मुक्ति माने क्या? || आचार्य प्रशांत, श्रीकृष्ण पर (2015)

Acharya Prashant

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मुक्ति माने क्या? || आचार्य प्रशांत, श्रीकृष्ण पर (2015)

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।

कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।

अनुवाद: कल्पों के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ।

~ श्रीमद् भगवद्गीता (अध्याय-९, श्लोक-७)

प्रश्नकर्ता: कल्प क्या है? उनके आदि और अंत से क्या अर्थ है?

आचार्य प्रशांत: कल्प का अर्थ है मन।

“कल्पों के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ।”

कल्प का अर्थ समय की कोई विशेष अवधि न लिया जाए। ये बहुधा किया गया है, और ये बात बड़े मूलभूत अज्ञान की है।

जब कृष्ण बोलते हैं तो वहाँ पर चाहे वो कल्पों की बात करें और चाहे कहें युगे-युगे, उनका अर्थ समय की कोई विशेष अवधि नहीं है। उनका अर्थ समय मात्र है और समय अर्थात मन, कल्प माने मन।

इतना ही कह रहे हैं कृष्ण कि "ये पूरा संसार मन का फैलाव है। मन फैला है तो संसार है और मन जब सिमटता है तो संसार भी सिमट जाता है और मैं उसको पुनः रच देता हूँ। मन के पीछे मैं हूँ, संसार के पीछे मैं हूँ। संसार मेरा, माया-मेरी।"

विराट मन में, ये जो अनंत अहंकार के बिंदु हैं, जिनका नाम जीव है, जिन्हें हम कहते हैं व्यक्ति और सारे पशु-पक्षी और पौधे, ये क्या हैं? ये विराट मन में, अस्तित्वगत मन में, अहम के छोटे-छोटे बिंदु हैं और इन सब छोटे-छोटे बिन्दुओं का अपना-अपना व्यक्तिगत मन होता है। ये सारे छोटे बिंदु संसार की ओर भागते हैं क्योंकि संसार पर छाप है उसकी, जिससे संसार आया है।

मन माया की ओर आकर्षित होता है क्योंकि माया पर छाप है उसकी जिससे माया आई है। माया को कृष्ण का ज़रा सा सौन्दर्य मिला हुआ है, माया को कृष्ण की ज़रा सी सुगंध मिली हुई है, आई उन्हीं से है न! तो मन भागता है उनकी ओर।

ये तो कर नहीं पाता कि सीधे-सीधे वापस मुड़ कर अपने ही स्रोत को देख ले, तो बाहर तलाशता है कृष्ण को, और उसके पास जो वजह है तलाशने की, वो गैर-वाजिब नहीं है। बाहर जो कुछ है, है तो कृष्णमय ही, कृष्ण ने छुआ है उसको, कृष्ण से ही उद्भूत है और कृष्ण में ही वापस जाएगा।

तो मन का बाहर को भागना एक तरीके से स्वाभाविक है। कृष्ण का ही तो फैलाव है, कृष्ण का ही विस्तार है। और फिर यूँ ही खेल चलता है, मन बाहर को भागता है, कृष्ण को यहाँ-वहाँ तलाशता है, और फिर जैसे खेल के संयोग बने, जैसी कृष्ण की मर्ज़ी बनी, जैसी कृष्ण की अनुकम्पा बनी, कभी भीतर को भी मुड़ जाता है। बाहर ढूँढते-ढूँढते अंततः अपने तक पहुँच जाता है, कब-कैसे उसका कोई नियम नहीं है।

कृष्ण तक पहुँचने के यदि नियम हो सकते, फिर तो नियम कृष्ण से बड़े ही हो जाते। जिस जगह तक पहुँचने का रास्ता तुम तैयार कर लो, वो जगह भी तुम्हारे ही द्वारा तैयार की गई होगी। वो जगह भी तुमसे कुछ ख़ास अलग नहीं हो सकती। तुम्हारे ही तल की होगी वो जगह, जिस जगह तक तुम ही अपने बनाए रास्तों द्वारा पहुँच जाओ।

कृष्ण तक पहुँचने का नियम या रास्ता, कृष्ण ही जानें लेकिन ये पक्का है कि मन फैलता है; फैलता है और अंततः कृष्ण में समा जाता है और वो भी अंत नहीं होता क्योंकि कृष्ण तो खिलाड़ी हैं, वो खेल फिर फैला दते हैं, उन्हें तो खेलना है।

“कल्पों के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं।"

मन के अंत में, माया के अंत में, कल्पना के अंत में, सब जीव मुक्ति को प्राप्त होते हैं परन्तु जैसे मन और माया असली नहीं थे, वैसे ही ये मुक्ति भी असली नहीं होती, असली तो मात्र कृष्ण हैं। जब माया नकली थी तो माया से मुक्ति असली कैसे हो सकती है? तुम सपने में बंधन में थे, तो तुम्हारी मुक्ति असली कैसे हो सकती है?

“और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ।”

जब रच दिया तभी आदि, कल्पों का आदि पहले नहीं आता। कृष्ण की मर्ज़ी से मन जब दोबारा फैल गया तब संसार फिर शुरू, एक नई कहानी, एक नया फैलाव, एक नया संसार, गया पुराना, नया आ गया। इसका ये अर्थ नहीं है कि पुराना संसार गया था, पुराना व्यक्ति भी गया था। नया व्यक्ति आ गया, उसका नया संसार। इसको हम जीवन-मरण बोल देते हैं, इसको हम समय का आगे बढ़ना बोल देते हैं, ये सब कुछ नहीं है।

केंद्र पर हैं कृष्ण, समय में और स्थान में उन्होंने मन का विस्तार कर रखा है, वही प्रथम आकाश हैं, मन का विस्तार। उस विस्तार में अहंता के अनंत छोटे-छोटे दीप-तारे टिमटिमा रहे हैं, वो हम हैं।

कभी रात के आकाश को देखा है? कभी कोई तारा टिमटिमाता है, फिर अचानक बुझ सा जाता है, थोड़ी देर में कोई और टिमटिमाने लगता है और तारे बनते-बिगड़ते रहते हैं, मिटते रहते हैं, नए तारों का जन्म होता रहता है। ये बनना-बिगड़ना, टिमटिमाना, बुझ जाना – ये खेल है जीवन मृत्यु का। मन के अनंत विस्तार में इस तरह के छोटे-मोटे खेल चलते रहते हैं।

तारों को यूँ समझ लीजिए कि घनीभूत चेतना या जैसे सांख्य योग कहता है, असंख्य पुरुष। सांख्य में किसी एक पुरुष की अवधारणा नहीं है। प्रकृति तो अनंत है ही, उसमें तो तमाम तरह की विविधता है ही, पुरुष भी अनंत हैं। जैसे आकाश में छाए तारे अनंत हैं, अनंत पुरुष, और ये सब कृष्ण ने फैला रखे हैं। पुरुषों को वो कहते हैं, "ये मेरी परा-प्रकृति है" और जो जड़ प्रकृति है, उसको वो कहते हैं, “ये मेरी अपरा-प्रकृति है।”

हर तारे को अपने होने का गुमान है। अहंता ही तो तारा है। हर तारा अपने-आपको आकाश में स्थित देखता है। आकाश उसका संसार है। हर तारा अपने-आपको कुछ मानता है, फिर एक दिन तारा जग जाता है, जिस दिन तारा जग जाता है, उस दिन तारा मिट जाता है। वो वापस अपनी शून्यता की तरफ लौट जाता है।

ब्रह्माण्ड में भी ऐसा ही होता है, जिसको आप मैटर (पदार्थ) बोलते हैं, वो सब कुछ है थोड़े ही, एक खालीपन है जो प्रतीत होता है, पदार्थनुमा। रहता है, रहता है, प्रतीत होता रहता है और एक दिन विलुप्त हो जाता है। पदार्थ नहीं विलुप्त हुआ, उसका प्रतीत होना विलुप्त हुआ, पदार्थ था कहाँ कि विलुप्त हो जाए? प्रतीत सा होता था, विलुप्त हो गया। ठीक उसी तरीके से अहंकार प्रतीत ही होता था, एक दिन विलुप्त हो जाता है, अपने प्रथम शून्य में लौट जाता है।

"कल्पों के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं।" भ्रम के अंत में अहंकार शून्यता को प्राप्त होता है, इसको ऐसे पढ़ो।

“और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ।” “और करूँ क्या? यूँ ही थोड़े ही मुझे नटखट बाँसुरी वाला कहा गया है। नटखट हूँ, खेलना है। तुम लौट-लौट आते हो मेरे पास और मैं बार-बार तुमको बाहर भेज देता हूँ, तुम जाने को राज़ी न हो, तो छुप जाता हूँ।” तुम लौट-लौट सब शून्य कर देना चाहते हो क्योंकि कुछ है तो तभी तक, जब अलग-अलग है। अलग-अलग नहीं है तो है कहाँ?

तुम्हारी इच्छा तो यही रहती है कि तुम परम-शांति को उपलब्ध हो जाओ। ऊपर-ऊपर से ये लगता है कि तुम्हारी हज़ार इच्छाएँ हैं, पर गहरी इच्छा तुम्हारी यही है कि तुम कृष्ण में जा कर मिल जाओ, तुम्हारी इच्छा तो यही रहती है। पर सब जब जाकर के वापस कृष्ण में ही मिल जाता है, तो कृष्ण खुद को ही खुद से अलग करके, तुम्हें फिर निर्मित कर देते हैं।

“और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ।” जब निराकार ‘मैं’ से अनंत साकार और भिन्न-भिन्न ‘मैं’ की रचना होती है, उसका नाम है कल्पों का आदि। निराकार से साकार उद्भूत हो गया; कुछ नहीं से, बहुत कुछ उद्भूत हो गया। कृष्ण से माया फूट पड़ी और कृष्ण ने स्वयं को ही स्वयं से निष्कासित कर दिया। जाओ तुम, बिखर जाओ संसार में, अब तुम नन्हे-नन्हे जीव कहलाओगे। अब ये सारे नन्हे जीव, अपना जीवन कृष्ण को खोजने में बिताएँगे, और जब कृष्ण को पाएँगे, तो पाएँगे कि ये तो हमेशा से कृष्ण ही थे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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