मेहनत या स्मार्टनेस? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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मेहनत या स्मार्टनेस? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

वक्ता : बात न स्मार्ट वर्क की है, न हार्ड वर्क की है। ध्यान से समझना। बात

कार्यकर्ता की है। हम सतह पर अटक कर रह जाते है जब हम पूछते हैं कि स्मार्ट वर्क और हार्ड वर्क में अंतर क्या है? तुम्हारा क्या नाम है?

श्रोता: दीप।

वक्ता: दीप, हाँ। अब वेंकटेश को, दीप की मान लो हत्या करनी है। अगर वो हार्ड वर्कर है, तो बिलकुल बेकार चाकू लेगा, जिसमे धार ही नहीं है। जिससे आलू-प्याज भी न कटे। और मेहनत कर करके, उसको मारेगा। घंटो लगेंगे। वो चाकू घिस रहा है, घिस रहा है। सामने वाला मर ही नहीं रहा। और अगर वो स्मार्ट वर्कर है, तो जेब से साइनाइड की एक कैप्सूल निकालेगा और धीरे से उसको चटा देगा। बहुत स्मार्ट डेथ हो जाएगी। किसी को पता भी नहीं चलेगा कि मर गए। मरने वाले तक को पता नहीं चलेगा कि मर गए। इतनी *स्मार्ट डेथ*। पर दोनों ही स्थितियों में कार्यकर्ता तो एक ही रहा। हिंसा से भरा हुआ। क्रोध से भरा हुआ। द्वेष से भरा हुआ। बात समझ रहे हो? मूल प्रश्न यह नहीं है कि स्मार्टली मारा या अन-स्मार्टली मारा। प्रश्न यह है कि कार्यकर्ता का चित्त कैसा था? कार्य नहीं कार्यकर्ता। कर्म नहीं कर्ता।

कर्म तो हज़ार तरीके से हो सकता है। कुशल-अकुशल यह विधि, वो विधि। यह रास्ता, वो रास्ता। पर चाहे चल के पहुंचे, या उड़ कर पहुंचे। और चाहे सुरंग से पहुंचे। दिल्ली से ही चले, तो बम्बे तक तो पहुंचे। क्योंकि चित्त तो बम्बई पहुचने में अटका हुआ था। चित्त तो बम्बई पहुँचाने में ही अटका हुआ था। कार्यकर्ता तो क्रोध और हिंसा से ही भरा हुआ था। करनी तो उसे हत्या ही थी। कोई कार्य स्मार्टली करके मारता है और कोई हार्ड वर्क करके मारता है। वो बहुत ही सतही बात है। वो बस क्षमता की बात है। बात मेरी समझ रहे हो?

‘चील’ जानते हो? चील बहुत ऊँचा उड़ती है। और वो इतना ऊँचा क्यों उड़ती है? क्योंकि उंचाई से उसे चूहा और छोटे-छोटे जानवर और ज्यादा क्षेत्र में दिखाई देते हैं। जितना ज्यादा उड़ेगी ना, उतने ज्यादा क्षेत्र को वो देख पाती है। तो उतनी ऊपर उड़ रही है, चील झपट्टा मारेगी और उतनी उंचाई से वो चूहे को उठा लेगी। बात यह नहीं है कि कितना ऊँचा उड़ रहे हो। बात यह है कि कितना स्मार्ट है। उसका जो पूरा तंत्र है, वो किसी जेट से कम तो नहीं। उसकी पूरी बनावट, उसका एरो-डायनामिक डिजाईन , ज़बरदस्त है। बहुत स्मार्ट डिजाईन है। और यह जो पूरा स्मार्ट डिजाईन है, यह किस कार्यकर्ता के काम आ रहा है? एक ऐसे कार्यकर्ता के काम आ रहा है, जिसके चित्त में बस मरा हुआ चूहा बैठा हुआ है।

हम जब यह सवाल पूछ लेते हैं कि स्मार्ट वर्क करूकि हार्ड वर्क पर यह तो पूछते ही नहीं हैं कि उस कार्य को करने वाला कौन है? इसी कारण उस कर्म की उस कार्य की दिशा क्या है ये कभी नहीं पूछते। सवाल तो पूछ लेते हैं। यह नहीं पूछते कि किस चित्त से सवाल उठ रहा है? मैं कभी भी सवालों के जवाब नहीं देता हूँ। सवाल तो सतही होते हैं। मैं जो जवाब ता हूँ, उसमे मैं मन को समाधान देता हूँ। उस मन को, जिस मन से प्रश्न उठा है।

ये मायने नहीं रखता कि सवाल क्या है ,मायने ये रखता है कि किस मन से उठा है।

प्रश्न की भाषा कैसी भी हो सकती है। मैंने तुमसे कहा था ना कि ‘भाषा पर मत जाना’? तुम्हारे शब्द क्या हैं, इससे मुझे कोई विशेष प्रयोजन नहीं है। तुम उबड़-खाबड़ भाषा में भी पूछ सकते हो। तुम्हारी सारी त्रुटियाँ माफ़ हैं। कोई गलती नहीं कर दी तुमने कि अगर तुम्हारी भाषा साफ़ नहीं है। लेकिन अगर मन साफ़ नहीं है। अगर सवाल गंदे और हिंसा पूर्ण तरीके से उठ रहा है, तो उस सवाल कि कोई कीमत नहीं है। तो स्मार्ट सवाल और अनस्मार्ट सवाल में कुछ रखा नहीं है। सवाल यह है कि प्रश्नकर्ता कैसा है? अंतर को समझ पा रहे हो ना? प्रश्नकर्ता कैसा है? एक ही सवाल, दो बहुत अलग-अलग चित्तो से आ सकता है। मन की तो दो बहुत अलग-अलग दशाओं से आ सकता है। और उनका जवाब बहुत अलग-अलग होगा। यह गणित नहीं है कि एक सवाल का एक ही उत्तर दिया जाए। यह जीवन है। जहाँ पर सवाल नहीं मायना नहीं रखता। मन मायना रखता है। गणित में तो एक सवाल का, एक ही सही उत्तर होता है। जीवन में सवाल, और सवाल के शब्द मायने ही नहीं रखते। वहाँ तो यह देखा जाता है कि ‘सवाल किस मन से पूछा गया है?’

एक संत तुमसे मिले और तुमसे पूछे कि ‘तुम कौन हो?’ शब्द तीन। ‘तुम कौन हो।’ और तुम रात को सड़क में घूम रहे हो, और पुलिस की गाडी रुकती है और पूछती है ‘कौन हो तुम।’ ठीक वो ही शब्द हैं। पर भाव में जमीन आसमान का अंतर है। इसीलिए उत्तर को अलग होना पडेगा। तुम संत को उस सवाल का वही उत्तर नहीं दे सकते। और डॉक्टर भी वो ही सवाल पूछ सकता है। ‘कौन हो तुम?’ तुम उसको यही उत्तर नहीं दोगे? नहीं दोगे न? मन को देखो।

कार्य को नहीं कार्यकर्ता को देखो।

अब हम उस कि इन दोनों शब्दों को लेकर के, हमारे मन में क्या भ्रम रहते हैं। स्मार्ट वर्क और *हार्ड वर्क*।

स्मार्टनेस का अर्थ हमने ‘जुगाड़’ से लगा लिया है। चालाकी और चालूपन से लगा लिया है। सामान्यता हमारे मन में स्मार्ट शब्द का यही अर्थ है। और कुछ अर्थ है ही नहीं। जो जुगाड़ जानता है, जो किसी भी तरीके से अपना काम निकालना जनता है, उसे हम कहते हैं *स्मार्टनेस*। तो किसी सरकारी दफ्तर का हो, और जिसे पता हो कि कहाँ पर जा कर के कौन सी चाभी घुमानी है। वो क्या कहलायेगा? *स्मार्ट*।

उसी से मिलता-जुलता एक शब्द है- *स्ट्रीट स्मार्ट।* *स्ट्रीट –*स्मार्ट का मतलब होता है कि ‘जो सड़क पर क्या चलता है, वो जानता है।’ कि जिसको ना, सार पता है, न तत्व पता है। पर जो व्यावहारिक बहुत है। और इसी खानदान का एक और शब्द है प्रैक्टिकल और तुमने खूब ऐसी सीख सीखी होगी कि “यार प्रैक्टिकल होकर के जीना चाहिए”। यह प्रैक्टिकल और स्मार्ट एक ही परिवार के दो शब्द हैं। और उसका एक ही अर्थ होता है कि ‘समझो भले न, पर कर डालो’, यह पागलपन की बात है, इसके फेर में मत आ जाना।

अब मैं तुमसे कहने जा रहा हूँ कि ‘वास्तविक प्रक्टिकालिटी’ और ‘वास्तविक स्मार्टनेस’ क्या होती है। इसको ध्यान से समझना। ‘वास्तविक प्रक्टिकालिटी’ होती है कि “मेरा कर्म, मेरे बोध से निकलता है।” प्रैक्टिकल माने ‘जो प्रैक्टिस कर रहे हो।’ प्रैक्टिस माने ‘करना’। “मैं जो भी कुछ करता हूँ, तभी करता हूँ, जब कुछ समझा। समझा, फिर मेरी समझ कुछ कर्म में परिणित हुई।” यह होती है ‘वास्तविक *प्रक्टिकालिटी’*। प्रक्टिकालिटी यह नहीं होती, कि कहीं भी जाकर के कुछ ‘जुगाड़’ फिट कर लिया। उन चक्करों में मत पड़ना। वो मैकेनिक के काम हैं, इंजिनियर के नहीं। मैकेनिक और इंजिनियर में यही अंतर होता है। मैकेनिक बिलकुल नहीं जानता कि इंजन कैसे काम करता है। तुम उससे पूछो कि ‘यहाँ पर अडीबैटिक-कम्प्रेशन है या फिर आईसो-थर्मल है– वो नहीं बता पायेगा। तुम उससे पूछो कि यह कौन सा प्रमेय से कार्य करता है, वो नहीं बता पायेगा। तुन उससे पूछो कि क्षमता कितनी है इसमें, वो नहीं बता पायेगा। तुम उससे कम्प्रेशन-रेश्यो ही पूछ लो, वो नहीं बता पायेगा। लेकिन वो गाड़ी ठीक कर देता है। वो जुगाड़ जानता है।

तीन तल होते हैं मन के- मैकेनिक का तल, इंजिनियर का तल और रीसरचर का तल। रीसरचर (वैज्ञानिक)। तुम मैकेनिक के तल पर मत जीना। मैकेनिक का तल होता है, स्मार्टनेस का तल। आमतौर से जिसे स्मार्टनेस समझा जाता है। उस पर मत जीने लगना। तुम्हें यही कहा जाएगा की मैकेनिक जैसे बनो। गाड़ी खराब हुई थी। देखो दो तार इधर जोड़े। दो तार इधर जोड़े। देखो गाड़ी चालू हो गयी। चालू तो कर दी, पर चलेगी नहीं वो अब बहुत। और अगर मैकेनिक से ही गाड़ियाँ चलानी होती, तो बड़ी-बड़ी कंपनी के आर.एंड.डी में मैकेनिक ही भरे होते। वहाँ पर वैज्ञानिक की ज़रूरत न होती। फिर इंजन के डीसाइन मैकेनिक ही कर रहे होते। यह जुगाड़ तुम्हें कहीं नहीं ले जा पायेगा। बस मन को गन्दा करके रख देगा। यह तुमको बहुत सतही व्यक्ति बना देगा। यह नहीं बनाना।

अब हम आते हैं हार्ड वर्क पर। कि हार्ड वर्क को लेकर आमतौर पर हमारे मन में क्या मान्यता है? हार्ड वर्क को लेकर हमारे मन में ‘गधे’ की मान्यता है। हार्ड वर्क का जो देवता है वो ‘गर्धव देवता है। और हम सब उसके उपासक हैं। हमसे कहा गया है कि ‘हार्ड वर्क सफलता की निशानी है। हमसे कहा गया है कि ‘जितनी मेहनत करोगे, उतने ही आगे बढ़ोगे।’ ‘गधा’ कौन? ‘गधा’ वो। जो जानता ही नहीं कि वो बोझ क्यों ढो रहा है, पर ढोए जा रहा है। क्योंकि ‘मालिक की आज्ञा है’। ‘गधा’ वो जो जिस दिशा में जा रहा है, वो उसकी तय की हुई है ही नहीं। पर मालिक ठेल रहा है, तो वो ठेला जा रहा है। और मैं तुमसे कह रहा हूँ कि “अगर सौ लोग सामने खड़े हैं, तो निन्यानवे गधे ही हैं। कुछ गधे हैं, कुछ स्मार्ट गधे हैं। पर गधे जरूर हैं।”

‘गधे’ की परिभाषा समझ रहे हो ना? ‘गधा’ वही नहीं, जो चार पांव पर चलता हो। दो पाँव पर चलने वाले ‘गधे’ ज्यादा हैं। ‘गधा’ वो नहीं जो रेंगता हो। हिंदी और अंग्रेजी बोलने वाले ‘गधे’ ज्यादा है। ‘गधे’ की परिभाषा यह है की “श्रम करता है, बिना यह जाने कि श्रम कर ही क्यों रहा हूँ। कि कहीं पहुँचता तो है, पर किसी और का बोझा ढो कर के। किसी और की इच्छाएं पूरी करने।”

जो भी कोई किसी और की इच्छाएं पूरी करने के लिए जिये जा रहा है, वो ‘गधा’ है।

जिस किसी के गले में पट्टा और पांव में ज़ंजीर है वो ‘गधा’ है। जिस किसी ने मालिक को पाल रखा है कि मालिक ने उसको एक छत दे दी है, और सुबह-शाम की रोटी दे देता है, वो ‘गधा’ है। यह है ‘गधे’ की परिभाषा। और ‘गधा’ है, ‘हार्ड वर्क’ का प्रतीक। बहुत श्रम करता है। गधे और खच्चर से ज्यादा और किसी को श्रम करते देखोगे नहीं। और उनसे ज्यादा दुखी और कुंठित किसी को पाओगे नहीं। बात समझ में आ रही है?

ना स्मार्ट वर्क करना है। न हार्ड वर्क करना है। कार्य पर ध्यान ही नहीं देना है। बताओ मेरे साथ किस पर ध्यान देना है? कार्यकर्ता पर।

स्मार्ट वर्क करोगे तो ‘जुगाडू’ हो जाओगे और हार्ड वर्क करोगे तो ‘गधे’ हो जाओगे। तो कार्य को छोड़ दो। कार्यकर्ता पर ध्यान दो। कार्यकर्ता पर। और कार्यकर्ता का मन कैसा हो कि ‘समझूंगा, तब करूँगा।’ फिर जैसा भी करोगे ठीक ही होगा। जो भी करोगे ठीक ही होगा। बात आ रही है समझ में?

वही प्रैक्टिकल होगा, वही सुन्दर होगा। और वही अगर समझ से कर्म होता है, अगर उस कर्म को ऊर्जा की जरुरत होती है, तो ऊर्जा भी खूब मिलती है। जितना हार्ड वर्क तुम अपने बोध में कर सकते हो, उतना हार्ड वर्क तुम ‘गधे’ की तरह घिस-घिस कर नहीं कर सकते। गधा तो सिर्फ़ ढोता हैं ना? वो कभी मौज में नहीं होता ना?

तो जिन्हें हार्ड वर्क करना हो वो पहले ‘कर्ता’ पर ध्यान दे। ‘बोध’ पर और ‘समझ’ पर ध्यान दे। फिर देखें हार्ड वर्क भी हो जाएगा और स्मार्ट वर्क भी हो जाएगा। असली अर्थ में, नकली अर्थ में नहीं। नकली अर्थ कौन से थे? स्मार्ट वर्क का अर्थ है ‘जुगाड़’ और हार्ड वर्क का अर्थ है ‘श्रम’। पर हम नकली अर्थों में जीते हैं। मैं चाहता हूँ कि इनको अपने मन से बिलकुल निकाल दो। वो तभी निकलेगा जब कार्य पर नहीं कार्यकर्ता पर ध्यान दोगे। ‘कर्म’ पर नहीं ‘कर्ता’ पर ध्यान दोगे। जब ‘कर्ता’ पर ध्यान दोगे, मन पर ध्यान दोगे, तब जो भी कार्य करोगे उसमे स्मार्टनेस भी रहेगी और उर्जा भी रहेगी। क्षमता भी रहेगी और उर्जा भी रहेगी, अपने आप।

बात आ गयी समझ में?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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