लिखा-लिखि की है नहीं, देखा- देखी बात। *दूल्हा-दुल्हन मिल गए, फीकी पड़ी बरात।।– संत कबीर***
वक्ता: दुनिया भर के जितने आयोजन कर रखें हैं वो सब बारात हैं। जितनी पंडिताई इकट्ठा कर रखी है, जितनी विधियाँ अपना रखीं हैं वो सब बारात है। परम के अलावा जो कुछ भी जीवन में मौजूद है उसी का नाम बारात है।
ध्यान से अगर आप देखें तो शादी-विवाह में दो के अलावा किसी तीसरे की कोई जगह होनी नहीं चाहिए। बाराती से ज़्यादा बेवकूफ कोई आदमी हो नहीं सकता। तुम क्या करने गए हो वहां? उसको रोकें और पूछें कि तुम यहाँ कर क्या रहे हो? और तुम्हारा इससे बड़ा कोई अपमान हो सकता है कि जब दूल्हा-दुल्हन मिल जाएगें तो तुम्हें वहां से भागना पड़ेगा; और तुम्हारी औकात क्या है अगर ये जाँचना है तो तुम ज़रा थोड़ी देर और रुकने की कोशिश करना। बाराती से ज़्यादा बेवकूफ कोई हो सकता है क्या?
बाराती सिर्फ तब तक है जब तक विरह है। दूल्हा अभी अकेला है तो सत्तर दोस्त इकट्ठा करेगा। जिस क्षण मिल गई उसको दुल्हन फिर ऐसे निकाल के फैंकेगा जैसे दूध में से मक्खी को निकाल के फैंका जाता है। ठीक उसी तरीके से हमने भी ये दुनिया भर के प्रपंच तभी तक इकट्ठा कर रखें हैं जब तक पिया नहीं मिल गया या दुल्हन नहीं मिल गई या जो भी कह लीजिये। जिस क्षण वो मिल गया इन सब को तुम अपने आप ही भगा दोगे। तुम कहोगे कि, ‘तुम हो कौन? हमें प्रेमी से ही फुर्सत नहीं है तुम हो कौन? हम तुम्हें नहीं जानते, भागो यहाँ से।’
जो लोग जितने ज़्यादा सामजिक हों वो खुद ही समझ जाएँ कि वो उतनी ही विरह में हैं। अभी दूल्हा मिल नहीं रहा इस कारण जीवन में इतना समाज भरा हुआ है। जीवन में अगर समाज की उपस्तिथि ज़बरदस्त है, पाँच-सात हज़ार लोगों का आपका दायरा है, दिन भर में पच्चीस-तीस आप फ़ोन कॉल करते हो, तो आप समझ लीजिये कि पिया नहीं मिला हुआ है। उसकी जगह खाली है और उसपर कोई इधर-उधर से आकर बैठ रहा है।
जब एक मिल जाता है तो अनेकों से फुर्सत मिल जाती है।अगर अनेक भरे हुए हैं जीवन में तो मात्र इसलिए कि उस एक की जगह सूनी है।
श्रोता: सर, देखा-देखी से क्या मतलब है?
वक्ता: देखा-देखी से ये मतलब है कि ये कोशिश मत कर लेना कि बाकी सब को निकाल दो, बारात को गायब कर दो तो दुल्हन अपने आप मिल जाएगी। पहले दुल्हन मिलती है तब दोस्तों से पिंड छूटता है।
प्रेम को पा लो तो बीमारियाँ अपने-आप दूर हो जाएंगी। ये कोशिश मत करना कि पढ़ा था मैंने, कबीर सावधान कर रहें हैं, लिखा-लिखी की नहीं है कि तुमने यहाँ पढ़ा और तुम सोचो कि जो लक्षण हैं पाए हुए के मैं भी उन्ही लक्षणों को अपना लूँ तो मुझे भी मिल जाएगा। लक्षणों को अपनाने से सत्य नहीं मिल जाता। वास्तव में करना पड़ेगा, देखा-देखी बात। अपनी दृष्टि से देखना होगा, समझना पड़ेगा। किसी और के बताए से नहीं हो जाएगा।
श्रोता: पर सर, हम तो वही देखेंगे न जो हमें दिखाया जाता है, जैसे हमारे संस्कार होते हैं
वक्ता: तुम्हारी एक दूसरी आँख भी है पर वो तुम्हारी नहीं है; ऐसा मत करना कि अभी से गए और दोस्तों के फोन उठाने बंद कर दिए और पूछे क्या हुआ तो कहो – दूल्हा-दुल्हन मिल गए, फीकी पड़ी बरात। मिला कुछ नहीं है, कलप रहे हो और इतना करा कि बारात और लौटा दी। बारात तब लौटाओ जब पहले दुल्हन मिल जाए, और ये बहुत बड़ी भूल होती है।
श्रोता: सर मैंने कहीं पढ़ा था कि जिसे मिला जाता है जो बेवजह हंसने लगेगा..
वक्ता: जिसको मिल जाता है वो बेवजह हँसने लग जाता है पर अगर तुम बैठे-बैठे कोशिश करो कि बेवजह हँसू तो तुम्हें मिल थोड़ी जायेगा बल्कि तुम्हारी इस बेवजह हँसी में बहुत बड़ी वजह है। तुम कुछ सिद्ध करना चाहते हो—यही वजह है कि बेवजह ही हंस रहें हैं और ऐसे लोग बड़े हास्यास्पद लगते हैं और दिखता है साफ़-साफ़ कि ये कोशिश है बेवजह होने की। जिसका स्वास्थ्य अच्छा हो वो खुद ही खुले में दौड़ लगाएगा न। बीमारी हटेगी तो तुम खुद ही दौड़ लगाओगे। बीमारी हटी नहीं है और तुम दौड़ लगाओ तो क्या होगा?
चित्त गिरोगे।
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।