जब सड़क पर निकलो न तो अपनी कमियाँ पता चलती हैं। जो व्यक्ति घर में ही बैठ गया वो बड़ा दम्भी, घमंडी, अहंकारी हो जाता है क्योंकि उसे अपनी कमियों का पता भी नहीं होता। अकसर गृहिणियों की अकड़ बिलकुल लाजवाब होती है। “मैं ही बेग़म हूँ, मैं ही रानी हूँ!” वहाँ बॉस को रोज़ बताओ कि, “आज एक घण्टे लेट (देरी से) आएँगे“ फिर देखो क्या होता है।
जो बाहर काम करते हैं उनके व्यक्तित्व का निर्माण होता है। उनकी खोट एक-एक करके निकाली जाती है, कम होती है। और बहुत लोग हैं, वो बेचारे गरीब सड़कों पर घूम रहे हैं, उनको मौका दो कि वो आ कर झाड़ू-पोंछा कर दें, कपड़े धो दें, खाना बना दें, तुम थोड़ा बाहर तो निकलो! और ये बड़ा पाप हुआ जा रहा है कि तुम जो काम करते हो तो पाँच-दस हज़ार का है, और उसके बदले में लेते क्या हो? पूरी मोटी गड्डी, और दस से छः तक का *टीवी*। ये कहीं का नहीं छोड़ रहा है। ये बुद्धि को कुंद कर देता है, ज्ञान को शून्य कर देता है। मुक्ति की कोई आकांक्षा भीतर नहीं बची रहने देता।