मूलाधार चक्र की सच्चाई (कुंडलिनी) || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

8 min
116 reads
मूलाधार चक्र की सच्चाई (कुंडलिनी) || आचार्य प्रशांत (2021)

आचार्य प्रशांत: विशाल कालरा है। कह रहे हैं, कुंडलिनी योग में जो सात चक्र होते हैं, उसमें सबसे नीचे, सबसे पहला मूलाधार चक्र होता है। तो मुझे बताएँ ये मूलाधार चक्र क्या है और मैं अपना मूलाधार चक्र मज़बूत कैसे करूँ? क्या ये स्त्री-पुरुष दोनों में पाया जाता है?

मूलाधार चक्र कोई भौतिक या शारीरिक चक्र नहीं है। हालांकि कुंडलिनी योग से संबंधित आपको जितने भी चित्र या मानव शरीर की छवियाँ मिलेंगी, उनमें सबमें नाभी से नीचे और जननांगों से थोड़ा ऊपर आपको मूलाधार चक्र बनाया हुआ मिलेगा। उसको ऐसे मत समझ लीजिएगा कि शरीर में, उस स्थान पर, कोई वास्तव में चक्र इत्यादि होता है। मूलाधार चक्र हमारी प्राकृतिक और पाशविक वास्तविकता का प्रतीक है। वो पहला है, क्योंकि जन्म तो सबका प्रकृति से ही होता है, प्रकृति में ही होता है, वही मूल आधार है हमारी भौतिक, शारीरिक, पार्थिव हस्ती का। इसलिए वो मूल आधार है। अगर उठे नहीं हैं आप जीवन में, तो वो जो मूल आधार है, वही आपके जीवन का केंद्र बनकर रहेगा। अधिकांश लोगों में, समझने के लिए कह देते हैं 99.99% लोगों में जीवन मूलाधार से ही संचालित होता है।

माने अधिकांश लोग जो कुछ भी करते हैं, वो अपनी पाशविक और प्राकृतिक वृत्तियों से संचालित होकर ही करते हैं।

काम वो हो सकता है जो कर रहे हों, वो दिखने में ऊँचा भी लगे। उदाहरण के लिए कोई किसी बड़े व्यापार का मालिक हो सकता है, कोई राजनीति में ऊँचा नेता हो सकता है, कोई कुछ और ऐसा काम कर रहा हो सकता है जो लगे कि “वाह! क्या ऊँचाई पाई है या क्या विस्तार पाया है।“ लेकिन फिर भी ज़्यादा से ज़्यादा संभावना यही है कि वो जो काम है, वो हो किसी प्राकृतिक केंद्र से ही रहा है और इसीलिए वो काम मूलाधार से हो रहा है। प्रकृति को मूलाधार के बराबर मानो, ठीक है।

क्या आशय है मेरा जब मैं कहता हूँ कि कोई काम प्रकृति के केंद्र से हो रहा है? जितने भी गुण हैं, वो सब प्राकृतिक होते हैं। और गुण का अर्थ ही होता है अध्यात्म की भाषा में — अवगुण। हम बोल देते हैं कि सदगुण और अवगुण। लेकिन प्रकृति के गुणों को ही अध्यात्म में दोष या विकार कहते हैं, ठीक है। तो प्रकृति के गुणों में क्या सम्मिलित है? मद, मोह, मात्सर्य, काम, क्रोध, भय, समुचि माया।

माया को ही प्रकृति कहते है।

ये सारे के सारे जो गुण हैं, माने दोष या विकार है, ये सब मैंने कहा प्राकृतिक है और पाशविक है। माने ये जानवरों में भी पाए जाते हैं। तो जो बच्चा पैदा होता है, उसमें ये सब गुण, दोष प्राकृतिक रूप से जन्म के साथ ही मौजूद रहते हैं।

कौन-से? हाँ! भय, क्रोध, मद, मोह इत्यादि इत्यादि। लोभ भी आ जाएगा इसमें। भ्रम आ जाएगा, ठीक है। विपर्यय आ जाएगा, सबकुछ।

तुम्हें कैसे पता चले कि कोई जो तुममें गुण है, वो प्राकृतिक है या नहीं। बस ये देख लेना कि वो जानवरों में भी पाया जाता है या नहीं। बस ये देख लेना कि वो चीज़ छोटे बच्चों में भी पाई जाती है या नहीं। बस ये देख लेना कि वो चीज़ तुममें बिना किसी सीख के, बिना किसी प्रशिक्षण के भी मौजूद रहेगी या नहीं। उदाहरण के लिए तुम्हें कोई प्रशिक्षण नहीं भी दिया जाए, तो भी एक उम्र में आकर तुम्हारे भीतर कामवासना उठने लग जाती है। तो फिर वो क्या है? वो प्राकृतिक है, वो पाशविक है। जितनी भी ये चीज़ें हैं जो प्राकृतिक और पाशविक हैं, इन्हीं का सम्बन्ध मूलाधार से है। यही मूलाधार है हमारी हस्ती का। यही हमारी हस्ती का निम्नतम बिंदु भी है, निम्नतम बिंदु भी है।

यहाँ पर मूल से अर्थ 'आत्मा' मत ले लेना। यहाँ पर जिस मूल की बात हो रही है, वो है शारीरिक मूल, शारीरिक मूल। यहाँ पर आधार से अर्थ ‘सत्य’ मत ले लेना। यहाँ पर आधार से अर्थ है, वो जो सबसे नीचे है। जैसे तुम ताश के पत्ते खड़ा करो एक के ऊपर एक, तो उसमें आधार क्या होता है? जो सबसे नीचे है। तो मूलाधार का अर्थ है वो जो निम्नतम है, वो जो सबसे निचला है, वो जो सबसे पिछड़ा हुआ है। और अधिकांश लोग उसी में जीते हैं। हम सब मूलाधार को ही केंद्र बना कर के अपना पूरा जीवन बिता देते हैं।

हमारे जीवन का केंद्र आत्मा नहीं होती, हमारे जीवन का केंद्र विचार भी नहीं होते, केंद्र पर भावनाएँ भी नहीं होती, केंद्र पर बस पाशविक वृतियाँ होती हैं। बस वही पाशविक वृतियाँ कभी भावना, कभी विचार, कभी आवेग बनकर सामने आ जाते हैं। लेकिन केंद्र पर न भावना है, न विचार है, न आवेग है। केंद्र पर तो पाशविक वृत्ति ही है।

ऐसे पाशविक वृति एक होती है — ‘संग्रह करने की’। जानवर भी संग्रह करते हैं अपनी क्षमता अनुसार या कि किसी क्षेत्र पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की। ये पाशविक वृत्ती है। ये जंगल के जानवर में भी पाई जाती है। वही वृत्ति आप में आ जाएँ और आप किसी देश के राजा हो या राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री हो और आपमें विस्तारवाद का बहुत विचार आये, बड़ी इच्छा उठे तो आप कोई बहुत ऊँची राष्ट्रीयता का काम नहीं कर रहे हैं। आप वास्तव में पशुता का काम कर रहे हैं। ये काम जंगली जानवर भी करता है कि वो अपने जो अधिक्षेत्र होता है उसमें वृद्धि करना चाहता है।

ये काम सड़क का एक कुत्ता भी करता है कि उसकी वो जो ज़मीन होती है, उसका जो इलाका होता है, उसमें कोई और कुत्ता घुसे तो वो बहुत शोर मचाता है। और आप भी अगर यही काम कर रहे हैं कि “मैं इतनी ज़मीन है, थोड़ी और ज़मीन किसी तरीके से हासिल कर लूँ” या कि “मेरा प्लॉट है, पड़ोसी का प्लॉट है, थोड़ा-सा मैं पडोसी का प्लॉट दबा लूँ जब मेरा घर बन रहा हो।“ तो आप काम वही कर रहे है जो एक जंगली जानवर भी करता है। और आप किस चक्र से संचालित हो रहे है? आप मूलाधार से संचालित हो रहे है। ये मूलाधार चक्र है।

तो इसीलिए फिर कुंडलनी योग कहता है कि आपको मूलाधार से ऊपर उठना है। एक के बाद एक अन्य चक्र हैं और आखिरी चक्र आपको देता है — मुक्ति।

ये जो आपका एक के बाद एक चक्रों से उन्नयन है, आप उत्तरोत्तर प्रगति करते हैं, आरोहण करते हैं, ऊँचे उठते अपने चक्रों में, ये वास्तव में किसका प्रतीक है? ये चेतना के उत्थान, उन्नति और आरोहण का प्रतीक है। शरीर के भीतर कुछ नहीं है जो ऊपर उठ रहा है। ये मत कहने लग जाइएगा कि “मेरे सुरसुरी होती है”। वास्तव में शरीर में कुछ नहीं उठ रहा है, ये चेतना उठ रही है।

तो सबसे निचले स्तर की चेतना कौन सी होती है? वो जो हम लेकर के पैदा होते हैं। और मानव जन्म आपको इसलिए मिला है ताकि आप चेतना के उस तल से ऊपर उठ सकें। जैसे-जैसे आप ऊपर उठते जाते है, कुंडलिनी योग की भाषा में, आप एक चक्र से दूसरे ऊँचे चक्र की यात्रा करते जाते है। पर ऊँचे चक्रों की बात तो बाद में होगी, अभी प्रश्न मूलाधार पर है।

मूलाधार को समझना बहुत ज़रूरी है क्योंकि अधिकांश लोग कभी मूलाधार से ही ऊपर नहीं उठते। वो मूलाधार से इसलिए ऊपर नहीं उठते क्योंकि उनको ये दिखाई ही नहीं देता कि वो जो कुछ कर रहे हैं, वो बिलकुल वही काम है जो एक जंगली जानवर भी करता है। जिस दिन तुमको ये दिखाई देने लग गया कि तुम जो कर रहे हो, वो वास्तव में तुम नहीं कर रहे हो, वो तुम्हारे भीतर बैठा जंगल और जानवर कर रहा है। उस दिन समझ लो कि तुम्हारी कुंडलिनी की जागृति की यात्रा शुरू हो गई।

लेकिन अगर तुम उलझे हुए हो, पाशविक कामों में ही, लेकिन खुद को ही धोखा देने के लिए तुमने उनको नाम बड़े सुंदर, सुसज्जित और सम्मानीय दे रखे हैं, तो तुम्हारी कभी यात्रा शुरू ही नहीं होने की। तुम कर कुछ नहीं कर रहे हो, लालच का खेल खेल रहे हो। लेकिन तुमने उसको नाम ये दे दिया है कि “मैं तो देश के उत्थान की राजनीति कर रहा हूँ”, तो तुमने खुद को अब ऐसा धोखा दे दिया है, जिससे कभी उभर नहीं पाओगे।

सबसे पहले तो स्वीकार करो की जो भी कुछ तुम कर रहे हो, ये बस ताकत और पैसा और प्रभुत्व बटोरने का खेल है। और ये काम जंगल का जानवर भी करता है। जिस क्षण तुम ये स्पष्टतया देख पाओगे कि तुम जो कुछ भी कर रहे हो, उसमें कहीं ऊँची चेतना सम्मिलित नहीं है, सिर्फ़ जंगल की निचाइयों से आ रहा है वो काम, उस क्षण तुम मूलाधार को त्याग करके ऊर्ध्वगमन के लिए तैयार हो गये।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories