मूर्तिपूजा न करने का अधिकार किसे? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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मूर्तिपूजा न करने का अधिकार किसे? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: हमने सुना है कि ये मूर्तिपूजा जो है ये प्राथमिक सीढ़ी है, प्रारम्भिक एक स्थान है। उसके के बाद हमें आगे बढ़ जाना चाहिए उसको छोड़कर के। तो अभी भी हम उसको जीवन भर ढोते रहते हैं, कोई जीवन में भी फ़र्क नहीं आ रहा है।

जब हमें बोध हो गया तो हमें तो बच्चों को उड़के आगे की चीज़ बतानी चाहिए।

आचार्य: क्यों बतानी चाहिए? आपने पीएचडी कर ली, तो आपका बच्चा पैदा होगा तो सीधा उसको पीएचडी कराएँगे? बच्चे को तो पूरी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ेगा न? पहली, दूसरी, तीसरी कक्षा। मूर्तिपूजा आरम्भिक चरण हो सकता है, पर उस आरम्भिक चरण से वही आगे बढ़े न, जिसने आरम्भिक परीक्षा उत्तीर्ण कर ली हो। मूर्तिपूजा से आगे बढ़ जाने का अधिकार सबको थोड़े ही होता है, कि जिसको देखो उसको यही कहना शुरू कर दे कि हम मूर्ति में विश्वास नहीं करते।

निन्यानवे प्रतिशत लोगों के लिए साधना के निन्यानवे प्रतिशत काल तक मूर्त का ही पूजन करना आवश्यक है। आपने सुन लिया है कि मूर्ति अमूर्त का द्वार है और एक बिन्दु आता है जिसके बाद मूर्ति आवश्यक नहीं रह जाती। और ये सुनकर के आपने सोच लिया कि अब मेरे लिए भी मूर्ति आवश्यक नहीं है। मैं कह रहा हूँ, ‘निन्यानवे प्रतिशत लोगों के लिए साधना के निन्यानवे प्रतिशत काल तक मूर्ति आवश्यक है।’ वो बिरले होते हैं, जो मूर्ति से उत्तीर्ण होकर के फिर निराकार में, अमूर्त में प्रवेश कर सकते हैं; बाकियों को तो मूर्ति चाहिए ही।

आप छोटे बच्चों को क्या निराकार ब्रह्म से परिचित कराओगे? वहाँ तो मूर्ति का सहारा लेना ही पड़ेगा न? और ये तो छोड़ो कि छोटे बच्चों को मूर्ति की ज़रूरत है, निन्यानवे प्रतिशत वयस्कों को भी मूर्ति की पूरी-पूरी ज़रूरत है। तो कोई भी जल्दी से ये आग्रह, ये दावा कर ही न दे कि मुझे मूर्ति नहीं चाहिए। सबको चाहिए। कोई बिरला ही होता है जो अमूर्त में प्रवेश का अधिकारी बनता है।

'रामकृष्ण परमहंस' से ज़्यादा प्रबल आध्यात्मिक प्रतिभा तो नहीं होगी आप में। और जीवन भर मूर्ति के साथ ही रहे रामकृष्ण। आपने अपनेआप को क्या समझ रखा है कि आप जल्दी से मूर्ति को त्याग देंगे? मूर्ति की बड़ी उपयोगिता है, मूर्ति की बड़ी महत्ता है।

जब अद्वैत में दीक्षित भी हुए रामकृष्ण तो बड़ी कठिनाई लगी थी उन्हें, बड़ा साहस करना पड़ा था। बड़ी अनासक्ति दिखानी पड़ी थी। वो वृत्तान्त याद है न? बैठते थे समाधी में आँखों के आगे माँ की मूर्ति घूमने लगती थी। काली की प्रतिमा घूमने लगती थी। अन्ततः गुरु ने एक काँच का टुकड़ा उठा करके कहा कि अब जाएगा समाधि में तो मैं इससे तेरे माथे पर निशान बनाऊँगा। और जैसे मैं तेरे माथे पर निशान बनाऊँ, वैसे तू माँ को भी काट ही देना, मिटा ही देना। रामकृष्ण से ये हो ही न, बड़ा मुश्किल काम। खैर किसी तरह रामकृष्ण ने ये परीक्षा उत्तीर्ण करी, बड़े कष्ट के साथ।

रामकृष्ण जैसों को भी मूर्ति के पार जाने में बड़ी कठिनाई लगती है। और हमको ऐसा लग रहा है कि नहीं हम तो मूर्ति को यूँही त्याग सकते हैं। और ये भी आजकल बड़ा प्रचलन है, फैशन बन गया है। लोग कहते हैं, ‘मैं मन्दिर नहीं जाता, मैं मूर्तिपूजक नहीं हूँ, जो छोटे लोग होते हैं आरम्भिक चरण के साथ देने वाले, अनाड़ी लोग वो करते हैं मूर्तिपूजा; हम तो खिलाड़ी हैं, हम तो अद्वैत के खिलाड़ी हैं। ये मूर्तिपूजा वगैरह हम नहीं जानते।' ये दम्भ है, कोरा अहंकार है।

कसौटी बताये देता हूँ, इसी पर कस लेना अपनेआपको, मूर्ति से आगे जाने का अधिकार उसी को है, जिसने अपनेआप को मूर्ति मानना बन्द कर दिया हो। मूर्तिपूजा बन्द कर देने का अधिकार सिर्फ़ उसको है, जिसने अपनेआप को मूर्ति मानना बन्द कर दिया हो।

मूर्ति माने आकार, देह, शरीर। अपनेआप को तो पूजे जा रहे हो। इस मूर्ति की तो बहुत परवाह कर रहे हो, कर रहे हो न? (अपने शरीर की ओर इंगित करते हुए।) ये भी तो एक मूर्ति ही है, इससे तो पूरा तुम्हारा लगाव, जुड़ाव, तादात्म्य सबकुछ है; दिन-रात इसको भोग लगा रहे हो। लगा रहे हो कि नहीं? पर जो सामने मूर्ति रखी है, कह रहे हो, 'नहीं, अब उसको नहीं पूजेंगे, उसको भोग नहीं लगाएँगे।' उसको भोग लगाना उस दिन बन्द करना, जिस दिन मन से इसको भी भोग लगाने की इच्छा मिट जाए।

(अपने मुँह की ओर इंगित करते हुए) जिस दिन तक इसको (शरीर) महत्व दे रहे हो, उस दिन तक उस मूर्ति को नही महत्व दो। और जिस दिन तुम्हारा अपना देहभाव समाप्त हो जाए, उस दिन कहना कि अब मुझे मूर्ति की आवश्यकता नहीं रही। उससे पहले तुम्हें मूर्ति की आवश्यकता है।

समझ में आ रही है बात?

मूर्ति को लेकर के बड़ा पाखंड व्याप्त है― लोग घूम रहे होंगे, कह रहे होंगे, 'मूर्ति में हमारा विश्वास नहीं है।' मूर्ति में तुम्हारा विश्वास नहीं है, तो ये जेब में अपने बच्चे की फोटो लेकर के क्यों घूम रहे हो? ये मूर्ति नहीं है, ये मूर्ति नहीं है क्या?

अमूर्त माने वो जिसकी मन कल्पना ही न कर सकता हो। जो लोग कहें कि हम मूर्तिपूजक नहीं हैं, उन्हें तो फिर कोई भी मूर्ति खड़ी ही नहीं करनी चाहिए। पर मूर्तियाँ तो सभी खड़ी करते हैं न? हो सकता है वो मूर्ति पत्थर की न हो, हो सकता है वो मूर्ति तुम्हारी कल्पना की हो। बस तुम्हारे मन में हो वो मूर्ति, पर होती तो है ही।

तुम एक ऐसा पूजास्थल बनाओ जिसमें मूर्ति नहीं है, तो भी हुए तो तुम मूर्तिपूजक ही क्योंकि तुमने पूजास्थल तो बनाया न, और पूजास्थल क्या है अपनेआप में? एक मूर्त वस्तु है। तुमने एक पूजास्थल बनाया और भीतर तुमने उसके कोई मूर्ति नहीं रखी और तुम कहने लगे, 'नहीं साहब, हम तो मूर्तिपूजक नहीं है।' गलत बात, तुम भी मूर्तिपूजक हो। तुमने ये जो पूजा स्थल बनाया है, ये मूर्त वस्तु है या नहीं है? है या नहीं है? तो इस पूजा स्थल के निर्माण मात्र से सिद्ध हो गया कि तुम भी मूर्तिपूजा को…।

हाँ, सबकी मूर्तियाँ अलग-अलग तरह की होती हैं। किसी की मूर्ति ऐसी होती है, किसी की मूर्ति वैसी होती है, कोई इस मूर्ति को पूजता है, कोई उस मूर्ति को पूजता है लेकिन मूर्तियों की आराधना तो सभी कर रहे हैं।

वो लोग भी जो कट्टर मूर्तिभंजक होते हैं, ईमानदारी से पूछोगे तो वो भी मूर्तिपूजक ही हैं। हाँ, वो एक खास प्रकार की मूर्तियों के दुश्मन हैं। वो कहते हैं, 'इस तरह की मूर्ति होगी तो काट दूँगा। लेकिन मेरी तरह की मूर्ति होगी तो अच्छी बात है।’ ‘मेरी तरह की मूर्ति होगी तो अच्छी बात है।' जो भी कोई परम सत्ता तक जाने के लिए पदार्थ का सहारा ले रहा है, जो भी कोई परमसत्ता तक जाने लिये पदार्थ का सहारा ले रहा है, वो वास्तव में अमूर्त तक जाने के लिए मूर्ति का ही तो सहारा ले रहा है। समझो! परमसत्ता माने, अमूर्त; पदार्थ माने, मूर्त।

जो भी कोई परमसत्ता तक जानने के लिए किसी भी तरह के पदार्थ का सहारा ले रहा है, वो मूर्तिपूजक ही है। और पदार्थ का सहारा तो सभी ले रहे हैं न। आध्यात्मिक यात्रा में मुझे बताओ कौन है जो पदार्थ का सहारा नहीं लेता। अगर तुम किसी खास जगह जाते हो ये कहकर कि ये मेरा तीर्थ है, तो तुम पदार्थ का सहारा ले रहे हो कि नहीं ले रहे हो? अगर तुम किसी खास दिशा को मुँह करके प्रार्थना करते हो, तो तुम पदार्थ का सहारा ले रहे हो या नहीं ले रहे हो।

श्रोतागण: ले रहे हैं।

आचार्य: दिशा भी तो मूर्त तो होती हैं न? या दिशा अमूर्त है? अमूर्त में तो कोई दिशाएँ नहीं होती। मूर्तिपूजक सभी हैं; बस कुछ लोग कहते हैं कि हमारी तरह की मूर्तिपूजा करो, तुम्हारी तरह कि नहीं। निराकार की जो पूजा करने लग जाए, वैसा तो कोई बिरला ही होता है।

दुनिया में कई धर्म हैं, जो सगुण ईश्वर की उपासना करते हैं, और कई हैं जो निर्गुण की उपासना करते हैं; पर फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम किस धर्म, किस पन्थ से हो। अगर तुम देहाभिमानी हो, अगर तुम देहभाव रखकर चलते हो तो तुम मूर्तिपूजक ही हो। तो ऐसा कोई नियम या कायदा नहीं है कि तुम इस धर्म से हो तो तुम मूर्ति पूजक हो, और अगर तुम उस धर्म से हो तो मूर्तिपूजक नहीं हो। सब मूर्ति की ही पूजा करते हैं।

भई, अगर तुम शब्द की भी पूजा कर रहे हो तो वो भी मूर्तिपूजा ही है। शब्द भी अमूर्त तो नहीं होता न? शब्द भी अमूर्त तो नहीं होता न? अमूर्त तो वो है― 'इन्द्रियाँ जिसका अनुभव ही न कर पाएँ,' ठीक? शब्द का अनुभव इन्द्रियाँ करती हैं कि नहीं। तो शब्द भी अमूर्त तो नहीं होता न? अगर तुम कहो कि मैं शब्द की उपासना करता हूँ, तो भी तुम मूर्तिपूजक ही हो। मूर्तिपूजक तो सभी ही हैं।

आस्तिक भी मूर्तिपूजक है, नास्तिक भी मूर्तिपूजक है। थोड़ी देर पहले मैंने कहा कि जो अपने को कहते हैं कि हम तो साहब, मूर्तिपूजा की बात छोड़िए, हम किसी ईश्वर को नहीं मानते, हम तो नास्तिक हैं। मैं उनसे कहना चाहूँगा, आप नास्तिक हैं या नहीं; ये मुझे नहीं पता पर आप मूर्तिपूजक ज़रूर हैं। जेब में बिटिया की फोटो रखकर चल रहे हो, ये मूर्तिपूजा है या नहीं हैं? अपनी तिजोरी के प्रति बड़े नमित रहते हो, ये मूर्तिपूजा है या नहीं हैं? सुन्दर स्त्री की काया देखकर बार-बार फिसल जाते हो, ये मूर्तिपूजा है या नहीं हैं? बोलो!

श्रोता: जी।

आचार्य: चलो तुम कहो कि हममें ऐसा कोई दुर्गुण नहीं है, हम तिजोरी को देखकर नहीं फिसलते, हम स्त्री को देखकर नहीं फिसलते; हम तो बड़े सात्विक, संयमी आदमी हैं, हम तो यूँ ही रमण करते हैं। अच्छा? ठीक है, रमण करते हो। पहाड़ पर जाते हो और सुन्दर झरना बह रहा है, उसको देखकर कहते हो, ‘वाह! क्या दृश्य है, क्या सुन्दरता है प्राकृतिक!’ ये मूर्तिपूजा है या नहीं है? मूर्तिपूजक तो सभी ही हैं, अस्तिक हो चाहे नास्तिक हो। इस धर्म का हो, चाहे उस धर्म का हो।

जो कोई देह में, और दृश्यों में, और इन्द्रियों में, और मन में विश्वास करता है वो मूर्तिपूजक ही है।

अब एक वैज्ञानिक है, वो अपनी कम्प्यूटर स्क्रीन पर उभर रहे दृश्यों में खोया हुआ है, वो मूर्तिपूजक हुआ कि नहीं हुआ? स्क्रीन पर जो दृश्य उभर रहा है उसकी। होगा कोई बहुत बड़ा टेलिस्कोप दुनिया का सबसे अच्छा टेलीस्कोप।

श्रोता: ब्लैक होल।

आचार्य: अभी-अभी ब्लैक होल का पहली दफ़े इतिहास में चित्र लिया गया, और वो चित्र बिलकुल वायरल हो गया, ये मूर्तिपूजा थी कि नहीं थी? कौनसी चीज़ है जो तुम्हें लुभा रही है? तुम किसके दीवाने हुए जा रहे हो? वो एक मूर्ति ही तो है न, या वो ब्रह्म का चित्र था? निराकार आत्मा का चित्र था क्या वो? मूर्त पदार्थ का ही तो चित्र था न?

और एक से बढ़कर एक वैज्ञानिक, और बुद्धिजीवी, और लिबरल सब उसके कायल हुए जा रहे थे, 'ये देखो, ये देखो विज्ञान ने कितनी तरक्की कर ली।' बड़े पिछड़ेपन का काम था, बड़े जाहिल मूर्तिपूजक हैं। यही गाँव के किसी मन्दिर में कोई राम की मूर्ति के सामने कोई अशिक्षित स्त्री आरती करती हो। तो उसको कह देते हैं, 'कितनी जाहिल! कितनी जाहिल!' और तुम ब्लैक होल की फोटो देखकर दीवाने हुए जा रहे हो तो अपनेआप को कहते हो, 'नहीं, हम तो धुरन्धर है, हम तो ज्ञानी हैं।' गौर से देखो, दोनों एक ही काम कर रहे हो, दोनों ही चित्र की, दृश्य की, वस्तु की आराधना कर रहे हो। दोनों ही कह रहे हो, ‘कितनी बड़ी कोई चीज़ मेरे सामने हैं!’

वो ग्रामीण स्त्री राम की प्रतिमा को देखती है, और भाव करती है, ‘मेरे सामने कुछ बहुत विराट है।’ और तुम ब्लैक होल को देखते हो और तुम भी यही भाव करते हो, ‘मेरे सामने कुछ अत्यन्त विराट है।’ अब मुझे बताना साफ़-साफ़, वो जो चित्र है ब्लैक होल का क्या वो वास्तव में विराट है? मूर्ति तो उतनी बड़ी है, जितना बड़ा वो चित्र। क्या वो विराट है? पर उसको देखकर तुमने भावना करी न कि कुछ विराट है ज़रूर। इतना सा चित्र है, इस कागज पर छप जाए। (टेबल पर रखे कागज़ को दर्शाते हुए।) तुमने ब्लैक होल के उस चित्र को देखा और तुमने ये भावना करी न कि मेरे सामने कुछ बहुत विराट है।

इसी तरह से वो ग्रामीण स्त्री भी राम की मूर्ति को देखती है, और ये भाव करती है कि मेरे सामने भी कुछ बहुत विराट है। तुम कहोगे, 'नहीं, नहीं, नहीं! ठहरिये प्रशांत जी। हम जब भावना कर रहे हैं कि इसमें जो ब्लैक होल है का चित्र है, वो बहुत विराट है, तो हमारे पास प्रमाण है। हमारे पास प्रमाण है कि वो ब्लैक होल बहुत बड़ा है।'

और जितने आपके पास वैज्ञानिक प्रमाण होंगे वो आप दिखा दोगे। कहोगे, 'ये देखिए ये बहुत-बहुत बड़ा ब्लैक होल है। और वो जो स्त्री है, गरीब, अशिक्षित जो राम की मूर्ति की पूजा कर रही है, उसके पास कोई प्रमाण है कि इस मूर्ति के पीछे कुछ अत्यन्त विराट है?’ जी हाँ साहब! उसके पास भी प्रमाण हैं; और उसके पास तुमसे ज़्यादा पुख्ता प्रमाण हैं। तुम्हारा प्रमाण तो बाहरी है, तुम्हारा प्रमाण इन्द्रियगत है। तुम जब मुझे बताओगे कि ये जो ब्लैक होल का चित्र है, ये जिस ब्लैक होल का चित्र है, वो ब्लैक होल बहुत बड़ा है, तो तुम जो मुझे प्रमाण दोगे वो एक इन्द्रियगत प्रमाण होगा, एक मानसिक प्रमाण होगा।

और वो ग्रामीण स्त्री जब कहती है कि मेरे राम अनन्त हैं, विराट हैं; तो उसके पास हार्दिक प्रमाण हैं। तुम्हारे पास मानसिक प्रमाण हैं, उसके पास हार्दिक प्रमाण है। तुम्हारा प्रमाण बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर करता है, उसका प्रमाण उसके अन्तःस्थल से निकल रहा है। उस मूर्ति के सामने वो खड़ी होती है, उसकी छुद्रताएँ सब गिर जाती हैं, मिट जाती हैं। छुद्रताएँ जब मिट गयीं तो क्या बचा? वो जो विराट है। सीमाएँ जब गिर गयीं तो क्या बचा? वो जो असीम हैं। तो मुझे बताओ, असली प्रमाण तुम्हारे पास है या उसके पास है?

मूर्तिपूजक तो दोनों हो। तुम ब्लैक होल की मूर्ति की पूजा करते हो, वो रामचन्द्र की मूर्ति की पूजा करती है, मूर्तिपूजक तो दोनों हो। और दोनों एक ही भावना से काम कर रहे हो कि हम जिस मूर्ति की पूजा कर रहे हैं, उसके पीछे कुछ असली है, उसके पीछे कुछ सत्य है, उसके पीछे कुछ विराट है। हाँ, जब तुम कह रहे हो कि तुम जिसकी पूजा कर रहे हो उसके पीछे कुछ सत्य है, कुछ विराट है तो तुम्हारे पास प्रमाण है, हम उन प्रमाणों का सम्मान करते हैं लेकिन याद रखना वो सारे प्रमाण मात्र बौद्धिक और मानसिक हैं। और उस स्त्री के पास वैराट्य का जो प्रमाण है, अनन्तता का जो प्रमाण है; वो आन्तरिक है, हार्दिक है।

तुम्हें दिख रहा है, साफ़-साफ़ कि मूर्ति के सामने तुम्हारी लघुताएँ, तुम्हारे दायरे, तुम्हारा छुद्र अहम् ये सब मिट जाते हैं। तो बताओ मूर्ति ने अनन्त से तुम्हारा परिचय करा दिया या नहीं करा दिया? मैं नहीं कह रहा कि सबके साथ ऐसा होता है। पर कुछ तो है न, जो जब मूर्ति के सामने खड़े होते हैं, तो उनका छुद्र अहंकार गिर जाता है। तो बताओ उनके लिए मूर्ति एक विराट अमूर्त का द्वार हुई कि नहीं हुई?

याद रखना, सब करते हैं मूर्तिपूजा, आवश्यक ये है कि तुम ऐसी मूर्ति चुनो, जो वास्तव में तुम्हें अमूर्त में प्रविष्ट करवा दे। और फिर उस मूर्ति के प्रति ईमानदार रहो। पाखंड न विज्ञान में चलेगा, न अध्यात्म में चलेगा।

प्र २: आचार्य जी, जो सत्यनारायण जी की कथा घरों में सुनाई जाती है, उनमें मैंने हमेशा सुना है कि शनिवार को नाखून मत काटो, रविवार को बाल मत कटाओ। मतलब ऐसा-ऐसा भ्रम कि पचता नहीं कुछ। उसमें सब सुनाई देता है, तो ये सब क्या है?

आचार्य: मत खाओ नहीं पचता तो। तुम मुझसे पूछ रहे हो, 'ये सब क्या है?' मैं तुमसे पूछ रहा हूँ, तुम ऐसी बातों को माने जा रहे हो ‘ये सब क्या है’? ये आध्यात्मिक चर्चा के लिए गोष्ठी बैठी है? या इस बात के लिए बैठी है कि किस दिन दाढ़ी कटानी है और कब नाखून कटाने हैं?

प्र २: वो जो हमें बताया जाता है कि बहुत धार्मिक है, धर्म से है।

आचार्य: उन्होंने बताया तो बताया, तुमने सुना क्यों? इस बात पर गौर करो कि ऐसे हैं हम कि कोई कुछ भी मूर्खता की बात बता दे, हम सुन लेते हैं। ये बात विचारणीय है। और अगर ऐसे हो तुम तो फिर तो जीवनभर बुद्धू बनते रहोगे न? न जाने कौन-कौन तुम्हें कैसी-कैसी पट्टी पढ़ाता रहेगा, और तुम पढ़ते रहोगे। बोलने वाले तो कुछ भी बोल सकते हैं ― कोई विक्षिप्त हो सकता हो, कुछ भी बक रहा हो, कोई कुटिल हो सकता है, कुछ भी चाल चल रहा हो। लोगों के बोलने पर क्या नियन्त्रण। लेकिन अपने सुनने में और अपने मानने में तो विवेक हो सकता है न? वो विवेक क्यों नहीं है?

प्र २: डर हमारे अन्दर इतनी गहराई से बैठ गया है कि वो मानने ही नहीं देता है। पता है कि ये गलत है लेकिन वो उठकर नहीं आ पाता है, वो दबा है।

आचार्य: वो डर इसीलिए है क्योंकि ज्ञान पूरा नहीं है। वो डर इसलिए है क्योंकि माया में यकीन ज़्यादा है और सत्य के प्रति अश्रद्धा है। नहीं तो सत्य की तो पहचान ही होती है कि वो तुम्हें निर्भय करता है।

जो निर्भय न हो पा रहा हो वो साफ़ जाने ले कि उसके जीवन में सत्य के प्रति अश्रद्धा है; और मूर्खता के प्रति विश्वास है।

प्र २: जैसे छोटा बच्चा है तो उसे बचपन से ही घर में पूजा हो रही है, बैठा देते हैं, ज़बरदस्ती। उसका बैठने का कोई इरादा है नहीं, वो भागता है वैसे भी। लेकिन बचपन से कहो, 'सुनो इसको, यही मानो।'

आचार्य: वो कहाँ है छोटा बच्चा?

प्र २: वो बच्चा मैं ही हूँ।

आचार्य: तो ये है न समस्या कि तुम अभी भी बच्चे हो। उस छोटे बच्चे के साथ जो हुआ सो हुआ। अब तो वो छोटा बच्चा कहीं नहीं है न? पर तुम अभी भी वही छोटे बच्चे बने हुए हो, ये है समस्या। छोटे बच्चे को किसी ने कुछ उल्टा-पुल्टा समझा दिया होगा। तुम इस उम्र में भी वो सब बातें क्यों माने जा रहे हो? क्या मजबूरी है?

प्र २: मजबूरी तो कोई नहीं बस भ्रम हो गया था, उसी का निराकरण कर रहे थे।

तो जैसे एक चीज़ है, बचपन से मेरे पिताजी पढ़ाई के प्रति बच्चों को इतना दबाव में रखते थे कि वो हो सकता है रात में नौ बजे आये, बच्चा सो रहा हो उठाकर उसको पढ़ाएँ गयारह बजे तक। फिर सुबह कभी चार बजे, कभी पाँच बजे; कभी उनको पता है न ये तीन ही बजे उठा दिये, ‘पढ़ो!’ अब बच्चे का कोई इरादा नहीं, उसको नींद लगी है। ज़बरदस्ती, ‘पढ़ो! मुँह धुलकर आओ, आँखें खुल नहीं रही। पढ़ो!’ इतना कि अगर न बैठो तो मार भी खाओ।

तो इतना डर बैठ गया कि घर से जब मैं बाहर निकला इंटर के बाद। तो मैं बाहर भी सोता था तो अचानक से जग जाता था पिता जी बुला रहे हैं। उसके बाद में घर भी आता सोता तो सो नहीं पाता कि पिता जी बुला रहे हैं। इतना डर बैठ गया अन्दर।

आचार्य: नहीं, इस डर का बृहस्पतवार को नाखून काटने से क्या सम्बन्ध है?

प्र २: नहीं, वो खत्म हो गया है। उसका निराकारण हो गया है अब दूसरा है।

आचार्य: ठीक है, पिताजी जिसको बलात् कहते थे, ‘पढ़ो!’ वो छोटा बच्चा था। उस छोटे बच्चे को तो बहुत सारी सुविधाएँ भी मिलती थी? बहुत कुछ है छुटपन का, जो तुम पीछे छोड़ आये खुद ही। उन बातों को तुमसे कहा जाए कि आज भी दोहराओ तो थोड़े ही दोहराओगे। तो फिर इसी बात को क्यों पकड़े हुए हो?

प्र २: पकड़ अब ढीली करनी होगी।

आचार्य: करो, करो, करो। ढीली करो। हो जाएगा।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=_Q_3Npc22ao

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