मन इतना अशांत क्यों रहता है?

Acharya Prashant

7 min
1.1k reads
मन इतना अशांत क्यों रहता है?

मन इतना अशांत क्यों रहता है?

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, आज मेरा प्रश्न फिर से मुझसे ही जुड़ा हुआ है, कि मेरा मन इतना अशांत क्यों रहता है। एकसाथ मेरे दिमाग में बहुत चीज़ें चलती रहती हैं, मेरे दिमाग में कुछ-न-कुछ चलता ही रहता है, मैं ध्यान केंद्रित नहीं कर पाती सिर्फ़ एक चीज़ पर। जैसे मैं सुनती तो रहती हूँ, पर मेरे दिमाग में बहुत सारी चीज़ें चलती रहती हैं। तो मैं क्या करूँ कि किसी एक चीज़ पर ध्यान लगा पाऊँ?

आचार्य प्रशांत: बच्चों को कभी स्कूल से लेने तो गई होंगी? और बच्चों की अभी-अभी छुट्टी हुई है स्कूल से, और बहुत सारे बच्चे एकसाथ बाहर को निकल पड़े हैं, कुछ तो दौड़ ही पड़े हैं। और सब एक ही उम्र के हैं करीब, और एक सी ही सबने यूनिफॉर्म पहन रखी है, और उन्हीं के बीच में आपके सुपुत्र भी हैं। तो फिर आपकी आँखों की क्या दशा रहती है? वो सौ, दो-सौ, चार-सौ चले आ रहे हैं, अभी-अभी घंटी बजी है, अभी-अभी दरवाज़ा खुला है स्कूल का, और वो सौ, दो-सौ, चार-सौ हैं, एकसाथ बाहर को निकल पड़े हैं। आपकी आँखों की क्या दशा रहती है फिर, कैसे देख रही होती हैं बच्चों को?

देखकर बताइए!

चार-सौ आ रहे हैं आपकी ओर, और आप आई हैं उठाने अपने बच्चे को, और चार-सौ आपको दिखाई पड़े जो आपकी ओर बढ़े चले आ रहे हैं। आपकी आँखों की कैसी दशा रहती है?

प्रश्नकर्ता: जो बच्चा आता है उसको देखती हूँ।

आचार्य प्रशांत: तो अब आप क्या देख रही होती हैं, किसी एक चेहरे को देख रही होती हैं?

प्रश्नकर्ता: सबको।

आचार्य प्रशांत: कैसे देख रही होती हैं, करके बताइए!

वो सामने से चार-सौ बढ़े चले आ रहे हैं, दौड़ रहे हैं, उछल रहे हैं, भाग रहे हैं, एक-दूसरे से बात कर रहे हैं, बीच-बीच में एक दूसरे को धक्का भी दे रहे हैं। आप कैसे देख रही होती हैं उनको?

(ढूँढने की नकल करते हुए) ऐसे ही न?

तो दिन भर मन ऐसा रहता है, है न? दिन भर मन ऐसा रहता है। कभी नज़रें एक चीज़ पर जाकर टिकती हैं, कभी दूसरी चीज़ पर जाकर टिकती हैं, तो कभी तीसरी चीज़ पर जाकर टिकती हैं, कभी चौथी चीज़ पर जाकर टिकती हैं, ठहर कहीं नहीं पातीं। कहीं ठहर नहीं पातीं, माने कोई विशिष्ट है जिसे नज़रें खोज रही हैं, जब वो मिल जाएगा तो नज़र उसी पर ठहर जाएगी।

बात समझ रही हैं?

मन को जब तक एक केंद्रीय आसरा नहीं मिलेगा, एक खूँटा नहीं मिलेगा, तब तक मन बहका-बहका ही रहता है, कभी इधर को भागता है, कभी उधर को भागता है। और उसकी गलती क्या है! उसको वो चाहिए, और उसको लगता है कि सामने जो भीड़ आ रही है, इन्हीं में कहीं वो है जो मुझे चाहिए, तो वो भीड़ में इधर-उधर तलाशता फिरता है। बस ये धारणा मत कर लीजिएगा कि आपको जो चाहिए वो आपको उसी भीड़ में मिल जाना है।

बच्चे वाले उदाहरण में तो बच्चा भीड़ में ही कहीं-न-कहीं मौजूद है, तो वो मिल जाना है। पर जीवन के उदाहरण में आमतौर पर हम जिस भीड़ से सरोकार रख रहे होते हैं, उस भीड़ में वो मौजूद ही नहीं होता जो हमें चाहिए। तो बच्चे वाले उदाहरण में तो पाँच-सात मिनट देखने के बाद आँखें स्थिर हो ही जाती हैं, क्योंकि बच्चा मिल गया। दो मिनट, चार मिनट देखा, फिर दिखाई दे गया अपने बच्चे का चेहरा, और फिर आँखें इधर-उधर नहीं भटकतीं। दिख गया अपना बच्चा, उसको आवाज़ देते हैं, बुलाते हैं। वो आ जाता है, शान्त हो गए, घर पहुँच गए।

पर जीवन में ऐसा नहीं होता कि आप जिस भीड़ में जो वस्तु तलाश रहे हों वो वस्तु उसी भीड़ में मिल जाए। नतीजा ये निकलता है कि भीड़ की एक-एक इकाई को आज़माते हैं हम। सागर की एक-एक बूँद को आज़माते हैं हम, इस आशा में कि इनमें से कोई बूँद तो अमृत निकलेगी। ये हम खयाल ही नहीं करते कि एक ही सागर की बूँदें हैं, जो तत्व एक बूँद का है वही दूसरी बूँद का है। अगर एक बूँद ने हमारी प्यास नहीं बुझाई तो दूसरी बूँद भी नहीं बुझा पाएगी।

आदमी का जीवन अस्तित्वरूपी सागर की अनंत बूँदों को एक-एक कर आज़माते हुए बीत जाता है। जीवन बहुत छोटा है, सागर बहुत बड़ा है। आप लगातार आज़माते चलिए, फिर भी आप कभी भी पूरा नहीं आज़मा पाएँगे एक-एक बूँद को, अभी भी आशा और गुंजाइश बची रह जाएगी। एक चीज़ की कोशिश करेंगे, एक चीज़ से आशा बाँधेंगे, पचास द्वार और खुले रहेंगे जो आपको बुलाते रहेंगे। कहेंगे, ‘आओ-आओ, हम भी ज़रूरी हैं, थोड़ा हममें भी प्रवेश करो, थोड़ा हमें भी आज़मा लो।’

एक काम कर रही होंगी, चार काम और महत्वपूर्ण लग रहे होंगे, और आपके पास कोई पैमाना नहीं होगा ये नाप पाने का कि वास्तव में क्या महत्वपूर्ण है। और जब तक आपके जीवन में वो आ नहीं जाता जो वास्तव में महत्वपूर्ण है, बाकी सब गैर महत्वपूर्ण चीज़ें बराबरी का महत्व लेकर खड़ी रहेंगी। उनमें अंतर कर पाना, उनमें कोई वरीयता स्थापित कर पाना संभव ही नहीं होगा।

आप समझ रही हैं बात को?

घर में कोई बहुत महत्वपूर्ण अतिथि आने वाला हो, तो फिर ये बिलकुल तय हो जाता है न, कि आज कौनसा काम करना है, कौनसा छोड़ना है। और जो काम करने हैं, वो भी किस क्रम में करने हैं, ये अपनेआप तय हो जाता है न? ये सब कैसे तय हो गया?

ये सब इसलिए तय हो गया क्योंकि सबसे पहले जो सबसे महत्वपूर्ण चीज़ थी वो आपने तय कर दी। सबसे महत्वपूर्ण चीज़ ये थी कि आज कोई बहुत खास मेहमान आ रहा है। वो बात एक बार तय हो गई, तो उसके बाद घर के जितने काम हैं उन सबका वरीयता क्रम भी अपनेआप तय हो जाता है। फिर आपको सोचना नहीं पड़ता कि क्या करें क्या न करें, आज दिन भर ये काम करूँ कि वो काम करूँ।

ज़िंदगी में एक केंद्रीय चीज़ तय कर लो, वो एक केंद्रीय चीज़ पूरे जीवन में अनुशासन और व्यवस्था और ऑर्डरलीनेस ला देगी।

अगर आपके जीवन में सुव्यवस्था नहीं है, अगर आपके मन में द्वंद है और दुविधा है, समझ में ही नहीं आता कि ये करें कि वो, क्या महत्वपूर्ण है क्या नहीं, तो इसका ये मतलब है कि जीवन में अभी वो केंद्रीय तत्व इज़्ज़त नहीं पा रहा जिसका वो अधिकारी है। उस केंद्रीय तत्व को इज़्ज़त दीजिए, फिर देखिए जीवन कितना सरल हो जाता है, सब सुलझ जाएगा। पचास काम अगर आप करती हैं, तो उसमें से चालीस तो दिख जाएँगे जो करने के ही नहीं हैं, हटाओ। और जो बाकी दस बचेंगे, उनको भी किस क्रम में करना है, ये बात बिलकुल अपनेआप ज़ाहिर हो जाएगी। पर पहले किसी एक चीज़ को महत्व तो देकर देखिए।

छितराया-छितराया जीवन जीने में मज़ा क्या है? खूँटा गाड़िए, और सही जगह गाड़िएगा। सही जगह ही गाड़ेंगी। अभी तक तो जितना मैं देख रहा हूँ, जितना समझ पाया हूँ, लक्षण शुभ ही हैं। बस आगे बढ़ते रहिए, सब अच्छा होगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories