन से मुक्त हो गया है। जीवन लगातार चल ही रहा है, वह मुक्त है। और जीवन कहीं बाहर नहीं चल रहा है जीवन मन में चल रहा है। वह मुक्त है। मन में सब चल रहा है, तुम मुक्त हो।

प्र: अगर हम मन को अच्छी तरह समझ लें तो वह ज़्यादा इंतज़ार हार्म (नुकसान) भी नहीं करेगा हमें शायद।

आचार्य: देखिये आप जो हैं उसको कुछ हार्म (नुकसान) किया जा भी नहीं सकता। आपको कोई हार्म (नुकसान) नहीं होता, कभी नहीं होता। मन अपना ही नुकसान करता है। बेचैनी किसको है? मन को ही तो है न? तो और किसका नुकसान होता है, मन का ही तो नुकसान होता है न? आपका क्या नुकसान होना है? मेरा तो कोई नुकसान हो भी नहीं सकता। तुम मार किसको रहे हो?

मंसूर को जब हाथ-पाँव काट रहे थे, तो लगा हँसने। बड़ी अज़ीब बात है, आदमी के हाथ-पाँव काटे जा रहें हैं और वह हँस रहा है। तो लोगो ने कहा, हँस क्यों रहे हो? बोलता है, गलत आदमी को मार रहे हो। बेवकूफ़ बन गया तुम्हारा। गलत आदमी को मार रहे हो। अब यह सुनने में बड़ी बेवकूफी की बात लगेगी अपना ही हाथ कट रहा है और हँस रहा है और लोग पूछ रहें हैं क्यों हँस रहा है। तो कह रहा है गलत आदमी को मार रहे हो इसलिए। अर्थ समझ रहे हो इसका? बोल रहा है तुम जिसको मारना चाह रहे हो वह मैं हूँ ही नहीं। तुम इस शरीर के हाथ काट कर सोच रहे हो मेरे हाथ काट दिये। मेरा हाथ कौन काट सकता है? यह याद रहे बस।

इतनी दूर तक मत जाइए, खौफनाक लगेगा बड़ा। बड़ा खतरा है, इतनी दूर जाने में पर इतना तो सोच सकते हैं मन बच्चा है, खेल रहा है, हम अलग बैठें हैं। इतना तो हो सकता है। उतना कर लीजिए।

प्र: जब आप सप्रेस्स (दमन) करते हैं, व्हेन यू ट्राई टू डिक्टेट योर लाइफ (जब आप अपनी ज़िंदगी को बंधे-बंधाए रस्ते पर चलाते हैं)। मुल्ला बैठे हुएँ हैं बाहर उनका बच्चा बहुत उधम करता है। मुल्ला मना करे हैं कि मत करो-मत करो। जितना कह रहें हैं उतना वह बच्चा और शोर कर रहा है। तो मुल्ला ने कहा अच्छा, अब मैं तुझे आदेश देता हूँ, जितना तू उधम कर सकता है कर। बच्चा चुप हो गया। तो आप जितना सप्रेस (दमन) करोगे उस मन को वो बिल्कुल उसका विपरीत करेगा, फॉर इट्स कोएग्जीस्टेंस (अपने सह-अस्तित्व के लिए)।

आचार्य: नाइदर स्प्रेशन नॉर इंडल्जेंस (न दमन न भोग)। स्प्रेस (दमन) नहीं करना है इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरा काम शुरू कर देना है कि बच्चा छपक-छपक कर रहा है तो हम भी करेंगें। यह नहीं कहा जा रहा है। दोनों अब लगे हुए है।

प्र: ज़्यादा छपक किसकी है।

आचार्य: तू तो कम कर पा रहा था, हम अपनी पूरी एनेर्जी (ऊर्जा) अब तुझे दे देंगे। न उसको रोको न उसके साथ उद्यत हो जाओ।

प्र: जब तक हवा चल रही है तब तक पत्ते हिलेंगें।

आचार्य: लाऊतज़ू ने बस यही देखा था। इतना ही देख लिया था उसने, पर ध्यान से। हवा चली और पता मज़े में हवा के साथ-साथ गिर रहा है। अपनी कोई इच्छा दिखा ही नहीं रहा। जब तक टंगना था, टंगा रहा जब समय आया गिर पड़ा। धीरे-धीरे गिरता-गिरता ज़मीन पर आकर बैठ गया। और थोड़ी देर में वह मिट्टी का हिस्सा बन जाएगा। यही देख लिया था लाउतजु ने और सब समझ आ गया था उसको। कोई रेजीस्टेंस (अवरोध) नहीं दिया। यही चोईसलेसनेस (निर्विकल्पता) है। चोईसलेसनेस का अत्यंतिक अर्थ यही है कि मन जो कर रहा है करे हम उसको चोईसलेसली (विकल्प-रहित) वौच कर रहें हैं। हम नहीं मन के साथ कुछ भी कर रहें हैं। न हम उसे इस दिशा में भेज रहें हैं न हम उसे उस दिशा में भेज रहें हैं। यही है चोईसलेसनेस।

प्र: जो लोग ऐसे शो (दिखाते) करते हैं कि "मुझे कोई दिक्कत नहीं है" वो लोग गलत हैं?

आचार्य: गड़बड़ जा रहें हैं। मन जब खेल रहा है तो वह यह शो (दिखावा) क्यों कर रहा है कि मुझे कोई दिक्कत नहीं है? मन तो बोलेगा ही, मुझे दिक्कत है, यह भी है, वह भी है। आप मन हो। आप सब कुछ दिखाओगे। अपनी दिक्कत भी दिखाओगे। कहा न, चिंता का भी स्थान है, डर का भी स्थान है। आप सब दिखाओगे। क्यों नहीं दिखाओगे बिलकुल दिखाओगे। जो लोग यह शो (दिखावा) करते हैं वो तो मन का दमन कर रहें हैं।

प्र: वह खुश नहीं रहते कभी।

आचार्य: मन को दिक्कत है और आप दिखा क्या रहे हो? दिक्कत नहीं है तो यह आप मन के विपरीत जा रहे हो न। मन को दिक्कत है तो मन को दिखाने दो कि दिक्कत है। "यहाँ बहुत गर्मी लग रही है मुझे, मैं नहीं बैठ रहा यहाँ पर।" अब जब यह बोलते रहो तो भीतर एक छोटा सा बिन्दु बना हुआ है जो जान रहा है, ठीक है गेम (खेल) चल रहा है। गेम (खेल) चल रहा है, गेम (खेल) चलने दो। मन को दिक्कत है, मन को दिखाने दो। जिस दिन सब उल्टा-पुलटा चल रहा हो उस दिन खूब झुंझलाओ। मन का काम है झुंझलाना, झुंझलाने दो। और मन झुँझलाता जा रहा है और भीतर एक छोटा सा बिन्दु है, जो नहीं झुँझला रहा। बिलकुल छोटा सा।

प्र: यह एक्साम्पल (उदाहरण) बहुत ज्यादा खराब रहेगा, पर एक चीज़ है जैसे एक हाउस-वाइफ है घर में, चिक-चिक कर रही है, यह चिक-चिक, वह चिक-चिक, दिमाग खराब कर रही है। और चिक-चिक करते-करते उसने राजमा-चावल, सूखी सब्ज़ी सब बना डाला। और चिक-चिक भी कर रही है और लाइट जा रही है तो उसको भी गाली दे रही है, पति को तो, देती ही देती है। सब-कुछ।

आचार्य: सब-कुछ। पर जो तैयार हो रहा है वह बड़ा खूबसूरत है।

रामकृष्ण के बारे में है, अभी सुन रहा था कि वो बैठे होते थे और लोगो से बात कर रहे हैं और लोग दूर-दूर से आयें हैं बात करने के लिए। थोड़ी दूर में वहाँ पर रसोई है, वहाँ खाना बना, बंगाली आदमी, खुशबू आई और बीच में उठ कर अभी आता हूँ। और गए और घुस गए वहाँ। और वहाँ जो भी बन रहा है उसको चख रहें हैं और यह कर रहें हैं वह कर रहें हैं। वहाँ अंदर बीवी है, शारदा, वह भगा भी रही है कि तुम्हें शर्म नहीं आती? इतने बड़े आदमी हो गए, लोग आ रहें हैं बाहर से तुम पर श्रद्धा रखते हैं और तुम यहाँ किचेन (रसोईघर) में घुस रहे हो? और वो बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं। कि नहीं थोड़ा सा और दे दो। और वहाँ से लोग आ रहें हैं और बैठें हुए हैं कि महाराज! और यहाँ से मछली लेकर आ गए, हाँ बोलो क्या बोलना है? अब यह बड़ा सरल आदमी है।

ठीक है?

यह मन के पीछे खड़ा है। मन जो कर रहा है करने दे रहा है और यह चुपचाप खड़ा है। तुम जिससे मिलने आए थे, जिससे बात करने आए थे वो कहीं नहीं गया, वह मौजूद है। पर अभी शरीर है और शरीर का अर्थ ही है मन। वह रहेगा, वह अपना काम कर रहा है। वो साक्षी तब भी मौजूद था जब मैं वहाँ खड़ा हो गया था चूल्हे के सामने, अब भी है जब यहाँ खड़ा हूँ। तब भी जान रहा था, अब भी जान रहा है। मेरे पूरे होने में यह भी शामिल है कि मैं वहाँ भी जाकर खड़ा हो सकता हूँ। मैं मज़ाक भी कर सकता हूँ। मैं उल्टा-पुलटा भी हो सकता हूँ। वो मेरी परम स्वतन्त्रता है। साक्षी स्वतंत्र है और साक्षी मन को भी स्वतंत्र छोडता है।

अगर उसने मन को गुलाम बनाया तो स्वयं भी गुलाम हो जाएगा। पता है न मालिक और गुलाम हमेशा एक साथ चलते हैं? साक्षी मन को गुलाम नहीं बनाता, वह मन को पूरा छोड़ देता है एक दम छुट्टा। जा। लेकिन तू जहाँ भी जाएगा हम साथ-साथ हैं। जो एडल्ट (वयस्क) है उसने बच्चे को छोड़ दिया है, जा। पर जहाँ भी जाएगा नज़र के भीतर रहेगा मेरी। जहाँ भी रहेगा नज़र के भीतर रहेगा। जा, तुझे जाना जहाँ भी है, जा। हम देखेंगें। हमारा काम है देखते रहना।

प्र: मन की खुशी के साथ हम भी तो खुश हो सकते हैं?

आचार्य: हम माने कौन? जो दूसरा वाला था?

प्र: जो मन है अगर किसी चीज़ से बहुत प्रफुल्लित होता है, जैसे मान लीजिए मन मेरा, अगर संगीत सुनने में प्रफुल्लित होता है या नृत्य करने में या कोई कविता लिखने में प्रफुल्लित होता है तो उसके साथ हम क्यों नहीं खुश हो सकते?

आचार्य: हम माने कौन?

प्र: हम मतलब मेरा जो तत्व है, जो साक्षी भाव है वो।

आचार्य: देखिए, यह जो प्रफुल्लित शब्द है, यह फूलने से आया है। 'प्र' तो बाद में लगाया गया है। यह फुल्लित माने फूलना। अब आत्मा तो फूलेगी नहीं। हम हीं फूल सकते हैं कि फूल कर गोल-गप्पा हो गए। कौन फूलेगा? शरीर ही फूल सकता है और मन चौड़ा हो सकता है अहंकार में। हम माने कौन? किसकी बात कर रहे हो? शरीर की बात करूँ या मन की और दूसरा कोई तत्व है नहीं फूलने के लिए। साक्षी तो नहीं फूलता वह तो बिन्दु है। बिन्दु फूल जाएगा तो फिर बिन्दु कहाँ रहा।

हम माने क्या? मन के अलावा अपने आपको आप कुछ नहीं जानते।

प्र: जैसे कोई मीटिंग पॉइंट (मिलन-बिन्दु) नहीं है मन और साक्षी के बीच में?

आचार्य: बिलकुल मीटिंग पॉइंट है। मीटिंग पॉइंट क्या है? कोंटीनुटी (निरंतरता) है पूरी। जैसे जड़ और पत्ते की कोंटीनुटी है। निरंतरता तो है ही। मीटिंग पॉइंट क्या होता है? एक ही है। साक्षी और मन अलग-अलग नहीं है। मन ही जब शांत हो जाता है तो उसको ही साक्षी कहते हैं। तो साक्षी होने का अर्थ ही यही है कि ...

अच्छा साक्षी हटाइए, ओबजरवेशन (अवलोकन) तो समझते हैं न? इतना तो हम जानते हैं कि हम बोल देते हैं कि ‘मैं गुस्सा हूँ'। यह तो सीधे-सीधे ओबजरवेशन (अवलोकन) है। ओबजरवेशन (अवलोकन) का अर्थ क्या होता है? ऐसे समझिएगा। मन है, मन के दो टुकड़े हो गए। यह मन है, मन के दो टुकड़े हो गए। यह ओबजरवेशन (अवलोकन) कहलाता है कि एक टुकड़ा दूसरे टुकड़े को देख रहा है, अच्छा। अब जो यह देख रहा है टुकड़ा यह भी अपने आपको देखना चाहता है, तो इसका एक और टुकड़ा हुआ, अब यह टुकड़ा उसको तो देख ही रहा था, मान लीजिए यह जो टुकड़ा है इसका नाम ‘ए' है और यह ‘बी' है तो यह जो ‘बी1' हो गया ‘बी1', ‘बी2' को देख रहा है और ‘ए' को तो देख ही रहा है। फिर इसके पीछे जाते जाएँ, जाते जाएँ, जाते जाएँ, टुकड़े और होते जाएँ। फ्रग्मेंटशन (विखंडन) ही चल रहा है मन का, फ़्रग्मेंटेशन (विखंडन) ही चल रहा है। अंतत: जो सबसे छोटा टुकड़ा बचता है वह साक्षी है। वह टुकड़ा है ही नहीं, वह शून्य हो गया है। वह शून्यता साक्षी है।

अब बात समझ रहें हैं?

शुरुआत तो फ्रग्मेंटेशन से ही होगी। और बड़ा अच्छा, कृष्णमूर्ति कहते हैं, हमेशा बोलते रहते हैं, फ्रग्मेंटेड माइंड (खंडित मन) , फ्रग्मेंटेड माइंड (खंडित मन) , कितनी बुरी बात है। वह भी बुरी बात नहीं है, अच्छी बात है। फ्रग्मेंटेशन ही आपको ओबजरवेशन (अवलोकन) की कपासिटी (क्षमता) देता है। अगर मन का फ्रग्मेंटेशन (विखंडन) न हो तो आप कभी मन को देख नहीं पाओगे। क्योंकि शुरुआत तो यहीं से होती है न कि एक टुकड़ा दूसरे टुकड़े को देखता है।वही फ्रग्मेंटेशन (विखंडन) आत्यंतिक रूप से साक्षीत्व बन जाता है, विट्नेसिंग (साक्षीत्व) बन जाता है। वही ओबजरवेशन (अवलोकन) ही विट्नेसिंग (साक्षीत्व) बन जाता है।

यह जो पहली लाइन है उसका अर्थ यही है कि "मन कब खत्म हुआ है?" मन खत्म हो नहीं सकता। काम है उसका चलते रहना। समय है वह।

मन ही समय है, जहाँ तक समय है वहाँ तक मन है।

वह जो शब्द है परे, वही काम का है। परे माने? मन चलता रहेगा, तुम? परे हो जाओ। स्पष्ट रूप से कह रहे हैं,

"मन का चलना कौन रोक पाया है?" मन चलता रहेगा तुम परे हो जाओ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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