मनोविजय के साधन || योगवासिष्ठ सार पर (2018)

Acharya Prashant

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मनोविजय के साधन || योगवासिष्ठ सार पर (2018)

मनीषियों का साथ, आवृत वृत्तियों का त्याग, आत्म जिज्ञासा और श्वास का नियंत्रण — ये मनोविजय के साधन हैं। —योगवासिष्ठ सार

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। श्वास के नियंत्रण से और आवृत वृत्तियों के त्याग से क्या अभिप्राय है?

आचार्य प्रशांत: समझेंगे बात को। आवृत वृत्तियाँ और श्वास का नियंत्रण, इन दोनों को एक में ही समझ लेते हैं। वृत्ति का काम होता है मन में, शरीर में एक आरंभिक संवेग उठाना – पहली लहर। वृत्ति का काम होता है: पहली लहर पैदा करना।

वृत्ति जब तक मौजूद है तब तक पहली लहर तो पैदा होती ही रहेगी। पहली लहर को पैदा होने के कारण बहुत मिल जाते हैं। बाहर से कुछ दिखाई दिया, लहर उठ जाएगी। विचारों की श्रंखला घूमते-घूमते किसी संवेदनशील बिंदु पर पहुँच गयी, लहर उठ जाएगी।

बिस्तर खरीदने गए थे, बिस्तर की लकड़ी देखकर चिता का ख़याल आ गया, उस पर अपनी लाश दिख गई, लहर उठ जाएगी—वो पहली, आरंभिक लहर होती है। जब तक वृत्ति का बीज मौजूद है, आप उस बारे में विशेष कुछ कर नहीं सकते।

सामने से सुन्दर स्त्री गुज़र गई, लहर उठ जाएगी। वो पहली होती है, आरंभिक। चूँकि वो आरंभिक होती है इसीलिए उसमें विशेष बल नहीं होता। ध्यान दीजिएगा, पहली के साथ दुर्भाग्य ये है कि उस पर आपका कोई नियंत्रण नहीं होता। आपको पता भी नहीं चलेगा कि वो क्यों उठ गई। और पहली के साथ सौभाग्य ये है कि उसमें कोई विशेष बल नहीं होता।

बल उसको कहाँ से मिलता है? ध्यान दीजिएगा, जब लहर उठती है तो वो मानसिक होती है, सूक्ष्म होती है। अभी वो शरीर तक नहीं पहुँची है। शरीर स्थूल है; लहर सूक्ष्म है। अभी उसका असर आपके शरीर पर नहीं हुआ है। क्रोध की लहर उठी है, आरंभिक है, अभी पल भर ही हुआ है। अभी आपके शरीर पर उसका कोई प्रभाव नहीं है, अभी आपके हाथ काँपने नहीं शुरू हुए, अभी आपका चेहरा रक्तिम नहीं हुआ, अभी आपकी आँखों में खून नहीं तैर गया, अभी आपको सिर भारी-भारी सा नहीं लगेगा, हालाँकि शुरुआत हो चुकी है।

शुरुआत होने के बाद जो होता है, वो शरीर में होता है। अब स्थूल है—चूँकि स्थूल है इसीलिए आपकी पकड़ में है। पहले जो हुआ था, याद करिए, वो आपकी पकड़ में नहीं था। अब जो हो रहा है, वो आपकी पकड़ में है।

तो जिन्होंने जाना, उन्होंने इस बात को विधि की तरह प्रयुक्त कर लिया, उन्होंने कहा, “जो चीज़ नियंत्रण में ही नहीं है, उसको छोडो। क्या कर सकते हैं? तुम शुरुआत वहाँ से कर लो जहाँ से चीज़ तुम्हारे रडार में आ गई है, तुम्हारी दृष्टि में आ गई है, तुम्हारी पकड़ में आ गई है।” वो कब आ गई है पकड़ में? जब उसका असर शरीर पर दिखाई देने लग गया। आगे की कहानी शरीर से आगे बढ़ती है। शरीर पर जब असर दिखाई देने लग जाता है तो चैतन्य मन को लगता है कि कुछ बात है तभी तो शरीर पर असर आ गया है।

प्रक्रिया कैसे चलती है, समझना। लहर कहाँ उठी है? अवचेतन में, वो बात हमने कही नहीं थी। बड़ी सूक्ष्म है लहर। मन के बिलकुल निचले हिस्से से उठी है लहर। उसी बिंदु से जहाँ से वो उठी है लहर, उसको ही तो क्या कहते हैं? मूल वृत्ति। वहाँ से उसका असर किस पर आता है? शरीर पर आता है। चैतन्य मन को अब पकड़ में आया कि कुछ हुआ रे, कहाँ हुआ? शरीर में हुआ।

आपको जब भी गुस्सा आता है तो आप यह थोड़ी देख पाते हो कि गुस्सा कहाँ से उठा। आपके अहंकार का वो बिंदु कौन सा है जहाँ से गुस्सा उठा, ये कभी देख पाते हो क्या? आप तो बस ये देख पाते हो न कि अब गुस्सा उठा, हाथ कंप रहे हैं और अब आवाज़ ज़रा ऊँची हो रही है, ये देख पाते हो।

चैतन्य मन की व्यवस्था कुछ ऐसी है, संस्कार कुछ ऐसे हैं कि जब वो यह होते देखता है तो वो इसको और बढ़ावा देता है। ऐसा हमने अपने मन को कर डाला है। वो इसको होते देखता है तो और बढ़ावा देता है। गुस्सा देखकर गुस्से को और बढ़ने देता है, और तर्क उठाता है जो गुस्से के समर्थन में होते हैं। आपने कभी यह पकड़ा है कि जब आप गुस्से में होते हैं तो गुस्से को दबाने वाली बातें नहीं उठती मन में; मन में सारी स्मृतियाँ ही वही आ जाती हैं जो गुस्से को भड़काती हैं।

आपके मित्र ने आपके साथ धोखा कर दिया। ध्यान से बताइएगा, आपको अब पुरानी कौन-कौन सी बातें याद आती हैं? जब आपके साथ और धोखे हुए थे, वो सब याद आ जाता है। ये अब चैतन्य मन होती हुई प्रक्रिया को और भड़का रहा है।

तो जानने वालों ने विधि दी। उन्होंने कहा कि इसको वहाँ पर रोको जहाँ तुम रोक सकते हो। क्रोध आता है तो शरीर पर प्रभाव पड़ता है। क्या प्रभाव पड़ता है? प्रभाव यह पड़ा कि साँस धौंकनी की तरह चलने लगी। तो क्रोध में साँस तेज़ हो जाती है। क्रोध नहीं होता तो साँस सामान्य चलती है।

तो उन्होंने कहा कि इसको हम ज़रा उलटकर देखते हैं। क्रोध भीतर से उठता भी हो तो तुम साँस को सामान्य कर लो, तब देखें क्या होगा। और जो परिणाम आए, वो मज़ेदार थे। क्रोध से अगर साँस तेज़ हो जाती है तो उन्होंने पाया कि साँस को नियंत्रित करने से क्रोध दब भी जाता है; क्योंकि अब चैतन्य मन को मौका नहीं मिल रहा है न शरीर का इस्तेमाल करके क्रोध के समर्थन में और तर्क दे पाए।

ये आग वो है जो फड़कने से और भड़कती है। आग क्या करती है? जिस चीज़ पर लगती है, उसी को ईंधन की तरह इस्तेमाल कर लेती है न? जिसको जला रही है, उसको जला ही भर नहीं रही, उसका उपयोग कर रही है दूसरी चीज़ों को भी जलाने के लिए। तो मन में जो भी संवेग उठते हैं, वो आग की तरह होते हैं, वो फ़िर फैलते हैं।

प्राणायाम की और हठ योग की जो कई विधियाँ है, उनका आधार यही है। वो कहते हैं कि तुम इतने अभी महीन आदमी हो नहीं कि तुम भीतर प्रविष्ट हो सको। और एक बात पक्की है कि बात फैलेगी शरीर से ही गुज़रकर। अगर शरीर पर बात का असर नहीं पड़ा है तो बात एक सीमा तक आकर रुक जाएगी, उसके आगे नहीं फैलेगी। तो कहते हैं, “तुम शरीर के तल पर ही बात को रोक दो। गुस्सा आया, साँस बेतरतीब चलने लगी। तुम्हें गुस्से का तो कुछ पता नहीं, कहाँ से उठता है, क्या होता है। तुम साँस को ही पकड़ लो, तुम साँस को ठीक कर लो, गुस्सा भी ठीक हो जाएगा।” और ये विधि काम भी आती है।

हाँ, इतना है कि इस विधि के द्वारा तुम क्रोध के मूल तक नहीं पहुँच पाओगे। पर यह तर्क तुम जब इस विधि को देने वालों के सामने रखोगे तो वो कहेंगे, "तुम्हें मूल तक पहुँचना है या क्रोध मुक्त जीवन बिताना है? तुम्हें मूल तक पहुँचकर करना क्या है? तुम्हें तो जब भी क्रोध उठता हो, तुम श्वास पर ध्यान दो। तुम्हारे भीतर जब भी वासना उठती हो, तुम शरीर पर ध्यान दो।” तुम्हारे भीतर काम का आवेग यदि उठता भी है तो वो यही तो कहता है न कि अपनी जननेन्द्रियों को घर्षण दो? और घर्षण देने से क्या होता है? काम का आवेग और उठता है।

तो ये प्रक्रिया के तीन अंग हैं, तीनों को देख पा रहे हो? पहला क्या था? वासना की तरंग उठी। उसका तुम्हें कुछ पता नहीं कि क्यों उठी, वो तो यूँ ही। फ़िर दूसरा अंग क्या है? कि अब तुम्हें शरीर को दबाव, और घर्षण और तमाम तरीके की भौतिक उत्तेजना देनी पड़ेगी। और फ़िर तीसरा अंग क्या होता है? कि आग और भड़क जाती है। तो जानने वालों ने विधि यह दी कि तुम पहले का कुछ नहीं कर पाते, तुम दुसरे पर रोक दो – ये है श्वास का नियंत्रण। शरीर के तल पर एक बाधा, एक अवरोध खड़ा कर दो कि इससे आगे हम फैलने नहीं देंगे आग को।

जंगल में जब आग लगती है तो जानते हो न क्या करते हैं? मान लो कहीं पर आग लगी है और उसे फैलने से रोकना है, तो क्या करते हैं? आग के केंद्र से काफी दूर पर जहाँ आग अभी पहुँची नहीं है, वहाँ के सारे पेड़ साफ़ कर देते हैं, वहाँ की सारी घास इत्यादि सब हटा देते हैं, एक वृत्त बना देते हैं जिसमें अब आग को कैद हो जाना पड़ेगा। आग उससे आगे नहीं जा सकती, उसके आगे जाने के लिए ईंधन ही नहीं मिलेगा, बीच में सफाई कर दी गई है।

तो आपने पूछा आवृत वृत्तियाँ क्या हैं, वो भी मैंने बता दिया – वो जिनका आपको कुछ पता नहीं पर आपके भीतर हैं और आपको नचाए जा रही हैं। इसलिए उनको आवृत वृत्तियाँ कहते हैं क्योंकि वो छुपी बैठी हैं; आपको उनका कुछ पता नहीं। आपको उनका पता तभी चलता है जब वो शरीर पर आती हैं और अपना पूरा नंगा नाच दिखाती हैं, तब आपको पता लगता है, “अरे, ये क्या हो गया? मैं तो शांत बैठा था। अचानक कुछ हुआ और मैं भड़क गया।”

आपको लग रहा था, शांत हैं। भीतर अशांति बैठी हुई थी, आपको उसका पता नहीं था। इसीलिए उसे कहा गया है आवृत या प्रछन्न वृत्ति, वो छुपी बैठी है। सतह पर शान्ति है, नीचे घोर अशांति का बीज है और वो फटता है बार-बार। मनीषियों ने कहा कि जब फटे तो पकड़ लो। जब फटा है ही नहीं तो तुम तो वैसे ही अंधे हो, तुम्हें क्या पता। जब फटेगा तो कहाँ असर करेगा? शरीर पर। वहीं जान लो कि कुछ हुआ, शरीर हिला रे। अभी रोको, अब रोक सकते हो तुम, रोक लो शरीर को। वासना को शरीर के सहारे की ज़रूरत होती है, तो सहारा मत दो।

प्र२: आचार्य जी, इससे दमन नहीं हो जाएगा? कई बार ऐसा ही होता है।

आचार्य: विधि है। विधि है।

देखिए, दमन अपने आप में कोई बुरी बात भी नहीं है। दम-शम, ये तो अनिवार्यताएँ बताई गई हैं साधक के लिए। दम ही नहीं, शम भी – दमन माने दबाना और शमन माने बुझाना। तो हम जिसको दमन या सप्रेशन बोलते हैं, वो कोई इतना भी गन्दा शब्द नहीं है। ये भी अहंकार के एक बड़ा तर्क रहता है कि “देखो, दमन बुरी बात है, सप्रेशन मत करना।” सप्रेशन भी एक विधि है, और कई बार ज़रूरी होती है।

तीन-तीन घंटे, चार-चार घंटे बोलता हूँ मैं कई बार। आप तो कब से आती हैं। अब इतने बैठे होते हैं, क्या वो अपनी शारीरिक लहरों का दमन नहीं कर रहे होंगे बैठे-बैठे? और कुछ नहीं तो मूत्रालय जाने की लहर नहीं उठती होगी? व्यवहारिक सी बात है। तो दमन किया कि नहीं किया? और दमन न करते तो सबको परेशानी देते। अब तुम तर्क देते रह सकते हो कि "अगर भीतर दबाव बन रहा है और बैठे हैं तो देखिए, आचार्य जी, सुना तो नहीं न हमने।” तुम देते रहो तर्क, हमें सुनने ही नहीं तुम्हारे तर्क।

अतिशय दमन बुरा है, डर से उठता हुआ दमन बुरा है। बोधपूर्वक भी कई बार दमन किया जाता है कि “मैं जान रहा हूँ कि इस समय इस चीज़ को मैं बढ़ावा नहीं दे सकता, इसलिए इसका दमन कर रहा हूँ।”

तुम्हारे घर में डकैत घुस आए हैं और तुम छुप गए हो कहीं पट्टी पर जाकर, कहीं फाल्स सीलिंग पर। और तुम बड़े आध्यात्मिक ग्रंथों को पढ़ते आए हो, गुरुवर ने तुमको बताया कि “मित्र, दमन बुरी बात है।” और तभी तुम्हें खाँसी आ गई और नीचे सब डकैत घूम रहे हैं बंदूकें लेकर तुम्हारी ही तलाश में। ऐसे में खाँसी आ रही है। अब दमन करोगे कि नहीं करोगे?

ये जो हम दमन का इतना विरोध करते हैं, अक्सर वो और कुछ नहीं होता, वो लिप्तता के पक्ष में तर्क होता है। भीतर से भोग की इच्छा उठे तो उसका दमन मत करो, फटाफट जाके भोग कर आओ। दम, शम, उपरति, तितिक्षा – सुना है इनका नाम? ये क्या व्यर्थ ही बताई गई हैं बातें?

प्र१: जब कोई संतों के साथ जुड़ता है तब प्रछन्न वृतियाँ सक्रिय होना बंद कर देती हैं, संसार के सारे विचार नकार दिए जाते हैं और बस यह याद रहता है कि इस शरीर को नष्ट होना है। तो प्रछन्न वृत्तियों से क्या तात्पर्य है?

आचार्य: वही आवृत वृत्तियाँ। दोनों एक ही बात हैं, अंग्रेज़ी में दोनों जगह लेटेंट इम्प्रेशंस ही लिखा है। एक जगह प्रछन्न वृत्तियाँ लिखा है, एक जगह आवृत वृत्तियाँ लिखा है, दोनों एक ही बात है। पर एक बात है इसमें जिस पर थोड़ा बोलना ज़रूरी है।

आपने लिखा है कि कोई जब संतों के साथ जुड़ता है तो संसार के सारे विचार नकार दिए जाते हैं और बस यह याद रहता है कि इस शरीर को नष्ट होना है। मुझे नहीं मालूम कि यह बात ग्रन्थ बिलकुल ऐसे ही कह रहा है कि नहीं।

असल में जो होता है, वो थोड़ा सा इससे भिन्न है। समझाए देता हूँ। जो होता है, वो यह है कि विचार नकारने नहीं पड़ते, विचार आते नहीं हैं। विचारों को नकारते रहना तो बड़ी मेहनत का काम हो जाएगा कि वो आए जा रहे हैं, तुम नकारे जा रहे हो, वो आए जा रहे हैं, तुम नकारे जा रहे हो।

संतों के संसर्ग का फायदा यह नहीं है कि आप विचारों को नकारना शुरू कर देते हो, उसका फायदा यह है कि आप जब संत के साथ बैठे हो, उस वक़्त व्यर्थ के फालतू विचार आते ही नहीं हैं। और यह तो बड़ा आम अनुभव है न? आप भी साथ बैठते हो तो आपने देखा ही है। साथ हो तो जगत का जैसे लोप हो जाता है। जगत का लोप होने से क्या अर्थ है? यह नहीं कि दीवार गिर गई और धरती विलीन हो गई, उसका लोप होने का अर्थ है कि वो बातें आपके लिए महत्वपूर्ण ही नहीं हैं, उन बातों का आपके सन्दर्भ में कोई मूल्य नहीं है। आप टिककर बैठे हो दीवार पर, दीवार का आपको कोई ख़याल नहीं है—ये होता है सत्संग में।

विचार का दमन मेहनत का काम है और उलझन का काम है। आप विचार के साथ उलझे। और नुकसान तो हो ही गया न। गोली आप पर चला दी गई है, अब आपके ऊपर है कि आप उछल-कूद मचा करके या कोई ढाल लगा करके बचें। कौन इतने झंझट में पड़े? इससे कहीं बेहतर तो ये हैं न कि गोली चलनी बंद हो जाए। तो वो होता है सत्संग में, गोली चलनी बंद हो जाती है।

यही आध्यात्मिकता के मज़े हैं। औरों को ख़याल आते हैं, वो आपको आ ही नहीं रहे। अँधेरी रात है, सब रास्ता भटक गए हैं, सुनसान सी जगह है, भूख-प्यास लगी है और रुपया-पैसा नहीं है जेब में। औरों को जो ख़याल आ रहे हैं, वो आपको ही नहीं रहे। मज़ा आया कि नहीं आया? बाहर-बाहर से स्थिति सबकी एक है, भीतर ज़मीन-आसमान का अंतर है—ये आध्यात्मिकता है।

ख़याल आने बंद हो जाते हैं। और उसके बाद जो आपने लिखा, वो ठीक ही है कि जो आते भी हैं, उसमें बहुत बल नहीं होता। आप उनको यूँ झाड़ सकते हो। ऐसा नहीं है कि भीतर से एक प्रचंड आवेग उठा और उसने आपको अपनी गिरफ्त में ले लिया, वो नहीं होता फ़िर—ये आध्यात्मिकता का असर है। आप बहुत सारी बातें सोचना बंद कर दोगे। इसलिए नहीं कि आपने चाहा था कि आप न सोचो, बस वो ख़याल आपको आएगा नहीं। अब दिल धक्क से आपका तब रह जाएगा जब एक दिन आपको कोई याद दिलाएगा कि “यार, तुम इस बारे में बिलकुल ही बेफिक्र हो गए हो। अब ये गैरज़िम्मेदारी की बात है। कुछ तो सोचो, कुछ तो चिंता करो।” और आप कहोगे, “यार, बात तो तूने ठीक बोली। ये मुद्दा तो गंभीर है, इस पर हमें विचार करना चाहिए।” आप कोशिश करोगे विचार करने की और आप पाओगे कि आप कोशिश नहीं कर पा रहे। आप चाह कर भी कुछ बातों का विचार नहीं कर पा रहे। तब जानना कि यज्ञ सफल हुआ।

पहले तो यह होता था कि आप चाहते थे कि न सोचूँ और विचार चले-चले आते थे। और एक दिन ऐसा आता है जब आप अपने-आप से बोलते हो कि “भाई, हद हो गई लापरवाही की। अरे, कुछ तो फ़िक्र करो, कुछ विचार, कुछ तो चिंता करो।” आप बैठते हो कि आज चिंता करेंगे। “लाओ भाई, चिंता का सारा सामान लाओ।” सब रख दिया गया है और आप ऊँघना शुरू कर देते हो और उसी सामान पर मुँह मारके सो जाते हो। कोशिश कर-करके भी चिंता नहीं हो रही। अब अध्यात्म सफल हुआ।

अब उसने आपको-आप ही के खिलाफ मजबूर कर दिया है, अब समर्पण हो गया है। अब आप ऐसे गुलाम हो गए हो जो चाह कर भी गुलामी से छूट नहीं सकता—अब पूर्ण समर्पण हुआ।

फ़िक्र करने का मतलब होता है कि “मैं अपना बादशाह खुद हूँ, भाई। मुझे अपनी फ़िक्र करनी है।” फ़िक्र कौन करता है? जो राजा होता है, जो अभिभावक, जो गार्जियन है, उसको ही तो फ़िक्र करनी होती है? दास को, या बच्चे को, या शरणार्थी को, इनको थोड़ी फ़िक्र करनी होती है। ये क्या बोलते हैं? “बप्पा देखेंगे।” वो ही इनचार्ज (प्रभारी) हैं, वो ही देखेंगे। तो जब आप पाओ कि आप फ़िक्र कर ही नहीं पा रहे, तब जानना कि आप शरणागत हुए—अब पूर्ण समर्पण है, अब राजा होने का भाव, मालिक होने का भाव बिलकुल गया।

दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास। अब तो ऐसा होय रहूँ, पाँव तले की घास ।। —कबीर साहेब

अब घास क्या फ़िक्र करेगी कौन कदम रखेगा उस पर? वो फ़िक्र ही नहीं करती, कहती है: 'होगा जो होगा'।

जैसे कोई नानक ताने खाकर बाजार की ओर निकले कि आज तो वसूली करनी है, आज कुछ ले करके आना है पैसा। उसको बड़ी उलाहना दी गई है। जब उलाहना वगैरह मिली है, जब दायित्व का बोध खूब करा दिया गया है, उस दिन फेंटा कसा है कि “आज तो जा रहे हैं। आज हम भी दिखाएँगे व्यापारी होकर, आज हम भी कुछ कमा के लाएँगे बाहर से।”

और कमाने के नाम पर क्या किया? कि एक, दो, और तीन और चार। गिन-गिनकर आज दे रहे हैं कि आज देखो, हमसे संतई की अपेक्षा न करना। आज हम व्यापारी हैं, आज हम संत नहीं हैं। आज घरवालों ने बड़ी ज़िम्मेदारी का अहसास दिलाकर भेजा है। बिलकुल एकदम सतर्क हैं, आज कोई चूक नहीं करनी है। पाँच, छः और सात, आठ। और फ़िर पहुँचे ग्यारह, बारह, तेरह और सारी चालाकी भुला गई। अब व्यापारी भीतर से चिल्ला रहा है, वो ढोल बजा रहा है, वो बोल रहा है, “ये क्या कर रहे?” ये तेरा, ये तेरा, ले तेरा, तेरा, तेरा। ये समर्पण है, अब आप संत हो गए हैं, अब आप शरणागत हुए।

एक मजबूरी आ जानी चाहिए। आपको अपने खिलाफ मजबूर हो जाना चाहिए कि “'यार, चाह कर भी तुझे नहीं छोड़ सकता। ये कौन है जो सीने में ऐसा समा गया? इच्छा तो बहुत होती है कि कलेजा ही निकालकर फेंक दें। ये है कौन जो ऐसा काबिज़ हो गया कि अब हटता ही नहीं?” ऐसी मजबूरी चाहिए।

गुलाम तो होना ही है, वृत्ति के हो लो या सत्य के हो लो। किसका होना है?

गुलाम तो हर हाल में हो। या तो अपनी वृत्ति के हो लो या विराट के हो लो। ये सम्भावना ख़ारिज कर दो कि तुम मालिक हो सकते हो। मालकियत भ्रम है, मालिक तुम कभी नहीं होने वाले। शरीर लेकर आए हो तो गुलाम तो होना है। किसका होना है? इसमें तुम्हारी ज़रा रज़ामंदी चलेगी, ये तुम तय करो।

आगे कह रहे हैं कि थोड़ा सा यहाँ पर समझाने की जरुरत है, ये तो नहीं कहूँगा संशोधन की। आगे लिखा है कि बाकी सारे विचार नकार दिए जाते हैं और बस यह याद रहता है कि शरीर को नष्ट होना है। नहीं, नहीं ऐसा नहीं है। मामला थोड़ा सा इससे भिन्न है।

आपको अन्यथा यह सदा याद रहता है कि इस शरीर को नष्ट होना है। आप अपने कर्मों को देखो, आपका जीवन प्रमाण है। आप सुबह से शाम तक जो कर रहे हो, आप लगातार इस मरणधर्मा शरीर, मरणधर्मा 'स्व' को किसी प्रकार बचाने के लिए कर कर रहे हो। दिनभर आप मौत के खौफ से डरे हुए हो, और तो कोई बहुत बड़ा डर होता नहीं। आम आदमी लगातार डर में जीता है और वो जो डर है, वो विलुप्ति का डर है, “मिट न जाऊँ, कहीं गायब ही न हो जाऊँ।” तुम्हारा बड़ा-से-बड़ा डर यही है कि गायब न हो जाओ कहीं।

तुमने अपनी पहचान पचास चीज़ों से जोड़ी है। तुम गायब कैसे होते हो? जब वो चीज़ें गायब होती हैं। तुम यह तो कहते ही नहीं न कि “मात्र मैं।” तुम क्या बोलते हो? “मैं धनी।” और भी बहुत सारी चीज़ें हैं, एक है कि ’मैं धनी’। अब धन हटा, तो ‘मैं’ भी हटा—ये मौत का डर है। तो ‘मैं’ को बचाने का तुम्हारे पास कोई सीधा या प्रत्यक्ष तरीका नहीं है। ‘मैं’ को बचाने के लिए तुम किसको बचाने दौड़ते हो? धन को। तुम धन को वास्तव में नहीं बचा रहे हो, तुम 'मैं' को बचा रहे हो—ये मौत का खौफ है। तुम ‘मैं’ को बचा रहे हो। धन जाएगा तो ‘मैं’ भी चला जाऊँगा।

जैसे वो पुरानी कहानियों में जादूगर होता था न, जिसकी जान कहाँ कैद होती थी? तोते में। तो वो अपनी रक्षा नहीं करता था, वो तोते की रक्षा करता था। वैसे ही जिसने कह दिया, “मैं धनी।” उसके प्राण कहाँ बैठे हैं? धन में, तो वो धन बचाएगा। तुमने कह दिया, “मैं प्रेमी।” तो तुम्हारे प्राण अब कहाँ जाकर बैठ गए? प्रेमिका में। तुमने कह दिया, “मैं बाप।” तुम्हारे प्राण कहाँ जाकर बैठ गए? बिटिया में, बेटे में। तुमने कह दिया, “मैं ज्ञानी।” तुम्हारे प्राण कहाँ जाकर बैठ गए? ज्ञान में। बात समझ में आ गई न?

तो सुबह से लेकर शाम तक तुम जो भी कुछ कर रहे हो, वो किसी-न-किसी चीज़ को बचाने या पाने के लिए ही तो कर रहे हो? ये मौत का खौफ है। तो मौत के खौफ में तो हम जीते हैं लगातार। संतों की संगत से वो खौफ जाता रहता है। तो ऐसा नहीं है कि ये विचार शेष रहता है कि शरीर को एक दिन नष्ट हो जाना है, ये विचार जाता रहता है कि तुम नष्ट हो सकते हो। तो अब तुम यूँ जीते हो जैसे कभी मरोगे नहीं।

कबीर कहते हैं झिटककर, जैसे चिढ़कर कह रहे हों कि “कबीरा मर चुका, अब कितनी बार मरेगा?” तुम अब ऐसे जीते हो कि मर तो गए, अब और क्या मारोगे? तुम मौत के खौफ में जी रहे हो और हम मर ही गए! तो अब हम कितनी बार मरेंगे, भाई? मरे हुए को क्या मारोगे?

जो मरा नहीं है पर जिसे लगता है कि मृत्यु आगत है, वो मृत्यु के खौफ में जिएगा। जो मर ही गया, उसको कोई मौत नहीं है। वो आत्मा की तरह जीता है, “अमर हूँ मैं, मुझे कौन मरेगा?”

‘मर ही गया’ से क्या अर्थ है, खुद ही बता दो? तो मैं कहता था, “मैं धनी।” अब मुझे मारा जा सकता है। कैसे? क्योंकि धन को मारा जा सकता है। मैं कहता था, “मैं ज्ञानी।” अब मुझे मारा जा सकता है क्योंकि ज्ञान को मारा जा सकता है। पर मैं ये जो सम्बन्ध बनाए हूँ पचास चीज़ों से, मैं ये सम्बन्ध न रखूँ तो मुझे कैसे मारोगे? 'मैं' को तो मारा नहीं जा सकता। पहले भी तुम 'मैं' को नहीं मार रहे थे, तुम किसको मार रहे थे? धन को मार रहे थे। अब वो धन है ही नहीं मारने के लिए, तो तुम मारोगे कैसे?

'मैं' को मारने का कोई उपाय नहीं; 'मैं' जिसके साथ जुड़ा है, उसको मारने का उपाय होता है। तुम उससे 'मैं' को जोड़ो ही मत न, और चीज़ों को जोड़ लो। भाई, धन से सुविधा मिलती है, जोड़ लो, “हाँ, धन से सुविधा है, धन से मैं नहीं हूँ।” अंतर समझो, ‘सुविधा है, धन से मैं नहीं हूँ’। सब ले जाओ, रुपया-पैसा, कच्छा-बनियान, तब भी मैं हूँ। इसका मतलब यह नहीं है मैं देह हूँ, कि सब कच्छा-बनियान हट जाए तो भी देह तो बची ही, वो बात नहीं हो रही है। प्रतीक है, उसको वैसे ही समझना। तुम्हारा भरोसा नहीं।

सब हट जाए, क्योंकि बात ज़्यादातर मानसिक होती है। जिस भी चीज़ का तुम सहारा लिए खड़े थे, वो सब हट हट जाए, उसके बाद जो 'मैं' बचता है, वो अमर होता। और जब तक 'मैं' बैसाखियों पर खड़ा हुआ है, वो बैसाखियाँ कभी भी हटाई जा सकती हैं, और तुम मौत के खौफ में जिओगे।

मृत्यु का विचार संसारी को प्रतिपल रहता है। और सन्यासी को ऐसा नहीं है कि यह विचार आता है कि यह शरीर तो मर जाएगा; उसे कोई विचार नहीं आता। उसको अब बोध है कि जो कुछ है, वो मर्त्य ही है, वो काहे को विचार करेगा? जिस चीज़ का तुम जान ही गए यथार्थ, उसका बार-बार विचार क्यों करोगे?

ये तो ज़रा रुग्ण बात हो जाएगी कि कोई बैठे-बैठे लगातार यही सोच रहा है कि शरीर मर जाएगा, शरीर मर जाएगा। मर तो जाएगा ही, तुम सोच काहे को रहे हो? थोड़ा सोचने से कुछ बदल जाएगा, या कुछ और चाहते हो कि बदल जाए?

जो यथार्थ है, हम उसके स्वीकार में खड़े हैं, भाई। हाँ, हमें पता है कि शरीर मर जाएगा। अब उसको हटाओ, और कोई बात करो। क्या कोयल गा रही है! बढ़िया बारिश हो रही है! कुछ काम करना है; खेलकर आते हैं; बैठो इधर, कुछ बतियाते हैं। यही विचार करते रहेंगे कि शरीर को मर जाना है, शरीर को मर जाना है? भगवान बचाए ऐसे सन्यासी से।

एक दिन ऐसे ही, ये जो बैठा हुआ है यहाँ पर—हाँ, ये नाखून जल रहा होगा, ये खाल जल रही होगी, ये नाक जल रही होगी, ये हाड़ जल रहा होगा—सब जल ही रहा होगा, तो क्या करूँ? बैठकर विचार करूँ कि कैसे होगा? ये प्रसन्ना (एक श्रोता) तब कितना बड़ा होगा, और रोएगा कि नहीं? और ख़याल आ जाए तभी कि ये प्रसन्ना रो नहीं रहा है, हम जले जा रहे हैं और ये रो नहीं रहा है, और बैठे-बैठे इसको गरियाने लग जाएँ। कोई ख़याल नहीं!

मृत्यु से मुक्त तुम तब हुए जब अमरता का भी ख़याल नहीं। मौत का तो नहीं ही, अमरता का भी नहीं। न जीने का ख्याल, न मरने का ख्याल—ख़याल से पूरी आज़ादी। न तो यही ख़याल किये जा रहे हैं कि एक दिन मौत आनी है और न यही ख़याल है कि हमें तो मौत नहीं आनी।

मृत्यु का सत्य, मृत्यु का तथ्य स्थापित हो चुका है और हम उसके पूर्ण स्वीकार में खड़े हैं। क्या बोलूँ मैं कि मौत एक दिन आनी है, मुझे तो मौत लगातार घटती दिखाई दे रही है, उसकी बात ही क्या करूँ? हवा जैसी है मौत; जहाँ जाऊँ, वहाँ मौत है।

वो सुनी है न कहानी? एक आदमी अपने दोस्त को बोलता है, “जा, ज़रा बाजार से कुछ कपड़े ले आ।” वो कपड़े लेने जाता है और बाजार में बड़ी भीड़ है। भीड़ में अचानक उसे एक शख्स दिखाई देता है और उसको देखकर उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है। बुरी तरह भागता है, वापस आता है अपने दोस्त के पास। वो पूछता है, “कपड़े ले आए?”

बोलता है, "कपडा छोड़ो, बाजार में मौत दिख गई, खड़ी हुई थी।"

दोस्त पूछता है, "ऐसे कैसे मौत दिख गई बाजार में?"

"देखकर आया हूँ। बाजार में खड़ी थी कपड़े की दुकान के सामने। लाओ अपनी गाड़ी हमें दो, हमें भागने दो। इस शहर में मौत है।"

"जाओगे कहाँ?"

बोलता है, "जा रहे हैं लखनऊ, यहाँ दिल्ली में मौत खड़ी है।"

तो वो भाग जाता है गाड़ी लेकर। इस आदमी में बड़ी उत्सुकता उठती है कि पता नहीं किसको देख आया बाजार में कपड़े की दुकान के सामने कि गाड़ी उठाई और लखनऊ भाग गया। तो वो जाता है, वहाँ और देखता है कि वो आदमी अभी भी वहीं पर खड़ा है। बड़ा सा उसने टोपा डाल रखा है, इतना बड़ा टोपा है कि चेहरे पर रोशनी नहीं पड़ रही है, चेहरा दिखाई नहीं पड़ता। बड़ा ओवरकोट पहन रखा है उसने। यमराज का कलयुगी संस्करण है। तो ये आदमी उसके पास जाता है और बोलता है, "हैलो, कौन हो भाई तुम? लोगों को डरा रहे हो।"

तो वो बोलता है, "मैं हूँ तो वही को तुम्हारा दोस्त मुझे समझ रहा था।"

"मौत हो तुम?"

"हाँ, मौत हूँ।"

"मौत हो तुम तो छुपके आते, तुम उसे डरा क्यों रहे थे?"

"मैं डरा नहीं रहा था।"

"वो मुझे बोल रहा था कि तुम उसे घूर रहे थे।"

मौत बोलती है, "मैं उसे घूर नहीं रहा था, मैं तो चकित था। मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था तुम्हारे दोस्त को देखकर।"

"क्या नहीं यकीन हो रहा था मेरे दोस्त को देखकर?"

"मुझे तुम्हारे दोस्त को देखकर यह नहीं यकीन हो रहा था कि ये दिल्ली में क्या कर रहा है? शाम को मुझे इसे लखनऊ से उठाना है। ये दिल्ली में कर क्या रहा है इस समय पर? शाम को लखनऊ से मुझे इसे उठाना है और ये यहाँ घूम रहा हैं। हिसाब गलत कैसे हो गया?"

तो अब जिसको दिल्ली, लखनऊ, हर जगह मौत दिखने लगी है, वो अब मौत का विचार नहीं करेगा। अमरता का अर्थ है: मौत की अनिवार्यता को बेझिझक स्वीकार कर लेना। अनिवार्यता, सातत्यता, सब कुछ; हर जगह है, प्रतिपल है और घटती ही जा रही है। सब मिटता जा रहा है, सब मरणशील है। जिसको यह बात बैठ गई, और ऐसी बैठी कि उसने बाकी सारे विचार साफ़ कर दिए, वो अब मौत का ख़याल नहीं करेगा, वो जियेगा। जिसे अमरता का झूठा ख़याल होता है, झूठी उम्मीद होती है, वो हर समय मरता रहता है।

जो मौत को ऐसे देखता है कि “हाँ, ठीक है। कब आ रही हो? और सुनो, सही लग रही हो आज।” जिसका मौत से ऐसा रिश्ता हो गया है कि जाती हुई मौत को, तुम्हे नहीं आ रही, किसी और को आ रही है, जाती हुई मौत को को छेड़ दे, वो अमर हो गया। फ़िर मौत भी उसको धकियाकर, डाँटकर अलग कर देती है, “चल, परे हट।” अब ये तुम मौत से नहीं कह रहे, “चल, परे हट।” मौत तुमसे कह रही है, “चल, परे हट, जब देखो, तब चेप।”

और तुम कहो, “यार, तुमसे चेप न हों तो क्या हों? हर जगह तुम्हारा ही विस्तार है। जिसको देखो, वही मरा जा रहा है। तुम्हे ही हर जगह देखते हैं। जिस्म में, मन में, ख़यालों में, हर जगह तुम-ही-तुम छाई हुई हो। तुम्हे भूलें कैसे? हमें कोई झूठी मान्यता ही नहीं है कि हम ज़िंदा हैं, हम तो अपने आप को जीवित मृतक मानते हैं। हम तो तुम्हारे हो ही गए हैं जान-ए-मन। अब इंतज़ार इस बात है कि कब आओगी, ले जाओगी। हम तो अब मानते ही नहीं हैं कि अब किसी और के हो सकते हैं। संसार में किसके हों? जिसके होंगे, वो ही तुम्हारा है। परोक्ष रूप से तुम्हारे हों, इससे अच्छा है सीधे ही तुम्हारे हो जाते हैं।”

(आचार्य जी खाँसते हैं) अब ये खाँस थोड़े ही रहा हूँ, ये मैं क्या कर रहा हूँ? ‘साँस नगाड़ा कूच का बाजत है दिन-रैन।’ ये कूच का नगाड़ा बज रहा है। आज खाँस रहा हूँ, कल इसी खाँसी में खून आएगा, परसों जय कन्हैया लाल की, हाथी-घोड़ा पालकी।

मौत से ये रिश्ता हो। हम मरे ही हुए हैं। अब मौत का ख़याल नहीं आएगा। ख़याल तो तब आए न जब बचने की सम्भावना हो, कोई सम्भावना ही नहीं बचने की, हम मरे समान ही हैं। अब कोई ख़याल नहीं; अब जियो, अब मौज है। बहुत धमकी देती थी टीचर कि फेल कर देंगे, फेल कर देंगे। तुम फेल हो ही जाओ। अब स्कूल से बाहर हो, बाहर खुला मैदान है। अब जियो।

प्र३: आचार्य जी, मित्रों से परेशान हूँ। वो मुझसे वो करवाना चाहते हो जो मेरा करने का मन नहीं है। मेरे अंदर किसी तरह का बदलाव उन्हें स्वीकार नहीं है, तो क्या मैं उन्हें त्याग दूँ या उनके साथ हो लूँ? मार्गदर्शन करें।

आचार्य: इतने सीधे आप हो नहीं जितने लगते हो। दोस्त चिकन (मुर्गा) खिलाएँ तो तुम खा लेते हैं, और फ़िर कहते हो कि ये दोस्त गुमराह करते हैं। दोस्तों के प्रभाव में चिकन खा लिया। और कोई दोस्त तुम्हें नीम का काढ़ा पिलाए, तुम पीते हो? जवाब दो। तो ऐसा कैसे है कि तुम दूसरों के प्रभाव में चिकन खाने तैयार हो जाते हो, पर दूसरा ही जब तुम्हें प्रभावित करके कहे कि नीम का काढ़ा पी लो, तो तुम तैयार नहीं होते? अब बात दूसरे की है कि तुम्हारी है?

दो बातें हैं: तुम वैसे ही दोस्त आकर्षित करते हो जैसे तुम हो या जैसे तुम हो जाना चाहते हो। दूसरी बात, कोई भी तुमसे बस वही करा सकता है जो करने के लिए तुम आंतरिक रूप से तैयार बैठे ही हो।

तुम मुक्ति के लिए तैयार नहीं हो, कोई गुरु तुम्हें मुक्ति नहीं दे सकता। और तुम माँस के लिए तैयार नहीं हो तो कोई दोस्त तुमको माँस नहीं खिला सकता। होगा अंततः वही जिसके लिए तुम तैयार हो—गुरु बहाना है और कुसंगति भी बहाना है।

गुरु भी कैटलिस्ट (उत्प्रेरक) भर ही तो बनता है; तुम तैयार होते हो, वो आकर तुमसे कहता है, “आशीर्वाद है, आगे बढ़ो। रुको मत, डरो मत।” तैयारी तुम्हारी पूरी होती है, तुम्हारी तैयारी पूरी न हो तो तो तुम गुरु को भगा दोगे, “भाग यहाँ से, आ जाता है टाइम (समय) खोटा करने।” और तुम्हारी तैयारी पूरी होती है, तभी तुम ऐसे उत्सव में जाते हो जहाँ वैसे दोस्त होते हैं, और फ़िर चिकन खाते हो। मैंने बात चिकन तक ही सीमित रखी है मर्यादा का ख़याल रखते हुए। और भी तरह के माँस होते हैं जो दोस्तों के प्रभाव में आदमी भोग लेता है, तो उनकी बात नहीं कर रहा।

आप पूछ रहे हैं, "मेरे मित्रों को मेरा किसी तरह का बदलाव स्वीकार नहीं है, क्या मैं उन्हें त्याग दूँ या उनके साथ हो लूँ?" उनको त्यागना स्वतः हो जाएगा जब आप परिवर्तित हो जाएँगे।

मेरे कमरे में चीटियाँ लगी हुई थीं। मैंने पाया कि कोने में बिस्कुट का एक छोटा सा टुकड़ा पड़ा था। मैं एक-एक चींटी को हटाऊँ या बिस्कुट के टुकड़े को? ये सारी चीटियाँ आपकी ओर तभी तक आ रही हैं जब तक आप बिस्कुट के टुकड़े हैं। ये सारे दोस्त आपकी ओर तभी तक आ रहे हैं जब तक आप में कुछ ऐसा है जो उनके जैसा है। एक-एक चींटी का क्या नाम लेना, क्या विरोध करना? अरे, तुम बिस्कुट हटा दो, चींटियाँ अपने-आप हट गईं।

आप बदल गए तो ये चींटियों की जितनी कतार आपके साथ लगी हुई है, सब हट जाएँगी, खुद हट जाएँगी। आपके ऊपर इल्ज़ाम भी नहीं आएगा, वो ही आपके पास आना बंद कर देंगे। आप उन्हें बुलाते फिरो, वो तब भी नहीं आएँगे, आप पीछा करने देखना, वो तब भी नहीं आएँगे। अभी तो आपकी समस्या यह है कि दोस्त आपको बिगाड़ रहे हैं, फ़िर आपकी समस्या यह होगी कि दोस्त कहीं मिलते ही नहीं, बुलाता हूँ तो भी नहीं आते।

आप बदलो तो सही। आप जब तक वही हो जो आप हो, साधारण सी बात है, सहज, प्रत्यक्ष बात है, आपको वैसा समाज, वैसे दोस्त मिलते ही रहेंगे जैसे आपको मिल रहे हैं। और दोस्तों का स्वार्थ है कि आप वैसे ही बने रहें जैसे आप हो, इसीलिए वो आपका कोई बदलाव स्वीकार नहीं करते। ये तो होगा ही। आप उनसे हो, वो आपसे हैं। तो वो चाहेंगे ही नहीं कि आप बदलो।

कबीर को इसीलिए बोलना पड़ा था न कि जब साधु की संगत में चलते हो तो ये जितने दोस्त-यार और बंधू होते हैं, ये बड़ी अड़चन लगाते हैं। क्यों अड़चन लगाते हैं? क्योंकि तुम बदल गए तो उनका जैसे कोई अंश मिट जाएगा। वो आपका मज़ाक उड़ाएँगे, वो आपसे कहेंगे, “अरे, ये क्या पढ़ रहे हो? ये क्या उठा लिया, उपनिषद् उठा लिए? क्या ये पुराने ज़माने की बातें।”

सीधी सी कहावत है न कि कोई आदमी कैसा है, ये जानना हो तो देख लो कि उसके इर्द-गिर्द कैसे लोग हैं, उसकी संगत कैसी है, " अ मैन इज़ नोन बाय द कंपनी ही कीप्स "। तुम बदलो, और बदलने कि राह में दोस्त-यार बाधा बनें तो जान लो कि दोस्त हैं ही नहीं ये, दुश्मन हैं। बाधा जब तक न बन रहे हों, तब तक तो फ़िर भी ठीक है। जहाँ बाधा बन रहे हों, तहाँ कहो कि अब दिखाई नहीं देना दोबारा।

और सर्वप्रथम ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लीजिए। नए लोग आपकी ज़िन्दगी में न जाने कहाँ से आ जाएँगे, आपको नहीं पता चलेगा। आप डरते क्यों हैं कि ये पुराना समाज त्याग दिया तो अकेलेपन से मर जाऊँगा?

ये हमारी बड़ी समस्या रहती है, हम कहते हैं, "ये ही तो लोग हैं, इन्हीं के साथ तो जीना है। आपका सत्संग तो दो घंटे में ख़त्म, और दो घंटे के बाद ये ही तो मेरा कुनबा है। इन्हीं से तो दाना-पानी, हुक्का-पानी।” नहीं, ऐसा नहीं है। तुम उन सबके साथ पैदा तो नहीं हुए थे न जिनको आज अपना दोस्त-यार बोलते हो? पैदा हुए थे सब इकट्ठे? वो भी तुम्हें जीवन में किन्हीं-किन्हीं जगहों पर, पड़ावों पर मिलते चले गए, और जैसे तुम थे उस कारण सम्बन्ध बनता चला गया। अगर वो मिल सकते हैं तुमको, तो और भी तो मिल सकते हैं?

जब तुम पैदा हुए थे, तब तुम्हें पता था कि इन अमुक लोगों से तुम्हारी दोस्ती हो जाएगी? आज जो तुम्हें बड़े प्राण प्यारे लग रहे हैं, बड़ा याराना है जिनसे, जब पैदा हुए थे तो उनका नाम जानते थे? तो वो भी तो आगे चलकर मिल गए न? जब पैदा हुए थे तो अज्ञात थे वो। तो अज्ञात पर ज़रा श्रद्धा रखो, अभी आगे बढ़ो और भी मिलेंगे। लेकिन मिलेंगे वही जो तुम्हारी श्रेणी के होंगे, तुम्हारी पात्रता के अनुसार ही मिलेंगे लोग तुमको।

पात्रता नहीं है तुम्हारी तो उसी शहर में रह आओगे जिस शहर में कोई बुद्ध होगा, शहर तो फ़िर भी बहुत बड़ा होता है; उसी मोहल्ले मैं रह आओगे जिस मोहल्ले में कोई बुद्ध होगा, मोहल्ला भी बड़ा होता है; उसी घर में रहे आओगे जिस घर में कोई बुद्ध है, और बेखबर मरोगे। उसी घर में रहोगे जिस घर में कोई बुद्ध है, और तुम्हें पता भी नहीं चलेगा किसके साथ रह रहे हो अगर पात्रता नहीं होगी तुम्हारी। और पात्रता होगी तुम्हारी, तो रहते होगे हिंदुस्तान में, और बुद्ध होगा कनाडा में, तुम वहाँ से उसको ढूँढ निकालोगे। कुछ ऐसा संयोग बैठेगा दैवीय कि मिलन हो जाएगा।

साफ़ कह रहा हूँ, पात्रता नहीं होगी तो तुम्हारे सामने से बुद्ध गुज़र जाएगा, सामने से तो अकस्मात् कभी-कभार ही गुज़रता है, ज़िन्दगी भर तुम्हारे साथ रहेगा तो भी तुम्हें हवा नहीं लगेगी कि ये किसके साथ मैंने बीसों-चालीसों साल बिता दिए। तुम अपने ही नशे में रहोगे।

अपनी पात्रता पर ध्यान दो। पात्रता हो गई तुम्हारी, परमात्मा उड़ कर आएगा तुम्हारे पास। बुद्धों की कतार लग जाएगी, तुम्हारे दरवाज़े पर खड़े होंगे। तुम अपनी पात्रता बढ़ाओ।

कई बार तो कहा करता हूँ कि प्रार्थना भी नहीं, पात्रता। बार-बार प्रार्थना मत करो कि परमात्मा तू आ जा, परमात्मा तू आ जा। पात्रता अपनी ऐसी कर लो कि उसको झख मारकर आना पड़े। ‘पाछे-पाछे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर।’ तुम ऐसे हो गए हो कि हरि को पीछे फिरना पड़ रहा है। पात्रता अपनी ऐसी कर लो, प्रार्थना से क्या होगा? प्रार्थना करे जा रहे हो, औकात तुम्हारी नहीं, तुम्हें कैसे कुछ मिलेगा?

ये ऐसी-सी बात है कि तुम अपना दाल का कटोरा लेकर खड़े हो गए हो और बादलों से कह रहे हो, “समुन्दर दे दो।” बड़ी हमारी गहरी प्रार्थना है और तुम रोए जा रहे हो। प्रार्थी भाव पूरा है, और हाथ में क्या है? दाल का कटोरा। तो प्रार्थना से क्या होगा? कटोरा कर लो अपना बड़ा, बड़ा, बड़ा, बड़ा और बड़ा, अब प्रार्थना की ज़रूरत क्या है? आसमान को समाना पड़ेगा तुम्हारे पात्र में।

ऋषि-मुनियों की जो पौराणिक कथाएँ हैं, उनका संकेत समझो। वो एक टाँग पर पाँच हज़ार साल तक नदी किनारे खड़े होकर तपस्या कर रहे हैं। अब यथार्थ में नहीं करी है पाँच हज़ार साल तक, न वो एक एक टाँग पर खड़े थे, न एक टाँग पर खड़ा होना किसी अध्यात्म का सूचक है। लेकिन जब बात बताई जा रही है तो क्यों बताई जा रही है, क्यों कहा जा रहा कि फलाने ऋषि ने या साधक ने एक टाँग पर नदी किनारे खड़े रहकर पाँच हज़ार साल तप किया? एक तरीके से तुमसे यह कहा जा रहा है कि उसने ईश्वर को मजबूर कर दिया।

ध्रुव के सामने ईश्वर को मजबूर होकर आना पड़ा। क्या बात है! क्या साधना कर रहा है लड़का! “हम इंकार कर ही नहीं सकते, जाना पड़ेगा। ऐसी हैसियत है इसकी, ऐसी बात है इसकी कि अब हम न जाएँ तो हमारी तौहीन है। हम न जाएँ तो फ़िर हम ईश्वर न कहलाएँ। हमें अब अपना देवत्व कायम रखना है तो हमें अब ज़मीन पर जाना पड़ेगा, इसके सामने हमें झुकना पड़ेगा।” ऐसे हो जाओ तुम कि परमात्मा आए तुम्हारे पास। डरो मत, अपनी पात्रता बढ़ाओ।

अब राज़ की बात सुनो। पात्रता और परमात्मा एक ही चीज़ है। पात्रता बढ़ती गई, बढ़ती गई, तो परमात्मा आएगा नहीं, आता गया, आता गया। यहाँ कहानियों जैसा नहीं होता। कहानियों में तो यह होता है कि पाँच हज़ार साल बाद शिव ने यकायक दर्शन दिए, “बोलो वत्स, क्या माँगते हो?”

यहाँ दूसरा है मामला। जैसे-जैसे तुम्हारा पात्र बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे भरता जाता है। जैसे बारिश लगातार हो ही रही हो, तुम्हारा पात्र बढ़ता जा रहा है और भरता जा रहा है। पाँच हज़ार साल का इंतज़ार नहीं करना है; पात्रता ही परमात्मा है। और बिना परमात्मा के आशीर्वाद के पात्रता तुम्हारी बढ़ेगी भी नहीं, तो वो ही प्रार्थना।

पात्रता ही प्रार्थना है और पात्रता ही परमात्मा है। अपनी काबिलियत पर ध्यान दो। “मिल भी गया तो सम्भालूँगा कैसे? काबिल हूँ?,” ये पूछ करो।

शिविर में आए थे आप, इतना कुछ तो दिया। कितना बचा है अभी तक? पात्रता इसलिए ज़रूरी है। छेद-ही-छेद हैं पात्र में। इतना कुछ तो दिया, अब? बह गया, बचा कितना है? पात्र नहीं है, पाइप है, सालों से गुरूजी उसमे डालें जा रहे हैं एक तरफ और वो विशुद्ध जितना डाला है, उतने ही परिमाण में उधर से निकल रहा है।

हम ऐसे पात्र हैं कि एक बूँद की हेर-फेर नहीं करते। जितना मिलता है पूरा निकाल देता है। कोई हम पर गबन का इल्ज़ाम न लगाए। हमने कुछ अपने लिए नहीं रखा। गुरूजी से हमें जितना मिला, पूरा हमने निकाल दिया। संचय करने की तो हमारी वृत्ति ही नहीं, महाअपरिग्रही हैं हम। शास्त्रों ने कहा है न परिग्रह नर्क का द्वार है। और जो चोर हो, वही संचय करे, तो हम कुछ बचाकर नहीं रखते। जो मिलता है, सब उलीच देते हैं।’ ये तो हालात हैं। अब इन हालातों में तुम कहो कि ये चाहिए और वो चाहिए।

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