प्रश्नकर्ता: मन में एक खालीपन हर समय बना रहता है, और ये गहरा होता जा रहा है। अधिकतर सामान्य कामों में स्मृति रहती है, जीवन के सुख-दुख, उतार-चढ़ाव असर नहीं करते, और ऐसा लगता नहीं कि इस अवस्था के लिए कुछ अलग प्रयास किया था। आचार्य जी, ये कैसी स्थिति है? कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: जैसी भी है, उसमें समस्या क्या है? स्थितियाँ तो आती-जाती रहती हैं, ये स्थिति आपके लिए अर्थ क्या रख रही है?
प्रश्नकर्ता: इस स्थिति में कुछ करने योग्य है हमारे लिए?
आचार्य प्रशांत: जो करना है करिए न!
आपके सवालों के बाद हर पन्द्रह-बीस मिनट में मैं क्या करता हूँ? पानी पीता हूँ। बात ज़ाहिर है, मेरे गले की स्थिति बदलती रहती है न? अगर मैंने आपको उत्तर देने के बाद उठाकर के पानी पिया, तो वो प्यास क्या मुझे उत्तर के बाद अचानक लग आई है? या वो प्यास मुझे पिछले पाँच-दस मिनट से लग ही रही होगी? बोलिए! लग ही रही थी न? तो गले की स्थिति कैसी थी? सूखी। सूखी थी न? उससे उत्तर पर अंतर पड़ा? और पड़ा भी होगा तो थोड़ा-बहुत ही पड़ा होगा।
स्थितियों का काम है बदलते रहना, आपका काम है अपना काम करना। उस स्थिति में कुछ ऐसा हो जो आपको कँपाए-डिगाए दे रहा हो, तो मुझे बताइए। नहीं तो ये तो जगत का विस्तार है, प्रकृति है। प्रकृति सदा गतिमान है, यहाँ तो स्थितियाँ सब परिस्थितियाँ हैं, प्रकृति की स्थितियाँ हैं, वो तो बदलती ही रहेंगी, उनकी चर्चा क्या करनी है!
हमने बात करनी शुरू की थी, तब घड़ी की क्या स्थिति थी? वो अभी भी वैसी ही है? दोनों काँटे सो गए? कहिए! तो स्थिति तो बदलती रहेगी। बाहर की स्थिति समझिए उसी दिन रुकेगी जिस दिन घड़ी का काँटा रुक जाए। अंदर की स्थिति वही रहे जो होनी चाहिए — एक सूक्ष्म मौज। हुड़दंग वाली नहीं, सूक्ष्म मौज,*सटल डिलाइट*।
एक होता है अट्टहास मारना, हड़हड़ाकर हँस दिए, बोतल-गिलास सब गिरा दी, पीने के बाद होता है अक्सर। और एक होता है अतिसूक्ष्म हास्य, मुदितस्मिता कहते हैं उसको, होंठों के कोने वाली मुस्कान, कि गौर से न देखो तो पता भी न चले कि सामने वाला मुस्कुरा रहा है, और जो मुस्कुरा रहा है उसे खुद भी नहीं पता है कि वो मुस्कुरा रहा है। होंठों के किनारे मुस्कुरा रहे हैं, आँखों के कोने मुस्कुरा रहे हैं।
जानते हो इस मुस्कुराहट में खास बात क्या है? तुम सो रहे हो, तुम ठहाका नहीं लगा सकते, लेकिन अगर बोधवान हो तो तुम सोते समय भी मुस्कुरा सकते हो। एक मुक्त पुरुष की पहचान ये होती है कि वो सोते समय और खूबसूरत हो जाता है, वो निद्रा में भी मुस्कुराता है। नहीं, बहुत ज़ोर से नहीं, कि दाँत दिख रहे हैं, वैसे नहीं; अतिसूक्ष्म मुदिता।
बाहर जो चल रहा है चल रहा है, तुम सो रहे हो, तुम्हें क्या पता बाहर क्या चल रहा है! स्थितियाँ बदल रही हैं कि नहीं? सोए थे तब रात थी, और अभी क्या हो गया है? सवेरा। स्थिति कुछ बदली है कि नहीं बदली है? सोए थे तो सड़क पर कोई नहीं था, अभी क्या आ गया है? *ट्रैफ़िक*। स्थितियाँ कुछ बदली हैं कि नहीं बदली हैं? तुम्हारी मुस्कान नहीं बदली है। क्यों नहीं बदली? क्योंकि बड़ी सूक्ष्म है, भीतर की है, चुपके-चुपके मुस्कुरा रहे हो। किसी को क्या, तुम्हें ही नहीं पता तुम मुस्कुरा रहे हो। फ़ेसबुक वाली मुस्कुराहट नहीं, अपनी वाली।
एक बहुत झीनी सी मुस्कान का नाम है आत्मा — ‘बाहर जो है सो है, हमें क्या!’ तुम सो रहे थे, पंखा चार पर चल रहा था, किसी ने आकर तीन पर कर दिया, स्थिति बदल दी न? तुम मुस्कुरा रहे हो।
पता भी न चले चल क्या रहा है, अच्छी बात है। संज्ञान ही नहीं लेना है चल क्या रहा है, अच्छी बात है। ऐसा तो नहीं है कि तुम संज्ञान न लेते हो और लोग आकर कहते हों कि बड़े आजकल लापरवाह हो रहे हो, कुछ खोज-खबर नहीं रखते, दुनिया की ओर से एकदम कटे जा रहे हो। छोड़िए!