प्रश्न: मनुस्मृति से संबंधित सवाल पूछा गया है।
नात्ता दुष्यत्यदन्नाद्यान्प्राणिनोऽहन्यहन्यपि । धात्रैव सृष्टा ह्याद्याश्च प्राणिनोऽत्तार एव च । ।
“भक्षण करने योग्य प्राणियों को प्रतिदिन खाने वाला किसी दोष से ग्रस्त नहीं होता;क्योंकि इस लोक में खाने वालों और खाए जाने वाले लोगों की रचना ब्रह्मा जी ने ही की है।“ (मनुस्मृति अध्याय ५, श्लोक ३०)
(प्रश्न मूल रूप से अग्रेंजी में है— ‘इट इज़ नॉट सिनफुल टू इट दी मीट ऑफ़ ईटबल ऐनमल्स, फ़ॉर ब्रह्मा हैज़ क्रीऐट बोथ दी इटर्स एंड दी इटबल्स।‘)
आचार्य प्रशांत: तुमने एक ही काहे को अनुराग श्लोक भेजा और भी हैं।
उसके आगे भी हैं—
यज्ञाय जग्धिर्मांसस्येत्येष दैवो विधिः स्मृतः । अतोऽन्यथा प्रवृत्तिस्तु राक्षसो विधिरुच्यते ।
(अध्याय ५, श्लोक ३१)
“यज्ञ के लिए पशुओं का वध और उनका माँस भक्षण करना देवोचित कार्य है। फिर लिखा है, यज्ञ के अतिरिक्त केवल मांस भक्षण के लिए पशुवध करना राक्षसी कर्म है।“ फिर लिखा है—
क्रीत्वा स्वयं वाप्युत्पाद्य परोपकृतं एव वा । देवान्पितॄंश्चार्चयित्वा खादन्मांसं न दुष्यति।।
(अध्याय ५, श्लोक ३२)
फिर लिखा है— “खरीद कर लाए गए, स्वयं मार कर लाए गए या किसी दूसरे द्वारा पशुवध कर लाए गए मांस से देवताओं और पितरों का पूजन करने वाला और उस मांस को खाने वाला व्यक्ति किसी दोष से ग्रस्त नहीं होता है।“
तो एक ही नहीं ऐसे अनेक श्लोक हैं, कुछ बातें समझ लो धर्म के बारे में। वैदिक धर्म है तुम्हारा। वैदिक धर्म। ठीक है।
स्मृतियाँ, पुराण, इतिहास ग्रंथ यह सब दूसरे दर्जे की पुस्तकें हैं, पहले दर्जे की नहीं; क्योंकि तुम्हारा धर्म वैदिक है। उसके केंद्र में बैठे हुए हैं— वेद चार। और उन वेदों के भी केंद्र पर या उनके शिखर पर कौन बैठा हुआ है— उपनिषद। अच्छे से समझ लो।
तो आपके पास, आप सनातनी है, हिंदू हैं, आपने मनुस्मृति से सवाल पूछा है मिश्रा जी; आपके पास बहुत सारे ग्रंथ हो गए हैं अब, क्यों? क्योंकि कुछ नहीं तो कम से कम इतिहास की की दृष्टि से देखें तो पाँच हज़ार वर्ष पुरानी तो धारा तो है ही आपकी धार्मिक। (दोहराते हैं) कम से कम पाँच हज़ार साल पुरानी। ईसा के दो हज़ार साल इधर और तीन हज़ार साल पीछे ले लो; पाँच हज़ार साल। अब पाँच हज़ार साल में बताओ कितनी किताबें लिखी गई होंगी? वह भी बड़ी विविधता के साथ; क्योंकि किसी तरीके का स्टैंडर्डाइजेशन (मानकीकरण) बड़ा मुश्किल था, संभव नहीं था!
रचनाकारों का, ऋषियों का एक समूह है जो उधर हिंदू कुश की पहाड़ियों पर बैठा हुआ है, अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान की तरफ़। और ऋषियों का ही एक दूसरा समूह है जो वाराणसी के निकट कहीं पर बैठा हुआ और दोनों अपने-अपने क्षेत्र में, अपने-अपने काल में रचना कार्य कर रहे हैं। उन्होंने वहाँ बैठकर कुछ बनाए इन्होंने यहाँ बैठकर कुछ बनाया और यह काम पाँच हज़ार सालों तक चला है।
आपको क्या लग रहा है जितनी आपकी किताबें हैं, ग्रंथ हैं यह सब एकदम प्राचीन पुरातन हैं? नहीं साहब! इनमें से कुछ तो ऐसे जो भी बस पाँच सौ साल या हज़ार साल या बारह सौ साल पुराने भी हैं और कुछ हैं जो साढ़े चार साल पुराने हैं। इतिहासविदों की दृष्टि से पूछें तो ऋग्वेद सबसे पुराना है। ऋग्वेद चार हज़ार से पाँच हज़ार साल भी पुराना हो सकता है।
आप अगर धार्मिक लोगों के पास जाएँगे तो वह तो कह देंगे— ‘ऋग्वेद एक लाख साल पुराना है’। कोई कह देगा कि— समय में गिनती ही नहीं हो सकती। वो तो जिस दिन समय शुरू हुआ था उसी दिन ब्रह्मा जी ने ऋग्वेद का उच्चारण कर दिया था। वो सब बात नहीं कर रहा हूँ।
मैं सीधी-सीधी ऐतिहासिक तथ्यपरक फैक्च्यूअल बात कर रहा हूँ। तो आपका ही एक ग्रंथ है जो साढ़े चार हज़ार साल पुराना है और एक ग्रंथ है जो मुश्किल से हज़ार साल पुराना भी नहीं है, जैसे— हठयोग प्रदीपिका। आपका ही एक ग्रंथ है जो अभी एकदम नया-नया है, पाँच सौ से हज़ार साल साल पुराना है। तो इनमे बहुत अधिक अंतर है। सबको एक बराबर मत मान लिया करो। यह अलग-अलग स्तर के हैं भाई! और स्तरों में सबसे ऊँचा किसका है, वह समझो मिश्रा जी। सबसे ऊँचा स्तर है; वेदों का। इतना तो जानते हो न कि हिंदुओं की शीर्ष ग्रंथ वेद कहलाते हैं और वेदों ने ही स्वयं कह दिया कि वेदों में भी सबसे ऊँचा स्थान है— वेदांत का, इसलिए उसे वेदांत कहते हैं। वेद भी जहाँ जाकर रुक जाते हैं। अंत का मतलब होता है सबसे ऊँची जगह, आखिरी जगह, शिखर, शीर्ष। जब इतने स्तर की जब किताबें हों तब जो बात वेदांत कह रहा है सिर्फ़ उसको प्रामाणिक मानो।
ख़ासतौर पर वहाँ पर जहाँ वेदांत की कही हुई बात में और किसी स्मृति की कही हुई बात में या किसी इतिहासग्रंथ की कही गई बात में या किसी पुराण वगैरह में जहाँ आपको कोई भेद याकन्ट्राडिक्शन दिखाई दे तुरंत आपको वरीयता, श्रेष्ठता किसको देनी है? उपनिषद को देनी है।
पुराण सौ तरह की बातें बोलते हैं, किस्से-कहानियाँ। उनकी कोई बात जैसे ही उपनिषदों की यानी वेदांत की किसी बात से जैसे ही आपको टकराती हुई कान्फ्लिक्टिंग प्रतीत हो, विरोध में प्रतीत हो, तुरंत किस बात को ख़ारिज कर देना?(डिस्मिस) कर देना है— जो पौराणिक बात उसे तुरंत छोड़ दीजिए।
इसी तरीक़े से मनुस्मृति हो या और भी बहुत स्मृतियाँ हैं, इनकी बहुत सारी बातें हैं जो वेदांत से मेल नहीं खाती। जहाँ आपको स्मृतियों में और उपनिषदों में कोई असंगति दिखाई दे, वहाँ आपको तुरंत किसकी बात माननी है—उपनिषदों की बात माननी है और किसकी बात ख़ारिज कर देनी है, नकार देनी है बिलकुल— यह स्मृति आदि की बात आपको तुरंत छोड़ देनी है; क्योंकि इतनी सारी किताबें हैं, किसकी-किसकी बात मानते रहेंगे। कोई एक केंद्रीय ग्रंथ भी तो होना चाहिए न।
पहली बात तो यह समझिए कि ग्रंथों के अलग-अलग स्तर हैं। निचले स्तर के ग्रंथों में चिपक के उलझ कर मत रह जाइए। मनुष्य की चेतना ने जो ऊँचे से ऊँचे ग्रंथ पैदा किए उनका नाम उपनिषद है। अगर आप स्वयं को हिंदू या सनातनी बोलते हैं तो आपके केंद्रीय ग्रंथ उपनिषद हैं। इसलिए इतने सालों से मैं उपनिषद पढ़ा रहा हूँ। मनुस्मृति थोड़ी पढ़ाता हूँ।
तो यह मैंने आपको पहली सिद्धांत की बात कही; क्योंकि अलग-अलग स्तर लेवल हैं, तो इसलिए जो सबसे ऊँची बात है वह जब भी किसी निचली बात से टकराए तो उसे तुरंत खारिज़ कर देना।
जैसे— आपकी न्यायपालिका जूडिशीएरी होती है, सुप्रीम कोर्ट होता है, हाई कोर्ट होता है और फिर तमाम तरीक़े के (लोअर कोर्ट्स ) निचली अदालतें होते हैं। नीचे वाले कोर्ट ने कुछ कहा और हाईकोर्ट ने कुछ कहा, इनमें से किस की बात मानी जाएगी? हाईकोर्ट की उच्च न्यायालय की बात मानी जाएगी न।
और फिर उच्च न्यायालय ने कुछ कहा और वो चीज़ भी उच्चत्तम न्यायालय से जाकर के भेद में या विरोध में या असंगति में हो गई तो किसकी बात मानी जाएगी? उच्चत्तम कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट की। और सुप्रीम कोर्ट की भी एक छोटी बेंच है मान लो उसमें चार ही जज थे और एक दूसरी दूसरी बेंच है, उसमें आठ जज थे तो किसकी बात मानी जाएगी? आठ जजों की बेंच की बात मानी जाएगी।
तो स्तर होते हैं कि किसकी बात मानी जानी चाहिए। और सुप्रीम कोर्ट की भी बात को भी अंतत: काटने का अधिकार कौन रखता है? राष्ट्रपति। और जो बात राष्ट्रपति ने बोल दी तो सुप्रीम कोर्ट भी नीचे है। समझ में आ रही है बात। उपनिषद समझ लो सबसे ऊपर बैठे हैं उनके खिलाफ़ कोई भी ग्रंथ अगर कुछ बोलता हो तो वह बात तत्काल अमान्य हो जाती है। डिस्मिस, ख़ारिज, ख़त्म। तुमने वेदांत के ख़िलाफ़ कैसे बोल दिया? ये बात समझ में आ रही है?
यह पहली बात थी अब दूसरी बात ध्यान से सुनो, यह जो नीचे वाले जितने भी ग्रंथ हैं, इनको अगर समझना है तो ऊपर वाले ग्रंथ की रोशनी में समझना होगा। पुराणों में बहुत कहानियाँ हैं। पर वह तुम्हें समझ में तभी आएँगी जब तुमने पहले उपनिषद समझ लिए हों, लेकिन पुराण में किस्से कहानी हैं, बड़ा मजा आता है, बैठकर कथाकार वहाँ किस्सा बताते हैं; ‘तो फिर भगवान ने कहा कि भगवान का आँसू जाकर सीधा उनके अँगूठे पर गिरा और वहाँ नीचे लोग बैठे हुए हैं, बढ़िया मजा आ रहा है, पौराणिक कहानियाँ सुनाई जा रही है, मजा आ रहा है।‘
उन कहानियों का प्रतीकात्मक अर्थ क्या है? यह कोई नहीं बताता आपको? आपकी बुद्धि पर ज़ोर पड़े ऐसा काम कोई करता नहीं तो आपने हिंदू धर्म का मतलब ही यही किस्सा-कहानी बना दिया है, जबकि हर उस किस्से का, हर उस आख्यान का अर्थ बहुत दूर तक जाता है, वह अर्थ तब तक समझ में नहीं आया, जब तक आपने उपनिषद नहीं पढ़े, यह दूसरा सिद्धांत।
पहला सिद्धांत क्या था? निचले स्तर के ग्रंथों और ऊपरी स्तर के ग्रंथों में जहाँ भी कन्फ्लिक्ट (विरोधाभास) देखो नीचे वाली बात को हटा देना; क्योंकि नीचे वाली बात हमने कहा— पाँच हज़ार साल पुराना आपका प्रवाह है। इतनी सारी बातें बोली गईं किन-किन बातों को मान्यता देते रहेंगे और बहुत प्राकृतिक-सी बात है कि जब इतने बड़े क्षेत्र में, उधर बर्मा से लेकर उधर अफगानिस्तान तक, उधर कश्मीर से लेकर नीचे कन्याकुमारी-लंका तक सृजन होता रहा, निर्माण होता रहा ग्रंथों का तो ज़ाहिर सी बात है कितने अलग-अलग तरीके की बातें बोली जाएँगी। उनमें से हमें उस बात को केंद्र पर रखना है, सर-माथे रखना है जो शीर्ष है। और वेदों में भी बहुत हिस्से हैं, वेदों में संहिता है, वेदों में आरण्य है, वेदों में ब्राह्मण है।
हमें वेदों में भी शीर्ष पर किसको रखना है? कर्मकांड को नहीं, मीमांशा को नहीं, उपनिषद को, वेदांत को। तो वेदों को भी लेकर मेरे पास मत चले आना कि आचार्य जी देखिए वेद में भी तो ऐसा लिखा है न अथर्वेद में जादू-टोना लिखा है आप वेद-वेद कह रहे थे तो फिर जादू-टोना मानना पड़ेगा। नहीं,नहीं,नहीं,नहीं। वेदांत, वेदांत।
अगर संहिता में लिखी बात अगर मंत्रों में कहीं कोई बात उपनिषदों से मेल नहीं खाती तो वेदों के मंत्रों को भी हमें खारिज़ करना पड़ेगा, क्योंकि वेदों ने स्वयं कहा है— कि वेदों का शीर्ष उपनिषद् है। हमें उपनिषदों को मानना है, जादू-टोना नहीं मानना है। क्यों नहीं मानना है, क्योंकि उपनिषद जादू-टोना नहीं मानते, ख़ारिज करते हैं।
भारतीय दर्शन को अगर विश्व में सम्मान मिला है तो उपनिषदों के कारण मिला है। गीता से भी ज़्यादा उपनिषदों से, सांख्य योग से भी ज्यादा उपनिषदों से। मेरे लिए बड़े दुख की बात है कि आम हिंदू का दर्शन से कोई संबंध ही नहीं।
जब धर्म और दर्शन अलग-अलग हो जाते हैं तो धर्म बस एक हास्यास्पद नमूना बनकर रह जाता है और दर्शन एक पाखंड! दर्शन को धर्म बनना पड़ेगा। दर्शन को ज़िंदगी बनना पड़ेगा। आप जिस धर्म का पालन कर रहे हैं हिंदू होने के नाते मुझे बताइए उसके पीछे दर्शन कहाँ है? समझ कहाँ है? मान्यताएँ, रूढ़ियाँ, परंपराएँ, कहानियाँ चले आ रहे हैं इधर-उधर से रीति-रिवाज़। इसको हमने धर्म बना लिया। समझ कहाँ है इसमें, प्रज्ञान कहाँ है? अगर “प्रज्ञानं ब्रह्म”। अगर ब्रह्म प्रज्ञान का ही दूसरा नाम है तो मुझे बताओ तुम जिस धर्म का पालन कर रहे हो मिश्रा जी उसमें प्रज्ञान कहाँ है? प्रज्ञान मतलब ज्ञान की वह गहराई जहाँ जाकर ज्ञान भी विलुप्त होने लग जाता है। जब वहाँ जाते हो तुम, तब तुम अपने आप को धार्मिक कह सकते हो।
मिश्रा जी अपनेआप को ब्राह्मण बोलते होंगे। ब्राह्मण वो नहीं है जो ब्रह्मा की बातें करने आ जाएँ कि; ब्रह्मा ने गाय भी बनाई, ब्रह्मा ने शेर भी बनाया। ब्रह्म और ब्रह्मा में बहुत अतंर है। ब्राह्मण का संबंध ब्रह्मा से कम और ब्रह्म से ज़्यादा हाँ चाहिए; पर ये बात भी हमारे देश में अब कितने लोगों को समझ आनी है! मैं बोल तो रहा हूँ ब्रहमा और ब्रह्म में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है। बहुत कम लोगों को बात समझ में आनी है। चूँकि समझ में नहीं आनी, इसीलिए धार्मिक धार्मिक तौर पर भारत की इतनी दुर्दशा हुई, इतनी गुलामी झेलनी पड़ी।
आज भी तमाम तरह की कमज़ोरियाँ हमारे समाज में हैं। उसका कारण यही है, हमारे धर्म में बहुत विकृतियाँ, विकार आ गए हैं।
बड़ा अज़ीब-सा मिश्रित-सा धर्म हो गया है, एक भ्रष्ट-सा धर्म हो गया है और उसकी सफ़ाई करने वाला कोई नहीं है। बहुत ज़रूरत है, वेदांत की ओर जाने की आज। नहीं तो बड़े दर्द के साथ देख रहा हूँ मैं कि यह सनातन धर्म विलुप्ति की ओर बढ़ जाएगा। कहने को सनातन है, विलुप्त हो जाना है,क्योंकि आज का नाम मात्र का हिंदू है। वह हिंदू कौन-सा जिसने उपनिषद नहीं पढ़े!
आप अगर भक्तिवादी भी हैं तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि भक्ति की धारा का भी उद्गम स्रोत उपनिषदों में ही है। आप तो भक्ति भी नहीं कर पाएँगे बिना उपनिषदों को जाने। और यह काम दोबारा मत कर दीजिएगा कि आप मनुस्मृति को और वेदांत को एक ही तल पर रखने लग जाएँ। ये एक ही तल के ग्रंथ नहीं हैं।
अगर हम इतना समझ पाए होते ना कि कौन-से ग्रंथ को किस जगह रखना है तो जिन चीज़ो ने भारतीय समाज को इतना कमज़ोर किया— ये जाति-प्रथा, यह तमाम अन्य तरह की मूढ़ताएँ और रूढ़ियाँ, यह हमारे धर्म में कभी आते नहीं। यह इसीलिए आए क्योंकि आपको इधर-उधर के तमाम तरीके के ग्रंथों से बड़ा संबंध बनाना है। और मैं कह दूँ “बृहदारण्यक उपनिषद” तो आप से उच्चारित ही ना हो वह नाम। मैं कह दूँ “श्वेताश्वतर” तो आपकी ज़बान ही ऐंठने लगे नाम ही लेने में।
मनुस्मृति आप लेकर के चले आते हैं जबकि अच्छे से आप जानते हैं कि इस किताब के कारण कितना विभाजन हुआ। चलिए पढ़ लीजिएगा मनुस्मृति। मैं मनुस्मृति के घनघोर विरोध का ठेका लेकर नहीं बैठा हूँ। पहले उपनिषदों को तो समझ लीजिए। एक नंबर का काम है, एक जगह होता है, वह काम कर लीजिए फिर आपको दुनिया भर में जो किताब पढ़नी हो, पढ़ते रहिएगा। फिर यह जो आप बाकी किताबें हैं, मैं कह रहा हूँ, उन्हें भी बेहतर समझ पाएँगे।
मैंने दो सिद्धांत दिए थे न, पहला— जो किताब जिस तल की है, उसको उस तल का सम्मान दो, शिष्टता दो, वरीयता दो।
दूसरा सिद्धांत क्या था— नीचे वाली किताबें भी तुम्हें तभी समझ में आएँगी जब पहले ऊपर वाली समझ में आ गईं है। ऊपर वाली जो किताब हैं, एक दफ़े मैंने कहा था— वह कुंजी है, कुंजी।
उपनिषद सब धर्म ग्रंथों को समझने की चाबी हैं। उनको समझ गए तो बाकी सब धर्म ग्रंथ तुम्हें समझ में आने लग जाएँगे। भारतीय ही नहीं अभ्रामिक भी, बाइबिल और कुरान भी तुम्हें बेहतर समझ में आने लग जाएँगे अगर उपनिषद समझ गए तो; पर उनको तुम समझो नहीं और बाकी किताबों को पकड़ कर बैठ जाओ तो बस बहुत तरह की मूढ़ताएँ ही जन्म लेंगी।