प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम! मैं तीस वर्ष का हूँ। एक दशक से ज़्यादा से बाइपोलर डिसॉर्डर (दोध्रुवी विकार) की समस्या से जूझ रहा हूँ। ओशो जी द्वारा सुझाई विधियों ने कुछ मदद भी की। परिवार के साथ ही रहता हूँ। कोई काम नहीं करता हूँ। आप कोई विधि बताएँ। परिवार वाले बहुत परेशान रहते हैं।
आचार्य प्रशांत: देखो, मन की और मस्तिष्क की बीमारियाँ अलग-अलग होती हैं। मस्तिष्क की जाँच; मैं उम्मीद करता हूँ, तुमने चिकित्सकों से करा ली होगी। अगर मस्तिष्क के तल पर, मानें भौतिक शरीर के तल पर कोई समस्या निकली है, तो उसका इलाज तो भौतिक ही होगा। चाहे दवा हो, इंजेक्शन हो, सर्जरी (शल्य चिकित्सा) हो, जो भी हो। उसका इलाज तो भौतिक ही होगा। और आमतौर पर जो मनोरोग होते हैं, उनमें नब्बे-पिच्चानवे फ़ीसदी जो समस्या होती है वो मस्तिष्क के तल पर नहीं होती है, वो मन के तल पर होती है।
मन की समस्या होती है और एलोपैथी मस्तिष्क का इलाज किये जाती है। ये बात ही बड़ी बचकानी होती है।
मस्तिष्क एक स्थूल अंग है शरीर का। और मन? मन सूक्ष्म है। मस्तिष्क को तुम छू सकते हो। मन को नहीं छू सकते। मस्तिष्क का तुम ऑपरेशन कर सकते हो। मन का नहीं कर सकते। अधिकांश मनोरोग, बीस में से उन्नीस-अठारह, मस्तिष्क के तल पर नहीं होते। वो मानसिक होते हैं, मानसिक। मन के तल पर होते हैं।
हाँ, तुम मस्तिष्क को कुछ गोलियाँ वगैरह दे दोगे तो उन रोगों की मस्तिष्क के द्वारा जो अभिव्यक्ति होती है, वो अभिव्यक्ति रुक जाएगी या उस अभिव्यक्ति का दमन हो जाएगा। लेकिन रोग मौजूद रहेगा। समझ रहे हो?
मन है, मन का प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ता है। मन का प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ता है। रोग मानसिक है। तो वो जो मानसिक रोग है, उसका प्रभाव मस्तिष्क पर दिखाई देता है। अब आप मस्तिष्क को देख रहे हो, मस्तिष्क पर कुछ आप दवाओं का प्रयोग कर रहे हो। ये सब काम क्या करेंगे? ये ऐसा करेंगे कि मस्तिष्क पर जो प्रभाव हो रहे हैं मानसिक रोग के; ये उन प्रभावों को, उन लक्षणों को, दमित कर देंगे। इससे आपका इलाज नहीं हो रहा।
ठीक है?
तो शरीर में जो कुछ हुआ हो उसके लिए शारीरिक दवाई खा लो। लेकिन मन में जो कुछ हुआ हो, उसका तो जो इलाज है, वो अध्यात्म ही है।
कबीर साहब की साखी है न, दोहा कि जिसको विरह का ज़हर लग गया है उस पर कोई दवाई काम नहीं करती। कहते हैं,
“राम वियोगी ना जिए, जिए तो बाउर होए।”
ये मनोरोगों की ही बात कर रहे हैं। बाउर माने बावला। बावला माने पागल। कहते हैं, “राम वियोगी ना जिए, जिए तो बाउर होए।”
विरह भुवंगम मन लगा। मंत्र ना लागे कोय।। राम वियोगी ना जिए। जिए तो बाउर होए।।
जितने मनोरोगी हैं उन सबको वास्तव में विरह का ही विष लगा हुआ है। इसीलिए उन पर कोई मन्त्र काम नहीं करता। “मंत्र ना लागे कोय।” उन पर कोई मन्त्र काम नहीं करता। उनके जमाने में पहले मन्त्र चलते थे, आज के जमाने में दवाएँ चलती हैं। तब मन्त्र नहीं करते थे, दवाएँ नहीं काम करती हैं। जो काम का वियोगी है, उसको तो राम ही चाहिए। और राम से नीचे तुम उसको दवा खिलाओगे और ये करोगे, वो करोगे, गोलियाँ दोगे तो वो फिर “जिए तो बाउर होए।” वो जीता तो रहेगा पर वो बावरा सा रहेगा, इधर-उधर मुँह फाड़ता घूमता रहेगा, बावला। ठीक है?
तो अध्यात्म में गहरे-गहरे और गहरे प्रवेश करिए। मन की एक ही बीमारी है — आत्मा से दूरी, शान्ति से दूरी, सच्चाई से दूरी। जैसे-जैसे आप अपनी हस्ती के तथ्य के निकट पहुँचते जाएँगे, वैसे-वैसे हस्ती से दूर रहने पर, जो दुख होता है और संताप होता है; जिसका नाम रोग है, वो आपका मिटता जाएगा।
ये बात मैं उन सब लोगों से बोलना चाहूँगा, जो तमाम इस तरह के रोगों से ग्रसित हैं; चाहे वो डिप्रेशन (अवसाद) हो, ऐंग्ज़ाइटी (चिन्ता) हो, ये सब। इन सबके कारण मूलतः आध्यात्मिक हैं। गोलियाँ ले-लेकर के आप इन रोगों के लक्षणों का बस दमन कर देते हैं। रोग कहीं नहीं जाने वाला।
रोग का सम्बन्ध आपकी हस्ती से है। उस हस्ती के केन्द्र को जब तक आप एक सही जगह नहीं देंगे, तब तक आपकी हस्ती रुग्ण ही रहेगी। ठीक है?