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मन तुम्हारा पूरा भय से युक्त,कभी मत कहना तुम भय से मुक्त || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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मन तुम्हारा पूरा भय से युक्त,कभी मत कहना तुम भय से मुक्त || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

भय से भक्ति सब करें, भय से पूजा होय

*भय पारस है जीव को*, निर्भय होय न कोय

~ संत कबीर

वक्ता- भय से भक्ति सब करें, भय से पूजा होय भय पारस है जीव को

यहाँ तक तो स्पष्ट ही है कि भय से भक्ति सब करें भय से पूजन होय । आप जो कुछ भी कर रहे हैं उसके पीछे कारण भय ही है । उसी से भक्ति होती है ,प्रीत, पूजा सब उसी से ही है । दिक्कत वहाँ आ जाती है जब कबीर कह देते हैं कि ‘भय पारस है जीव को, निर्भय होय न कोय *।*’ कबीर कह रहे हैं भय तो है ही, हर मन में डर तो है ही ।

मन का अर्थ ही है डरा हुआ होना, मन का अर्थ ही है छोटा होना और जो छोटा है वो हमेशा डरा हुआ ही होगा ।

अपने मिटने की, अपने असुरक्षा की चिंता उसे लगी ही रहेगी। हमारे होने का मतलब ही है डर । कबीर डर की वक़ालत नहीं कर रहे हैं, कबीर कह रहे हैं कि डर तो है ही, भय पारस है जीव को कबीर कह रहे हैं । जो यह डर है, जो ये तथ्य है डर का, उसको ही इस्तेमाल कर लो अपने रूपांतरण के लिए । यह जीवन कि कला है वो डर जो तुम्हें कहीं का नही छोड़ता, वो डर जो ज़िन्दगी को कचड़ा कर देता, तुमने उसी को अपना पारस बना लिया । उसी डर को इस्तेमाल करके, उसी डर को विधि बना कर के, उसी डर पर ध्यान दे कर के उसको समझ कर के, उसके करीब आ कर के तुम कुछ और ही हो गए हो । निर्भय होय न कोय कबीर यहाँ पर इच्छा नही व्यक्त कर रहे हैं कि कोई निर्भय न होय ।

निर्भय नहीं है कोई यह तो तथ्य है क्योंकि जब तक आप कोई है, कुछ भी हैं तब तक निर्भय होने का प्रश्न ही नहीं उठता है आपके होने का अर्थ ही है डर का होना तो फिर क्या कह रहे हैं कबीर कि निर्भय होय न कोय? वो कह रहे हैं कि निर्भय होते हुए भी यह गुमान न पाल लें कि मैं निर्भय हूँ। दिक्कत निर्भयता में नही है, दिक्कत अपने आप को निर्भय मान लेने में है जब आप पूरे तरीके से भय हैं, हैं भय और मानते हैं अपने आप को निर्भय। दोनों बातें हो सकती हैं छोटी बीमारी है अगर आप सिर्फ एक झूठा दावा कर रहे हैं निर्भयता का। ज़्यादा गहरी बिमारी है अगर आपको पता भी नहीं है कि आप भयभीत हैं, इस कारण आप कह रहे हैं कि मैं तो निर्भय हूँ। वो ज़्यादा गहरी बीमारी है। अपने भीतर छुपे हुए भय का पता भी नहीं है, ध्यान से चित्त को कभी देखा ही नहीं, इस कारण ये भ्रम हो गया है कि मुझमें डर नही है ऐसों के लिए कबीर कह रहे हैं कि निर्भय होय न कोय। निर्भय होने कि गलत फ़हमी कोई न पाल ले।

भय मन है, भय जीवन है हमारा और उसकी उपस्थिति को स्वीकार करना, उसके पास जाना, उसको देखना, समझना, यही भय के पार जाने कि विधि भी है। जो भय की उपस्थिति को स्वीकार ही नहीं कर रहा, वो भय के पार क्या जाएगा? जो अपने रेशे-रेशे में बैठे हुए डर से वाकिफ़ ही नहीं है, वो उस डर से मुक्त क्या होगा और देखिये आप कि कबीर ने इसमें कोई विधि नही बताई है भयमुक्त होने की। उन्होंने बस इतना ही कहा है कि तुम जान लो कि तुम समूचे भय ही भय हो।

भय बिन भाव न उपजे, भय बिन होय न प्रीत।

जब ह्रदय से भय गया, मिटी सकल रस रीत।

तुम तो यह देख लो कि तुम्हारा हर एक भाव भय से ही निकल रहा है। कुछ और मत समझ लेना उसे; दावा मत कर देना कि तुम्हें प्रेम हो भी सकता है किसी से। तुम्हारे प्रेम में भी भय है, तुम्हारी घृणा में तो भय है ही तुम्हारे अपनेपन में भी भय है और कह रहे हैं कबीर कि जिस दिन भयमुक्त हो गए वास्तव में; जिस दिन वास्तविकता में भय मुक्त हो गए उस दिन तुम्हारी ये सारी दुनिया ठहर जानी है, घुल जानी है, समाप्त हो जानी है क्यूँकी तुम्हारी इस पूरी दुनिया का केंद्र ही भय है जब ह्रदय से भय गया मिटी सकल रस रीत । जिस नकली दुनिया का केंद्र ही भय हो, वो बचेगी कहाँ जब उसका भय, उसका केंद्र ही चला जाए। कुछ बचेगा नहीं उसमें ।

भय बिन भाव न उपजे, भय बिन होय न प्रीत।

न इसमें भरत्सना है भय की, न इसमें विधि है निर्भय होने की। भय के तथ्य का सीधा-सीधा स्वीकार है। हाँ, हम सब डरे ही हुए हैं; हाँ, हम जो जीवन जीते हैं, वो पूरे तरीके से डर केंद्रित जीवन है और यह बड़ी मज़ेदार बात हो गई है कि जब आप इस बात का एक विनम्र, ईमानदार स्वीकार कर लेते हो तब वही डर आपका पारस बन जाता है। भय पारस है जीव को ; जो डर घुन की तरह पूरे जीवन को चाट जा रहा था वही डर आपका पारस बन गया।

*डर छुपा था तो आपका परम शत्रु था*;*उद्घाटित हो गया, गुरु बन गया आपका।*

उसी ने सब बदल के रख दिया जब वो सामने आया और गलती हम वहीं पर कर जाते है। गलती हम यहाँ पर नही करते कि हम डरे हुए हैं गलती हम उस डर पर पर्दा डालने में कर जाते हैं। ईमानदारी से स्वीकार नहीं करते है कि डर है, बेधड़क हो कर के देखते नही हैं की डर कहाँ-कहाँ बैठा है। शर्म आती है हमें यह देख लेने में कि हमारा प्रेम भी डर है। दिक्कत वहां पर है। डर में नहीं है, डर के लिए तो कह रहे हैं कबीर कि डर परम गुरु, डर पारस, डर सार और कह रहे हैं कि डरत रहे सो उबरे गाफ़िल खाई मार । ये मत समझ लीजिएगा कि कबीर कह रहे हैं कि डरते रहो ,डरते रहो तभी उबरोगे। डरते तो तुम हो ही, पर जो ये कह सके कि फिर डर गया, फिर डर गया, फिर डर गया वो उबर जाएगा।

जो यह कहता रहे कि डूब रहा हूँ, डूब रहा हूँ, डूब रहा हूँ, शायद उसी के तरने कि कोई सम्भावना बनेगी। गाफिल खाई मार जो गलत फ़हमी में बैठा है, जो भ्रमों में बैठा है और भ्रमों का भ्रम यह है कि मेरे जीवन में भय नहीं है। भय है, जहाँ भी है ध्यान से उसको देखिये, उसके होने को देखिये, उसकी प्रणाली को देखिये और कुछ विशेष करने की ज़रूरत नही है। उसके करीब जाना, उसका अवलोकन करना ही काफी होगा सब कुछ बदल जाएगा ‘*डर पारस डर सार*।’

शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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