प्रश्नकर्ता: माया की गति, आपने कहा, इतनी तेज़ है जैसे मक्खन में छुरी। हम समझ भी नहीं पाते और सब कुछ घट जाता है। तो फिर हम माया की गति कैसे कम करें ताकि हमको चुनाव का समय मिल जाए?
आचार्य प्रशांत: अच्छा हुआ मैंने कह दिया कि सवाल भेजिए अपने। नहीं तो क्या बोल रहा हूँ, क्या समझ रहे हैं।
अरे बाबा, माया की गति कम नहीं करनी है, अपनी अवस्था बदलनी है। अहंकार की यही निशानी है, वह अपने-आपको तो रखना चाहता है कायम – ‘मैं नहीं बदलूँगा'। वह सारा बदलाव कहाँ करना चाहता है? किसी दूसरे में। तुममें ही कुछ ऐसा होगा न कि माया आकर तुमको काट जाती है। तुम्हें अपने-आपमें बदलाव करने हैं। माया को कौन बदल सकता है?
माया क्या है?
तुम्हारी ही कमज़ोरियों का नाम है माया। तो जब तुम कहते हो कि, 'माया से मुझे लड़ना है', तो शायद तुम्हारा अंदाज़ा कुछ ऐसा होता है कि तुम्हें किसी बाहर वाले से लड़ना है, जबकि माया वास्तव में अगर तुम्हारी ही कमज़ोरी का नाम है, तो माया से लड़ने का असली अर्थ है स्वयं से लड़ना।
तो तुम कह रहे हो, “माया आकर हमें ऐसे काट जाती है जैसे मक्खन में छुरी, तो क्या करें?” बाबा, कटेगा तो वही न जो ठोस होगा। पानी को कौन काट सकता है? अहंकार ठोस होता है, जैसे ठंडा मक्खन। माया होती है गर्म छुरी। माया आकर झट से उसको काट जाती है। तुम ठोस रहो ही मत, तुम पिघल जाओ। मक्खन पिघला हुआ है तो कौनसी छुरी उसे काटेगी?
बोलो! बोलो पानी को डंडा काट सकता है? पिघले मक्खन को, कि घी को छुरी काट सकती है? पिघलने का अर्थ समझ रहे हो? ठोस नहीं रह जाना है, विरोध नहीं करना है। तुम कुछ हो, इसीलिए जीवन तुम पर तरह-तरह के प्रहार कर लेता है।
जो बिलकुल तरल हो गया, जो बिलकुल सरल हो गया, जीवन उस पर प्रहार नहीं कर सकता।
अच्छा एक डंडा उठाओ और हवा में भाँजो, बताओ हवा को कितनी चोट लगी? हवा को चोट क्यों नहीं लगी? क्योंकि हवा के पास अब कोई नाम, अस्तित्व, पहचान ही नहीं है, तो हवा तुम्हें किसी तरह का विरोध या रेज़िस्टेंस (प्रतिरोध) देती ही नहीं है। ज़ेन में इसको कहते हैं कि कील तो तब गड़ेगी न जब ठोस दीवार होगी। हवा में कील नहीं गाड़ सकते तुम। माया कील जैसी है, जिसे गड़ने के लिए तुम्हारी हस्ती की ठोस दीवार चाहिए और ठोस दीवार का ही मतलब है अहंकार।
ठोस दीवार का क्या मतलब है?
कि तुमने कुछ ठोस धारणाएँ बना रखी हैं, किन्हीं बातों पर तुम जम गए हो। जमना माने फ्रीज़ हो जाना। तुम्हारी ज़िंदगी में कोई फ्रोज़न कांसेप्ट (जमी हुई अवधारणा) है, कोई जमी हुई चीज़ है कि ऐसा तो होता ही है। 'यही बात सही है, मैं जानता हूँ यही ठीक है। मैं फलाना व्यक्ति हूँ, मैं ऐसा जीव हूँ।' यह सब हमारे जमने के लक्षण हैं, यह सब हमारे जमने के उद्गार हैं।
‘देखिए साहब, मैं तो बड़ा भला आदमी हूँ।’ यह तुमने कैसी बात कह दी? ठोस मक्खन जैसी बात कह दी। अभी माया की छुरी आएगी और तुम्हें काट देगी।
जिन भी लोगों को जिस भी बात पर भरोसा होता है वही चीज़ उनके जीवन में जमी हुई एक ठोस धारणा है। और यह जो ठोस धारणा है यह जीवन के आगे टिकेगी नहीं; इस पर प्रहार होंगे, फिर चोट लगती है।
पानी जैसे हो जाओ, हवा जैसे हो जाओ, चोट नहीं लगेगी। पानी को तो फिर भी थोड़ी चोट लग जाती है। पानी को डंडे से मारोगे तो फिर भी पानी एक क्षणांश के लिए इधर-उधर हो जाता है, बिखर सा जाता है, जैसे बीच से फट जाता हो। लेकिन हवा! और हवा भी हटा दो। बिलकुल ही अगर रिक्त स्थान कर दो वैक्यूम (निर्वात) जैसा, तो वहाँ तुम कुछ भी भाँजते रहो, किसी को धेला फ़र्क़ नहीं पड़ता।
तो माया का हम क्या करें, यह मत पूछा करो। यह याद रहेगा? दोहरा कर बोलूँ?
माया तुमसे बाहर की कोई शय नहीं है कि तुम बैठे-बैठे योजना बनाओ कि कल सुबह-सुबह माया को कैसे मात देनी है। जब तुम योजना बना रहे हो कि माया को कैसे मात देनी है तो माया तुम्हारे भीतर ही बैठ करके तुम्हारी सारी योजनाएँ पढ़ रही है, तुम पर हँस रही है। दूर थोड़े ही खड़ी है वह।
तुम ही जो बेवकूफ़ियाँ अपने भीतर लेकर घूम रहे हो उसका नाम है माया। तुम ही जो व्यर्थ की धारणाएँ और रिश्ते और मोह और मात्सर्य अपने भीतर लेकर घूम रहे हो उसी का नाम है माया। हमारी ही आँखों में यह जो बेहूदा आत्मविश्वास चढ़ा होता है इसका नाम है माया। यह जो हम सुनने, सीखने, समझने से इतना परहेज़ करते हैं, इसी का नाम है माया। यह जो हमारी कल्पनाएँ हैं; जो बिलकुल निरर्थक हैं पर जिनमें हमारा गहरा यक़ीन है, इन्हीं का नाम है माया।
और यह सब कहाँ वास करती हैं?
भीतर हमारे। तो माया से निपटना है तो ख़ुद से निपटो। कोई बाहर वाला नहीं है माया।