मुझे इतनी ठोकरें क्यों लगती हैं? || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2015)

Acharya Prashant

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मुझे इतनी ठोकरें क्यों लगती हैं? || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2015)

सोना, सज्जन, साधुजन, टूट जुड़े सौ बार

दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, एकै धक्का दरार

~ संत कबीर

वक्ता: क्या है टूटना? और जुड़ना क्या है? एक टूटना-जुड़ना तो वो होता है, जो हम लगातार अनुभव करते ही रहे हैं और दुनिया में भी रोज़ होता देखते हैं। मन कहीं जाकर लग गया तो उसको हम कहते हैं कि जुड़ जाना और कहीं विरक्त हो गया, तो उसको हम कहते हैं टूट जाना। यहाँ पर टूटना, जुड़ने का विपरीत और विरोधी होता है। एक दूसरा जुड़ना भी होता है, जिसमें कोई दो अलग-अलग इकाइयाँ होती ही नहीं जुड़ने के लिए। इसीलिए उसमें जुड़ने और टूटने का वास्तव में कोई सवाल नहीं है और वहां जो है, एक ही है और एक ऐसा है कि अवछिन्न और अखंड है। एक ही है, और एक ही रहता है। तब भी एक रहता है जब लगे कि एक है, जब लगे कि जुड़ाव है और तब भी एक ही है जब लगे कि टुकड़े हो गए, टूट गए, बिखर गए।

हमारी कोशिश लगातार ये रहती है कि दुनिया के तल पर जो टूटना-जुड़ना है, उसमें किसी तरीके से जुड़ने को स्थायित्व मिल जाए। हम चाहते हैं कि ऐसा जुडें कि कभी न टूटें। वहां का जुड़ना, हमेंशा टूटने की छाया में होगा। वहां के जुड़ने के ऊपर, हमेंशा टूटने की तलवार लटकती रहेगी। असल में वहां का जुड़ना अर्थहीन है, टूटने के बिना। वहां अगर टूटने की बात न हो, टूटने की सम्भावना न हो, टूटने का अनुभव न हो, तो जुड़ने का भी कुछ पता नहीं चलेगा। और जुड़ने में जो प्रसन्नता अनुभव होती है, वो भी नहीं होगी अगर टूटने की छाया न रही हो, सम्भावना न रही हो। हमारी सारी तलाश बस उसी तल पर है, जिस तल पर टूटना, जुड़ने का द्वैत विपरीत है और उस तल पर कोई वास्तविक जुड़ना हो नहीं सकता। जिस तल पर वास्तविक जुड़ना है, वहां भी कोई जुड़ना हो नहीं सकता क्यूंकि वह भी कोई टूटने की सम्भावना नहीं है। वहां तो जब भी लगे कि टूटे, अलग हुए तो भ्रम मात्र है; वहां कभी टूटता नहीं। कबीर कह रहे है “ सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुडें सौ बार “ दुनिया में ऐसा नहीं हो सकता। दुनिया के तल पर ये संभव ही नहीं है क्यूंकि वहां पर टूटने और जुड़ने की हमेंशा एक सीमा होगी।

कबीर जब कह रहे हैं ‘सौ बार’ तो कबीर कहते हैं, ‘अनंत बार’। सौ कोई संख्या नहीं है, सौ असंख्य को दर्शाता है कि कितनी भी बार तोड़ लो, वहां पर जुडाव जाता नहीं है। तुम तोड़ते रहो वहां कुछ टूटेगा नहीं। ऐसा दुनिया में नहीं हो सकता क्यूंकि दुनिया में तो, जुड़ना ही टूटने की शर्त पर होता है और टूटता ही वही है, जो पहले जुड़ा हो। तो जब कबीर कहें कि ‘टूट जुड़े सौ बार’, तो इसका अर्थ ये न लगाइयेगा कि बार-बार टूटने और जुडनें की घटना घट रही है। इसका अर्थ ये न लगाइएगा कि उनके भीतर रेज़िलिएंस बहुत ज़्यादा है, कि कोई आत्मिक बल है जो बार-बार मरम्मत कर देता है. टूटनें पर भी। नहीं, ऐसा नहीं हो रहा है। सवाल मरम्मत का, सवाल क्षतिपूर्ति का बिलकुल भी नहीं है।

बात बस इतनी सी है कि वो वहां बैठे हैं, जहां वास्तव में टूटनें की घटना घट नहीं सकती, और अगर वो वहां न बैठे हों, वो दुनिया के ही तल पर बैठे हों, तो संभव नहीं है कि कि धक्के खाते रहें, चोट खाते रहें लेकिन फिर भी दरार न पड़े। एक बार संभालेंगे, दो बार संभालेंगे, दस बार संभालेंगे; अंतत: दरार पड़ ही जाएगी। टूट जायेंगे, बिखर जायेंगे, सीमा होगी क्यूंकि दुनिया का अर्थ ही है सीमाएं।

दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है जो असीमित है।

आप बहुत ताकतवर हो, पर आपकी ताकत कहीं पर जाकर तो ख़त्म होती है। आपके भीतर स्थितियों का सामना करनें की, चुनौतियों से लोहा लेनें की बड़ी क्षमता होगी, पर वो क्षमता चूक जाएगी। आपका प्यार बहुत गहरा हो सकता है किसी व्यक्ति के प्रति, आपको ऐसा लग सकता है कि ये रिश्ता तो कभी टूटेगा नहीं लेकिन दुनिया में कोई भी रिश्ता ऐसा नहीं है, जो एक सीमा से अधिक खिंचाव बर्दाश्त कर ले। खिंचाव-तनाव बढ़ेगा, दूरियां बढ़ेंगी एक बिंदु ऐसा आएगा जहां डोर टूट जाएगी; दुनिया में ऐसा ही है। तो जब कबीर सज्जन की और साधुजन की बात कर रहे हैं, तो साफ़-साफ़ समझिए कि वो दुनियावी घटना की बात नहीं कर रहे है, और न ही वो साधु के, सज्जन के भौतिक स्वरूप की, तन या मन के तल पर घटने वाली किसी घटना की बात कर रहे हैं।

कबीर कह रहे हैं कि कुछ ऐसा है उनके पास, जो समस्त बिखराव के बीच भी एकत्व में रहता है। ‘टूट जुड़े सौ बार’, वो टूटे हुए रहते हैं तब भी जुड़े हुए रहते हैं। जब लगे कि जुड़े हुए है, तब तो जुड़े हुए हैं ही — कुछ उनका बिगड़ नहीं गया, कुछ बिगड़ सकता ही नहीं जिस बिंदु पर बैठे हैं — जब ये लगे कि टूट गए हैं वो, तब भी जुड़े हुए हैं। उनका जुड़ा होना नित्य है, उनका जुड़ा होना घटनाओं के पार है, स्थितियों से स्पर्शित है। स्थितियों में बड़ा बल होता है; जो कुछ भी स्थितिजन्य है, उसको कोई दूसरी स्थिति आकर के निश्चित रूप से तोड़ सकती है। आपका शारीर संयोगिक है, स्थितिजन्य है, एक दूसरी स्थिति आएगी कि शरीर टूट जाएगा, एक तीसरी स्थिति आएगी जब ये शरीर धुंआ हो जाएगा। आपकी समस्त धारणाएं और विश्वास भी स्थिति जन्य है, आकस्मिक है। आप जो कुछ भी मानते हो, जिसमें भी आपका यकींन है, वो तोड़ा जा सकता है। कोई ऐसा नहीं हैं, जिसकी मान्यताएं टूट न सकती हों। मान्यताएं तो साधु की भी टूटेंगी, शरीर तो सज्जन का भी जायेगा, पर कुछ ऐसा है उनके पास, जो इस समस्त बनने और बिगड़ने के बीच में, प्रभाव-प्रलय के बीच में भी शांत, स्थिर, अचल रहता है; अटूट।

वो वहां पर जाकर के विराजित है। जीवन में उनके घटनाएँ वही घटती हैं जो किसी भी और व्यक्ति के जीवन में। जहां तक उनके व्यक्ति रूप का प्रश्न है, कुछ अनूठा नहीं होता।

सूरज उनके लिए भी उगता है, भूख उन्हें भी लगती है, खाना जो प्रभाव आपके शरीर पर डालता है, वही उनके शरीर पर भी डालेगा।

ज़हर दिया गया, सुकरात मर गए, शरीर टूट गया जैसे किसी आम व्यक्ति को ज़हर दिया जाए तो वो मर जाएगा, वैसे ही सुकरात का शरीर टूट गया। सूली पर चढ़े हैं, तो खून जीसस का भी बहता है और उसी रंग का खून है, जिस रंग का किसी भी और का है; वहां कुछ भिन्न नहीं है। बुद्ध और महावीर दोनों शरीर की क्लांत अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हुए थे; शरीर है, टूटेगा ही। कहानी कहती है कि कृष्ण सो रहे हैं, एक तीर आकर लगता है, और मौत हो जाती है। जैसे किसी भी और व्यक्ति की होती है, बिलकुल वैसी ही बड़ी साधारण सी बात है। ऊपर-ऊपर से देखनें में कोई अंतर नहीं दिखाई पड़ेगा, कोई न सोचे कि सतही तल पर भी कोई विशेष जादू दिखाई पड़ेगा कि कबीर ने तो कहा था कि सज्जन और साधुजन टूट के ‘सौ बार जुड़ते हैं’, तो यहाँ तो जो भी कुछ टूटे त्यों ही उसकी मरम्मत भी हो जानी चाहिए | ईसा के हाथ में कील ठुके, त्यों ही प्रभु को आकर के हाँथ ठीक भी कर देना चाहिए कि खून बहा नहीं कि खून का बहना रूक गया। कबीर ने कहा नहीं कि, ‘टूट जुड़े सौ बार’ तो टूटे पर जल्दी से जुड़ भी जाना चाहिए। नहीं ऐसा नहीं होगा, कबीर के वचनों का अनर्थ मत कर लीजियेगा।

जिस तल पर दुनिया है, उस तल पर तो टूटना मानें टूटना और जुड़ना मानें जुड़ना, और टूटे हुए को जोड़ने की सीमा होती है, बार-बार नहीं जुड़ता। आपका हाथ टूटे, एक बार टूटेगा जुड़ सकता है, दो बार टूटेगा जुड़ सकता है; पचासवीं बार टूटेगा तो नहीं जुड़ेगा। इसी तरीके से आपका हाँथ, एक जगह से टूटे तो जुड़ जाएगा, पांच जगह से टूटे तो भी जुड़ जायेगा ,दस जगह से भी टूटे तो भी शायद मेडिकल साइंस जोड़ दे, पर अगर पाच सौ जगह से टूट गया है, तो अब नहीं जुड़ेगा। वहां सीमा होगी लेकिन एक बिंदु ऐसा होता है, जहां सीमाएं नहीं होती हैं। वो सब सीमाओं को जानता है, पर वहां अपनीं कोई सीमाएं नहीं होती हैं, वहां पता होता है कि कुछ टूटा। वहां दिख रहा होता है कि कुछ जुड़ा, वहां ये भी दिख रहा होता है कि जो जुड़ा है, वो फिर टूटेगा। वहां ये भी दिख रहा होता है कि कुछ ऐसा टूट गया, जो अब न जुड़ेगा, अब कोई नया ही रूप लेगा। सारा खेल चल ही रहा होता है, पर ये सारा खेल दृष्टिगत होता है, बहुत महीन घटना है; इसको स्थूल मत बना लीजियेगा। कहने मत लग जाइएगा कि परमात्मा के भक्त हैं, तो तुम हमें कितना भी मोड़ो हम टूट-टूट कर जुड़ेंगे। नहीं, ऐसा नहीं है।

आप होंगे कुछ भी, एक गोली काफ़ी होती है। मंसूर जैसा धार्मिक कोई और ही रहा हो, लेकिन जब उसके अंग काटे जा रहे थे आँखे और जबान काटी जा रही थी, तो काटी ही जा रही थी। कोई ताकत उतरी नहीं कि इसकी फूटी हुई आँख अब ठीक की जाए “टूट जुड़े सौ बार” ना कुछ भी नहीं कि जबान काट दी है, तो लाओ भाई सिल दी जाए। दोबारा नहीं ऐसा नहीं है अपेक्षा मत करियेगा ऐसे किसी तमाशे की। किसी अनहोनी, किसी जादू की प्रतीक्षा में मत रहिएगा। दुनिया में तो वही होगा, जो होना है। क्या वहां पर आप हो सकते हैं, जहां कुछ नहीं होता। जहां कुछ नहीं होता, वहीँ पर कुछ टूटता नहीं है और वहीँ पर कुछ जुड़ता नहीं है। मैं दोहरा रहा हूँ, ‘’ये उम्मीद मत करियेगा कि बार-बार टूट के जुड़ेंगे।

जिन्हें टूटना न हो, वो जुडनें की अभीप्सा न करें; जिन्हें टूटना न हो वो जुडनें के भी पार जाएँ। वो एक ऐसे बिंदु पर खड़े हो जाएं, जहां पर मिलना-बिछुड़ना, पाना-गाना, सुख-दुःख, ये सारी घटनाएँ ही नहीं होती। वो वास्तविक जुड़ना कहलाता है।

दुनिया जुड़ने की कायल तब होती है, जब जो जुड़ा है, वो मुश्किल से टूटे लेकिन सत्य में ये सब आधा-तिरछा चलता नहीं। सत्य में तो मामला ये रहता है कि जो जुड़ा हुआ है, वो जुड़ा हुआ है ही नहीं, उसमें टूटनें की कोई सम्भावना ही नहीं, तब हुई बात। दुनिया तो छोटी है, उसकी मांग भी छोटी है, वो क़ुतुब मीनार देख लेती है। कहती है, ‘’बहुत ऊँची,’’ बहुत ऊँची क्यूँ है? बाकी इमारतें जो हैं, बाकी ढांचे हैं, उनकी अपेक्षा ऊँची लगती है। उसकी अगर ऊंचाई नापी जाए, तो बाकी इमारतों से अधिक आएगी संख्या।

सत्य में, ऊँचा वो होता है, जिसकी ऊंचाई नापी न जा सके।

अगर ऊंचाई नाप ली गई, तो मामला सत्य का नहीं है। बात दुनिया-दारी की है, दुनिया में अमरता तब कहलाती है, जब आपको लगे कि आप सौ साल की अपेक्षा, सौ हजार साल जीयेंगे, दस हजार साल जियेंगे, जीते ही जायेंगे। समय लम्बा होता जाएगा और आप मरेंगे नहीं।

दुनिया इतने में मान जाती है, दुनिया इतनें में कायल हो जाती है। वह, वह करनें लगती है, ’’क्या लम्बी उम्र पाई, इसी को तो अमरता कहते हैं।‘’ वास्तव में अमरता कौन सी होती है? जिसमें समय बीतता ही नहीं।

दुनिया के लिए अमर होने का अर्थ है: समय का लम्बा खिंच जाना और सत्य में अमरता का अर्थ है: समय का विलुप्त हो जाना

क्यूंकि समय कितना लम्बा भी खिंचे, उसकी लम्बाई को आप एक संख्या में बाँध सकते हैं, एक संख्या द्वारा व्यक्त कर सकते हैं। दुनिया में जो कुछ भी बड़े से बड़ा होगा, वो दुनिया के तल पर ही होगा। बडे से बड़ा, होगा दुनिया के तल पर और जो कुछ भी दुनिया के तल पर है, उसमें आखिरी बिंदु ज़रूर आएगा इसीलिए वो वास्तव में बड़ा हो नहीं सकता। सत्य में वो सब कुछ क्षुद्र, नगण्य और भ्रम बराबर ही है, जो ख़त्म हो जाता है।

सत्य में है ही वही, जिसकी न कोई शुरुआत हो, न कोई अंत हो।

तुम कैसा जीवन जी रहे हो, कि जानने के लिए बस ये परख लेना, क्या कुछ है तुम्हारे पास ऐसा, जो समय से बच निकलेगा? क्या है तुम्हारे पास ऐसा, जो मौत से बच निकलेगा? क्या है तुम्हारे पास कुछ ऐसा, जो तुम्हारे पास दुनिया में आने से पहले भी था? कुछ भी ऐसा है तुम्हारे पास, जो तुम्हें दुनिया ने न दिया हो, कुछ ऐसा पा लो, बस वही सत्य है; बाकी सब बस प्रतीति होता है। है नहीं, “दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, एकै धक्का दरार” ये अर्थ मत कर लेना कि दुर्जन एक ही बार में टूट जाते हैं, ना। दुर्जनों में बड़ी इच्छाशक्ति होती है।

असल में इच्छाशक्ति होती ही दुर्जनों में है; सज्जन के पास तो बस एक अस्तित्वगत बहाव होता है। उसके पास व्यक्तिगत इच्छाशक्ति नहीं होती; व्यक्तिगत इच्छाशक्ति तो दुर्जन में ही होती है।

अंतर समझना, अस्तित्वगत समर्पण का विपरीत है: व्यक्तिगत इक्षाशक्ति, वो दुर्जन में ही होती है। कोई ये न सोचे कि दुर्जन एक बार में टूट जाता है बिलकुल भी नहीं, दुर्जन यदि एक बार में यदि टूट जाते, तो ये दुनिया के लिए कितना अच्छा होता। एक बार तोड़ो, किस्सा ख़त्म पर कहाँ टूटते हैं एक बार में? रावण हर साल जलाते हो, अगले साल फिर जलाना पड़ता है। अपनें आप से सौ बार लड़ते हो और सौ बार जीतते हो, फिर हारना पड़ता है, तो बिलकुल भी ये न समझ लेना कि दुर्जन को एक चोट पड़ी और उसका काम तमाम। न, ऐसा नहीं होता | “ दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, एकै धक्का दरार” कबीर का ज़माना था, तो मिटटी के घड़े मिटटी के कुम्भ अच्छा प्रतीक है, ये बताने के लिए कि कुछ ऐसा होता है। जो एक बार टूटे, तो दोबारा जुड़ता नहीं, पर आज के ज़माने में तो मिटटी के टूटे हुए बर्तन भी जोड़े जा सकते हैं। तकनीक भी खूब आगे बढ़ गई है, तो कबीर नें जो लक्षणा प्रयुक्त करी है, वो भी आज वैध नहीं रही। दुर्जन तो वो बर्तन है, जो बार-बार जुड़ेगा। जिसको अपना होना इतना प्यारा है कि वो टूटने को कभी राज़ी होगा ही नहीं। आप उसे बाएं से तोड़ोगे, वो दायें से जुड़ जाएगा और अगर उसे कोई तोड़ने वाला न मिले, तो तलाशेगा कि कोई मुझे तोड़े क्यूंकि टूटने में और जुड़ने में ही तो उसका अहंकार बल पाता है।

दुनिया क्या है? एक ताकत जो मुझे तोड़ने को अमादा है। मैं कौन हूँ? एक दूसरी ताकत जो जो अपनीं इच्छाशक्ति के दम पर ज़िन्दा है, दुनिया के विरुद्ध। ‘’आओ, दुनिया आओ, मुझपर आक्रमण करो। तुम मेरी शत्रु हो, घात करो, वार करो और मुझे तोड़ो और मैं दिखाऊंगा कि मुझमें कितना पुरुषार्थ है ,मै जुड़ कर दिखाऊंगा,’’ इसी को तो हम कर्मठता कहते हैं न? कि चुनौतियों के विरुद्ध, आपदाओं के विरुद्ध, आंधी तूफान के विरुद्ध, बहाव के विरुद्ध, और सुनने में कितना अच्छा लगता है। ऐसी ही कहानियां तो हम अपनें बच्चों को सुनाते हैं, ‘’फ़लाना योद्धा था, वो अपनीं पूरी सेना लेकर पहाड़ पर चढ़ गया गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध, धरती के खिंचाव के विरुद्ध। ‘’सब कुछ प्रतिकूल है और मेरे साथ क्या है? बस मेरे अहम् का बल। उसी को मैं, कभी इच्छाशक्ति कहता हूँ, कभी पुरुषार्थ कहता हूँ, कभी कर्मठता कहता हूँ।‘’ कौन हुआ दुर्जन फिर? दुर्जन वो हुआ, जिसका पूरा खेल ही टूटने और जुड़ने का है।

पहली बात हमनें समझी दुर्जन के बारे में कि ऐसा नहीं है कि उसका टूट जाना आखिरी होता है। उसको आप कितनी भी दरारें दे दें, वो पलट कर जुड़ेगा। दूसरी बात हम कह रहे है कि इसी पहली बात से दुर्जन की परिभाषा निकल आती है। उसका खेल ही यही है; टूटना और जुड़ना। इसी में वो अपना जीवन बिताता है, इसी में वो अपना होनें की सार्थकता समझता है। दुनिया ने क्या किया मेरे साथ? कुछ बुरा। दुनिया क्या करने को उतारु है? कुछ बुरा। ये जो अस्तित्व है ये क्या है? मेरा दुश्मन, इसका पूरा मानसिक ढांचा भरा हुआ है दरारों से, जैसे किसी के चेहरे पर घाव ही घाव है और सूखे हुए घावों के निशान। दरार जोड़ी गयी, और जितनी बार वो जोड़ी जाती है उतनी बार वो अपनीं एक निशानी छोड़ देती है; *स्कार*। वो तैयार ही नहीं है कि देखूं तो कि इस टूटने-जुड़ने के आगे भी कुछ है क्या? वो तैयार ही नहीं है, पूरी तरह जुड़ जाने को। ऐसा जुडनें को, जिसमें कोई भी टूटना फ़र्क न डालता हो।

कोई भी टूटना फ़र्क न डाले इसके लिए ज़रूरी है कि आप अपनेआप को अनुमति दें, पूरी तरह टूट जाने की और फिर देखें कि, ‘’क्या वास्तव में पूरा टूटना उतना विभीषिकापूर्ण है, जितनी मैं कल्पना करता हूँ?’’ पर हम क्या करते हैं? अस्तित्व हमें संदेश देता है, बार-बार हमें तोड़ के, हम उसमें गोंद लगाकर फिर से जोड़ देते हैं। उसमें धक्के पड़ते हैं, उसमें दरारें आती हैं, पर वो करता क्या है? फिर जोड़ देता है और ऐसे चलने लगता है जैसे सब सामान्य हो गया है। कभी उसके रिश्ते टूटते हैं , कभी दुनिया से उसकी उम्मीदें टूटती हैं, कभी वो नौकरी से निकाला जाता है, कभी सार्वजानिक रूप से उसका उपहास होता है, कभी उसका कोई प्रेम प्रसंग बिखर जाता है कभी उसके विश्वास और धारणाओं पर करारी चोट लगती है।

अस्तित्व, हज़ार तरीके से उसको तोड़ता है और हर बार का तोड़ना एक संदेश है कि टूट ही जाओ न! पर वो टूटने को राज़ी नहीं क्यूंकि उसे डर है कि टूटा तो फिर जोड़ न पायेगा | सत्य ऐसा है नहीं, सत्य ये है कि तुम टूट ही जाओ तो तुम्हें पता चलेगा कि तुम जुड़े ही हुए थे। तो तुम्हें पता चलेगा कि तुम व्यर्थ ही अपनें आपको बचा रहे थे, कोई खतरा ही नहीं था, टूट ही जाते। पर तुम्हें, वो निजी गहरा यकीन कभी आया नहीं, वो आत्यंतिक भरोसा तुम्हें कभी हुआ नहीं, तुम्हें एक जगह ठोकर लगी, तो तुमनें दूसरी जगह किस्मत आज़माई, ना तुम्हारे पास ये ज्ञान कि दूसरी जगह पहले से कुछ अलग तो नहीं है।‘’ एक जगह लात खाई है, तो दूसरी जगह भी खाऊंगा,’’ और न तुम्हारे पास ये श्रध्दा कि अब अगर निकाल ही दिया है, तो उसी के पास जायेंगे, जहां से कभी निकाले नहीं जाते। तुम्हें तो दुनिया से तिरस्कार भी मिला, अपमान भी मिला, उपहास भी मिला, ठोकरें भी मिलीं, दरारें भी मिली, लेकिन तुम फिर भीं बार-बार दुनिया के ही द्वार पर जाकर बैठे हो। मैं कह रहा हूँ: न तो ये ज्ञान कि जब पिछली बार मार पड़ी थी और उससे पिछली बार और उससे पिछली बार पड़ी, तो आगे क्यूँ न पड़ेगी? क्यूँ उम्मीद रखूँ? न तो ये ज्ञान, न ही ये श्रद्धा कि अब तुम्हारे दरवाजे बैठेंगे। यहीं आगे जो हो, देखा जाएगा अच्छा ही होगा, अभी जो हो रहा है, उससे तो अच्छा ही होगा।

जो टूटने को तत्पर है, टूटना जिसकी प्रकृति है, आपसे निवेदन करता हूँ उसे टूट जाने दें। वैसे भी मामला, सिर्फ़ समय का है। आप बहुत प्रयत्न करके भी उसकी उम्र बढ़ा सकते हो, उसे अमर नहीं कर सकते। जो आज टूटना है, वो पांच दिन बाद टूटेगा, और पांच दिन में भी तुम्हें कोई सुख नहीं मिल जाएगा। आशंकित ही रहोगे क्यूंकि जानते तो हो ही कि टूटेगा, इस पाँच दिन में भी तुम्हें कोई चैन नहीं मिल जाना है। एक बार अपनेआप को मौका तो दो, एक बार अपना बल परखो तो सही। देखो कि वास्तव में तुम्हारा कुछ बिगड़ता है या नहीं बिगड़ता? देखो कि जो बुरा से बुरा तुम्हारे साथ हो सकता था, वो होने के बाद भी तुम शेष रहते हो या नहीं? असल में इच्छाशक्ति बड़ी आसान बात होती है इसके पीछे अहंकार का इंधन होता है, आत्म्बल ज़रा मुश्किल खेल होता है। उसके पीछे तो विशुद्ध आत्मा ही खड़ी होती है। आत्म बल नहीं पूरा उपलब्ध हो रहा, तो कम से कम दो चार कदम बढ़ा कर देखो। देखो कि जिन कल्पनाओं से तुम इतना डरते हो, जिन घटनाओं से तुम इतना आशंकित रहते हो, वो वास्तव में कोई बहुत बड़ी बात है भी या नहीं? पड़ने दो दरार, दरार तो पड़ ही रही है। कहा न कबीर ने कि दुर्जन का लक्षण ही यही है कि उसमें दरार पड़ती है। गिन लो आज सुबह से ही कितनी बार तुममें दरार पड़ी है?

जितनी भी बार तुम्हारा मन भंग हो जाए उसी को दरार कहते हैं।

मन भंग समझते हो ? आन्तरिक संगीत की लय का टूट जाना, विक्षेप आ जाना ;वही तो दरार है, उसी को तो मन भंग कहते हैं। गोरख कहते हैं कि मन का भंग न होना ही तो ध्यान है, जितनी बार तुम्हारा ध्यान टूटा, वही तो दरार है। तो आज ही सुबह से देख लो कि कितनी दरारें पड़ी हैं तुममें और तुमनें क्या किया? हर बार, उस दरार को कृत्रिम रूप से भर दिया, हर बार फटे हुए को सिल दिया, हर बार टूटे हुए में दोबारा गाँठ बाँध दी, हर बार गिरे हुए की दोबारा मरम्मत कर दी। यही किया न? क्यूंकि डरते हो, कहते हो कि, ‘’ये भी चला गया तो बचेगा क्या?’’ मैं तुमसे कह रहा हूँ कि ज़रा जाने वाले को जाने की अनुमति दो, जो जा ही रहा है, ज़रा उसे विदा करो। आदतों में जीए हो आसक्ति की, और आसक्ति में उठनें वाले दुख की आदत है। तो विदाई के क्षण में तुम्हें बुरा लगे तो तुम्हारा बहुत मन करेगा पकड़ लेने का, दुखी हो जाओगे, रो पड़ोगे, पर प्रयोग के नाते ही सही एक बार कर के देखो।

तुम्हें तुम्हारी क्षमता का कुछ अनुमान नहीं है, तुम नहीं जानते कि तुम कितने बली हो और क्या क्या झेल सकते हो। तुम्हें तुम्हारे असली चेहरे के सौन्दर्य का कुछ पता नहीं। सारे नकाबों के गिरने के बाद, तुम कैसे हो, तुम्हें पता ही नहीं है। तुम्हें तुम्हारी विभुता का, एश्वर्य का ज़रा भी अंदाजा नहीं है, तुम कौड़ियाँ पकड़े बैठे हो। इन कौड़ियों के बाद तुम क्या हो ज़रा अपनें आपको हिम्मत दो देखने की। साधु जैसे हो जाओ कि सब टूटना बाहर-बाहर चलता रहे, तुम कोशिश ही न करो उसे जोड़ने की।

जीवन का अर्थ ही है आना जाना, आदि अंत।

जीवन यही तो है और क्या है? जब कुछ आ रहा हो, तो उसके आने से ये न मान लेना कि कुछ जुड़ गया, जब कुछ जा रहा हो तो उसके जाने से तुममें कुछ घट नहीं गया। तुम ये व्रत भी मत कर लेना कि जो टूट गया है, उसे जुडनें नहीं दूंगा बस तुम जोड़ने के लिए तत्पर मत रहना। अपनेआप जुड़ता हो जुड़ जाए, तुमसे पूछ के टूटा नहीं तुमसे बिना पूछे यदि जुड़ता भी है तो जुड़े। जिसका खेल, वही जाने; कभी तोड़ देता है कभी जोड़ देता है। तुम इस खेल के पात्र रहते हुए भी, तुम इस खेल में एक खिलाड़ी रहते हुए भी, इसके साक्षी बन जाओ ऐसे जियो कि मैदान के अन्दर भी और मैदान के बाहर भी, मैदान के अन्दर हारना-जीतना, टूटना-जुड़ना चल रहा है, और इस चलते हुए में तुम बाहर से देख रहे हो। मैंदान के बाहर न टूटना है, न जुड़ना है। वहां तल ही दूसरा है, बैठो शांति से।

तुममें से कुछ लोगों ने ग्रुप पर ये दोहा लिया था और इसका अर्थ किया था। कबीर नीतिवादी नहीं हैं, कबीर सत्य को समर्पित हैं, सत्य के दास हैं वो, तुम्हारा समाज और तुम्हारी गृहस्थी सुचारू रूप से चलने के लिए साखीयाँ नहीं कहते। कबीर के वचनों को अपनें सांसारिक रंग में न रंग दिया करो, कबीर की चदरिया जस की तस ही धर दो, तुम लोग कबीर को लेते हो और उनके पारिवारिक अर्थ कर के रख देते हो कि, ‘सोना सज्जन साधुजन, टूट जुड़े सौ बार’ इसका अर्थ ये हुआ कि साधु बुरी बातों का भी बुरा नहीं मानता कि आप उसे सौ गालियां भी दें तो भी उसे क्रोध नहीं आता, कि सज्जन वो है जो तमाम आपदाएं झेलता हुआ भी सज्जन ही रहता है और दुर्जन लोग वो हैं, जो परिस्थितियों की मार नहीं झेल पाते, टूट के बिखर जाते हैं, गिर जाते हैं, ज़रा पुरुषार्थी कम होते हैं। यही अर्थ चल रहा है, तुम भी यही कर रहे हो, तुम्हारे शिक्षक भी यही कर रहे हैं, तुम्हारे पाठ्यक्रमों में भी यही अर्थ प्रचलित है। बिलकुल तुमनें कबीर को अपने मोहल्ले में ही लाकर बैठा दिया, तुम जैसे हो वैसे ही अर्थ करोगे न!

तो जो भी अर्थ तुम्हारे मन में आया करे, सबसे पहले कहा करो ये तो नहीं है फिर अगला देखते हैं। अगला जो भी तुम्हारे मन में आये कहो ये तो नहीं है मेरे मन में आ गया अब अगला देखते है फिर अगला जो आये कहो ये भी नहीं होता ये होता तो मेरे मन में कैसे आ जाता, मै तो मैं हूँ मेरे जैसे उस्ताद तो उस्तादी वाले अर्थ ही लगायेंगे। ऐसे करते करते आठ दस कितनें तुम अर्थ कर सकते हो कर लो, फिर थक के सो जाओ किसी अर्थ पर टिक मत जाना। हाँ, ये जरूर है जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, जैसे-जैसे अर्थों की नेति-नेति करते जाओगे और आगे, और आगे बढ़ते जाओगे तो ज़रा अर्थों का परिशोधन होता है। जो भी कुछ तुम उसमें से अर्थ निकाल रहे हो, उसमें सूक्क्षमता आती जायेगी और जितनी सूक्ष्मता आती जायेगी, उतना ही वो बुद्धि के परे जाता जाएगा। तुम्हें खुद ही उलजुलूल लगेगा और जब तुम वास्तविक अर्थ तक पहुंचोगे, तब तक इतना सूक्ष्म हो चलेगा कि तुम्हारी बुद्धि के पकड़ से बाहर हो जायेगा, तुम्हारे लिए उसे व्यक्त करना ही बड़ा मुश्किल हो जाएगा। जब व्यक्त करना मुश्किल हो जाएगा तब जानना कि अब शायद करीब पहुंचे|

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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सम्पादकीय टिप्पणी :

आचार्य प्रशांत द्वारा दिए गये बहुमूल्य व्याख्यान इन पुस्तकों में मौजूद हैं:

अमेज़न : http://tinyurl.com/Acharya-Prasha nt फ्लिप्कार्ट * : https://goo.gl/fS0zHf *

YouTube Link: https://youtu.be/X9c2Vo579Ww

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