मंदिरों में जाने के लाभ और नुकसान

Acharya Prashant

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मंदिरों में जाने के लाभ और नुकसान

विहाय चैरिणं काम्मर्थं चानर्थसंकुलं, धर्ममप्येतयोर्हेतुं सर्वत्रादरं करु। ~ अष्टावक्र गीता

अर्थ: जब तक जीवन स्वार्थों के पीछे भाग रहा है तब तक जीवन में आनन्द का होना ना-मुमकिन है।

आचार्य प्रशांत: “विहाय चैरिणं काम्मर्थं चानर्थसंकुलं, धर्ममप्येतयोर्हेतुं सर्वत्रादरं करु।”

‘काम को छोड़कर, जोकि शत्रु है। अर्थ को छोड़कर, जो अनर्थ से एकत्रित किया जाता है और धर्म को छोड़कर, जो इन दोनों का कारण है, सबके प्रति अनादर से भर जाओ।’

आमतौर पर हमने इनको जीवन का लक्ष्य माना है, पुरुषार्थी के लिए प्राप्य माना है — धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।

माना ये गया है कि अर्थ रहेगा, काम रहेगा और धर्म रहेगा, तो अन्ततः मोक्ष उतरेगा। एक यात्रा बना दिया गया है जीवन को जिसमें कामनाओं की पूर्ति होनी चाहिए, जिसमें अर्थ का संचय होना चाहिए और जिसमें धर्म के नाम पर ऐसा एक मार्ग होना चाहिए जिसमें अर्थ और काम के लिए स्थान हो।

ये भ्रम है और ये आदमी के मन की चाल है। ऋषि अष्टावक्र सीधे-सीधे इसी झूठ का पर्दाफ़ाश कर रहे हैं। वो कह रहे हैं कि पहली बात तो ये कि काम की प्राप्ति का मोक्ष से कोई लेना-देना हो नहीं सकता। काम किसी भी तरीके से पुरुषार्थों में शामिल किया नहीं जा सकता। साफ़-साफ़ कह रहे हैं कि काम बैरी है तुम्हारा। समस्त कामना मानसिक-दैहिक सब।

काम में और अर्थ में कोई विशेष अन्तर है नहीं क्योंकि मन के लिए अर्थ वही है जिसकी पहले उसे कामना उठी हो। एक ही हैं दोनों– काम और अर्थ। एक थोड़ा स्थूल, एक थोड़ा सूक्ष्म लग सकता है पर मूलतः दोनों एक ही हैं, काम और अर्थ।

हमने बड़ी-से-बड़ी गलती ये की है कि हमने धर्म को, काम और अर्थ को प्राप्त करने का साधन बना लिया। मन, समाज तो ये चाहता ही था, पुरोहितों ने तो इसमें सहायता की ही, कुछ शास्त्र भी ऐसे उभरकर आ गये जिन्होंने ये मिथ्या प्रचार बनाये रखा कि धर्म वो, जिससे अर्थ और काम की सिद्धि होती हो।

ऋषि अष्टावक्र वही कह रहे हैं कि यदि धर्म वो है जो अर्थ की और काम की सेवा में लगा हुआ है, तो अर्थ को और काम को ही नहीं, धर्म को भी त्याग दो। अर्थ को और काम को ही नहीं, धर्म को भी त्याग दो क्योंकि जिस धर्म को हम जानते हैं, वो और कुछ नहीं है वो कामना पूर्ति का हेतु भर है।

हम मन्दिरों में जाते हैं अपनी इच्छाएँ तृप्त करने। हमारी प्रार्थनाओं में हमारी वासनाएँ बैठी होती हैं। अपनी इच्छा अनुरूप ही हम अमूर्त की मूर्तियाँ भी गढ़ लेते हैं। आज यदि ये स्पष्ट कर दिया जाए कि हमारी इच्छाएँ तो सिर्फ़ हमारे पूरे संस्कारों से, कंडीशनिंग से निकलती हैं, वही हमारा बोझ हैं, वही हमारी बीमारी हैं और धर्म के जगत में हमारी इच्छाओं के लिए कोई स्थान नहीं है, ये बात साफ़-साफ़ स्पष्ट कर दी जाए तो धर्म गुरुओं के यहाँ जितनी भीड़ लगती है, वो पूरी-की-पूरी छँट जाएगी। हमारे मन्दिर खाली हो जाएँगे, हमारे त्यौहारों को कोई नहीं पूछेगा।

आप ध्यान दीजिए, हर त्यौहार के साथ इच्छापूर्ति जुड़ी हुई है। आप ध्यान दीजिए कि हर प्रार्थना में कामना बैठी हुई है। आप ध्यान दीजिए, हर जप हर तप, साधना के हर अंग के पीछे बैठा तो अहंकार ही है जो किसी तरह अपने आप को तृप्त करना चाहता है; ये झूठा धर्म है। ऋषि अष्टावक्र कह रहे हैं, 'तुरन्त त्यागो इसको। जो धर्म, अर्थ की और काम की चाकरी बजाता हो, उसको तुरन्त त्याग दो।‘

और ये अच्छा सन्देश है हम सबके लिए क्योंकि इससे पता चलता है कि आज ही नहीं, सदा से आदमी के मन ने धर्म के साथ खिलवाड़ ही किया है। कोई ये न सोचे कि आज का समय कोई विशेषतया भ्रष्ट समय है। बात समय की है ही नहीं, बात आदमी के मन की संरचना की है। मन हमेशा से ऐसा ही रहा है। आप उसे कुछ भी देंगे; आप उसे धर्म देंगे, आप उसे शास्त्र देंगे, आप उसे ऊँचे-से-ऊँचे सूत्र देंगे, वो उन सबका उपयोग करेगा एक ही दिशा में; जो मुझे वाँछित है, वो मुझे चाहिए। यही एकमात्र दिशा है जिसमें मन अपने समस्त संसाधनों का उपयोग करेगा। आप उसे जो कुछ भी देंगे, भले ही आप वो उसे उसकी सफाई के लिए दे रहे हों, पर वो उसको अपना एक संसाधन, अपना एक हेतु ही बना लेगा। इंसान ने हमेशा यही किया है।

धर्मग्रन्थों का दुरुपयोग करके जितनी लड़ाइयाँ लड़ी गयी हैं और जितने नारकीय काम किये गये हैं, उतने अन्यथा नहीं किये जा सकते थे। एक बार आप ये कहने लग जाएँ कि आपका कर्म, शास्त्र सम्मत है, उसके बाद आपके मन के विस्तार की कोई सीमा नहीं रहती। उसके बाद आपके कर्म पर कोई पाबन्दी नहीं रहती; शास्त्र सम्मत हो गया है न! और इंसान ने यही किया है।

हिटलर के एक अधिकारी को श्रीमद्भगवद्गीता बहुत पसन्द थी। वो कहता था कि गीता इज़ अ फैंटास्टिक डॉक्यूमेंट इन कॉल ब्लडेड किलिंग। (रक्त संहार के नाम पर गीता एक शानदार दस्तावेज़ है।) उसको (हिटलर को) मारने हैं, लाखों यहूदी मारने हैं, नृशंसता से हत्या करनी है, उसे गीता बहुत भाती थी। अ फैंटास्टिक डॉक्यूमेंट इन कॉल ब्लडेड किलिंग।

ऋषि अष्टावक्र कह रहे हैं, ‘त्याग दो! यदि धर्म का ये अर्थ है, तो धर्म के इस रूप को तुरन्त त्यागो। ये मोक्ष तक नहीं ले जा पाएगा।'

ध्यान दीजिए, जो कुछ त्याज्य है, उसकी उन्होंने बात करी है। काम, अर्थ, और वो धर्म जो इन दोनों की सेवा में लगा हुआ है — मोक्ष की बात ही नहीं करी ऋषि अष्टावक्र ने — इनको त्यागना ही मोक्ष है, उसके अलावा वो और कुछ नहीं है। इनको त्याग दिया तो उसके बाद अब किसी और मोक्ष की साधना की ज़रूरत नहीं है। अब और कुछ पाने नहीं निकलना पड़ेगा। इसके बाद जो उपलब्ध ही है वो स्पष्ट दिखायी पड़ेगा, जीवन उसी में बीतेगा, उसी का नाम मोक्ष है।

मोक्ष प्राप्ति नहीं है मुक्ति है, उससे जिसका आपने संचय कर रखा है। प्राप्त तो हम बहुत कुछ करे बैठे हैं। मोक्ष प्राप्ति नहीं है, प्राप्ति से मुक्ति है। और यही कर रहे हैं ऋषि अष्टावक्र, "मुक्त हो जाओ उससे जो प्राप्त करे बैठे हो। काम, अर्थ और उनका साधन रूपी धर्म।"

क्या है वास्तविक धर्म? इतना तो साफ़ है कि हमारी इच्छाओं की पूर्ति का नाम धर्म नहीं हो सकता। मुझे और रुपया चाहिए, और पैसा चाहिए, मुझे बच्चा चाहिए, मुझे बड़प्पन चाहिए, मुझे पद-प्रतिष्ठा चाहिए, जो कुछ ये दिलाने का वादा करे वो तो धर्म नहीं हो सकता; वो तो कोई दुकान होगी। हाँ, ये सब दिलाने का जो धर्म वादा करे, उस धर्म की दुकान पर भीड़ खूब लगेगी। तो अगर आपको अपने अनुयायियों की, मतावलम्बियों की सँख्या बढ़ानी हो, तो फिर ये आपको दावा करना ही पड़ेगा कि 'हमारे यहाँ आइए आप मालामाल हो जाएँगे। हमारे यहाँ आइए आपका वैभव खूब बढ़ेगा, इज्ज़त बढ़ेगी। हमारे यहाँ आइए हमारे पास इच्छापूर्ति मंत्र है।' ये सब बातें दुकानदारी में बहुत सहायक होंगी पर ये धर्म की भाषा नहीं है।

धर्म फिर है क्या? धर्म का पर्याय है औचित्य। क्या धर्म है, ये प्रश्न बिल्कुल यही है कि क्या उचित है। क्या उचित है? कभी भी किसी भी स्थिति में, मन के लिए वही उचित है जो उसे उसके केन्द्र की ओर ले जाता हो। मन यदि केन्द्र पर अवस्थित ही हो, तो ये सवाल ही अर्थहीन हो जाएगा कि क्या उचित है या क्या अनुचित है। ये सवाल उठेगा ही नहीं।

आत्मा के रस में डूबे हुए मन में इस प्रश्न के लिए कोई जगह नहीं होती कि क्या उचित है, क्या अनुचित है। जिस मन में ये प्रश्न अभी उठ रहा है, निश्चितरूप से वो थोड़ा बिखरा हुआ है, वो थोड़ा भटका हुआ है। केन्द्र से, अपने घर से ज़रा दूर है। उसी के लिए ये प्रश्न मायने रखता है, क्या उचित है क्या अनुचित है, क्या धर्म क्या अधर्म।

एक ही धर्म है, वो जो वापस आपको आपके घर तक ले जाए, जो मन को आत्मा तक ले जाए, जो अहंकार को परमात्मा तक ले जाए। वही धर्म है, उसके अलावा धर्म नहीं।

इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति तो उठती है, अपूर्णता के भाव से। आप कब कहते हो कि मुझे अपनी कामनाएँ पूरी करनी हैं, मुझे अर्थ चाहिए, ये आप कब कहते हो? ये आप तब कहते हो, सर्वप्रथम आपको ये भाव उठता है कि कोई कमी रह गयी। अनन्त पूर्णता है परमात्मा, और अनन्त पूर्णता का भाव ही है परमात्मा में स्थित होना।

क्या है केन्द्र से भटकना? किसको हम कहते हैं कि मन अभी घर में नहीं है अपने? ज्यों ही कोई अपूर्णता का भाव उठता है, त्यों ही आप-अपना केन्द्र छोड़कर के संसार में स्थित हो जाते हैं। काम और अर्थ जब उठे ही अपूर्णता के एक भ्रामक अहसास से हैं, तो उनके पीछे कैसे जाया जा सकता है? भ्रम का पीछा करने से भ्रम नहीं मिटता। भ्रम मिटता है, भ्रम को भ्रम जानने से।

रेगिस्तान में होते हैं आप, और मृग मरीचिका के भ्रम में फँसे हुए हैं। जहाँ पानी नहीं है उस दिशा में भागने से न तो पानी मिलेगा, न प्यास बुझेगी। जो है ही नहीं, उसकी प्राप्ति के लिए यत्न करने से फ़ायदा क्या! बल्कि यात्रा कर-करके ही आप ये और सिद्ध किये जाते हो, कि वो है। झूठी बीमारी का इलाज़ कर-करके आप उसे सच्चा बनाए जाते हो। जो कमी है नहीं जीवन में, उस कमी की पूर्ति कर-करके आप उस कमी को मान्यता दिए जाते हो।

समझो बात को!

जो कमी है नहीं, आप निरन्तर लगे हुए हो, यही जीवन का उद्देश्य बना हुआ है कि कुछ पा लूँ, कुछ पा लूँ। पाने के पीछे भाव है कि कुछ कमी है। अब कमी नहीं है लेकिन आपका पूरा श्रम उस कमी को मान्यता दे-देकर उसको स्थापित किये हुए है। आप कमी को पूरा करने की कोशिश छोड़ो, कमी ही ख़त्म हो जाएगी। ये वो कमी नहीं है जो मिटती है कुछ पाकर के; ये वो कमी है जो मिटती है कमी के भाव को ही मिटाकर के।

तो धर्म वो कभी हो नहीं सकता, जो आपके अन्दर के अपूर्णता के भाव को प्रोत्साहन दे, मान्यता दे। जो धर्म आपसे कहता हो कि बच्चा! जो तुझे चाहिए वो मिलेगा; उस धर्म से बचें।

धर्म वो है जो मन को उस दिशा ले चले, जहाँ मन को सहज ही दिखने लगे कि क्या पाना है। मन गहरे में कृतज्ञता के भाव से भर जाए। मन देखें कि अनुग्रह की ही वर्षा है और कहे, ‘जो कुछ मिलने लायक था, सबकुछ तो मिला हुआ है। अब और क्या पाना है, कहाँ कोई कमी है!‘ मन से धन्यवाद उठे, माँग नहीं — धर्म वो है।

धर्म वो नहीं जो अपूर्णता को पूर्ण करता हो, धर्म वो है जो अपूर्णता को विसर्जित कर देता हो।

धर्म वो है जो आपसे कहे कि हँसो, अपने ही मन पर हँसो कि मुझे जो चाहिए नहीं, मैं वही माँग रहा था। हँसो अपने ऊपर कि अमूल्य राशि तुम्हारे पास थी लेकिन तुम दो रुपये-चार रुपये के लिए भटक रहे थे– धर्म वो है।

ऐसा धर्म साधनों के उपयोग पर निर्भर नहीं रहता। ऋषि अष्टावक्र उनमें से नहीं हैं जो आपको तरीके बताएँगे, जो साधन बताएँगे। ऋषि अष्टावक्र आपसे सीधे कहेंगे, ‘आँखें खोलो और देख लो।‘ क्योंकि साधनों के उपयोग में भी एक भ्रम को मान्यता दी जा रही है। वो भ्रम ये है कि देखना बड़ा मुश्किल है। वो भ्रम ये है कि हम इतनी दूर आ गये हैं कि समय लगेगा।

साधन का अर्थ है– समय। साधन का अर्थ है– अभी कोशिश करो, कल मिलेगा।

ये भी भ्रम है। इतनी दूर आप कभी नहीं आ गये होते कि बहुत समय लगे। जो मन छिटका है, संकल्प भर कर ले वो तो बोध अभी है। क्योंकि आप कहीं पर भी हैं, ध्यान की शक्ति कभी आपसे नहीं छीनी। कैसी भी आपने अपनी अवस्था मान रखी हो, बना रखी हो लेकिन प्रत्येक अवस्था में ध्यान की ताकत तो आपको उपलब्ध है ही। जीवन को आपको ध्यान से और ईमानदारी से देखना ही है। और देखकर के जो दिखे, उसको अस्वीकार नहीं कर देना है फिर– यही मोक्ष है।

सच्चाई की ताकत से सच्चाई को देखो और फिर सच्चाई की ताकत से सच्चाई में जियो– यही मोक्ष है। उसी की ताकत है जो आपको सामर्थ्य देगी कि आप उसे देख सकें। अपनी ताकत से आप उसे नहीं देखते।

तो फिर साधन कैसा चाहिए? उसको देखना है उसी की ताकत से देखना है, तो इसमें आपकी हेतु की ज़रूरत कहाँ पड़ गयी?

क्या सत्य ने शर्त रखी है कि मुझ तक आने के लिए तुम्हें इन-इन बाधाओं को पार करना पड़ेगा? नहीं। ये शर्त अगर है भी तो सत्य ने तो नहीं रखी है। ये शर्त तो आपके अपने मन से उद्भूत है। ये शर्त ही भ्रामक है। सत्य ने तो अपने दरवाज़े कभी नहीं बन्द किये। आपने बड़ी कल्पनाएँ कर रखी हैं कि रास्ता टेढ़ा है, लम्बा है, दुविधाएँ हैं, अभी ज़िम्मेदारियाँ हैं, अभी समय नहीं आया है। ये सब आपने कल्पनाएँ रची हैं न! आपने रची हैं न? आपने जैसे रचीं, वैसे ही इन्हें छोड़ भी दीजिए। तत्क्षण छोड़ा जा सकता है।

मोक्ष सहज है, अति उपलब्ध है; मोक्ष की कल्पना जटिल है। आप कल्पना जब करेंगे तो फँसेंगे, और मन सबकुछ कल्पना में बाँध लेना चाहता है। मोक्ष की भी वो कल्पना ही करता है। ऐसा होगा वैसा होगा, ये हो जाएगा, वो हो जाएगा।

और निश्चित सी बात है, सत्य-मुक्ति-मोक्ष, नहीं आपकी कल्पना में समाएँगे। वो इतने सहज, इतने सरल कि आपके मन की जटिलता में उनके लिए कोई स्थान नहीं हो सकता, वो समाएँगे ही नहीं। (ऐसा नहीं है कि वो) इसलिए नहीं समाएँगे कि वहाँ कोई गुत्थी है जो आपकी समझ में नहीं आएगी; वो इसलिए नहीं समाएँगे क्योंकि वहाँ इतनी सरलता है कि आपकी जटिलता की पकड़ में नहीं आएगी। वो बात इतनी सीधी और इतनी साफ़ है कि हम उसे देखकर भी अनदेखा कर जाएँगे।

हमें तो गुत्थियों की तलाश है, जटिलता की तलाश है, कठिनाई की तलाश है, साधना की तलाश है; जो उपलब्ध ही है, जो स्पष्ट ही है, जो समीप से समीपतर है, वो हमें कब दिखा है!

काम को समझें, अर्थ को समझें, और जो धर्म इन दोनों की पूर्ति का साधन मात्र हो, ऐसे धर्म को त्याग दें। यही सन्देश है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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