प्रश्नकर्ता: आपके वीडियोज़ देख कर समझ आ गया है कि अगर निर्भरता न हो तो डर नहीं आता। किसी भी उपलब्धि को गंभीरता से ना लिया जाए तो डर नहीं होता और डर हटाने के बाद मन को कुछ अच्छा देना होता है। यह छोटे-मोटे डर को पार करना आसान है। जिस तरह चल रहे हैं विश्वास है कि इनके पार चले जाएँगे पर देह के खत्म होने का जो डर है उससे पार पाने का कोई लाभ, कोई अंदाज़ा मुझे अभी तक मालूम नहीं हो रहा है। अगर कोई गुंडा मारने आए तो तुरंत डर लगेगा, यह बात तो होनी ही है। तो आचार्य जी, क्या शरीर के ख़त्म होने के साथ जो डर जुड़ा हुआ है उसमें भी निर्भरता और लाभ है?
आचार्य प्रशांत: मौत के डर के बारे में कुछ बातें थोड़ा समझते हैं। मौत तो एक अंत है जिसके पार का कुछ पता नहीं। उसके पार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उसके पार का कुछ पता हो ही नहीं सकता, अकल्प है। तो मौत के बाद क्या होना है निश्चित रूप से वह बात हमें डरा नहीं सकती क्योंकि उसकी तो हमें कल्पना ही नहीं हो सकती। डरने के लिए कोई कल्पना, कोई धारणा, कोई छवि, कुछ तो चाहिए न? कोई किस्सा, ख़्याल, कहानी कोई तो चाहिए जिस बात से डरोगे?
कोई बात तो चाहिए न डरने के लिए, मौत के बाद तो कोई बात ही नहीं है तो डर नहीं सकते। डरना असंभव है। तकनीकि रूप से असंभव है। आपको यह बता दिया जाए कि इस दरवाज़े को खोलकर बाहर जाओगे तो शेर है तो इस दरवाज़े से बाहर जाने से आप डरोगे। मौत वह दरवाज़ा है जिसके बाहर क्या है इसकी कोई कल्पना ही नहीं हो सकती तो फिर डर कैसे सकते हो? और अगर मौत के बाहर, मौत के दरवाज़े से बाहर निकलने के बाद की फ़िक्र करके डर हो रहा है तो इसका मतलब मौत के बाद की कुछ कल्पना इत्यादि होगी, किसी ने कह दिया होगा कि नर्क चले जाओगे, सड़ोगे, मरोगे तो उस बात से डर रहे होओगे। वह एक छोटा डर है। वह वहम है, उसकी मैं बात नहीं करना चाहता। अगर कोई यह कह रहा है कि, "मुझे तो डर यह है कि मुझे दोज़ख मिलेगी कि नर्क मिलेगा या मेरे कर्मों का लेखा माँगा जाएगा", तो मैं उस सबकी बात करना नहीं चाहता।
लेकिन मृत्यु का डर सभी कहते हैं कि उन्हें अनुभव होता है। बड़ी साधारण चीज़ है। हर आदमी मौत से घबराता है और मैं कह रहा हूँ मौत के बाद जो है उससे डरा जा नहीं सकता। तो फिर हम डर किससे रहे हैं? क्योंकि डर तो है, हर आदमी डरा हुआ है, चेहरे पर हवाइयाँ उड़ी हुई हैं, हम यह नहीं कह सकते कि डर नहीं है। किसी से बोल दो कि मौत आ रही है फिर उसका चेहरा देखो। तो डर तो है और यह बात भी पक्की है कि जो यह डर है इसका संबंध मौत के बाद के किसी समय या स्थान से नहीं हो सकता, मौत का अर्थ ही है कि ना समय बचा ना स्थान बचा। इन दोनों बातों को एकसाथ जोड़कर देखें तो देखें कैसे, क्या सामने आता है?
मौत का डर सबको है; पहली बात। मौत के बाद जो है उसका डर हो नहीं सकता तो फिर डर किसका है? क्योंकि डर तो है, किसका है? डर किसका है? जो मौत से पहले चल रहा है डर उसका है। यह जो जीवन चल रहा है न इसके अंत का डर है। यह जो जीवन चल रहा है, जैसा हमने अभी कहा, हमें इसके अंत का डर है।
अब दो चीज़ों के अंत का डर हमारी समझ में आ सकता है आसानी से। एक तो यह कि चीज़ इतनी ख़ूबसूरत हो, इतनी आनंदप्रद हो कि हम डरते हों कहीं ख़त्म ना हो जाए। और दूसरा — यह परीक्षा है जिसमें समय थोड़ा सा ही मिला हुआ है और हम डरते हैं कि कहीं वक़्त ना बीत जाए, कहीं समय कम ना पड़ जाए। बोलिए दोनों में से कौन सी बात है?
आप यह भी कह सकते हैं कि, "मैं जीवन के अंत से इसलिए डरता हूँ क्योंकि मेरा जीवन तो पुष्प वाटिका जैसा है, मैं भँवरा, फूल-ही-फूल हैं मेरे जीवन में। और मैं करता ही कुछ नहीं, मैं बस रस का सेवन करता हूँ।" ऐसा जीवन जिन-जिन का हो वो ज़रा हाथ खड़े करें। जो जीवन की पुष्प-वाटिका के भ्रमर हो लोग, भाई! वो हाथ खड़े कर दें। कभी यह फूल, कभी वह फूल, कभी गेंदा कभी गुलाब। किस-किस का ऐसा जीवन है?
(कोई हाथ खड़ा नहीं करता)
तो ऐसा तो है नहीं कि हमारा जीवन इतना लबरेज़ है उन्मुक्तता से और आनंद से कि हम कह रहे हैं कहीं यह बीत ना जाए। वास्तव में अगर इतना सुंदर होता हमारा जीवन तो हमें फिर उसके बीतने की फ़िक्र ही नहीं होती। सौंदर्य का एक अनिवार्य लक्षण जानते हैं? सौंदर्य आपको तत्क्षण मृत्यु के लिए तैयार कर देता है। यह सुनने में बात अजीब लगेगी लेकिन सौंदर्य जितना गहरा होगा वह आपको मिटने के लिए उतना तैयार कर देगा। आपके भीतर से मिटने का भय हटा देगा।
तो अगर हम मृत्यु से घबरा रहे हैं तो इसलिए नहीं कि हमारे जीवन में सौंदर्य और आनंद बहुत है। हम मृत्यु से इसलिए घबरा रहे हैं क्योंकि बहुत बड़ा एक काम है जो लंबित पड़ा हुआ है, पेंडिंग पड़ा हुआ है। काम बड़ा है, समय थोड़ा है और उसपर किसी ने आकर के हमें और घबरा दिया, चेतावनी दे दी, क्या चेतावनी दे दी? "वह आ रहा है, भैंसे वाला।" कि जैसे कोई परीक्षा भवन हो और आपके सामने परीक्षा-पत्र है, ज़्यादा आपको कुछ वैसे ही समझ में नहीं आ रहा, तैयारी करी नहीं है, उत्तर लिखने में भी आलस दिखाया है और यह भी पता है कि परीक्षा उत्तीर्ण करना बहुत ज़रूरी है और पीछे वाला तभी फुसफुसा दे — समय ख़त्म हो रहा है और तेरा पर्चा छीनने वह परीक्षक आ रहा है, तो दिल धक से हो जाएगा न? हम इसलिए डरते हैं मौत से।
जीवन एक परीक्षा है जिसे उत्तीर्ण करना ज़रूरी है। प्रश्न-पत्र का नाम है संसार, उत्तीर्ण होने पर डिग्री मिलती है मुक्ति की, और जो अनुत्तीर्ण रह गए, फिसड्डी, फेल हो गए उनको सज़ा क्या मिलती है? दोबारा लिखो परीक्षा, आप कृपया साल दोहराएँ। इसी को हिंदुस्तान ने सदा कहा आवागमन का चक्र। कि बेटा अगर ठीक से नहीं जीओगे तो यही-यही परीक्षाएँ दोबारा देनी पड़ेंगी और यह भी हो सकता है कि देख लिया जाए कि ये परीक्षा दे रहे थे बारहवीं की और अंक इनके जो आए हैं, परीक्षा-पत्र में इन्होंने जिस तरीके के उत्तर लिखे हैं इससे यह साबित हो जाता है कि यह बारहवीं की परीक्षा अगले साल भी देने लायक नहीं हैं, इस साल तो उत्तीर्ण नहीं ही हो रहे, अगले साल भी इन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए बारहवीं की परीक्षा देने से। तो इनको सादर-सम्मान के साथ भेजा जाता है कक्षा आठ में। आप यह पूरा वर्ष दोहराएँगे और बारहवीं में नहीं अब कक्षा आठ में दोहराएँगे। जाइए पहले कक्षा आठ की परीक्षा उत्तीर्ण करिए, धीरे-धीरे करके बारहवीं की ओर आइए फिर बारहवीं दोहरने का मौका मिलेगा।
बारहवीं में थे तो इंसान कहलाते थे, कक्षा आठ में हैं तो कुत्ते बनकर पैदा होंगे। यह सब प्रतीक हैं पर हिंदुस्तान में बहुत समय से चले हैं। इसी को कहा गया है कि घटिया काम करेगा तो कौवा बन जाएगा, कुत्ता बन जाएगा। मतलब समझ रहे हो न? कि यही नहीं होगा कि पदोन्नति नहीं होगी, जिस पद पर हो वह पद भी छीना जा सकता है। इसलिए हम घबराते हैं।
पैदा हुए थे परीक्षा देने के लिए और ज़िन्दगी काट दी मटरगश्ती में। जो लोग इस तरह के विद्यार्थी रहे हों वो खूब समझ रहे होंगे मैं क्या कह रहा हूँ। जब साल भर मौज मारी हो और फिर जब परीक्षाएँ सामने आई हों तो कैसा लगता है? और भैंसे वाले का सिस्टम ऐसा है कि नकल चलती नहीं वहाँ। कि तुम कहो आगे-पीछे वाले से पूछ लेंगे, वहाँ यह सब चलता ही नहीं।
वहाँ तो खरी-खरी जाँच होती है बिलकुल। एक-एक नम्बर नाप-तोल कर रखा जाता है। कोई चित्रगुप्त नाम का है वह यह सब करता है काम। उसको पूरी मर्किंग स्कीम पता है — इस बात पर इतने नम्बर रखने हैं, इस बात पर इतने नम्बर रखने हैं। ग्रेस (कृपांक) का वहाँ कोई प्रावधान ही नहीं है। वह कहते हैं कि जितनी ग्रेस तुम्हें चाहिए थी वह तुम्हें जीते जी उपलब्ध थी, जितनी ग्रेस तुम्हें चाहिए थी वह तुम्हें परीक्षा से पहले उपलब्ध थी। तब उसका फायदा क्यों नहीं उठाया? तो वहाँ ग्रेस मिलती है, ग्रेस मार्क्स नहीं मिलते। हमें ग्रेस नहीं चाहिए होती, हमें क्या चाहिए होता है? *ग्रेस मार्क्स*।
हमें अनुकम्पा नहीं चाहिए, हमें अनुकम्पा अंक चाहिए होते हैं। वहाँ मिलती नहीं तो हम थर्राए घूम रहे हैं, हर आदमी मृत्यु से डर रहा है क्योंकि हर आदमी ग़लत, घटिया और अपूर्ण जीवन जी रहा है। तुम सही जीवन जी रहे हो कि ग़लत जीवन जी रहे हो यह इसी से पता कर लेना कि भीतर मृत्यु का ख़ौफ़ कितना है। जो सही जी रहा है वह किसी भी पल परीक्षा देने के लिए तैयार हो जाएगा। जैसे अच्छे विद्यार्थी होते हैं, आज का पाठ आज ही पढ़ लिया। बोलो, परीक्षा देनी है अभी, अभी देंगे। और घटिया विद्यार्थी, वह आज का पाठ आज से दो महीने बाद भी ना पढ़ें। उनको तो जब भी कहा जाए परीक्षा के लिए, उनके पसीने छूटने तय हैं। जो रोज़ पाठ पढ़ता ही चल रहा है उससे तुम कभी भी बोलो परीक्षा आ रही है वह क्या बोलेगा? "स्वागत है।"
जो सही जीवन जी रहा है उससे तुम कभी भी बोलो मौत आ रही है, क्या बोलेगा वह? "स्वागत है।" वह कहेगा, "हमारे पास करने के लिए कुछ बचा ही नहीं है तो हम और समय माँगे क्यों? और समय तो वह माँगते हैं जिनके कुछ काम अधूरे पड़े होते हैं। हम जीवन पूरा जी रहे हैं, कुछ अधूरा है नहीं। बोलो अभी प्रस्थान करना है, अभी करते हैं। कहाँ चलना है? बोलिए, अभी चलते हैं।"
हमारे काम अधूरे पड़े हैं, जल्दी निबटाइए। कौनसे काम? यह काम नहीं कि घर पर एक मंज़िल और खड़ी करनी है, दूसरा काम। 'दूसरे' काम भी नहीं, 'दूसरा' काम। एक ही काम है। वह एक काम नहीं करा तो बाकी जितने काम किए हैं वह सब बेकार, बर्बाद हैं। जीवन, धन, संसाधन, ध्यान, सब की बरबादी। उस एक काम की तरफ ध्यान दीजिए। कबीर साहब तो बार-बार एक ही बात बोलते हैं — कर लो जो करना है, जब जमपुर की तरफ चलोगे तब पछताओगे। ग़लत जीवन की सज़ा ही यही है जमपुर बहुत सताएगा और जमपुर ऐसे ही नहीं सताता कि तुम्हें यह ख़्याल आए कि मर गए हो और पड़े हुए हो और कोई पूछने वाला नहीं है इत्यादि-इत्यादि। जितने भय होते हैं जीवन के वह सब यमलोक के ही भय होते हैं। जितने डर हैं जीवन में वह सब मिटने के ही डर हैं, कुछ नहीं रहेगा इसी बात के डर हैं।
तो समझ लो कि जितने डर हैं वह एक तरह से मौत के ही डर हैं। ग़लत जीवन का फिर चिन्ह ही हुआ — एक डरा हुआ जीवन। जिस जीवन में डर मौजूद है वही जीवन जान लो कि ग़लत जा रहा है। जीवन सही जा रहा हो तो काहे को डरोगे? जीवन का जो मूल काम है उसको निबटाओ, जल्दी-से-जल्दी निबटाओ। उसके बाद जो समय मिलता है वह मौज के लिए होता है। हुआ है कभी ऐसा कि तीन घण्टे का पर्चा सवा-दो घण्टे में निबटा दिया और पता है कि सब ठीक किया है बिलकुल, तैयारी बढ़िया थी, पर्चा बहुत आसान लग रहा था, सब निबटा दिया। बाकि पैंतालीस मिनट क्या करते हो? कुछ नहीं, साक्षी की तरह देखते हैं दुनिया को।
यह सब बेवकूफ़ — कोई रो रहा है, कोई चिल्ला रहा है, कोई घबरा रहा है, कोई काँप रहा है। खिड़की के बाहर देखते हो वहाँ घास है, गाय-भैंस चर रही हैं। परीक्षक को देखते हो, वह भन्ना रहा है, तुम मौज में बैठे हुए हो, "हमारा हो गया।" इसे कहते हैं जीवन-मुक्त। यह जीते हुए ही जीवन से मुक्त हो गया। जी रहा है पर इसे अब ज़िंदगी से कुछ लेना-देना नहीं, इसने अपना पर्चा पूरा कर दिया, काम हो गया। अब यह कह रहा है कि, "मुझे समय दे दोगे तो बैठा रहूँगा, अभी उठा दो अभी चल दूँगा, ना उठाओ तो घण्टे भर बैठे रहेंगे। हमें कोई दूसरा काम है कहाँ कि हम कहें कि उठा दो, कि ना उठाओ, अब तो हम जहाँ हैं जैसे हैं मस्त हैं, जीवन-मुक्त हैं अब हम।"
जीवन-मुक्ति को ही भारत ने सबसे बड़ा आदर्श माना। दुनिया को भी भारत ने जो ऊँची-से-ऊँची चीज़ सिखाई है उसका नाम जीवन-मुक्ति है। यह नहीं कहा कि मर जाओगे तो स्वर्ग में जाकर मुक्ति मिलेगी, यह बात बहुत जगह बोली गई कि मर जाओगे उसके बाद कहीं और जाओगे तो मुक्ति मिल जाएगी। भारत ने कहा मरने की ज़रूरत ही नहीं, तुम जीते जी मुक्त हो सकते हो और वही धर्म है तुम्हारा। इसके अलावा तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं कि तुम जीते जी मुक्ति पाओ।