यस्यान्तः स्यादहंकारो न करोति करोति स। निरहंकारधीरेण न किंचितकृतं कृतम्।।
(अष्टावक्र गीता, अध्याय १८, श्लोक २९)
अर्थ: जिसके भीतर अहंकार है, वह देखने में कर्म न करे, तो भी करता है। पर जो धीर पुरुष निरहंकार है, वह सबकुछ करते हुए भी कर्मरहित है।
आचार्य प्रशांत: अब और कितना खुलासा करें ऋषि अष्टावक्र, सब तो कह दिया। अहंकार है, कुछ नहीं भी करो तो भी तुम लगे ही हुए हो, रत हो, उद्यमी हो। और नहीं है अगर अहंकार तो जो करना है करो, तुमने तब भी कुछ नहीं किया। जैसे श्रीकृष्ण नहीं कहते थे आपसे कि अर्जुन, देख मुझे, मुझे किसी से कुछ लेना नहीं, देना नहीं, कुछ पाना नहीं, फिर भी इस पूरे संसार को चलाता रहता हूँ। ये संसार न भी चले तो मेरा क्या बिगड़ जाएगा, पर देख, चलाता हूँ — ये है अहंकार रहित कर्तृत्व। अहंकार रहित कर्तृत्व को ही कहते हैं अकर्तृत्व। अकर्ता और कोई नहीं है; अकर्ता और कर्ता में यही अंतर है कि करते दोनों हैं, एक इसलिए करता है कि कुछ मिल जाएगा और एक बस यूँही करता है।
एक मूलभूत प्राप्ति की आकांक्षा में करता है, दूसरा कहता है, ‘प्राप्ति खेल है तो चलो प्राप्ति के लिए करते हैं।’ एक कहता है, ‘कुछ करेंगे तो आत्मा प्राप्त हो जाएगी।’ दूसरा कहता है कि आत्मा चूँकि प्राप्त है इसीलिए आओ अब खेलते हैं, आओ अब क्रीड़ा में नन्हीं-मुन्हीं प्राप्तियाँ करते हैं। जो परम है, जो उच्चतम है, वो चूँकि प्राप्त है इसीलिए अब अठन्नी-चवन्नी का खेल खेलते हैं।
दो तरह के लोग खेल रहे होते हैं, अरबपति बैठे हों और वो अठन्नियों का, चवन्नियों का, दस रुपये, बीस रुपये का खेल लगा रहे हों। ये खेल है, इसमें उनको कुछ आता-जाता नहीं। इसमें उनकी धड़कनें नहीं बढ़ जाएँगी, इसमें वो विलास करेंगे। और दूसरे होते हैं जुआरी जो कैसिनो जाते हैं, जो कहते हैं, ‘दस रुपया लगाकर हज़ार पा लेंगे।’ वो आत्मा पाने निकले हैं। आप समझ रहे हैं? वो कुछ ऐसा पाने निकले हैं जो उनको लगता है कि अति महत्वपूर्ण है। जो अति महत्वपूर्ण है, उसी को तो आत्मा कहते हैं, जो आधारभूत है उसी को तो आत्मा कहते हैं।
तो ये लोग जो दस अपने आप को जानते हैं और एक हज़ार की प्राप्ति की आकांक्षा रखते हैं, ये कहलाते हैं कर्ता। कर्ता कौन? जो अपने आप को दस जाने और हज़ारों करोड़ों की प्राप्ति की आकांक्षा करे, जो कहता है, ‘मैं तो छोटा सा हूँ और बड़ा हो जाना है’, उसका नाम है कर्ता। अकर्ता कौन? जो जानता है कि वो अतिवृहद है और उसके बाद वो छोटे-छोटे खेल मौज में खेलता है, वो कौन हुआ? अकर्ता। वो कहता है, ‘इन खेलों से मुझे आत्मा की प्राप्ति नहीं हो जाएगी।’
खोखले हो अगर, तो जो भी करोगे अपने खोखलेपन में ही करोगे। कुछ नहीं भी करोगे तो भी खोखलेपन में ही करोगे। जो अहन्ता से जुड़ा हुआ है, वो कुछ न करते हुए भी बहुत कुछ करता रहता है, क्योंकि वो कुछ न करने का भी स्वामी, ज़िम्मेदार, हकदार अपने आप को ही जानता है, उससे पूछो, ‘क्या नहीं कर रहे हो अभी?’ तो वो कहेगा, ‘कुछ नहीं कर रहे हैं अभी।’ अभी भी उसने क्या कहा? कि कुछ कर रहे हैं। ये जो कुछ है उसका अब नाम है ‘कुछ नहीं’।
आध्यात्मिकता इसीलिए है, सम्यक् गति देती है। न तो वो आपको अकर्मण्यता सिखाती है और न ही वो आपको विक्षिप्त गति सिखाती है। अकर्मण्यता और विक्षिप्त गति दोनों एक हैं। अकर्मण्यता में आप कहते हो, ‘मैं कुछ नहीं करूँगा।’ और विक्षिप्तता में, विक्षिप्त आवेग में आप कहते हो, ‘मैं बहुत कुछ कर जाऊँगा, मेरी महत्वाकांक्षा है।’ दोनों में ही करने का भाव सघन है। और सम्यक् गति होती है कि जैसे पहाड़ से नदी उतरती हो तो स्वयं ही बहती है। उसे ये कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि मैं बह रही हूँ।
कभी नदी को देखा है स्वयं ही चप्पू चलाते? वो तो कहती है, ‘बहना, उतरना ये तो संयोगों का खेल होता है।’ आप चलाते हो चप्पू नदी में, नदी कहाँ चप्पू चलती है, वो तो सिर्फ़ बहती है। हम बहना नहीं जानते। बाहरी प्रदर्शन पर मत जाना; सिर्फ़ इसलिए कि कोई कुछ कर्ता प्रतीत नहीं होता, उसे अकर्ता मत मान लेना।
जो वास्तविक अकर्ता होगा वो इस बात का आग्रह ही नहीं रखेगा कि मैं अकर्मित रहूँ। वो कहेगा, ‘कर्म सामने है तो हो।’ कर्म के प्रति उसका कोई दुराग्रह नहीं होगा, सम्यक् गति, राइट एक्शन। कभी आप उसको बिलकुल कुछ न करते हुए भी पा सकते हैं और कभी आप उसको तीव्र गति में भी तल्लीन पा सकते हैं, कुछ कहा नहीं जा सकता।
नोद्विग्नं न च सन्तुष्ट-मकर्तृ स्पन्दवर्जितं। निराशं गतसन्देहं चित्तं मुक्तस्य राजते।।
~ अष्टावक्र गीता, अध्याय १८, श्लोक ३०
अर्थ: मुक्त पुरुष के चित्त में न तो उद्वेग हैं, न सन्तोष, और न कर्तृत्व का अभिमान ही रहता है। उसके चित्त में न आशा है, न सन्देह। वास्तव में ऐसे ही चित्त की शोभा है।
वास्तव में ऐसे चित्त की ही शोभा है — न उद्वेग, न सन्तोष और न कर्तृत्व का अभिमान। उद्वेग तो उठता ही तब है जब खालीपन हो, खोखलापन हो और उसको भर पाने की आशा हो या उसको न भर पाने की निराशा हो। न हो ये सब तो आप क्यों होंगे उत्तेजित? उत्तेजना का अर्थ समझते हो न? उत्तेजना और आशा, और उत्तेजना और निराशा बिलकुल साथ-साथ चलते हैं। आशा ही उत्तेजित करती है, निराशा ही उत्तेजित करती है। अन्यथा क्या है उत्तेजित होना। जहाँ चाहत नहीं वहाँ उत्तेजना कैसी?
‘मुक्त पुरुष के पास न उत्तेजना है, न सन्तोष है और न ही कर्तृत्व का अभिमान।’ सन्तोष कहाँ से आएगा, सन्तोष तो आता ही लक्ष्य की प्राप्ति पर है। जहाँ लक्ष्य चिरप्राप्त हो, वहाँ सन्तोष किस बात का हो? सन्तोष और पूर्णता दो बहुत अलग-अलग स्थितियाँ है। सन्तोष हुआ सैटिसफैक्शन और पूर्णता हुआ कंटेंटमेंट। सन्तोष कहता है कि अपनी निराशा को छुपा दो, अपनी कामना को मूर्ख, गलत इत्यादि घोषित करके उसको बल न दो। और पूर्णता कहती है कि निराशा है भी, हार है भी तो भी पूर्ण है। निराशा को छुपाने की ज़रूरत क्या, हार का गला घोटने की ज़रूरत क्या? हार है तो है, निराशा है तो है, अपूर्णता है तो है। अपूर्णताओं के रहते हुए भी हम पूर्ण हैं।
और सन्तोष कहता है, ‘न, अपूर्णता को अपूर्णता मानो ही मत।’ दोनों का अंतर समझिएगा, जो सन्तोषवादी है वो जीवन का विरोधी हो जाएगा, क्योंकि जीवन तो आपको असन्तोष के भी बहुत मौके देगा। और जो पूर्णता में और आत्मा में जीता है, वो असन्तोष से घबराएगा नहीं। वो असन्तोष को सामने रखेगा, उसे असन्तोष से कोई बैर नहीं। चूँकि वो पूर्णता में और आत्मा में स्थापित है, इसीलिए प्रकृति में अगर वो असन्तोष पाता है, मन में अगर वो असन्तोष पाता है, तो जानता है कि इससे उसका कोई गहरा नुकसान नहीं हो जाने वाला। अब असन्तोष भी उसके लिए एक सुन्दर, दर्शनीय वस्तु है, वो असन्तोष को भी देख सकता है। वो सन्तोष से डर नहीं रहा, उसे असन्तोष का दमन करने की आवश्यकता अब नहीं है। सन्तोषवादी मत बन जाइएगा।
सन्त बड़े सन्तोष में जीते थे, पर उनका सन्तोष उनकी आत्मा से उठता था, एक मानसिक सिद्धान्त नहीं था। सन्त तो कह देता है, “रुखी-सूखी खाय के ठंडा पानी पी” — सुना है बाबा फ़रीद का? “देख पराई चूपड़ी न ललचाय जी।” इसका ये नहीं अर्थ है कि उसने रट लिया है कहीं से। इसका अर्थ ये है कि रूखी-सूखी मिली, ठंडा पानी है, हमें पता चल रहा है कि रूखी-सूखी है। बाबा फ़रीद अगर न जानते कि रूखी-सूखी विशिष्ट होती है कि रूखी-सूखी खास होती है, तो वो रूखी-सूखी के बारे में क्यों बोलते? उन्हें भी तो रूखी-सूखी में कोई संवेदना उठी न, उन्होंने भी रूखी-सूखी में कुछ ऐसा पाया न कि उसके विषय में टिप्पणी करनी पड़ी, तो उनको भी दिखता है रूखी-सूखी का रूखा-सूखापन। पर वो रूखा-सूखापन उनके भीतर की हरीतिमा को झुलसा नहीं पाता — रोटी रूखी है, आत्मा हरी है। बाहर सूखा पड़ा है, आत्मा में प्रपात है। आप बात समझ रहे हैं?
“देख पराई चूपड़ी न ललचावे जी।” और बाहर अगर चिकनी-चुपड़ी रोटी भी है, तो भी वो हमें भीतर थोड़े ही घृत दे जाएगी! भीतर तो पहले ही सबकुछ चिकना है, भीतर कोई घर्षण नहीं, तो बाहर की चुपड़ी रोटी का क्या लोभ।
बात आयी समझ में?
असन्तोष भी सुन्दर है, सन्तोष भी सुन्दर है, सबकुछ सुन्दर है, सिर्फ़ तब जब आप सुन्दर हो। आत्मा अकेली है जो सुन्दर है, सत्य और शिव अकेले हैं जो सुन्दर हैं। “शिवम् इति सुन्दरम्”, सुना है? “सत्यम् शिवम् सुन्दरम्”, सब सुन्दर है; असन्तोष से भी कैसा बैर? तो इसीलिए ऋषि अष्टावक्र कहते हैं कि जो ज्ञानी पुरुष है, जो धीर पुरुष है, उसके लिए सन्तोष भी क्या! वो तो पूर्णता में जीता है, वो तो आत्मा में जीता है। सन्तोष बड़ी सतही बात है पूर्णता के आगे।
सन्तोष में तो दमन निहित ही है और न कर्तृत्व का अभिमान। पागल थोड़े ही है कि रोग का अभिमान करें। कोई पगला ही होगा जिसे इस बात का अभिमान हो कि वो बीमार है। कर्ताभाव तो स्वास्थ्य से हट जाना है। अब ये उस पर फ़क्र भी करोगे, डींगे हाँकोगे कि हम पागल हैं, बीमार हैं!
“न आशा है न सन्देह।” हर बात एक ही और इशारा कर रही है, समझ में आ रही है? सन्देह तो तब होगा न जब आशा हो? पहले तो तुम आशा करते हो कि लक्ष्य की प्राप्ति हो जाएगी, फिर सन्देह होता है कि होगी कि नहीं। जिसे प्राप्ति से बहुत लेना ही देना नहीं, वो क्या करेगा आशा का और क्या करेगा सन्देह का। और इसीलिए अब वो आशा और सन्देह कर पाने के लिए मुक्त है। उसकी आशा भी मुक्त है, उसका सन्देह भी मुक्त है। और जो मुक्त है, वो तुम्हारी मूल मुक्ति में कभी खलल नहीं बनेगा। मुक्त आशा, मुक्त सन्देह, मुक्त आत्मा को कभी आच्छादित न कर पाएँगे।
वास्तव में जो आत्मस्थ है वही खुलकर सन्देह कर सकता है। जो खुलकर सन्देह कर रहा है, वो सन्देह से मुक्त है, क्योंकि वो जानता है कि कैसा भी सन्देह हो उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता, तभी तो खुलकर सन्देह कर पा रहा है। आप खुलकर सन्देह कर पाते हो? हमारे सन्देह भी छोटे-मोटे होते हैं। कभी आपको अपने होने पर सन्देह हुआ है? खुलकर सन्देह हम नहीं कर पाते।
कभी आपको उस सब पर सन्देह हुआ है जिसको आप जीवन का स्थापित आधार ही मानते हो? जिन बुनियादों पर तुमने ज़िन्दगी टिका रखी है, उन पर कभी शक कर पाते हो? नहीं कर पाते, डर जाओगे, पागल हो जाओगे। ये काम मात्र एक ऋषि अष्टावक्र कर सकता है। चूँकि सन्देह उसका अब कुछ बिगाड़ नहीं सकता, इसीलिए वो अब सन्देह के साथ खिलवाड़ करता है। वो तो किसी पर भी अब सवाल उठा दे। जो तुम्हारे लिए अकथनीय है और अचिन्तय है, वो वो भी कह देगा और उसका भी चिन्तन कर लेगा। जो सोचना ही तुम्हारे लिए महापाप है, वो वो सोच भी जाएगा, कर भी जाएगा। जिस दिशा में जाने की तुम्हारे मन को वर्जना है, वो उस दिशा में जाकर के, रेड़ा डालकर के सो भी आएगा।
“न आशा न सन्देह।” कोई नहीं है जो आत्मा पर कोहरा बनकर छा जाए, कोई नहीं है जो हमारा कुछ बिगाड़ जाए। चूँकि हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, चूँकि हमारा वो कुछ बिगाड़ नहीं सकते, तो हमें उससे बैर क्यों? न आशा, न सन्देह को गलत मत समझ लेना। आशा को दबाने मत लग जाना, सन्देह को दबाने मत लग जाना। जब आशा इतनी बड़ी नहीं होती कि तुम्हें आत्मा दे जाए, जब सन्देह इतना बड़ा नहीं होता कि तुम्हें आत्मा से ही मिल जाए, तब आशा सुन्दर है, सन्देह सुन्दर है। वास्तव में ऐसे चित्त की ही शोभा है, यही सुन्दरता है। इसी को कहते हैं बार-बार, “शिवम् सुन्दरम्।” इसी के कारण श्रीकृष्ण को ‘मोहन’ कहा है कि वो मोह लेते हैं, यही शोभा है।
जहाँ आत्मा है वहीं मोहन है। और वो साधारण मोहन नहीं है, वो किसी विषय के प्रति मोहन नहीं है, वो मन का खिंचाव है सत्य के प्रति, आत्मा के प्रति। श्रीकृष्ण इसीलिए ‘कृष्ण’ कहे गये हैं। कृष्ण का तो शब्द से ही नाता है ‘आकर्षण’ से, वो खींच लेते हैं। श्रीकृष्ण माने आत्मा, श्रीकृष्ण माने सत्य। वो खींच लेगा तुमको, वो मोहन है, उसकी शोभा है, वो सुन्दर है, वो प्यारा लगता है; तभी बार-बार कबीर साहब उसे ‘साईं’ कहते हैं, पिया कहते हैं।
देखा है, बाबा बुल्लेशाह कैसे बुलाते हैं परमात्मा को? ‘मेरा राँझा’। महाशोभा है, उससे ज़्यादा सुन्दर कोई नहीं है, वर्णनातीत सौन्दर्य!