प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, जब मैं शिविर के लिए आ रहा था तब ऐसा लग रहा था कि बहुत समस्या है, लेकिन यहाँ पर आकर जब बोला गया कि प्रश्न पूछ सकते हैं आचार्य जी से तो ऐसा हो रहा था कि कोई प्रश्न सामने ही नहीं आ रहा है। फिर इसका एक भाग ऐसा भी है कि, ऐसा तो नहीं है कि कुछ नहीं जानता, कुछ समस्याओं का समाधान तो जानता ही हूँ लेकिन फिर उसपर अमल भी नहीं होता है। पिछले चार-पाँच साल से अध्यात्म की ओर जुड़ा हूँ, ओशो को भी सुनता हूँ, आपको एक साल से सुन रहा हूँ। तीन-चार बार विपश्यना भी कर चुका हूँ लेकिन जब भी विपश्यना करने जाता हूँ तो निश्चय करता हूँ कि अब से अध्यात्म की ओर पूरा ध्यान दूँगा लेकिन फिर साधारणतया जो जीवन चल रहा होता है उसी में डूब जाता हूँ, वहीं चला जाता हूँ और अध्यात्म भूल जाता हूँ। फिर कोई प्रोब्लम (परेशानी) आती है तो वापस से अध्यात्म की ओर आ जाता हूँ तो ऐसा लगता है कि प्रोब्लम से भागने के लिए ही अध्यात्म की ओर आता हूँ। जैसे ही जीवन आसान हो जाती है तो फिर उसी में ढल जाता हूँ। ऐसा क्या करूँ जो अध्यात्म में रहूँ, दूर ना चला जाऊँ?
आचार्य प्रशांत: दिक़्क़त क्या है? मज़ा तो कर रहे हो। ज़िन्दगी के मज़े लूटते हो। जब ज़िंदगी में समस्या उठती है तो थोड़े समय के लिए अध्यात्म की ओर आकर समाधान कर लेते हो फिर लौट जाते हो ज़िन्दगी के मज़े लूटने, दोनों तरफ से ऐश है। दिक़्क़त क्या है?
प्र: फिर समाधान नहीं होता न।
आचार्य: नहीं, समाधान कैसे नहीं होता? समाधान अगर नहीं हुआ होता तो तुम अपनी पुरानी ज़िन्दगी में लौट कैसे जाते?
पुरानी ज़िंदगी जैसी भी है, उसमें क्यों लौटते हो बार-बार? कुछ तो मज़ा आ ही रहा होगा। मुस्कुरा कर बताओ। वैसी शक्ल रखो जैसी मज़े मारते समय रखते हो। या अच्छी भली शक्ल को भी मनहूस बना कर दिखाने के लिए भी मैं ही हूँ?
ये मुझे बड़ी शिकायत रहती है। यहाँ पर भी जो लोग बैठे हैं इनमें से कईयों को मैंने यहाँ गलीयों में पकड़ा है। वहाँ दूसरी शक्ल रहेगी बिलकुल। मज़े मार रहे होंगे, ऐसे इधर-उधर देख रहे हैं, ताड़ रहे हैं, ऐसे-ऐसे (इधर-उधर देखते हुए)। तभी आचार्य जी पीछे से आ गए तो ऐसे (चौंक जाते हैं)। काहे भई?
मज़ा मारने के लिए दुनिया है। वहाँ पर तुम्हारी हँसती-मुस्कुराती शक्ल चलती है। और मेरे सामने एकदम मनहूसियत चुआते हुए बैठ जाते हो।
(हाथ जोड़ कर अभिनय करते हुए) "आचार्य जी हम दीन दुखी बेचारे हैं। ज़िंदगी बेकार है, बताइए हम क्या करें?"
हैं! बाहर तो तू अभी ठट्ठे मार रहा था। फेसबुक पेज पर देखो तो वहाँ दाँत-ही-दाँत दिखाई दे रहे होते हैं, हँसे ही जा रहा है, हँसे ही जा रहा है। मेरे सामने आकर के काहे गर्दन झुका करके रुदाली बन जाते हो? मज़ा भी तो बताओ, मज़ा।
इसीलिए तो कोई सवाल नहीं था तुम्हारे पास तीन दिन से, क्योंकि कोई समस्या है ही नहीं, मज़ा आ रहा है। अध्यात्म कोई फैशन है क्या कि करना-ही-करना है, क्योंकि सब कर रहे हैं? अरे भाई, जब ज़िंदगी मजा मा चल रही है तो काहे के लिए अध्यात्म को छेड़ते हो? वो डस लेगा, मत छेड़ो उसे।
तुम्हारी ज़िंदगी बढ़िया चल रही है, चलने दो। नहीं चल रही बढ़िया?
प्र: लग तो नहीं रहा।
आचार्य: अरे! तो फिर क्यों चल रही है? अगर बढ़िया नहीं चल रही तो चल क्यों रही है? माने बढ़िया चल रही है।
जो मान लेगा न कि बढ़िया नहीं चल रही, उसकी चलनी बंद हो जाएगी, फिर नई ज़िन्दगी शुरू होगी। तुम्हारी अपनी नज़र में तुम्हारी जैसी भी ज़िंदगी चल रही है, बढ़िया है। तुम यहाँ अपनी ज़िंदगी को बेकार बताने नहीं आए हो। मैं बता देता हूँ तुम यहाँ क्यों आते हो।
तुम आते हो अपनी बढ़िया चल रही ज़िंदगी को थोड़ा और बढ़िया बनाने के लिए। तुम कहते हो, "बढ़िया तो चल ही रही है मेरी गाड़ी, उसमें थोड़ा फॉग लाईट और लगवा देता हूँ। दो-चार एक्सेसरीज़ और लगवा देता हूँ।"
तुम्हारी पहले से ही बढ़िया चलती गाड़ी में अध्यात्म तुम्हारे लिए एक एक्सेसरी की तरह है, बढ़िया वाले सीट कवर * । नहीं, गाड़ी बढ़िया चल रही थी पर नए वाले * सीट कवर लगवा दिए हैं, क्या नाम है उसका? अध्यात्म। गाड़ी बढ़िया चल रही थी, म्यूज़िक सिस्टम नया लगा दिया है। क्या नाम है उसका? अध्यात्म।
तुम्हे कोई रुचि नहीं है, ये तो छोड़ दो कि गाड़ी बदलने में, तुम्हें ईंजन ठीक कराने में भी कोई रुचि नहीं है। तुम आए हो बस इसमें कि, "खरोंच हो गया है, आचार्य जी खरोंच निकाल दीजिएगा।" हैं भाई, कौन हूँ मैं? रेहान डेंटर-पेंटर?
अध्यात्म चलती गाड़ी को रोक देने का और तुम्हें कोई और विमान दे देने की जगह है, ये डेंटिंग-पेंटिंग की जगह नहीं है। "गाड़ी वैसे तो अच्छी चल रही है पर पीछे न वो बाईक वाला आकर कल थोड़ा सा ठोक गया था। आचार्य जी, डिक्की ठीक कर दीजिए।" आचार्य जी पिछवाड़ा ठीक नहीं करते।
बोलो, बताओ न क्या ग़लत चल रहा है ज़िंदगी में?
प्र: वही जो, बेचैनी जैसा पकड़ लेता है, वही।
आचार्य: जैसी ज़िन्दगी चल रही है उसमें बेचैनी है?
प्र: ऐसा सबके साथ होता है तभी तो...
आचार्य: नहीं-नहीं, सबके साथ क्या होता है सब जानें, तुम अपना बताओ। जैसी ज़िन्दगी चल रही है उसमें बेचैनी है?
प्र: मतलब, रूम (कक्ष) में अकेले हो जाता हूँ तो बेचैन हो जाता हूँ।
आचार्य: रूम पर अकेले मत रहा करो फिर। फिर तो तुम्हारी समस्या ये थोड़े ही है कि बेचैनी है, फिर तो समस्या ये है कि रूम में अकेले हो। तुम दुकेले हो जाओ बेटा। अध्यात्म को क्यों परेशान कर रहे हो?
जब आदमी अपनी तरफ़ से जितने उपाय कर सकता है, कर लेता है और ये देख लेता है कि ये उपाय नहीं चलने के, तब वो अपनी चलती हुई गाड़ी को त्यागता है। नहीं तो नहीं करेगा।
कोई भी इस मुग़ालते में ना रहे कि शाम की बेचैनी या घूस लेते समय जो अंतरात्मा में जो कचोट उठती है, उन सब चीज़ों से निवृत्ति के लिए आप अध्यात्म का सहारा ले सकते हैं।
एक आए थे सज्जन, बढ़िया ऊँचे सरकारी पद पर कार्यरत, बहुत ऊँचे। सीधे मंत्री से आदेश लेते थे। मैंने कहा, "समस्या क्या है?"
बोले, "कुछ नहीं, बहुत बढ़िया, सब बढ़िया है।"
तो मैंने कहा, "मेरा समय क्यों ख़राब कर रहे हो?"
बोले, "वो जब वो, जब वो वाली डीलिंग्स होती हैं न तो मन कचोटता है।"
मैंने बोला, "आपका कुछ नहीं हो सकता।"
तुम जैसा जी रहे होते हो, उसी की कचोट तुमको कुछ खास पलों में पता चलती है। वो कचोट उन पलों की नहीं है। उस शाम भर की नहीं है जब तुम बेचैन और अकेला अनुभव करते हो। वो कचोट तुम्हारे चौबीस घण्टों की है। बस दिन भर पता नहीं चलती क्योंकि व्यस्त रहते हो। शाम को प्रकट हो जाती है।
और वो जो कचोट है वो तुम्हारी ज़िन्दगी की एक-एक गतिविधि में दिखाई देगी — कैसे तुमने दोस्त बना रखे हैं, कैसी तुम नौकरी कर रहे हो, कहाँ खाते हो, कहाँ पीते हो, किनसे सम्बंधित हो, क्या पढ़ते हो। छोटे-बड़े दिनभर में जितने भी निर्णय करते हो, वो सब शामिल हैं उस कचोट के उत्पादन में।
उन सारी चीज़ों का समाधान करने को तैयार हो तो अध्यात्म है। क्योंकि अध्यात्म तो देखो तुम्हारे किसी एक काम या ज़िन्दगी के किसी एक हिस्से पर रौशनी नहीं डालेगा, अध्यात्म तो गंगा स्नान की तरह है, उसमें डुबकी लगाओगे तो कितने गीले होओगे, कहाँ-कहाँ गीले होओगे?
क्या ये शर्त रख पाओगे कि, "पूरे गीले हो जाएँ बस जाँघें गीली नहीं होनी चाहिए"? गंगा में तो डुबकी मरोगे तो नीचे से लेकर ऊपर तक गीला होना पड़ेगा, सब साफ़ होगा न। अध्यात्म भी वैसा ही है। वो सीधे केंद्र पर, सेंटर पर, जो कर्ता है न, जो सारे काम करता है, जो सारे निर्णय लेता है, वो सीधे उसपर सवाल खड़ा कर देता है।
अब तुम ये चाहो कि, "मेरे आधे काम तो सुरक्षित बने रहें और बाकी आधे कामों का ज़रा समाधान या सुधार हो जाए", तो ऐसा नहीं होने का। एक पूर्ण विरक्ति होनी चाहिए, *टोटल डिसइल्लयूज़नमेन्ट*। जिसमें तुम कहो कि, "कुछ भी ऐसा नहीं है जो मैं बचा कर रखना चाहता हूँ।"
ऊपर से लेकर नीचे तक एक भी ऐसा हिस्सा नहीं है जिसे मैं सूखा रखना चाहता हूँ। तब तो तुम्हारा गंगा स्नान हो पाएगा। वरना अगर कोई ये ज़िद लगाए बैठा हो कि, "मेरा घुटना गीला नहीं होना चाहिए", तो डुबकी मारना बड़ा मुश्किल है भई।
कह रहे हैं, "बाकी सबकुछ हो जाए, हम कोई शर्त नहीं रख रहे, बस साहब घुटना गीला नहीं होना चाहिए।"
बड़ा मुश्किल है। और याद रखना वहाँ कुछ तुम बाँध-बूँध कर नहीं डुबकी लगा सकते कि कहो कि, "घुटने पर कुछ बाँध लूँगा फिर कूद जाऊँगा।" आध्यात्म में तो नंगई चलती है, पूर्ण नग्नता।
कुछ भी बचाने की कोशिश मत करो। और समस्याओं के प्रकट होने का इंतज़ार मत करो। अपनी ईमानदारी को अपना दोस्त बनाओ। उससे पूछो — ये मैं क्या कर रहा हूँ? क्यों कर रहा हूँ? ये मैं क्या निर्णय ले रहा हूँ?
तुम्हारा जो सबसे अज़ीज़ दोस्त है, वो तुम्हारे भीतर ही बैठा है। उसी को ईमानदारी बोलते हैं। और वो तुमको जैसी सलाह देगा वैसी कोई नहीं दे सकता, ना ग्रंथ, ना गुरु।
ग्रंथ थोड़े ही न तुम्हें पछियाएगा देखने के लिए कि तुम क्या जी रहे हो क्या नहीं। और गुरु भी तुम्हारे सामने हर समय थोड़े ही बैठा होगा। तुम्हारी ईमानदारी तुम्हारे साथ है न, तुम उससे पूछा करो — "ये क्या चल रहा है भई? ये फ़ोन पर क्या बात कर रहा हूँ? क्या खा रहा हूँ? क्या ख़रीद रहा हूँ? कहाँ काम कर रहा हूँ? क्या कमा रहा हूँ? कहाँ खर्च रहा हूँ?"
यही अध्यात्म है।
उसके बाद वो सब कचोटने-वचोटने वाली चीज़ें खत्म हो जाएँगी। बड़ी कचोट पैदा हो जाएगी। छोटी-मोटी समस्याएँ जाएँगी।