प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, अभी डर के बारे में बात हो रही थी, तो सबसे बड़ा जो डर है — मृत्यु का डर, इवन (यहॉं तक कि) मृत्यु से जुड़े हुए जो डर हैं, कुछ समय के बाद ईगो (अहम्) उसको भी को-ऑप्ट (अपनाना) कर लेता है, मान्यता टाइप का कुछ न कुछ बन जाता है। तो ऐसा भी तो नहीं होता कि डर कंटीन्यूअस (लगातार) है।
आचार्य प्रशांत: नहीं, मृत्यु का डर नहीं होता हमको, इसको समझना गौर से, अपूर्ण मृत्यु का डर होता है हमें। मौत से हम इसलिए घबराते हैं क्योंकि अधूरे हैं। जीवन अधूरा है इसलिए मौत डरावनी है। मौत अगर इतनी ही डरावनी चीज़ होती तो बहुतों ने जानते-बूझते, सब समझते मौत का वरण क्यों कर लिया होता !
मौत नहीं मुद्दा है, पूर्णता मुद्दा है। मौत तो ऐसा है जैसे घंटी का बजना — घंटी बज गई, समय पूरा हुआ। घंटी नहीं डरावनी है, समय का सदुपयोग नहीं किया तब घंटी डरावनी हो जाती है। कि जैसे कोई मेहमान आने वाला है और उसके लिए तुमको तैयारी कर के रखनी है। घर को सजाना है, संवारना है, गंदगी को बाहर फेंकना है। और तुमको पता है वो आएगा शाम को छः बजे और पूरा दिन तुम क्या करते रहे — सोते रहे।
अब बजी घंटी छः बजे, जो आया है उसने अपना भैंसा पार्क (स्थापित करना) कर दिया है। (श्रोतागण हॅंसते हैं) मेरी उससे बड़ी दोस्ती है। अक्सर मिलता है भैंसे वाला! अब ये घंटी भी बज रही है (बाहर बजती हुई घंटी की ओर इशारा करते हुए) तो वही दिख रहा है। तो उसने भैंसा पार्क कर दिया और घंटी बजा दी। अब तुम्हारी हालत क्या होगी? काँपने लगोगे।
घंटी में डर निहित है या दिन की बर्बादी में? दिन बर्बाद मत करो, घंटी में कोई डर नहीं है। दिन का सदुपयोग किया है तो शाम की घंटी सुहानी लगेगी, हॅंसते हुए दरवाज़ा खोलोगे – 'आइए, स्वागत है!' और आने में बल्कि वो देर कर दे तो उलाहना दोगे। कहोगे, 'अच्छा! हम तो राह देख रहे थे, भैंसा बदलिए! पुराना हो गया है ये अब। फास्टर वर्ज़न (तेज़ संस्करण) आ चुका है।'
समझ में आ रही है बात?
सही ज़िंदगी जियो, मौत परेशान नहीं करेगी। मौत परेशान करती है तो ये इशारा है इस बात का कि जीवन में खोट है।
मैं ये नहीं कह रहा कि मृत्यु फिर बड़ा प्यारा और आकर्षक विचार बन जाएगा। मैं कह रहा हूँ मृत्यु का विचार अमहत्त्वपूर्ण हो जाएगा, अप्रासंगिक हो जाएगा। व्यर्थ विचारों के लिए तुम्हारे पास जगह ही नहीं बचेगी। तुम इतने ध्यानस्थ रहोगे, सम्यक-कर्म में इतने रत रहोगे कि इधर-उधर के विचार आऍंगे ही नहीं। और जो विचार आऍंगे उनमें मृत्यु का विचार होगा ही नहीं। मृत्यु तुम्हारे लिया मुद्दा ही नहीं रहेगा, नॉन-इश्यू (ग़ैर-ज़रूरी) हो जाएगा।
प्र: तो आचार्य जी ये डर मन में रहे या न रहे?
आचार्य: ये अपने हाथ की बात नहीं है कि डर मन में रहे या न रहे। ज़िंदगी अगर सही जा रही है तो स्वयमेव ही वो डर नहीं रहेगा। ज़िंदगी नहीं सही जा रही, तो वो डर रहेगा ही रहेगा।
सही ज़िंदगी क्या है? जो अपनी अपूर्णताओं को पोषण न दे! जो अपनी अपूर्णताओं को पोषण न दे। इसी तरीक़े से एक डर होता है किसी और की मृत्यु का डर। कोई है जीवन में जो चला न जाए। वो डर भी समझ लीजिए कि इसीलिए होता है क्योंकि अपूर्णता है। जैसे अपनी मृत्यु का डर होता है इसलिए कि अपनी ज़िंदगी में अपूर्णता है, दूसरे की मृत्यु का डर होता है क्योंकि रिश्ते में अपूर्णता है। रिश्ता जो हो सकता था, जो होना चाहिए था, वो हुआ नहीं। तो अब घबराते हो कि कहीं घंटी न बज जाए!
समय इसीलिए मिलता है कि जो अपूर्णता की ग्रंथि लेकर पैदा हुआ है वो उस ग्रंथि का विगलन कर पाए, अपूर्णता के पार निकल जाए। इसलिए समय मिलता है, जीवन इसलिए मिलता है। उस जीवन का सही सदुपयोग करो तो मौत बिलकुल छोटी चीज़ हो जाएगी और ग़लत उपयोग करोगे तो ज़िंदगी में मौत ही मौत भर जाएगी।
दूसरों के चले जाने पर भी जो रोते हो न, वो इसलिए कम रोते हो कि वो चला गया, इसलिए ज़्यादा रोते हो कि उसके रहते जो संभावना थी उस संभावना के साथ तुमने न्याय नहीं किया। जब तक वो था तब तक उसके साथ वैसे नहीं जिए जैसे जीना चाहिए था। तो फिर उसके जाने पर हाथ मलते हो कि अवसर बीत गया। संभावना मिली थी, संभावना का हम सदुपयोग नहीं कर पाए।
एक वीडियो है पांच-सात साल पहले का, उसका शीर्षक है – मौत नहीं, अनजिया जीवन सताता है।
YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=zCGYhpY5xtw