प्रश्नकर्ता: सर, एक अच्छी पढ़ाई करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: जो अभी कर रहे हो, बेटा। अभी क्या कर रहे हो? तुमने सवाल पूछा, 'अच्छी पढ़ाई करने के लिए क्या करना चाहिए?' अभी क्या कर रहे हो?
प्र: पढ़ रहे हैं।
आचार्य: हम जान ही तो रहे हैं न? पढ़ने का मतलब है 'जानना'। जान ही तो रहे हैं अभी। ध्यान से बैठो हो, बात कर रहे हो, सुन रहे हो और जब मन में उत्सुकता उठ रही है, तो उस उत्सुकता को दबा नहीं रहे हो, पूछने की कोशिश कर रहे हो, जानने की कोशिश कर रहे हो बस यही है।
बहुत साधारण बात है, बड़ी सरल है। उनमे कोई विशेष राज़ है ही नहीं। बस जैसे अभी उठकर सवाल पूछ लिया न, ऐसे ही बने रहना अगले तीन साल भी, और जीवनभर भी। जब भी मन में सवाल उठे तो उसे दबा मत देना, जानने की कोशिश करना, बात को समझने की कोशिश करना, जो मौका मिले उसका फ़ायदा उठाना पूरा। अभी मौका था सवाल पूछने का, तुमने पूछ लिया बस यही है 'जानना', यही है पढ़ाई।
मैं जानना चाहता हूँ, समझना चाहता हूँ—चीज़ें कैसे काम करती हैं? ये मशीन कैसे काम करती है? इस केमिकल (रसायन) का इस केमिकल पर क्या प्रभाव पड़ता है? यह प्रोसेस (प्रक्रिया) कैसे चलता है? बस यही है 'पढ़ाई'। एक उत्सुकता, जानने की चाहत, ऐसे ही बस।
समझ गये न?
प्र: क्या कोई सिर्फ़ पढ़ाई करके सफलता प्राप्त कर सकता है?
आचार्य: जो भी आदमी सफलता पाने के लिए पढ़ाई करेगा, सफलता तो पता नहीं उसे मिलेगी कि नहीं, पढ़ भी नहीं पाएगा। तुमने कहा, ‘सिर्फ़ पढ़ाई करके सफलता प्राप्त कर सकता है।‘ तुम्हारा विचार यह है कि मैं कुछ ऐसा जवाब दूँगा कि नहीं पढ़ाई के अलावा दो-चार चीज़ें और जरूरी हैं सफलता के लिए। मैं कह रहा हूँ, 'पढ़ाई, सफलता के लिए थोड़े ही की जाती है, बेटा।' अपने मन से यह भाव बिलकुल निकाल दो कि तुम सफल होने के लिए यहाँ आये हो।
तुम सफल होने यहाँ नहीं आये हो, तुम यहाँ पढ़ने आये हो, और पढ़ो। तुम यहाँ पढ़ने आये हो, और पढ़ो। उस पढ़ाई से सफलता अपनेआप निकलेगी। यूँ कहो कि पढ़ना ही सफलता है, पढ़ना ही सफलता है। सफलता कोई पढ़ाई से अलग थोड़ी है। अभी तुम यहाँ बैठे हो, तुम्हारी सफलता क्या है? अगर अभी यहाँ बैठे हो तो तुम्हारी सफलता क्या है?
प्र: आपको सुनना।
आचार्य: तो बस यही है और क्या है? सुनकर के कहीं आगे थोड़ी ही मिलेगी सफलता, सुन रहे हो यही सफलता है। अगर ध्यान से सुन लोगे तो हो गये सफल। अब एक-एक कर्म में, जो सुना है, जो समझा है, उसकी छाप मिलेगी। जो कुछ भी करोगे उसमें आज जो जाना है, उसकी छाप मिलेगी और बेहतर हो जाएगा, हो गये सफल। तुम यहाँ इसीलिए नहीं आये हो कि कभी भविष्य में सफलता मिलेगी। तुम अभी जहाँ बैठे हो, वहीं सफल हो।
पढ़ाई, सफलता की ख़ातिर नहीं की जाती, पढ़ाई अपनेआप में मूल्यवान है। पढ़ाई अपनेआप में मूल्यवान है। पढ़ाई कोई सड़क नहीं है जो किसी मंज़िल तक जाती है। पढ़ाई अपनी मंज़िल ख़ुद है।
समझ रहे हो बात को?
इसीलिए मत पढ़ना कि पढ़कर आगे कुछ मिल जाएगा। पढ़ रहे हो, यही सफलता है। पढ़ना आप अपना रिवॉर्ड (पुरस्कार) है। जानना अपनेआप में अपना फल ख़ुद है, उससे आगे कोई और फल नहीं मिलेगा। और जो, मज़े की बात है कि जो पढ़ लेता है, डूबकर के उसको फल की चिन्ता नहीं करनी होती है। उसको पढ़ने में भी आनन्द मिला और आगे भी और आनन्द मिलता ही जाता है, नयी राहें उसके लिए खुलती जाती हैं।
जो अभी कर रहे हो उसको ध्यान से करो बाक़ी और कोई सफलता नहीं है। और जब मैं कह रहा हूँ, 'जो भी कर रहे हो', तो उसका आशय सिर्फ़ पढ़ाई से नहीं है। कैम्पस में हो तो हर समय पढ़ते तो नहीं रहोगे न! खेलोगे भी, कूदोगे भी, नाचोगे भी। जो भी कर रहे हो, उसको मज़े में करना वही सफलता है।
तुम तीन साल सिर्फ़ पढ़ ही पढ़ नहीं पाओगे भाई, कितना पढ़ोगे? बहुत पढ़ना होता भी नहीं है। जो ध्यान से पढ़े उसको बहुत ज़्यादा नहीं पढ़ना पड़ता। अगर तुमको दस-बीस घंटे पढ़ना पढ़ रहा है रोज़ तो उसका अर्थ यही है कि ध्यान कहीं ओर है। नहीं तो इतना नहीं पढ़ना पड़ेगा।
समझ रहे हो?
जीवन को पूरे तरीक़े से जियो। यहाँ पर कई तुमको सुविधाएँ उपलब्ध हैं। सबसे पहले तो ये इतना सा बड़ा मैदान मिला हुआ है। ये मैदान तुम्हें क्या लगता है, तुम्हें हर जगह मिल जाएगा जीवन में? आओ दिल्ली में रहो, गुड़गाँव में तब पता चलेगा कि इतना बड़ा मैदान कितनी बड़ी नियामत होती है। और ख़ाली समय कितनी बड़ी बात होती है जो यहाँ पर तुम पाँच बजते ही ख़ाली हो जाते हो।
पाँच बजे ख़ाली भी हो और इतना बड़ा मैदान भी है यही जन्नत है। दौड़ो, भागो, खेलो, कूदो, लेटो, लोटो जो करना है करो। यही मौका है, उसका पूरा फ़ायदा उठाओ।
प्र: रात को जब पढ़ने बैठता हूँ तो तीस मिनट तक मन लगता है उसके बाद नींद आने लगती है। लोगों ने चाय पीने की सलाह दी तो मुझे उसमें चाय पीने की आदत लग गयी। लेकिन तब भी कोई समाधान नहीं मिला।
आचार्य: जब नींद आये तो सो जाओ।
प्र: तो सर, मैं बहुत सोता हूँ।
आचार्य: कितना सोओगे, उठना तो कभी न पड़ेगा। ज़्यादा सोओगे, सोने से सिरदर्द हो जाता है। एक-आध बार हुआ है कि मैं दस-दस, बारह-बारह घंटे सो लिया और जब उठो तो सिर भारी हो जाता है। एक हद से ज़्यादा तो सो भी नहीं सकते। देखो, मन पर सवाल पूछा है तुमने। क्या नाम है(प्रश्नकर्ता से नाम पूछते हैं)?
प्र: इरफ़ान।
आचार्य: इरफ़ान, तुम्हारा सवाल जो है वो मूलतः मन का सवाल है कि यह मन जो है हमेशा इधर-उधर करता है। मैं चाहता हूँ कि पढ़ूँ और मन चाहता है कि कुछ और करे। मन चाहता है कुछ और करे। अब मन के साथ दोस्ती करनी पड़ेगी। तुम मन के विरूद्ध जाकर के बहुत दूर नहीं जा सकते। मन से दोस्ती करनी पड़ेगी तो दो-तीन बातें हैं, ध्यान में ले लो। बैठ जाओ(प्रश्नकर्ता से कहा)।
पहली — मन को हमेशा उपयुक्त वातावरण दो। तुम रात को खाने के बाद पढ़ने बैठोगे तो नींद आएगी यह बात पक्की है। तुम रात को खाने के बाद पढ़ने बैठोगे, नींद आएगी बात पक्की है। तुम पढ़ने बैठे हो और सामने लैपटॉप खुला है और उसमें दो-तीन टैब्स खुले हुए हैं, ध्यान उधर को जाएगा, बात पक्की है।
तुम पढ़ने बैठे हो और सामनें मोबाइल रखा हुआ है और उसमें चैट की विन्डो भी खुली हुई है, ध्यान उधर जाएगा, बात पक्की है। तुम ऐसी जगह पर पढ़ने बैठो हो, जहाँ पर बहुत सारे लोगों का आना-जाना है और आवाजें आ रही हैं तो ध्यान बँटेगा बात पक्की है। मन का जो स्वभाव है, उसको जानना होता है, उसके अनुकूल काम करने होते हैं। तुम मन से बहुत देर तक लड़ नहीं सकते।
तो पहली बात मन को एक अनुकूल वातावरण दो। अपने मन को देखो कि किन परिस्थितियों में वो इधर-उधर भागता है, वो परिस्थितियाँ रखो ही मत। तुम जानते हो कि अगर गाने सुनता है मेरा मन तो गाने की तरफ़ भागता है। तो तुम जहाँ पढ़ रहे हो वहाँ गाने की आवाज नहीं आनी चाहिए।
समझ रहे हो बात को?
तुम जानते हो अच्छे से कि इतने बजे के बाद मेरा मन सोने को होता है तो उतने बजे के बाद पढ़ने का कार्यक्रम नहीं बनना चाहिए, उससे पहले, उससे इधर-उधर बनना चाहिए। यह तो हुई पहली बात कि मन को एक अनुकूल वातावरण दो।
दूसरी बात — उसके बाद भी जब मन माने न, एक सीमा पर आकर के मना कर दे तो मन से समझौता कर लो। कह दो, 'ठीक, तूने बहुत देर तक मेरी बात मानी। दो घंटे, ढाई घंटे तू पढ़ लिया। अब तू कह रहा है, 'सोना है। तो तेरी बात मानूँगा।‘ क्योंकि तुम मन ही हो और मन के विरुद्ध जाकर के तुम नहीं जीत पाओगे। मन से लड़ने का मतलब यही है कि जैसे एक हाथ से दूसरे हाथ लड़ रहा हो। कोई जीत नहीं सकता इसमें।
तुम मन ही हो। पहला जो कदम है उसको ध्यान से समझा? मन को अनुकूल वातावरण दो। मन और शरीर जुड़े होते हैं। शरीर ऐसा रखो जो स्वस्थ है। एक स्वस्थ शरीर बहुत जल्दी इधर-उधर विक्षिप्त नहीं होता। दौड़ा करो, थोड़ी मेहनत किया करो, शरीर को स्वस्थ रखो। शरीर स्वस्थ, मन स्वस्थ। मन जिन दिशाओं में भटकता है, उन दिशाओं से थोड़ा सा दूर रहो। मन जिस समय पर आलसी हो जाता है, उस समय से बचो।
मन जो खाना खाकर के सोने-सोने को होने लग जाता है, उस तरीक़े के भोजन से बचो। अगर जानते हो कि नहा लेने के बाद बिलकुल जगा- जगा, खुला हुआ, ताज़ा, होशमन्द अनुभव करता हूँ, तो पढ़ने से पहले एकबार नहा लो।
समझ रहे हो न?
अपने मन को देखो कि वह कैसा है। और उसको, उसके अनुकूल ही वातावरण दो। उस वातावरण के बाद भी जब वो माने न, तो फिर कह दो, 'ठीक, तेरी ही बात आगे रख दी, तेरी ही बात आगे रख दी। अब तूने कह दिया कि तुझे सोना है, तो चल सो ही लेते हैं।' पर अलार्म लगा लेंगे।
तू सोना चाहता है, मैं जगना चाहता हूँ। तेरी बात आगे रखा, सोने चले गये, दो घण्टे सो ले, ठीक है, इतना काफ़ी है? हाँ, काफ़ी है। चलो, दो घण्टे बाद का अलार्म लगा लेते हैं। दो घण्टे के बाद फिर एक घण्टे पढ़ो, दो घण्टे पढ़ो। फिर झपकी आने लगे, फिर सो लो आधा घण्टा। ऐसे ही काम चलेगा, उससे लड़ के तुम नहीं जीत सकते।
उसको अनुकूल परिस्थितियाँ दो और दूसरा उसके साथ समझौता करके चलो, यही तरीक़ा है।
प्र: सर, जैसे किसी सब्जेक्ट (विषय) को याद कर रहे होते हैं और अगर उसको बीच-बीच में पढ़ना छोड़ देते हैं। तो सात-आठ दिन बाद फिर से पढ़ने बैठते हैं तो भूल जाते हैं। पूरा नहीं भूलते लेकिन ज़्यादातर चीज़ें भूल जाते हैं। लेकिन हम किसी चीज़ को या किसी घटना को अपनी आँखों से देख लेते हैं तो वह बहुत दिनों याद रहती है, ऐसा क्यों?
आचार्य: देखो, आँखों से भी देखी हुई हर घटना बहुत दिनों तक याद नहीं रहती है। मुझे बताओं कि कल तुमने आँखों से क्या- क्या देखा चौबीस घण्टे में?
प्र: आचार्य जी, ज़्यादातर चीज़ें।
आचार्य: नहीं, मुझे बताओ न। कल का ही बता दो कि कल तुमने दिनभर क्या देखा आँखों से चौबीस घण्टे में, क्या याद है? आँखों से देखना भर इस बात का प्रमाण नहीं है कि तुमको वह याद ही हो जाएगा। इतनी चीज़ें आँखों से देखते हो उसमें से कितने प्रतिशत याद रहती हैं? कुछ भी नहीं। आज से बस चार दिन पहले बता दो क्या-क्या देखा था? याद है?
प्र: नहीं, सर।
आचार्य: बैठो(प्रश्नकर्ता से बैठने को कहा)। बात आँखों से देखने की नहीं है। स्मृति में भी तलें होती हैं, सतहें होती हैं। जिस बात पर तुमने गहराई से ध्यान दे दिया, गहराई से ध्यान दे दिया, स्मृति में भी वह बात गहराई से चली जाती है। और जो बात तुम ध्यान नहीं दे पाये जिस बात पर, वह बात स्मृति में भी नहीं जाती। तो तुमको कितना याद रहता है, बड़ी मज़ेदार बात है, कितना याद रहता है, वह भी इसी बात पर निर्भर करता है कि तुम उसपर ध्यान कितना दे रहे हो।
और अगर तुम पाते हो कि तुमको कुछ याद नहीं रह रहा है तो उसका कारण यह है कि तुमने उसपर ध्यान नहीं दिया था। ध्यान का क्या अर्थ है? ध्यान का अर्थ है यह किताब रखी है सामने, तुम उसमें कुछ पढ़भर लो तो वो बात बड़ी सतही है। अब तुमनें कुछ पढ़ा और जो पढ़ा उसपर थोड़ा एनालायसिस (विश्लेषण) भी किया, उसको ड्राइव (प्रयोग) करने की कोशिश की, थोड़ा उसपर हाथ-पाँव चलाया, अब वो बात नहीं भूलेगी भाई, कभी नहीं भूलेगी।
जो ही बातके साथ तुम गहराई से शामिल हो सको, वो तुमको नहीं भूलेगी। उदाहरण दूँ? तुम क्लास (कक्षा) में पढ़ रहे हो और अपना ऊँग रहे हो और जो भी कर रहे हो, तभी टीचर कहता है, 'चलो, ब्लैकबोर्ड पर आओ और ये वाला फॉर्मूला लिखो। वो फॉर्मूला तुमको याद नहीं है और तुम आते हो, लोग हँसते लग जाते हैं और ये और वो और तुम्हें बड़ा ध्यान देना पड़ता है क्या है, कैसा नहीं है। किसी तरीक़े से करके तुम वो फॉर्मूला लिख देते हो। वो फॉर्मूला अब तुम ज़िन्दगी भर नहीं भूलोगे। ये फॉर्मूला अब तुम ज़िन्दगी भर नहीं भूलोगे।
समझ रहे हो न?
क्योंकि यह जो घटना घटी, ये बड़ी गहराई में घट गयी और जो टीचर बोल रहा था और तुम बैठे हुए थे, ये बड़ी सतही- सतही सी चीज़ आ रही थी, ऊपर-ऊपर से पानी बहा जा रहा था। जिस भी चीज़ में तुम गहराई से शामिल हो जाओगे वो आसानी से भूलेगी नहीं। वो याद रह जाएगी। किताब के साथ शामिल होना सीखो। दूर- दूर से मत देखो, अच्छा क्या लिखा है? घुसो उसमें पूरे तरीक़े से। ख़ुद उसे करके देखो। हाथ में एक पेन होना चाहिए, एक पेपर होना चाहिए, ख़ुद उसे करके देखो। जितना ख़ुद करोगे उतनी बात में गहराई आएगी, जितनी गहराई आएगी उतनी स्मृति में उतनी गहरी जाएगी। ठीक है?