प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। आपने बताया कि 'मैं' को जानना ही अध्यात्म है और यह 'मैं' मुक्ति चाहता है। तो यह 'मैं' अपना ऊँचे-से-ऊँचा लक्ष्य कैसे निर्धारित करे जिससे वह मुक्ति की ओर जाए?
आचार्य प्रशांत: 'मैं' कभी भी कोई सिद्धान्त नहीं होता, 'मैं' कोई कल्पना नहीं है। 'मैं' कोई एब्सट्रैक्शन (कोई सामान्य धारणा जिसका आधार कोई वास्तविक व्यक्ति, वस्तु या स्थिति न हो) नहीं है; 'मैं' हमारी ज़िन्दगी का नाम है। 'मैं' चलती-फिरती, साँस लेती हमारी वास्तविकता का नाम है। ठीक है न!
तो ये 'मैं' मुक्ति चाहता ही इसीलिए है क्योंकि इसकी वास्तविकता में बन्धन बहुत हैं। नहीं होते बन्धन तो मुक्ति की क्या बात! उन बन्धनों का दर्द ही तो 'मैं' को मुक्ति के लिए प्रेरित करता है न? आप आज़ाद हैं, स्वस्थ हैं, प्रफुल्लित हैं, तो आपको फिर कुछ भी चाहिए क्यों? फिर तो मौज-ही-मौज! कुछ ग़लत है, कुछ गड़बड़ है तभी तो बदलाव चाहिए न!
तो शुरुआत यही जानने से करनी पड़ती है — ‘क्या ग़लत है, क्या गड़बड़ है? क्या झूठा है, कहाँ फँसे हुए हैं? क्या समझ में नहीं आया है, भ्रम कहाँ पर है? किस चीज़ का डर है?’
तो अपनी ज़िन्दगी को देखना होता है, अपनी बीमारी को पहचानना होता है, वहाँ से इलाज की शुरुआत हो जाती है। यही अध्यात्म है — ‘अपनी ज़िन्दगी को देखना’। अपनी ज़िन्दगी को देखना माने किसको देखना? अहम् की अवस्था को देखना।
अपनी ज़िन्दगी को देखना माने अहम् की सच्ची अवस्था को देखना जिसका वो अनुभव करता है रोज़-रोज़; किताबी बात नहीं, जिसमें वो रोज़ जीता है। दफ़्तर जाता है, व्यापार करता है, पैसे गिनता है, तनख़्वाह पाता है, तनख़्वाह देता है। आगे के लिए कुछ उम्मीदें हैं, किसी से अनबन है, किसी से दोस्ती है, किसी से बैर है। है न! कुछ अपेक्षाएँ हैं जो पूरी नहीं हुईं, कुछ मिला हुआ है जिसके खो जाने का डर है — ये सब 'मैं' की ज़िन्दगी की झलकियाँ हैं। इन्हीं को ईमानदारी से देखकर, इन्हीं को क़रीब से परखकर तुरन्त पता चल जाता है कि कौनसी बीमारी इलाज माँग रही है।
प्र: लेकिन यह 'मैं' तो बदलता रहता है प्रतिदिन। आज कुछ चाहिए, कल कुछ चाहिए!
आचार्य: 'मैं' ऐसे बदलता रहता है जैसे आप बीमारी से बीमारी बदल दो। जैसे आप बीमारी से बीमारी बदल दो। कि कोई भीतर आपके ऐसा वायरस (विषाणु) लगा हो जिसकी वजह से आठ-दस-पचास तरह के सिम्प्टम्स (लक्षण) आते हों, तो सुबह उठे तो पूरे शरीर में, हड्डियों में दर्द था। नाश्ता किया तो उल्टी आ गयी। फिर बैठ गये टीवी के सामने तो धुँधला-धुँधला हो रहा है, दिखायी नहीं दे रहा ठीक से। थोड़ी देर में सिरदर्द होने लग गया।
ये क्या हो रहा है? क्या बदल रहे हैं? लक्षण बदल रहे हैं। 'मैं' जिस बीमारी से सम्बन्धित है, वो बदल रहा है। मूल बीमारी तो यथावत् है। मूल बीमारी क्या? वो 'मैं' ही मूल बीमारी है। वो जिनके साथ सम्बद्ध होता रहता है, वो बदलते रहते हैं, पर सम्बद्ध होने की वृत्ति नहीं बदलती।
कभी वो ये पकड़ता है (कलम पकड़कर दर्शाते हुए), इससे उसको एक बीमारी लगती है। कभी वो ये पकड़ता है (एक छोटा रिकॉर्डर दिखाते हुए), इससे उसको दूसरी बीमारी लगती है। कभी वो ये (माइक पकड़ते हुए) पकड़ लेता है, कभी अपना ही मुँह पकड़ लेगा, कभी किसी और को पकड़ लेगा। ये उसका काम है — पकड़ना। और जिस भी चीज़ को वो पकड़ता है, वो एक बीमारी ही होती है। हाँ, ये अलग बात है कि जब वो पकड़ता है तो ये सोचकर पकड़ता है कि मैं इलाज पकड़ रहा हूँ।
मैं इसको (कलम को) पकड़े था, बड़ी तकलीफ़ हुई, बड़ी तकलीफ़! जब तकलीफ़ हुई तो मैं क्या चाहूँगा? इलाज। तो मैं क्या करूँगा? मैं इसको (रिकॉर्डर को) पकड़ लूँगा। कुछ समय के लिए राहत मिलेगी। क्या राहत मिलेगी? जिस प्रकार का दर्द इससे (कलम से) होता था, उस प्रकार का दर्द इससे (माइक से) नहीं होगा। तो मुझे यही लगेगा कि मैं सफल हो गया दर्द को मिटाने में। समझना, दर्द नहीं मिटा है। जिस प्रकार का दर्द इससे (कलम से) मिल रहा था, उस प्रकार का दर्द इससे (रिकॉर्डर से) नहीं मिल रहा, तो कुछ समय के लिए राहत जैसी लगेगी। लेकिन ये एक नये तरीक़े का, नये प्रकार का दर्द देगा।
जब तक वो दर्द समझ में आने लगेगा, तब तक कोशिशें शुरू हो जाएँगी इसको (माइक को) पकड़ने की। यहाँ वैसा दर्द नहीं मिलेगा जैसा इससे (रिकॉर्डर से) मिलता था, तो हम खुश हो जाएँगे। हम कहेंगे, ‘देखो, सफल हो गये! तीसरे प्रयास में सफलता मिल ही गयी!’ कुछ ऐसा मिल गया जो वैसा दर्द नहीं दे रहा जैसा ये (कलम) देता था, जैसा ये (रिकॉर्डर) देता था। लेकिन ये (माइक) फिर अपने तरीक़े का एक अलग दर्द देगा।
तो हम क्या कर रहे हैं? हम बीमारी से बीमारी तक भाग रहे हैं, दर्द से दर्द तक भाग रहे हैं। जब हम कहते हैं न, ‘'मैं' बदलता रहता है’, तो वास्तव में वो बीमारियाँ बदलती रहती हैं, वो विषय बदलते रहते हैं जिससे 'मैं' जुड़ता है, सम्बन्धित होता है। वृत्ति नहीं बदलती। वृत्ति अगर तुम बदल डालो, तो फिर तो आज़ाद ही हो गये। वृत्ति यथावत् रहती है।
प्र: तो इसका निदान क्या है?
आचार्य: किसका? अरे! तुम बीमारी तो निश्चित करो न।
प्र: यह 'मैं' एक निश्चितता पर डट जाए।
आचार्य: ‘मैं’ कहाँ फँसा हुआ है — पहले ये देखो। वो सब अनिश्चित हैं, वो सब क्षणिक हैं — पहले ये देखो। इसको (कलम को) पकड़े-पकड़े पूछोगे कि इलाज क्या है, तो कोई इलाज नहीं है। इसका (कलम का) नाम पहले ठीक रखो। पहले जानो कि ये (कलम) बीमारी है।
ये कोई फ़ैशन की बात थोड़ी है कि सब अध्यात्म करते हैं, तो हम भी करेंगे। आपको साफ़ दिखायी देना चाहिए पहले कि ज़िन्दगी में खटपट है। तब इस बात का कुछ तुक बनता है कि आप अध्यात्म की ओर आयें, मन को समझने की कोशिश करें। जो व्यक्ति अपने जीवन की बात नहीं कर रहा है और फिर भी मुक्ति माँग रहा है, मैं उससे पूछूँगा, ‘मुक्ति काहे से माँग रहे हो? किससे चाहिए मुक्ति?’ जब तुमको अपनी तकलीफ़ ही नहीं पता तो बताओ इलाज किसका करें?
डॉक्टर के पास भी जाते हो, वो ऐसा थोड़ी करता है कि तुम्हारे मुँह में कुछ घुसेड़ देगा उपकरण! बातचीत की शुरुआत कौन करता है जब डॉक्टर के सामने बैठते हो? तुम ही तो करते हो। पहले तुम बताते हो कि तुम्हें तकलीफ़ क्या है, उसके बाद वो फिर अपना काम करता है। तुम तकलीफ़ ही न बताओ, वहाँ बैठ जाओ और मुस्कुराओ उसको देख-देखकर, और कहो, ‘कहिए कुछ, क्या हाल-चाल है?’ भगा देगा तुमको! पहले अपनी तकलीफ़ तो स्वीकार करो। या कोई ऐसा हो जिसको कुछ ऐसी गुप्त तकलीफ़ हो कि डॉक्टर को भी नहीं बताना चाहता, तो डॉक्टर क्या कर लेगा?
प्र: आचार्य जी, कुछ साल पहले जीवन के लिए जो सपने देखे थे, वो सब पूरे हो चुके हैं। घर, गाड़ी, नौकर, सब। लड़की मिली, उससे शादी भी कर ली, उसको छोड़ भी दिया फिर।
आचार्य: ये सपने में शामिल था, छोड़ना भी? (आचार्य जी और श्रोतागण मुस्कुराते हुए)
प्र: नहीं, छोड़ने वाला शामिल नहीं था, लेकिन ऐसी स्थिति आयी कि हमें अलग होना पड़ा। अब दिन-रात यही लगा रहता है कि कुछ और करना है। अभी जो स्थिति है, मैं उससे सन्तुष्ट नहीं हूँ। घरवाले दूसरी शादी के लिए ज़ोर दे रहे हैं, न करूँ तो घर-बार छोड़ने के लिए कह रहे हैं।
आचार्य: सवाल ये नहीं है कि घरवाले कह क्या रहे हैं, सवाल ये है कि सुनने की तुम्हारी मजबूरी क्या है।
प्र: मजबूरी ये है कि मैं इस स्थिति में अपनेआप को अब और नहीं रख सकता, अब मैं जाना ही चाहता हूँ।
आचार्य: कहाँ जाना चाहते हो? घर से बाहर?
प्र: हाँ। जैसा मैंने पहले काम-धन्धा शुरू किया था, मैं कहीं भी कुछ और कर सकता हूँ।
आचार्य: चले जाओ। तुम तो अनुभवी हो, देख लीं चीज़ें, समझते हो बातों को। अभी तो तुमने एक पंक्ति में निपटा दिया कि शादी कर ली, छोड़ भी दिया। इतना आसान तो नहीं रहा होगा?
प्र: नहीं, आसान नहीं रहा।
आचार्य: एकदम क्लेश से, नर्क से गुज़रे होगे!
प्र: नहीं, ऐसी कुछ स्थिति नहीं थी। मैंने आपको बताया न कि मेरा मन एक जगह निश्चितता से नहीं रुक रहा है, अस्थिरता है बहुत। पहले तो मैंने उससे शादी कर ली, फिर ख़याल आया कि यह वह नहीं है जो मैं चाहता था, तो मैंने उससे अलग होने का फैसला कर लिया।
आचार्य: इतनी कसर रह गयी कि जो तुम कर रहे थे, चाह रहे थे, वो शायद अपेक्षतया आसानी से हो गया है। नहीं तो ऐसे मामलों में ऐसे-ऐसे भी पेंच आ सकते हैं कि फिर जीवनभर के लिए सीख मिल जाए। जो तुम अभी भी विचार कर रहे हो और कूद-फाँद का, वो इसीलिए है क्योंकि पहले मुद्दे में भाग्यवश या दुर्भाग्यवश तुम आसानी से निकल गये, निपट गये। तो कड़ी सीख मिली नहीं!
प्र: नहीं, सीख मिल गयी कि शादी नहीं करनी अब।
आचार्य: कहाँ मिली है? मिली होती तो यह सवाल नहीं आता।
प्र: मैंने घरवालों को बोल दिया, ‘नहीं करूँगा।’ यद्यपि वो बोल रहे हैं कि कर ले।
आचार्य: तुम दोहरा रहे हो एक ही बात को। अगर तुम्हें सीख मिल गयी होती, तो फिर तुम्हें क्या मजबूरी रहती इन सब बातों को सुनने की? घरवाले भी तुमसे अगर कुछ कह रहे हैं, तो उन्हें कहीं-न-कहीं दिख रहा है कि तुम पर दबाव बनाया जा सकता है। उन्हें अभी भी उम्मीद या सम्भावना दिख रही है कि तुमसे कुछ कहेंगे तो तुम मान लोगे, इसलिए कह रहे हैं।
अगर तुम्हें वाक़ई सीख मिल गयी होती, तो घरवालों को भी दिख रहा होता कि इससे कुछ भी कहने का कोई लाभ नहीं है। अभी उनको रोशनी की किरण दिख रही है। वो कह रहे हैं कि थोड़ा और दबाव बनाएँगे, थोड़ा और कहेंगे तो मान ही जाएगा, क्योंकि कहीं-न-कहीं इसके मन में भी मानने की तैयारी है। उनको बीज दिखायी पड़ रहा है, इसीलिए तो वो खाद-पानी डाल रहे हैं न। तो तुम निर्बीज हुए नहीं।
निर्बीज होने के दो तरीक़े हैं। या तो पिछले अनुभव में जो कसर बाक़ी रह गयी थी, वो पूरी करने के लिए दोबारा वैसा ही कोई अनुभव आमन्त्रित कर लो या फिर बुद्धिमानी से, विवेक से कहो कि एक बार जो किया, उसी पर ग़ौर करूँगा, उसी से समझूँगा। पूरी एक प्रक्रिया रही होगी जो कुछ महीने, कुछ साल चली होगी — ‘क्या होता है? कैसे होता है? कहाँ से उठता है आकर्षण? फिर कहाँ से आती है ये विवाह की संस्था? फिर सपने ध्वस्त कैसे होते हैं? फिर दुख क्या चीज़ होती है? फिर अलग होना क्या होता है?’ जिसको समझना होगा वो इन बातों पर ग़ौर कर लेगा न।
और जब इन बातों पर ग़ौर कर लोगे तो सिर्फ़ आदमी-औरत के बारे में, पति-पत्नी के बारे में या विवाह के बारे में ही नहीं, ज़िन्दगी के बारे में बहुत कुछ समझ जाओगे। क्योंकि जो वृत्ति हमारी हमसे ये सब करवाती है — आप किसी लड़की की ओर आकर्षित हो रहे हो, फिर आप रिश्ते को एक सामाजिक, ठोस नाम, आकार दे रहे हो, फिर आप पा रहे हो कि आपकी उम्मीदें नहीं पूरी हो रहीं, फिर आप कह रहे हो कि छोड़ना है — वही वृत्ति तो आपसे ज़िन्दगी के दूसरे काम भी करवाती है न, चाहे वह व्यापार का काम हो, चाहे कोई भी हो।
वृत्ति तो एक ही है जो इधर-उधर ठिकाना ढूँढ रही है, चैन माँग रही है। कभी वो पत्नी में चैन माँगती है, कभी पैसे में माँगती है, कभी पासपोर्ट में माँगती है। एक मुद्दे को ठीक से समझ जाओ, एक मुद्दे से ही ठीक से सीख ले लो, तो बाक़ी सब मुद्दों में बेवकूफ़ नहीं बनना पड़ेगा। और जो लोग सीख नहीं लेते, समझना नहीं चाहते, उनको सज़ा क्या मिलती है? वो पुरानी ग़लतियाँ ही बार-बार दोहराते हैं। नहीं तो एक ग़लती काफ़ी होती है सब ग़लतियों से छूट पा लेने के लिए।
तो ध्यान दो कि अभी तक क्या हुआ है। ठीक है?